अप्रैल 14, 2010

THE CPI WORKERS COURTED ARREST IN HARYANA :Left cadres hold protest

CHANDIGARH, April 8

Left cadres hold protest in all over haryana . Activists of the Left parties today staged a demonstration and laid a siege to the main post office building here against the rising prices of essential commodities.

Cadres of the CPI, CPM, All-India Students Federation (AISF), All-India Democratic Women Association (AIDWA) and the Democratic Youth Federation of India (DYFI) assembled at the Town Park in the morning.

Among them were Swaran Singh Virk, State council member of the CPI, Raj Kumar Shekhupuria, district secretary of the CPM, Jai Chand Saharani, district secretary of the CPI, Balbir Kaur Gandhi, district secretary of the AIDWA, Roshan Suchan, state convener, AISF, and several other leaders.

From the park, they marched towards the post office building and laid a siege to it for over two hours.

During this period, traffic on the road opposite the post office remained blocked.

“The Congress-led government at the Centre is responsible for the sp[iralling prices of essential commodities, particularly food items,” alleged Virk, while addressing the workers.

He alleged that the government had given a free hand to hoarders and profiteers, leaving the poor at their mercy.

Roshan Suchan alleged that the condition of the poor was deteriorating due to the “anti-poor” policies of the government. Poor implementation of NREGA and weakening of the public distribution system had added to the woes of the poor.

The workers later courted arrest. They were taken to the Police Lines in buses and let off.

Fatehabad:Activists of Left parties held a demonstration in front of the Bharat Sanchar Nigam Limited building here.

A meeting of workers was held under Krishan Swaroop Gorakhpuria, senior CPM leader and state vice-president of the All-India Kisan Sabha. Harpal Singh, a former MLA, Ram Kumar Bahbalpuria, district secretary of the CPM, Anita Kranti, district secretary of the AIDWA, and several other leaders participated in the demonstration. Gorakhpuria said wven as the prices of essential commodities were soaring, the central government had increased the price of petrol and diesel.

The agitators courted arrest. They were let off on the outskirts of the town on the Hisar road. Activists of the Left parties court arrest against rising prices at Sirsa on Thursday. Photo: Amit Soni

SONEPAT: Hundreds of activists of the CPM and the CPI led by district unit secretaries, SN Solanki and Daryao Singh, respectively, gheraoed the district post office in protest against the rising prices of essential commodities and raised slogans against the central government on Thursday.

The activists criticised the categorisation of the poor for the public distribution system and demanded that the universal PDS be re-introduced.

They demanded that the Rural Rozgar Guarantee Scheme be extended to slum areas in towns on the pattern of Triupura and Kerala.

अप्रैल 07, 2010

आदिवासी अंचलों में नक्सलवाद: प्रशासनिक हिकारत और शोषण का परिणाम, ग्रीनहंट: मध्यकालीन तांडव,

बस्तर के दंतेवाडा में नक्सलियों के हाथों सीआरपीएफ के लगभग 80 जवानों को बेरहमी से मौत के घाट उतारे जाने के कारण अब सरकार और नक्सली दोनों ही खेमों के बीच लडाई के पाले साफ-साफ खिंच गए हैं। इसे नक्सलियों का रणनीतिक प्रतिवाद माना जा सकता है। इसके अलावा उन्होंने इस जघन्य हमले के द्वारा अपने बीच फूट पड़ने, बड़े नेताओं की गिरफ्तारी से काडर में घबराहट और दिशाहीनता तथा आदिवासियों द्वारा उनका समर्थन करने से हाथ खींच लेने की खबरों का भी प्रतिहिंसक जवाब देने की कोशिश की है। दूसरी तरफ केंद्रीय गृहमंत्री पी चिदंबरम द्वारा इस निंदनीय हत्याकांड को सीआरपीएफ की रणनीतिक चूक बताकर पल्ला झाड़ लेने की कोशिश भी नक्सलियों के हौसले बुलंद ही करेगी। नक्सली शायद यह भी जता रहे हैं कि ग्रीन हंट जैसे अभियान चलाकर सरकार उनके ही गढ़ में उन पर हावी नहीं हो सकती,  लोकतंत्र के लिए यह बहुत बुरी खबर है, लेकिन सरकार को यह बात समझ में नहीं आ रही कि नक्सली तो सशस्त्र क्त्रांति के घोषित हामी हैं (हालांकि इससे वह सही नहीं हो जाते), पर गांधी के सिद्धांतों पर चलने वाली सरकार को क्या हो गया है। आदिवासी कल्याण और जनजातियों की रक्षा का दम भरने वाली सरकार की यह कैसी सोची-समझी रणनीति है और ऐसे कौन से उनके सलाहकार हैं, जो आदिवासियों और उन इलाकों की तासीर ही नहीं जानते-समझते। वे कैसे नहीं जानते कि गोली चाहे जिस तरफ से चले, गिरेगा सिर्फ आदिवासी। सिर्फ उसी का खून बहेगा। नक्सल प्रभावित दुर्गम क्षेत्रों में लड़ाई आसान नहीं है। वहां जंगल वार के जानकार चाहिए, इसीलिए नागालैंड का विशेष सशस्त्र बल और अ‌र्द्धसैनिक दस्ते इन इलाकों में तैनात है। सोचिए, क्या नगा आदिवासी नहीं हैं? मिजो बल में किनकी बहुतायत होगी? नक्सलियों का साथ देने वाले आदिवासी ही हैं। ऐसे में कितना आदिवासी खून बहेगा और ऐसे खून-खराबे के बाद क्या आदिवासी कभी मुख्यधारा से जुड़ पाएगा। देश में करीब आठ करोड़ आदिवासी हैं यानी देश की कुल आबादी का लगभग 8 प्रतिशत। जहां आज मुठभेड़ हुई है, वह अति नक्सल प्रभावित छत्तीसगढ़ का सर्वाधिक संवेदनशील इलाका है। राज्य के कुल भूभाग में से 44 फीसदी वनक्षेत्र है और उसी में आदिवासी बसाहट है और शायद देश ही नहीं, यह दुनिया का सबसे बड़ा आदिवासी इलाका है। बस्तर के इस आदिवासी अंचल में आज भी ऐस घने जंगल हैं, जहां सूरज की रोशनी धरती को नहीं छू पाती। इलाके के पुराने बाशिंदों को भले ही जंगलों की कटाई पर अफसोस हो, लेकिन बाहरी लोगों के लिए आज भी बस्तर घने जंगलों और डरावने आदिवासियों का रहस्य-रोमांच भरा इलाका है। बस्तर के ये बचे-खुचे नायाब जंगल, जिन्हें आदिवासी देवतुल्य और मां दंतेश्वरी की कृपा मानते हैं, दुनिया को उनके इन्हीं आदि सनातन निवासियों की देन हैं। इन्हीं के प्रयासों से यह बचे हुए हैं। जब से जंगल कानून अस्तित्व में आए हैं आदिवासियों की खेती-बाड़ी, महुआ, टोरा जैसी जरूरत भर की वनोपज से लेकर झाडि़यों की ओट में हाजत तक के नैसर्गिक अधिकारों पर कुठाराघात हो रहे हैं। अपने पोसे जंगलों में घुसने तक के लिए वह वन विभाग के अदने कर्मचारियों के रहमोकरम का मोहताज है। और जंगल के कर्मचारी तो ऐसे अधिकार पाकर जैसे मतवाले हो गए हैं। आदिवासियों पर मनमाने आरोप लगाकर उन्हें सताना और उनसे उगाही करना जैसे उनका धर्म बन गया है। पुलिस का सलूक इन बेजुबान आदिवासियों से और बुरा है। आदिवासी फरियाद करें तो बोली की दिक्कत। कहीं उन्हें समझने और उनका हमदर्द बनने की ललक ही नहीं। वैसे तो इन कम कपड़ों वाले सांवले आदिवासियों के प्रति जबरदस्त हिकारत, पर उनकी युवा बेटियों का दैहिक शोषण करते समय जरा भी झिझक नहीं। जब रखवाला ही आपकी बात न समझे तो किससे फरियाद करें ये आदिवासी। यह प्रशासनिक हिकारत और शोषण ही है, जिसने आदिवासी अंचलों में नक्सलवाद को पैठाया और कभी भिंडरावाले से हलकान कांग्रेस अब उसी अंदाज में नक्सलवाद को सबसे खतरनाक आतंकवाद बताकर इसके सफाये के लिए मुनादी पीट रही है। वैसे ताज्जुब यह है कि जिस नक्सलवाद को कांग्रेस हाल तक सामाजिक-आर्थिक समस्या बताकर बातचीत करने की बात कहती थी, वह चंद महीनों पहले रातों-रात आतंकवाद हो गया। कांगे्रस के अजीत जोगी से लेकर न जाने कितने नेताओं ने लगातार ऐसे बयान दिए। देश में आधी सदी से ऊपर राज कर चुके इतने बडे़ राजनीतिक दल के रुख में अचानक इस बदलाव का कारण संदिग्ध ही है। वैसे भी नक्सल प्रभावित इलाकों में औद्योगिकरण की जैसी सुगबुगाहट है, उससे यह भी शक होता है कि कहीं हम अपने आदिवासियों से वैसा व्यवहार तो नहीं करने जा रहे हैं, जैसा कभी अमेरिका ने अपने ऐबोरिजिनिस यानी वहां के आदिवासियों के साथ किया था। अमेरिका में औद्योगिकरण के इतिहास का नजारा आज के भारत जैसा ही है। फर्क यह है कि आदिवासी ही भारत के मूल निवासी हैं। वे आर्यो की तरह भारत में बाहर से नहीं आए थे, बल्कि द्रविड़ों की तरह भारत के मूल निवासी है। इनका दुर्भाग्य यह है कि प्रकृति ने देश के इन सबसे गरीब लोगों की धरती में ही सारा वैभव उडे़ल दिया है। यही प्राकृतिक वैभव इनकी जान का जोखिम बन गया है। टाटा, एस्सार और वेदांत सभी को वनाच्छादित इन इलाकों में कारखाने लगाने हैं। इनके खनिज का दोहन करना है। चाहे छत्तीसगढ़ हो या उड़ीसा या झारख्ंाड, इन सभी का प्राकृतिक वैभव व्यापारियों को भरमा रहा है। वे सत्ता के गलियारों में पैरवी कर रहे हैं और नेता उनके पैरोकार बन गए हैं। यह कवायद जबसे शुरू हुई है, आदिवासी बेचैन हैं। बस्तर में एक कहावत है कि मैना बोलती है और आदिवासी बेजुबान है। उसकी जुबान कोई समझ नहीं पा रहा है। नक्सलियों ने उसकी बात समझनी शुरू की तो उनके हमदर्द बन गए। जबकि नेता हमेशा उनसे नमक के बदले मोटी फूल झाडू खरीदकर एक की दस झाडू बनाकर बेचने वाले व्यापारी का साथ देते रहे, तेंदू पत्ता की खरीदी में दलाली खाते रहे और नक्सलियों ने आदिवासियों को सही कीमत दिलाई तो उनकी दुकानें बंद हो गई। नक्सल-आदिवासियों में अंतरंगता बढ़ी तो सत्ता के गलियारों में हलचल मच गई। नक्सल प्रभावित राज्यों का सच यही है कि ज्यादातर नेता इनकी मदद लेकर ही चुनाव लड़ते हैं। झारखंड के मुख्यमंत्री शिबू सोरेन ने नक्सलियों पर कार्रवाई का यों ही विरोध नहीं किया था। इन इलाकों की हकीकत यही है कि जहां सरकार नाकाम रही, वहां नक्सलियों ने काम किए। आदिवासियों में उन्होंने वह आत्मविश्र्वास जगाया, जो सरकार और नेताओं को जगाना चाहिए था। सलवाजुडूम के सिरमौर महेंद्र कर्मा भी कभी नक्सलियों से निकटता के लिए जाने जाते थे। वे अब नक्सलियों के कट्टर दुश्मन हैं और उनकी हिटलिस्ट में हैं। इसमें कोई शक नहीं है कि नक्सलियों ने अपने प्रभाव वाले इलाकों में बेहिसाब ऐसे काम किए हैं, जिनसे सरकार चाहे तो सबक ले सकती है, लेकिन अब ग्रीन हंट से बौखलाकर इतना बड़ा नरसंहार करके वह अपने किए पर ही पानी फेर रहे हैं। प्रौढ़ शिक्षा का पूरा अभियान जिन महिलाओं को स्कूल की चौखट पर नहीं ला पाया, वे अब नक्सलियों के प्रयास से पढ़ रही हैं। पुरुषों के लिए भी घरेलू काम-काज में उनकी भागीदारी पर कक्षा होती है। इस सबके बावजूद ऐसी सिरफिरी हिंसा का कोई तुक नहीं है। इसमें कोई शक नहीं कि उन्हें चुनौती दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की निर्वाचित सरकार ने दी है, जो अपने ही नागरिकों को समझा-बुझाकर कोई राजनैतिक रास्ता निकालने के बजाय उन्हें ताकत के बूते खत्म करने पर उतारू है। यह भी सच है कि सरकार के आगे लंबे समय तक टिक पाना नक्सलियों के लिए संभव नहीं है, क्योंकि सरकार के पास न जान गंवाने वाले जवानों की कमी है और न ही अस्त्र-शस्त्रों की, मगर नक्सलियों और सरकार के बीच हिंसा के इस मध्यकालीन तांडव में बेजुबान आदिवासियों का क्या होगा, जिन पर इस जघन्य घटना के बाद नक्सलियों के खिलाफ मुखबिरी के लिए सरकारी अमले और वैसा करने पर नक्सलियों के जुल्म की तलवार लटकनी तय है। अंतत: यह तय तो सरकार को ही करना होगा कि वह इस देश की अहिंसा और बातचीत की गांधीवादी परंपरा का पालन करेगी या भारत में भी अमेरिका के इतिहास को दोहराए जाने का इंतजार करेगी।

अप्रैल 05, 2010

FOREIGN EDUCATIONAL INSTITUTIONS BILL : Recolonising Academic Spaces?

Recolonising Academic Spaces?...........
 THE economic structures have been liberalised since 1991 but the educational structures are yet to be liberalised --- union HRD minister Kapil Sibal is reported to have lamented, while addressing the students of St Stephan’s College in Delhi. He then proposed to do for the education sector what Dr Manmohan Singh had done for the finance sector in 1991. He would unleash a slew of reforms, administrative and legislative, which would substantially improve access and quality of higher education in India. Of the many reforms he talked about, the establishment of foreign educational providers is perhaps the one that would most upset his calculations. Kapil Sibal argued that foreign educational providers could help improve the quality of Indian education, both directly and indirectly: directly by providing quality education to Indian students through off-campus centres and collaborative arrangements and indirectly by instilling competitive spirit in Indian institutions.








QUESTIONABLE



ASSUMPTIONS



Kapil Sibal’s optimism is based on a number of assumptions, the veracity of which is questionable. One of these assumptions is that there are universal yardsticks for assessing the quality of higher education .The other is that Indian higher education is, by and large, inferior to western higher education. It is also presumed that greater approximation with western education could improve the quality of Indian education.



This implicit faith in the efficacy of western, more particularly, English education is a legacy of colonialism. The craze for the foreign label which had been smothered by the Gandhian movement has been legitimised with the introduction of neo-liberal reforms in 1991. The appropriation of foreign models as a shortcut to quality enhancement ignores the importance of creativity, which is hallmark of quality in higher education.



Creativity in higher education thrives through research which involves diversification, localisation and internalisation of intellectual enquiry. While research is enriched through assimilation of knowledge from diverse sources, it degenerates through transplantation or imitation of external models. One of the possible reasons for the backwardness of modern Indian education is its failure to integrate the insights of western systems with indigenous knowledge systems. The attempt to improve the quality of Indian education by importing foreign educational packages would be a remedy worse than the disease.



Even assuming that there are universal norms for measurement of quality in higher education and yardsticks such as Nobel prizes, patents, publications in international journals etc, which are indicative of quality, a proper assessment of Indian capabilities could be made only with reference to institutions like the IITs and IIMs which share a level playing field with reputed western institutions. World class education, if at all it is conceivable, would require world class facilities, an important component of which is adequate infrastructure, physical and human.







ABYSMALLY LOW



GOVT INVESTMENT



Modernisation of higher education requires huge investment. The requirement of inclusiveness further demands massive public investment. With government expenditure on education as a whole pegged at 3.5 per cent and on higher education alone at 0.4 per cent of the GDP, public expenditure on education by western standards is abysmally low in India. Any attempt at improvement of quality to bring it at par with western countries should begin by implementing the recommendations of Kothari commission and CABE committee on public expenditure in education. Going by their recommendations, public expenditure on education should be increased to at least 6 per cent of the GDP, of which 25 per cent should be set apart for higher education. There are no quick-fix alternatives to adequate public investment in education.



The entry of foreign educational providers will not resolve the problems of access, equity or quality, but aggravate them. Kapil Sibal said that the issue of access could be resolved by starting 800 more universities and 35,000 more colleges in the next few years.



The assumption is too simplistic to be seriously debated. Increasing the number of institutions or seats alone would not ensure greater access. Even for the most sought-after engineering courses, there are plenty of vacant seats under the self-financing streams. For example, about one third of the total number of seats in self-financing engineering colleges in Tamilnadu were not filled up in the last year, as the fees were unaffordable.



What thus we need is equitable access, which foreign educational providers will not provide, more so as there is no cap on the fees that can be levied by these institutions in the proposed bill. There is in the bill no provision for reservation of seats either, which would tend to strengthen the existing iniquities in Indian higher education. The foreign providers would also wean away a large chunk of bright students from Indian institutions. The exodus of such students could only lead to academic impoverishment and deterioration of Indian institutions.



The chimera of quality that foreign educational providers supposedly bring in, would dissipate once we look at the experience of other countries in this regard. The experiences of Singpore, China, the Gulf countries and Israel over the last ten to fifteen years (as documented by The Times of India) have been far from satisfactory. Despite extending substantial cash subsidies and providing land at a third of the market price, soft loans, housing access etc, reputed institutions such as Chicago Booth School, John Hopkins Centre and Warwick University --- to mention a few --- which had set up teaching shops in Singapore have packed up and left for home. Despite stringent regulations which enable domestic supervision of foreign institutions set up in China, there is internal criticism on “foreign universities offering crappy courses.” The “knowledge cities” and “academic zones” in Gulf countries are so expensive even by international standards that these can be maintained only by the uninterrupted supply of and demand for black gold. Israel which welcomed foreign educational agencies with loose regulations had to drive them all out on account of the low quality of services provided.







TECHNIQUE OF CAMOUFLAGE



Kapil Sibal claims that stringent regulations are being put in place in the bill against fly-by-night operators. But the contrary is true. Going by the stipulations in the bill, it is much easier to set up a foreign educational institution than to set up an affiliated college under a state university. The technique of camouflage is cleverly used in the drafting of the bill to cover up the inadequacies in the requirements for registration and operation of the institutions. The requirements of transparency are played up, while the right of the foreign provider to decide the norms for admission, fees structure and nature and content of courses are conceded by default.



In fact, it is not mandatory for the foreign provider to offer courses in fundamental disciplines or conduct research level studies. It is unlikely that they would on their own invest in research, the returns on which are uncertain. Research would suffer in local institutions as well. Compelled to compete with foreign providers for survival, they are also likely to wind up whatever little research programmes they have and offer easily marketable courses.



Nor does the bill stipulates any mandatory minimum requirements of land, libraries, laboratories, buildings and faculty. Any university with a foreign label can register as a foreign educational provider by depositing a paltry amount of Rs ten crore as corpus fund. Even such a minimal requirement could be waived in respect of universities which have “reputation and international standing” (!) Given the experience of de novo deemed universities, it is only a matter of time before such exemptions become the norm rather than exceptions.



Assuming that only the best institutions would be permitted to set up campuses and such institutions would be interested in running their quality programmes and post their best faculty in India, foreign educational providers would still have little impact on the overall quality of Indian education. The experience with IITs and IIMs is illuminating. These have been isolated islands of excellence, contributing little to the improvement of neighbouring institutions. This is not merely because the IITs/IIMs have been indifferent to the general improvement of Indian education, but also because external agencies can only play a minimal role in the process of quality enhancement. Improvement of quality has to come from within, through an internal process. Collaboration with foreign institutions of repute can certainly assist the process of internalisation of quality it cannot substitute the internal processes that each institution or individual has to undergo. What we need therefore is not the foreign universities operating their campuses on the Indian soil, but active academic collaboration of the best foreign universities with Indian universities. There are adequate provisions in the existing laws for facilitating such collaboration. Moreover, such collaboration has all along been taking place, albeit on a limited scale. All we need today is to encourage and enlarge the scope of such academic collaborations, while ensuring that they do not degenerate into commercial collaborations.