मार्च 25, 2010

डार्विन के आलोचक...............

जैसे ही डार्विन नें, बाईबल की अवधारणा, कि धरती की उम्र 6000 साल है और संसार की रचना’ परम परमेश्वर प्रभु’ नें 6 दिनों में और सदा सदा के लिए की थी, पर चोट की और इसको अपनी खोजों द्वारा तीतर-बीतर कर दिया; तो धार्मिक कट्टरपंथियों नें उसके खिलाफ जेहाद छेड़ दी । लेकिन अब समय बदल चुका था, अब मध्य युग का सामंती ढांचा नहीं रहा था, अब पूंजीवादी ढांचा अस्तित्व में आ चुका था, और विज्ञान की जरूरत उसके लिए जिंदा रहने की शर्त था, इसलिए थोड़े ही समय में डार्विन के सिद्धांतों को वैज्ञानिकों की तरफ से मान्यता मिल गयी । अब डार्विन के सिद्धांत को पूंजीवादी प्रबंध को सही साबित करने के लिए इस्तेमाल किया जाने लगा और उसके क्रांतिकारी अंश को को छुपाने की कोशिशें होने लगीं ।



‘अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष’ और ‘ योग्यतम का बचाव’ नामक डार्विन की अवधारणाओं को पूंजीवादी प्रबंध को जायज ठहराने के लिए इस्तेमाल किया जाने लगा और आज भी इसी प्रकार की दलीलें देने वालों की कमीं नहीं है । लेकिन ये सिद्धांतकार ‘अपने अस्तित्व के लिए सर्वहारा के संघर्ष’ से भी उतना ही डरते हैं जितना जोर ये पूँजीवाद को जायज ठहराने के लिए लगाते हैं । ‘ योग्यतम का बचाव’ के सिद्धांत द्वारा पूंजीवादी शोषकों को जायज ठहराने और अल्पमत द्वारा विशाल बहुमत की लूट को ठीक सिद्ध करने की कोशिशें लगातार होती रही हैं । पर यह राग अलापने वाले जन संघर्ष की जगह शान्तिपूर्ण सुधारों और कानूनी कार्रवाई द्वारा गरीबी ख़त्म करने जैसे भद्दे सिद्धांतों को भी साथ-साथ पेश करते रहते हैं । इन दलीलों के बिना भी देखा जाये तो दूसरे जानवरों और मनुष्यों में बहुत अंतर है । मनुष्य वातावरण के साथ खुद भी बदलता है और उसे भी अपने अनुकूल ढाल लेता है, जबकि यह गुण दूसरे जानवरों में बहुत कम विकसित है । इसके अलावा मनुष्य उत्पादन प्रक्रिया में प्रकृति के साथ संघर्ष करता है और जीवन निर्वाह के लिए औजारों का निर्माण करता है । और चूँकि यह सब सामूहिक रूप में ही संभव है, इसलिए ‘योग्यतम का बचाव’ की अवधारणा मनुष्यों पर लागू ही नहीं होती. और तो और, पूंजीवादी प्रणाली में जब भी इन औजारों की (बहुतायत) हो जाती है तो संकट आ जाता है, फिर बहुतायत होने के बावजूद संघर्ष की अवधारणा की तो इसमें कोई गुन्जाईश ही नहीं रह जाती ।



इससे भी बढ़कर, डार्विन की यह अवधारणा मुख्य तौर पर अलग अलग जीवों की प्रजातियों और किसी जीव प्रजाति की जनसँख्या को कंट्रोल में रखने तक ही सीमित रहती है । पहली सूरत में यह अवधारणा मनुष्यों में आपस में लागू नहीं होती, दूसरी सूरत में , जिन यूरोपीय देशों की जनसँख्या वृद्धि दर शून्य हो चुकी है पूंजीवादी दैत्य वहां भी लोगों को संघर्ष करने के लिए मजबूर कर रहा है । जिन देशों में जनसँख्या बढ़ रही है, वहां डार्विन के योग्यतम के बचाव के सिद्धांत के मुताबिक पूंजीपतियों की संख्या बढ़नी चाहिए, लेकिन हो तो इसके विपरीत रहा है, गरीबों (अयोग्यों) की संख्या बढ़ रही है और पूंजीपतियों की या तो स्थिर है या कम हो रही है ।



चर्च और अन्य धार्मिक कट्टरपंथी, जिनमें सिर्फ इसाई ही नहीं, अन्य सभी धर्मों के पादरी-पुजारी भी शामिल हैं, के विरोध और डार्विन के सिद्धांतों को तोड़-फोड़ कर की गयी व्याख्याओं से भी पूँजीवाद का कुछ नहीं संवर सका । इस सबके बावजूद इस पूंजीवादी प्रबंध को डार्विन के सिद्धांतों और पूरे जीव विकास के सिद्धांत से ही खतरा बना हुआ है । एक बार फिर मध्य-युगीन काले दौर के सिरे से खारिज किये जा चुके गैर-वैज्ञानिक ईश्वरवादी सरंचना के सिद्धांत को नए लबादे में सजा कर लोगों पर थोपा जा रहा है और लोगों में भौतिकवादी वैज्ञानिक नज़रिये की पकड़ को कमजोर करने की कोशिशें हो रहीं हैं । इन सब कोशिशों के पीछे हर तरह के धार्मिक कट्टरपंथी और फासीवादी ताने-बाने से लेकर सरकारों, कोर्पोरेट जगत, और लोक कल्याण प्रपंच रचने वाली संस्थाएं शामिल हैं ।



इस नए प्रचारित किये जा रहे सिद्धांत का नाम है ‘सचेतन सृजन’(Intelligent Design) । इनके ज्यादातर तर्क तो डार्विन के समकालीन विरोधी विलियम पैले (William Paley) से उधार लिए हुए हैं । इस दलील के अनुसार, जैसेकि किसी जटिल जेब घड़ी या किसी आधुनिक मशीन या कंप्यूटर जैसे यन्त्र बनाने के लिए किसी सचेतन शक्ति यानीकि मानव दिमाग की जरूरत होती है, उसी तरह जैसे किसी बहुत ही जटिल मानव अंग जैसेकि आँख, दिमाग, या अन्य जीव जंतुओं को पैदा करने के लिए या सृजन के लिए भी किसी सचेतन शक्ति की जरूरत है, जोकि इनके अनुसार ईश्वर ही हो सकता है । यह बिलकुल वैसे ही जैसे कोई कहे कि दूध भी पानी की तरह तरल पदार्थ है इसलिए यह पानी की ही तरह धरती में से नल लगाकर निकाला गया होगा या फिर पानी दूध की तरह किसी गाय-भैंस को दुहने से मिलता होगा । खैर इनके तर्क की थोड़ी और छानबीन करते हैं । घड़ी या मशीन बनाने के लिए बहुत सारे मनुष्यों को इकट्ठे होकर या अलग अलग रहकर औजारों का इस्तेमाल करते हुए और भट्टियों में लोहा पिघलाते हुए श्रम करना पड़ता है, और दूसरी तरफ इनके ईश्वर के औजार और भट्टियाँ कहाँ हैं और वह दिखाई क्यों नहीं देते, तो ये भाग निकलेंगे ...................