दिसंबर 27, 2010

हमको मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन, दिल के बहलाने को ग़ालिब ये ख़याल अच्छा है : उर्दू - फ़ारसी जुबान के शाएर ग़ालिब को याद करते हुए :

   तृप्ति का नहीं, तृष्णा के रस का कवि है : ग़ालिब
दिले-नादाँ, तुझे हुआ क्या है,
आख़िर इस दर्द की दावा क्या है
29 दिसंबर, 1797 ई. को आगरा में जन्म हुआ. अब्दुल्लाबेग ग़ालिब के पिता थे. मिर्ज़ा ग़ालिब के पिताजी से तीन संताने थीं. जिनमें उनकी सबसे बड़ी बहन ख़ानम, खुद मिर्ज़ा असदउल्लाबेगखाँ (ग़ालिब) और उनके भाई मिर्ज़ा युसुफ़ थे. ग़ालिब के पिता फौजी नौकरी में थे जब ग़ालिब पाँच साल के थे तभी उनके पिता का देहावसान हो गया.  उन लोगों के पास काफी जायदाद थी. ग़ालिब के चचा जान की मृत्यु हो जाने पर उनके उत्तराधिकारी के रूप में जो पाँच हज़ार रुपये सालाना पेंशन मिलती थी उसमें 750-750 रुपए ग़ालिब और ग़ालिब के भाई मिर्ज़ा युसूफ का हिस्सा आता था. ग़ालिब का पालन-पोषण ननिहाल में ही हुआ ग़ालिब को नानी के यहाँ भी कोई बड़ा बूढा देखने वाला ना था । बचपन मौज मस्ती में बीता था ।   ननिहाल वैभवपूर्ण था । वहाँ किसी चीज़ की कोई कमी नहीं थी । बड़े आराम और आसाइश की जिंदगी थी ।ग़ालिब की ननिहाल में मज़े से गुजरती थी. आराम ही आराम था. एक ओर खुशहाल परन्तु पतनशील उच्च मध्यमवर्ग वाले जीवन में  उन्हें पतंग, शतरंज और जुए की आदत लगी. तस्वीर का दूसरा रूख़ यह भी था कि दुलारे थे, रुपये पैसे की कमी ना थी, किशोरावस्था, तबियत में उमंगें, यार-दोस्तों के मजमे, खाने-पीने, शतरंज, पतंगबाज़ी, यौवनोंमाद-सबका जमघट. इनकी आदतें बिगड़ गयीं. हुस्न के अफ़सानों में मन उलझा, चन्द्रमुखियों ने दिल को खींचा. 24-25 बरस तक खूब रंगरेलियां कीं पर बाद में उच्च प्रेरणाओं ने इन्हें ऊपर उठने को बाध्य किया. वह कच्चेपन में ही ताक-झाँक, चूमाचाटी, ग़प-शप , सैर-सपाटे के आदी थे । ग़ालिब के जीवन की यह बात बहुत ध्यान रखने की है । अनियंत्रित, अभाव का नाम न जानने वाले, उत्तम संस्कारों से हीन, यारबाशी भरे बचपन में उस चिर-पिपासा की नींव पड़ी जिसने भोगवादी भावनाओं को ग़ालिब में सदा के लिये प्रबल रखा ।बचपन से ही इन्हें शेरो-शायरी की लत थी. इश्क़ ने उसे उभारा कि पच्चीस साल की उम्र में दो हज़ार शेरों का दीवान तैयार हो गया था जब ग़ालिब युवा थे तब उनके उस्ताद ने उनसे कहा था उन्होंने एक ही जगह बैठकर पीना, एक में केन्द्रित रहना या एक ही जगह बने रहना कभी स्वीकार नहीं किया । इसी कारण सरदार जाफ़री ने लिखा है "वह मंजिल का नहीं, पथ का; तृप्ति का नहीं, तृष्णा के रस का कवि है ।ग़ालिब ने फ़ारसी की प्रारंभिक शिक्षा आगरा के उस समय के प्रतिष्ठित विद्वान मौलवी मोहम्मद मोवज्ज़म से प्राप्त की. 1810-1811 ई. में मुल्ला अब्दुस्समद जो ईरान के प्रतिष्ठित एवं वैभवसंपन्न व्यक्ति थे, ईरान से घूमते हुए आगरा आये और इन्हें के यहाँ दो साल रहे. इन्हीं से दो साल तक मिर्ज़ा ग़ालिब ने फारसी तथा अन्य काव्य की बारीकियों का ज्ञान प्राप्त किया जिस मोहल्ले में वह रहते थे, वह(गुलाबखाना) उस ज़माने में फारसी भाषा के शिक्षण का एक उच्च केंद्र था. उनके इर्द गिर्द एक से बढ़कर एक फारसी के विद्वान रहते थे. ग़ालिब के जीवन-काल (1797-1869 ई.) में मुग़ल-साम्राज्य का अंत हो गया । उनके समय में अन्तिम तीन मुग़ल सम्राट हुए : 1. शाह आलम द्वितीय (1759-1806), 2. अकबर द्वितीय (1806-1837) तथा 3. बहादुरशाह (ज़फर) द्वितीय (1837-1857) । मतलब यह कि ग़ालिब का बचपन शाह आलम द्वितीय के अन्तिम काल में पनपा, उनकी जवानी अकबर द्वितीय के काल में गुज़री और प्रौढ़ावस्था तथा वार्द्धक्य बहादुर शाह के ज़माने में और उसके बाद भी चलता रहा । तीनों अच्छे थे, पर शासन-क्षमता की दृष्टि से अशक्त और साधनहीन थे । इनके काल में मुग़ल-साम्राज्य कहानी बनकर रह गया था और अंत में वह कहानी भी ख़त्म हो गयी । ग़ालिब का यूँ तो असल वतन आगरा था लेकिन किशोरावस्था में ही वे दिल्ली आ गये थे । कुछ दिन वे ससुराल में रहे फिर अलग रहने लगे । चाहे ससुराल में या अलग, उनकी जिंदगी का ज्यादातर हिस्सा दिल्ली की 'गली क़ासिमजान' में बीता । सच पूंछें तो इस गली के चप्पे-चप्पे से उनका अधिकांश जीवन जुड़ा हुआ था । वे पचास-पचपन वर्ष दिल्ली में रहें, जिसका अधिकांश भाग इसी गली में बीता ।
यह गली चाँदनी चौक से मुड़कर बल्लीमारान के अन्दर जाने पर शम्शी दवाख़ाना और हकीम शरीफ़खाँ की मस्जिद के बीच पड़ती है । इसी गली में ग़ालिब के चाचा का ब्याह क़ासिमजान(जिनके नाम पर यह गली है ।) के भाई आरिफ़जान की बेटी से हुआ था और बाद में ग़ालिब ख़ुद दूल्हा बने आरिफ़जान की पोती और लोहारू के नवाब की भतीजी, उमराव बेगम को ब्याहने इसी गली में आये । साठ साल बाद जब बूढ़े शायर का जनाज़ा निकला तो इसी गली से गुज़रा ।
जनाब हमीद अहमदखाँ ने ठीक ही लिखा है :
"गली के परले सिरे से चलकर इस सिरे तक आइए तो गोया आपने ग़ालिब के शबाब से लेकर वफ़ात तक की तमाम मंजिलें तय कर लीं ।"

जब यह सिर्फ तेरह वर्ष के थे निकाह लोहारू के नवाब अहमदबख्शखाँ के छोटे भाई मिर्ज़ा इलाहीबख्शखाँ 'मारुफ़' की लड़की उमराव बेगम के साथ 9 अगस्त, 1810 ई को संपन्न हुआ उस वक़्त उमराव बेगम ग्यारह साल की थीं.उस ज़माने में बेटियाँ कम उम्र में ब्याह दी जाती थीं । 1799 में दिल्ली के एक प्रतिष्ठित घराने में उमराव का जन्म हुआ था उमराव के पिता नवाब इलाहीबख्श का जीवन वैभव एवं सुख शान्ति से परिपूर्ण था । वह 'शहज़ादए-गुलफ़ाम' के नाम से प्रसिद्द थे । इससे कल्पना की जा सकती है कि उमराव का बचपन कैसा बीता होगा विवाह के कुछ वर्ष बाद आर्थिक कठिनाइयाँ बढ़ गयी और बाद के साल उन्होंने थोड़ी कठिनाई से बिताये. आर्थिक तंगी चलती ही रहती थी. आय के श्रोत कम थे और उनके खर्चे ज्यादा. मिर्ज़ा ग़ालिब अपने विवाह के कुछ दिनों बाद से ही अपनी ससुराल दिल्ली चले आये और दिल्ली के ही हो गये.।  हालांकि ग़ालिब को वह सुख प्राप्त ना हुआ था जो उमराव को नसीब था । एक तरफ हम देखते हैं कि उमराव तो अपने माँ-बाप की देखभाल में पली बढ़ी थी और उन्हें उठने-बैठने और घर गृहस्थी का तरीका था । उधर असद मियाँ के ऊपर कोई रोक टोक करने वाला ना था । बाप तो दूर ही रहे और उनके चचा भी जल्दी ही संसार से प्रयाण कर गये ।
  जब लड़की वालों ने ग़ालिब को पसंद किया तो सोचा कि अच्छे खानदान का लड़का है, देखने में सुन्दर, गोरा-चिट्टा, मृदभाषी; आगे चलकर अपने पिता की तरह फौज में जाकर नौकरी कर नाम कमाएगा, खाने पीने की कोई तकलीफ नहीं होगी । एक शरीफ घराना, खूबसूरत शौहर और हर तरह की सहूलियत लड़की को मिल रही है, और क्या चाहिए ! उधर ग़ालिब की चाची लड़की उमराव की सगी फूफी थी तो यह भी सोचा गया कि लड़की जाने पहचाने घराने में जा रही है । पर सब कुछ होकर भी वह आशा पूरी ना हुई ।ग़ालिब ने जीविकोपार्जन की ओर या कोई अच्छा पद प्राप्त करके एक औसत गृहस्थ का जीवन बिताने की ओर कभी ध्यान नहीं दिया । बचपन की स्वच्छंदता ज़िन्दगी भर बनी रही । विवाहित जीवन के चन्द साल किसी क़दर बेफ़िक्री से बीते पर ज्यों ज्यों समय बीतता गया, गृहस्थ जीवन से निश्चिंतता समाप्त होती गयी । बेकारी और शेरख़Iनी ज़िन्दगी पर छाती रही । ज्यों ज्यों उम्र बढती गयी, आर्थिक एवं दैनिक जीवन की मुसीबतें बढती ही गयीं । यहाँ तक कि चौबीस साल के बाद तो उमराव के जीवन से सुख के सपने सदा के लिये विदा हो गये ।  ग़ालिब के सात बच्चे हुए पर कोई भी पंद्रह महीने से ज्यादा जीवित न रहा. पत्नी से भी वह हार्दिक सौख्य न मिला जो जीवन में मिलने वाली तमाम परेशानियों में एक बल प्रदान करे. इनकी पत्नी उमराव बेगम नवाब इलाहीबख्शखाँ 'मारुफ़; की छोटी बेटी थीं. ग़ालिब की पत्नी की बड़ी बहन को दो बच्चे हुए जिनमें से एक ज़ैनुल आब्दीनखाँ को ग़ालिब ने गोद ले लिया था बहरहाल यह सत्य है कि ग़ालिब का दाम्पत्य जीवन दु:खपूर्ण था । अनायास सवाल उठता है कि क्यों ऐसा हुआ ? उर्दू का एक बहुत बड़ा शायर, भारत में फ़ारसीयत का नेता, भावनाओं के वेग में दृढ रहने वाला, और अपने युग की चिन्तनशीलता एवं बौद्धिकता का प्रतिनिधि ग़ालिब एक औरत की ज़िन्दगी को क्यों ऐसी न बना सका कि उनके शायराना एहसास उसके दिल को भी छूते ।

जब इंसान को घर में प्रेम प्राप्त न हो, दिल की छाया प्राप्त न हो, जब खुद की पत्नी जीवन के आशीर्वाद की जगह जीवन का बोझ बन जाए, उसके मुख से प्रेम और मृदुलता के बोल के स्थान पर कटु वाणी के वाण झरने लगें तब पुरुष घर से बाहर भागता है ।
ग़ालिब पर तो बचपन से ही स्वच्छंदता के संस्कार प्रधान थे, अब जब दोनों के दिलों के बीच दूरियाँ आ गयीं तो वह बाज़ारू औरतों की ओर झुके । इसी सिलसिले में एक गायिका पर आसक्त हो गये । वह भी इनको प्यार करने लगी । इन सब से उमराव (ग़ालिब की पत्नी) के दिल पर क्या बीती होगी इसकी तो बस कल्पना ही की जा सकती है । कई बरसों तक ग़ालिब और उनकी इस प्रियतमा का प्रेम-व्यापार चलता रहा । फिर उसकी मृत्यु हो गयी । उस वक़्त ग़ालिब बीस-बाईस के पट्ठे रहे होंगे । उसकी मृत्यु पर जो शोकपूर्ण रचना की है उससे इनके गहरे लगाव का पता चलता है :-

तेरे दिल में गर न था आशोबे-ग़म का हौसला,
तूने फिर क्यों की थी मेरी ग़मगुसारी हाय हाय ।
उम्र भर का तूने पैमाने-वफ़ा बाँधा तो क्या ?
उम्र का भी तो नहीं है पायदारी हाय हाय ।
किस तरह काटे कोई शब्हाय तारे बर्शगाल,
है नज़र खूककर्दए अख़्तरशुमारी हाय हाय ।
इश्क ने पकड़ा न था ग़ालिब अभी वहशत का रंग,
रह गया था दिल में जो कुछ ज़ौकख़्वारी हाय हाय ।

ग़ालिब कि जिन्दगी से जुड़े कुछ किस्से :
एक बार की बात है कि जिस मकान में ग़ालिब रहते थे , उसमें कई सारी समस्याएं थीं इसीलिए तकलीफ़ थी । वे इसीलिए मकान बदलना चाहते थे । एक दिन वे खुद एक मकान देखकर आये । उसका बैठकखाना तो पसंद आ गया पर जल्दी में अन्तःपुरवाला हिस्सा न देख सके । फिर उन्होंने यह भी सोचा होगा कि मेरा उस हिस्से को देखने का क्या फ़ायदा ? जिसे वहाँ रहना है वह ख़ुद देखे और पसंद करे । इसी लिये जब बाहरी हिस्सा देखने के बाद जब लौटे तो बीवी से ज़िक्र किया और अन्दर का हिस्सा देखने के लिये उन्हें भेजा । वह गयीं और देखकर आयीं तो उनसे पूछा, "पसंद है या नापसंद ?"
बीवी ने कहा, "उसमें तो लोग बला बताते हैं ।"
मिर्ज़ा कब चूकने वाले थे । बोले, "क्या दुनिया में आपसे बढ़कर भी कोई बला है ?" 
 एकबार कि बात है कि 1842 ई. में सरकार ने दिल्ली कॉलेज का नूतन संगठन और प्रबंध किया । उस समय मि. टामसन भारत सरकार के सेक्रेटरी थे । यही बाद में पश्चिमोत्तर प्रदेश के लेफ्टिनेंट गवर्नर हो गये थे और ग़ालिब के हितैषी थे । वह कॉलेज के प्रोफ़ेसरों के चुनाव के लिये दिल्ली आये । वहाँ अरबी शिक्षा के लिये तो मौ. ममकूलअली प्रधान शिक्षक थे किन्तु फ़ारसीके लिये कोई अच्छा बंदोबस्त न था । टामसन ने फ़ारसी के लिये किसी अच्छे विद्वान् की इच्छा जाहिर की । वहाँ उस समय सदरूस्सदूर मुफ़्ती सदरुद्दीनखाँ 'आर्ज़ुदा' मौजूद थे । उन्होंने बताया कि दिल्ली में तीन साहब फ़ारसी के उस्ताद माने जाते हैं - 1. मिर्ज़ा असद उल्ला खाँ 'ग़ालिब', 2. हकीम मोमिनखाँ 'मोमिन' और शेख़ इमामबख्श 'सहबाई' । टामसन साहब ने सबसे पहले 'ग़ालिब' को बुलवाया । ग़ालिब पालकी में सवार हो उनके डेरे पर पहुँचे और दरवाज़े पर इस प्रतीक्षा में रुक गये कि अभी कोई साहब स्वागत एवं अभ्यर्थना के लिये आते हैं । जब बहुत देर हो गयी तो साहब ने जमादार से देर का कारण पूँछा । जमादार ने मिर्ज़ा को दरियाफ़्त किया । मिर्ज़ा ने कहला दिया कि साहब मेरा स्वागत करने बहार नहीं आये इसीलिए में अन्दर नहीं आया । इस पर टामसन स्वंय बहार आ गये और कहा कि "जब आप दरबार में रईस या कवि के तशरीफ़ लावेंगे तब आपका स्वागत-सत्कार किया जाएगा लेकिन इस समय आप नौकरी के लिये आये हैं इसीलिए आपका स्वागत करने कोई नहीं आया ।"
मिर्ज़ा ने कहा कि "मैं तो सरकारी नौकरी इस लिये करना चाहता था कि खानदानी प्रतिष्ठा में वृद्धि हो, न कि जो पहले से है उसमें भी कमी आ जाए और बुजुर्गों की प्रतिष्ठा भी खो बैठूं ।" टामसन साहब ने नियमों के कारण विवशता प्रकट की तब ग़ालिब ने कहा "ऐसी मुलाज़िमत को मेरा दूर से सलाम है," और कहारों से कहा "वापस लौट चलो । " बाद में टामसन साहब ने दूसरा प्रबंध किया । 
 एक बार किसी दुकानदार ने उधार ली गयी शराब के दाम वसूल न होने पर मुक़दमा चला दिया. मुक़दमे की सुनवाई मुफ़्ती सदरउद्दीन की अदालत में हुई. आरोप सुनाया गया. इनको उज्रदारी में क्या कहना था, शराब तो उधार मँगवायी ही थी और दाम भी चुकते न कर पाए थे. इसलिए कहते क्या ? उन्होंने आरोप सुनकर सिर्फ यह शेर पढ़ दिया :

क़र्ज़ की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हाँ,
रंग लाएगी हमारी फ़ाक़ामस्ती एक दिन
 

ग़ालिब के कुछ शेर :हमको मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन,
दिल के बहलाने को ग़ालिब य' ख़याल अच्छा है ।


 "इश्क़ से तबियत ने ज़ीस्त का मज़ा पाया,
दर्द की दवा पायी, दर्द बेदवा पाया ।
हाले-दिल नहीं मालूम लेकिन इस क़दर यानी,
हमने बारहा ढूँढा तुमने बारहा पाया ।
शोरे-पन्दे-नासेह ने ज़ख्म पर नामक छिड़का,
 
दिले-नादाँ, तुझे हुआ क्या है,
आख़िर इस दर्द की दावा क्या है ।
हम हैं मुश्ताक़ और वह बेज़ार,
या इलाही, यह माजरा क्या है ।
मैं भी मुँह में ज़बान रखता हूँ,
काश, पूछो, कि मुद्द'आ क्या है ।
 


बूए-गुल, नालए-दिल, दूदे चिराग़े महफ़िल
जो तेरी बज़्म से निकला सो परीशाँ निकला ।
चन्द तसवीरें-बुताँ चन्द हसीनों के ख़ुतूत,
बाद मरने के मेरे घर से यह सामाँ निकला ।  
 

ना जाने माशूक़ के वादे पर कितने शेर लिखे गए हैं लेकिन ग़ालिब ने अपने कहने के ढंग से उसमें एक जद्दत पैदा कर दी. लोग उसके वादे के विश्वास पर जीते हैं लेकिन ग़ालिब इसलिए जीते हैं कि उसके वादे को झूठा समझते हैं. इसी सिलसिले में उनका यह शेर :माशूक़ के वादे पर क्या तीखा व्यंग्य है !
तेरे वादे पर जिये हम, तो यह जान, झूठ जाना,
कि ख़ुशी से मर ना जाते, अगर एतबार होता ।

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