मार्च 29, 2010

सभी को शिक्षा , रोजगार ,स्वास्थ्य की गरंटी समाजवाद मे ही संभव:सुचान


कुरुक्षेत्र विशवविद्यालय मे भगत सिंह के शहीदी दिवस पर एआईएसएफ द्वारा प्रोग्राम आयोजित





२३ मार्च कुरुक्षेत्र
.एआईएसएफ द्वारा भगत सिंह के शहीदी दिवस पर कुरुक्षेत्र विशवविद्यालय के गेट न. ३ पर प्रोग्राम आयोजित किया गया , जिसमे सैकड़ों विशवविद्यालय की संख्या मे स्टूडेंट्स वा स्थानीय लोगों ने भाग लीया
सभा को एआईएसएफ के रास्ट्रीय 'कोषाध्यक्ष' रोशन सुचान , पूर्व रास्ट्रीय महासचिव वीजैंदर केसरी , सी पी आई नेता कामरेड परताप सिंह , का. सतपाल सिंह आदि ने संबोधित किया
एआईएसएफ के रास्ट्रीय 'कोषाध्यक्ष' रोशन सुचान ने कहा की भगत सिंह का मकसद सिर्फ हिन्दोस्तान की आज़ादी ही नही था , वो एक ऐसे देश की बात करते थे जहाँ कोइ भूखा न हो , सभी को शिक्षा , रोजगार ,स्वास्थ्य का इंतजाम सरकार करे
सुचान ने कहा की आज़ादी के ६३ सालों के बाद भी उनका सपना पूरा नही हुआ है
सुचान ने कहा राज्य मे ३ लाख से भी ज्यादा सरकारी पद रिक्त पडे है , सरकार उनको भर नहीं रही
सरकार १८ वर्ष के हर युवा को रोजगार देने का कानून बनाये
लोग बीना दवा के मर रहे हैं , ब्लाक लेवल पर सरकारी हॉस्पिटल स्वास्थ्य के लिय जरूरी है
सभी को शिक्षा , रोजगार ,स्वास्थ्य की गरंटी समाजवाद मे ही संभव है
समाजवाद ही जनता की मुक्ति का रास्ता है
समाजवाद के लिय संघर्ष तेज करना पडेगा
एआईएसएफ के पूर्व रास्ट्रीय महासचिव वीजैंदर केसरी ने अपने संबोधन मे कहा आज देश के हालात अच्छे नहीं हैं
देश का मेहनतकश किसान ,मजदूर वर्ग संकट मैं है
शिक्षा को सरकारों ने बाज़ार की वस्तु बना डाला है आम आदमी शिक्षा से दूर हो गया है
देश मे करोड़ों युवा बेरोजगार घूम रहे है
युवा ही भगत सिंह के सपनो का देश बना सकते हैं
सी पी आई नेता कामरेड परताप सिंह ने कहा की यू पी ए सरकार की नीतिओं के कारण मंहगाई ने जनता का जीना हराम कर दीया है
गोदामों मे अनाज के भण्डार भरे होने के बावजूद मंहगाई का कारण कालाबजारी है , जो सरकार करवा रही है
भगत सिंह का भारत के लिए सी पी आई जनसंघर्ष तेज करेगी
यहाँ ये बताना लाजमी है की लम्बे अरसे के बाद कुरुक्षेत्र विशवविद्यालय मे एआईएसएफ का गठन करने का काम कीया गया है
रोशन सुचान, वीजैंदर केसरी,कामरेड परताप सिंह , अजित सिंह द्वारा विशवविद्यालय मे संगठन के गठन के लिय माटिंग भी आयोजित की गयी

मार्च 28, 2010

सिर्फ कमाई करने आएंगे विदेशी संस्थान

विदेशी शिक्षण संस्थानों के देश में आने से जुड़े खतरों को रेखांकित कर रहे हैं प्रो. यशपाल.............................................
विदेशी शिक्षण संस्थानों (विश्वविद्यालयों) के लिए दरवाजे खोलने के पीछे सरकार के अपने लाख तर्क हो सकते हैं, लेकिन देश में उच्च शिक्षा में सुधार की अहम् सिफारिशें करने वाले प्रख्यात शिक्षाविद्, वैज्ञानिक और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के पूर्व चेयरमैन प्रो. यशपाल को नहीं लगता कि विदेशी शिक्षण संस्थानों को देश में आने के लिए नया कानून बनने से कुछ भला होने वाला है। उनका मानना है कि विदेशी संस्थान यहां आकर कमाई तो करेंगे, लेकिन हमारी जरूरतों को कतई पूरा नहीं करेंगे। विदेशी विश्वविद्यालयों के प्रवेश के प्रस्तावित कानून पर विशेष संवाददाता राजकेश्वर सिंह ने उनसे लंबी बातचीत की। प्रस्तुत हैं उसके मुख्य अंश- सरकार ने हाल ही विदेशी उच्च शिक्षण संस्थानों (विश्वविद्यालयों) को भारत में खोलने के लिए प्रस्तावित विधेयक के मसौदे को हरी झंडी दी है। आप किस रूप में देखते हैं? सवाल यह है कि यहां कौन से विश्वविद्यालय आयेंगे? विश्वविद्यालय का मतलब जहां सभी तरह की पढ़ाई हो। दुनिया में सबसे बेहतरीन उच्च शिक्षा देने वाले लंदन की कैम्बि्रज समेत दूसरी तमाम यूनिवर्सिटी में एक ही कैम्पस में सभी तरह की पढ़ाई होती है। क्या नया कानून बन जाने पर वे यहां आएंगे? हां, यदि कुछ आयेंगे तो वे भी पूरे नहीं आयेंगे, बल्कि उनके टुकड़े यहां आएंगे। अमेरिका की हावर्ड जैसी यूनिवर्सिर्टी तो यहां बनेगी नहीं, क्योंकि उन्हें उनकी सरकार से बहुत मदद मिलती है। सरकार ने 2020 तक उच्च शिक्षा में सकल दाखिला दर (जीईआर) बढ़ाकर 30 प्रतिशत करने की लक्ष्य बनाया है, जो अभी 12 प्रतिशत से कुछ अधिक है। सरकार का तर्क है कि विदेशी विश्वविद्यालयों के आने से जीईआर बढ़ेगा। यह मजाक है। क्या वे बस्तर जैसे जिले और देहाती इलाकों में विश्वविद्यालय खोलने आयेंगे? क्या वे शैक्षिक के साथ हमारी सामाजिक जरूरतों को पूरा करेंगे? क्या वे हिंदी, संस्कृत, इतिहास, दर्शन शास्त्र जैसे विषयों को पढ़ाएंगे? वे यहां इंजीनियरिंग, प्रबंधन जैसे दूसरे व्यावसायिक पाठ्यक्रमों को पढ़ाने आयेंगे? अभी भी हमारे इंजीनियरिंग कालेजों से सस्ती पढ़ाई कहीं नहीं होती। इन स्थितियों में विदेशी संस्थान भी वैसे खुलेंगे, जैसे तमाम डीम्ड यूनिवर्सिटी बन गई हैं। साफ है कि सभी अच्छे संस्थान तो यहां आयेंगे नहींऔर जो आयेंगे वे पैसा बनायेंगे और चले जाएंगे। आपके हिसाब से जीईआर को बढ़ाने के लिए क्या किया जा सकता है? मौके हैं। तमाम ढेर सारे कालेज हैं। उनमें संसाधन है। जगह है। मेरा मानना है कि दो-चार जो बड़े-बड़े कालेज हैं उन सबको यूनिवर्सिटी बना दीजिए, जो बनने लायक हैं। सरकार उनकी मदद करे। उनके भी कमरों को एयरकंडीशंड बना दीजिए। तमाम विश्वविद्यालय बन जाएंगे। बड़ी बात यह होगी कि उनमें सारे विषय तो पढ़ाये जाएंगे और तब उसका असर उच्च शिक्षा में जीईआर बढ़ाने में भी दिखेगा। यह भी कहा जा रहा है कि विदेशी विश्वविद्यालयों के आने से उच्च गुणवत्ता वाली शिक्षा मिलेगी? कहां से मिलेगी गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा। बिजनेसमैन यूनिवर्सिटी खोलेगा तो पैसा कमाने के लिये। हमारे यहां भी तो बिजनेसमैन ने खोले हैं शिक्षण संस्थान और पढ़ाई का सत्यानाश करके रख दिया है। सुंदर-संुदर बिल्डिंग बना ली हैं, लेकिन अंदर कुछ नहीं है। मसलन् न बेहतर शिक्षक न बेहतर शिक्षा। ऐसे में विदेशी शिक्षण संस्थान बेहतर शिक्षक कहां से लायेंगे। आशंका है कि विदेशी संस्थान आयेंगे तो सबसे पहले हमारे यहां के अच्छे शिक्षकों पर उनकी नजर होगी। ऐसे में अपने यहां के अच्छे संस्थानों के शिक्षा के स्तर में गिरावट आ सकती है। मै तो कह ही रहा हूं कि यदि उन संस्थानों में कानून, भाषा, कला, विज्ञान, मेडिकल जैसे सभी पाठ्यक्रमों की पढ़ाई नहीं होती तो उन्हें विश्वविद्यालय नहीं कहा जा सकता। अलग-अलग पढ़ाई का अवसर देने को शिक्षा नहीं कहा जा सकता। साथ में पढ़ने का अलग असर होता है। यदि वे आते हैं तो उन्हें इकोनोमिक्स जैसे विषयों की भी पढ़ाई की सुविधा देनी चाहिए। इसका मतलब है कि विदेशी शिक्षण संस्थानों के भारत में आने को लेकर सरकार बड़े बदलाव का जो तर्क दे रही है, वह बेमानी है। नहीं, मेरा मानना है कि ये चीजें ऐसे नहीं होती। अभी जो होने जा रहा है, उनमें कुछ विदेशी संस्थान आयेंगे। कैम्पस बनायेंगे। पैसे कमाएंगे। उनमें से कुछ चलेंगे। कुछ नहीं चल पायेंगे। देश में एक तबके के बच्चों में विदेश में पढ़ाई का बड़ा रुझान है। पहले बहुत होनहार बच्चे ही बाहर जाते थे पढ़ाई करने। अब ऐसे भी हैं जिनको यहां अच्छे संस्थानों में दाखिला नहीं मिलता, वे बाहर चले जा रहे हैं। वह होटल मैनेजमेंट व हेयर स्टाइल और सुंदर बनाने जैसे कोर्स करने जा रहे हैं। उनके पास पैसा है और उन्हें बाहर पढ़ने का शौक है। जबकि अपने यहां भी एक से एक बढ़कर उच्च शिक्षण संस्थान हैं। मै बता सकता हूं। हमारे यहां भी टाटा रिसर्च इंस्टीट्यूट जैसे अच्छे से अच्छे संस्थान हैं, जहां पीएचडी के बहुत अवसर हैं। जेएनयू में साइंस की कितनी अच्छाई पढ़ाई होती है, लोगों को पता नहीं है। ऐसा नहीं है कि बाहर सारी चीजें चमक रही हैं। देखिए, आस्ट्रेलिया में क्या हो रहा है? विदेशी शिक्षण संस्थानों के भारत में प्रवेश संबंधी विधेयक के मसौदे में छात्रों के दाखिले की प्रक्रिया, फीस के तौर-तरीकों के बारे में कुछ नहीं कहा गया है। विधेयक आरक्षण पर भी चुप है। इसको लेकर सवाल उठने लगे हैं। विदेश में अमेरिका समेत सभी जगहों पर आरक्षण है। कालेज में है। इंडस्ट्री में है। नीग्रो वगैरह के लिए वे अपने यहां अलग से अवसर देते हैं। ऐसे में यह सवाल तो है ही कि क्या वे यहां के वंचित लोगों को यह मौका देंगे या नहीं? सरकार जीईआर बढ़ाने की बात कर रही है, लेकिन जब वंचितों को मौका ही नहीं मिलेगा तो फिर उनका जीईआर बढ़ेगा कैसे? जीईआर की बात करते हैं तो शिक्षा का अधिकार कानून छह से 14 साल तक के बच्चों के लिए ही क्यों? उसे 18 साल के बच्चों के लिए करिए। सेंट्रल स्कूल जैसी शिक्षा दीजिए। वे भी तो हमने बनाये हैं। तब देखिए जीईआर बढ़ता है कि नहीं। पिछली सरकार में वामदलों के विरोध के कारण यह विधेयक संसद में नहीं पेश हो सका। अब कुछ दूसरे दल भी इसका विरोध कर रहे हैं। क्या इन दलों को नजरअंदाज कर सरकार का आगे बढ़ना ठीक है? हमें तो लगता है कि बीजेपी इसका विरोध नहीं करेगी और कपिल जी (मानव संसाधन विकास मंत्री) जैसा सोचते हैं, वह बीजेपी की सोच है। वह भी शाइनिंग इंडिया वाले हैं। बीजेपी में बहुत लोगों के बच्चे बाहर पढ़ने जाते हैं। जिसने भी पैसे कमाए हैं वह कह रहा है कि चलो अब बच्चे को बाहर पढ़ाते हैं।

मार्च 27, 2010

AIYF 13th National Conference

AIYF 13th  National Conference SIRSA HARYANA INDIA

28th to 31st March, 2007
Sirsa (SIRSA NEWS). 13th ALL India Youth Federation NATIONAL CONFERENCE was inaugurated today on 28th March, 2007 by Mr. A.B. Bardhan National Secretary, CPI at SIRSA. The conference shall conclude on 31st March, 2007.

Scores of delegates from all over India, as well from Sri Lanka, Cuba, China, Bangladesh, Greece, Nepal etc. arrived at Sirsa to attend conferences and cultural events that continued till 31st of March, to commemorate ‘Shaheed-A_Azam’ Bhagat Singh’s Birth centenary.



Comrade A.B. Bardhan Natinal General Secretary CPI, Mr Prithipal Singh Marimegha National President AIYF, Comrade D. Raja former general national secretary AIYF, Mr. P. Devinder Reddy Natinal Gen. Secretary AIYF, Comrade Amarjeet Kaur, Comrade Ragubir Chaudahry, Mr. ML Sehgal, Comrade Swarn Singh Wirk District Secreaty CPI, and Dr. Harnam Singh Ex MLA Haryana ,AISF LEADER Roshan suchan addressed the Anaj Mandi Conference.



Addressing the mammoth gathering under the Grain Market sheds, Mr. Bardhan exhorted the youth of the country to transform India into a country of the dreams of Bhagat Singh aho made supreme sacrifice for the country. Bashing the USA Mr. Bardhan said that once it was said that the sun never set in the British Empire, now the USA is also working for such a dream by spreading its business operations all over the world at the cost of local businesses & industry. He warned that we should wake up to the ill designs of the USA and not let it eat up our own industry businesses especially the one that is in Public sector, as the intention of the USA is to earn money in the name of providing job opportunities to other developing nations. In the long run this shall hamper our personal identity and even in democracy shall make us economic slave to developed nations.






Roshan Suchan of Sirsa elected national Treasurer of AISF;


Roshan Suchan of Sirsa elected national Treasurer of AISF; Paramajit Singh Dhaban is AISF president.

Mr Paramajit Singh Dhaban was elected as the new national president of the All India Students Federation (AISF). In the elections held here yesterday, the last day of the 27th National Conference of AISF, Mr Abhay Taxal and Mr Roshan Suchan were elected as National General Secretary and Treasurer respectively, outgoing National General Secretary Vijeyndra Kesari told mediapersons today. Mr Kesari said the conference had also elected three vice-presidents -- Venkat (Tamil Nadu), T Jismon (Kerala) and Victor (Delhi)- and two national secretaries -- Partho (West Bengal) and Abhinav (Bihar). One post from Andhra pradesh was left vacant, he said, adding, 31 executive committee members were also elected. The elected team would have tenure of three years.
Also associated with communist party  and other youth organizations, humble and benign Roshan who is at present student of Department of Journalism and Mass Communication, Ch. Devi Lal University (CDLU) Sirsa, comes from a rural background, soft spoken and well mannered Roshan is popular with students as well people from all walks of life, he had always stood for the cause of the students and the exploited be it poor or the peasantry class.
Click here for related NEWS: http://sirsanews.blogspot.com/2010/01/high-time-for-police-reforms.html

मार्च 25, 2010

द्वंदात्मक भौतिकवाद और जीव विकास 2.........

गोल्ड अपनी पुस्तक ‘पांडाज थंब’ में लिखते हैं, ” सोवियत यूनियन में विज्ञानियों को एक अलग तरह की दार्शनिक शिक्षा मिलती है – एंगेल्स द्वारा, हीगेल से लेकर, और विकसित किये गये द्वंदात्मक नियमों की शिक्षा. द्वंदात्मक नियम स्पष्ट तौर पर धीमे-तेज विकास के हामी हैं. वे मात्रा के गुणों में परिवर्तन की बात करते हैं । यह अजीब लग सकता है, पर ये बताते हैं कि किसी प्रणाली में धीरे-धीरे इकठ्ठे होनेवाले परिवर्तन या तो दबाव के परिणामस्वरूप वह प्रणाली ऐसी स्थिति में पहुँच जाती है, जब एकदम छलांग द्वारा परिवर्तन होता है. पानी को गर्म करो, यह उबल जायेगा, मजदूरों को अधिकाधिक दबायो, क्रांति हो जाएगी । ऐलड्रिज़ और मुझे यह जानकर बहुत हैरानी हुई कि बहुत पहले रूसी जीवाश्म विज्ञानी भी हमारी ‘पंक्चूएटिड इकूलेबीरीयम’ मॉडल जैसे जीव विकासी सिद्धांतों की धारणाएं रखते हैं । “




अपनी पुस्तक ‘डार्विन के बाद अब तक’ में, गोल्ड, एंगेल्स के आलेख ‘वानर से मानव तक परिवर्तन में श्रम की भूमिका’ का वर्णन करते हुए लिखते हैं, ” असल में, उन्नीसवीं शताब्दी में एक बहुत ही शानदार आलेख प्रकाशित हुआ, जिसके लिखनेवाले के बारे में जानकर, बहुत से पाठक हैरान हो जायेंगे – फ्रेडरिक एंगेल्स । (बेशक यह जानकर, कि एंगेल्स भी प्राकृतिक विज्ञान में गहरी दिलचस्पी रखते थे और वे अपने दर्शन ‘द्वंदात्मक भौतिकवाद’ को एक मजबूत आधार पर निर्मित करते हैं । वे अपनी पुस्तक ‘प्रकृति में द्वंदवाद’ को पूरा न कर सके ) उनकी मृत्यु के बाद, १८९६ में एंगेल्स द्वारा लिखित ‘वानर से मानव तक परिवर्तन में श्रम की भूमिका’ प्रकाशित हुई पर पश्चिमी विज्ञान पर इसका कोई असर न हुआ ।” क्योंकि उनके अनुसार पश्चिमी सोच में पक्षपात बहुत गहराई तक पैठ कर चुका था ।



असल में देखा जाये तो डार्विन के सिद्धांतों पर होनेवाले सैद्धांतिक हमले असल में द्वंदात्मक भौतिकवादी दर्शन को नकारने के नाकाम परन्तु योजनाबद्ध प्रयत्न हैं । आज की परिस्थितियों में परजीवी हो चुके पूंजीवाद को सबसे अधिक खतरा मार्क्सवादी भौतिकवादी दर्शन से है क्योंकि यह वह दर्शन है जो समाज को गति में दिखाता है और वर्णन करता है कि प्रत्येक वस्तु गति में है । जैसे जीव विकास एक निरंतर गतिमान क्रिया है, वैसे ही, मानव समाज भी निरंतर गतिमान है । मानव समाज में भी प्राचीन मिट जाता है और नया उसका स्थान ग्रहण कर लेता है । इसी तरह आरंभिक कबीलाई समाजों के स्थान को गुलामदारी प्रबंध ने ग्रहण किया और फिर सामंतवाद और पूंजीवादी प्रबंध । प्रत्येक प्रबंध अपनी उम्र भोगकर इतिहास के रंगमंच से रुखसत हो गया और उसके स्थान को नये प्रबंध ने संभाल लिया । पूंजीवाद के चाकर इस सच्चाई को नकारने के लिए, हर उस सोच, वैज्ञानिक खोज या मानवीय कोशिश को सबसे पहले दबाने की कोशिश करते हैं, अगर ऐसा नहीं होता है, तो उसकी इस तरह से व्याख्या करने की कोशिश करते हैं कि उसके अन्दर का भौतिकवादी तत्त्व ख़त्म हो जाये और वह पूंजीवादी प्रबंध को सदैव से न्यायोचित ऐलान करने लगे ।



उन्नीसवीं शताब्दी में, जब पूंजीवाद के उभार का दौर था, उस वक्त पूंजीवादी चाकरों की कोशिश होती थी कि किसी वैज्ञानिक खोज से होनेवाले फायदा अधिकाधिक उठाया जाये और इस खोज से आम लोगों तक पहुँचने वाली भौतिकवादी चेतना को किसी न किसी तरह से दूर किया जाये । इससे भी अधिक, अगर हो सके तो उन खोजों को पूंजीवादी-चिरस्थायी तौर पर लोगों की नजरों में परिपक्व सिद्धांत बनाने के लिए इस्तेमाल किया जाये । इस प्रकार फासीवाद को जायज ठहराने के लिए पूंजीवादी चाकरों ने विज्ञान का भरपूर इस्तेमाल किया । नस्ल सुधारने को एक विज्ञान का दर्जा दिया गया । इस तथाकथित विज्ञान के आधार पर उन्नीसवीं शताब्दी के पूरार्द्ध में अमरीका में २०,००० लोगों की जबरन नसबंदी कर दी गयी और नाज़ी जर्मनी में ३.७५,००० लोगों को नपुंसक बना दिया गया । इस काम को सिरे चढाने के लिए बाकायदा कानून बनाये गये । अमरीका के लगभग सभी राज्यों में कानून बनाकर नस्ल सुधारने के विभाग तक बनाये गये ।



विज्ञान के नामपर इस प्रकार के मानवता विरोधी कारनामे बाद में भी जारी रहे । बेशक उपरोक्त किस्म के नस्ल सुधार को विज्ञान द्वारा रद्द किया जा चुका है, पर यह अलग-अलग रूपों में सामने आने लगा जैसेकि साईको सर्जरी । इसके अनुसार सामाजिक समस्याओं का इलाज भी दिमाग का आपरेशन करके किया जा सकता है । इस तरह के ही दो तथाकथित विज्ञानी, वर्तमान मार्क और फ्रैंक इरविन ने यह सुझाव भी पेश कर दिया कि शहरों में होनेवाले दंगे भी दिमागी परेशानी के कारण होते हैं और इसका इलाज झुग्गियों में रहनेवाले लोगों के नेताओं के आपरेशन द्वारा हो सकता है और ऐसा किया भी गया । ऐलन वूड्स और टेड ग्रांट के अनुसार – १९७१ में, अमरीका में ऐसे ही लोगों का इलाज करने के लिए उचित ‘बीमारों’ की सूची मांगी गयी । आपरेशन द्वारा इलाज के लिए भेजे गये आदमियों में अप्रैल, १९७१ के कामगारों की हड़ताल के नेताओं में से एक शामिल था । ये हैं पूंजीवादी चाकरों के कारनामे और वैज्ञानिक खोज !



जीव विज्ञान से बाहर दूसरे विज्ञानों में भी यही स्थिति है । क्वांटम भौतिकी के दार्शनिक नतीजे ‘कोपनहेगन व्याख्या’ इसकी ज्वलंत मिसाल है । जैसे-जैसे पूंजीवाद और अधिक परजीवी होता जा रहा है, उतना ही अधिक यह विज्ञान-विरोधी भी होता जा रहा है । पहले तो यह विज्ञान से निकलने वाले भौतिकवादी परिणामों को बिगाड़ता था, पर अब तो यह विज्ञान के विकास में ही रूकावट बनता जा रहा है ।



पूंजीवाद ने पृथ्वी के गर्भ से निकलने वाले जीवाश्मों को पण्य (commodity) बना दिया है । जीवाश्मों की पूरी दुनिया में फैली एक मंडी है । पूरी मानवता की धरोहर, ये जीवाश्म कुछ लोगों की व्यक्तिगत सम्पत्ति बनते जा रहे हैं । ऐसा एक उदाहरण एक ४७ मिलियन वर्ष पुराने एक कैमूर के जीवाश्म का है । यह अभी-अभी ‘ढूँढा’ गया । यह जीवाश्म दूध पिलाने वाले ऊपरी श्रेणी के और आरंभिक दूध पिलाने वाले प्राणियों के बीच एक महत्त्वपूर्ण लिंक है । पर यह जीवाश्म १९८३ से लेकर २५ वर्षों तक एक जीवाश्म इकठ्ठे करने के शौक़ीन व्यक्ति की व्यक्तिगत सम्पत्ति बना रहा । इस प्रकार और भी जीवाश्मों को, जो व्यक्तिगत सम्पत्ति हैं, किराए पर खोज-कार्यों के लिए दिया जाता है ।



मेडिकल क्षेत्र के बारे में तो जितना कहा जाये उतना ही कम है । दवा कम्पनियां, उस खोज-कार्य जिसमें से मुनाफे की संभावना कम हो या मुनाफे पर चोट करता हो, पर धेला भी नहीं खर्च करतीं । ऐसे कार्यों के लिए अक्सर लोगों को जेब से खर्च उठाना होता है या फिर सरकारों के सामने नाक रगड़नी पड़ती है । बहुत से ऐसे खोज-कार्य बीच में ही बंद हो जाते हैं या फिर बहुत धीमी गति से आगे बढ़ते हैं ।



स्टेम सैल रीसर्च का भी इसीलिए विरोध हो रहा है । बेशक यह विरोध नैतिक और धर्म के चोगे के नीचे हो रहा है । इसका विरोध करनेवाले भी वही हैं, जो समलैंगिक और गर्भपात संबंधी कानूनों का विरोध करते हैं । और इन फासीवादी समूहों को आशीर्वाद किसका है, यह भी सबको पता है ।



इसी प्रकार १९९० में शुरू हुई, बैटरी से चलनेवाली बिजली की कार की परियोजना भी तेल कंपनियों, ऑटो कंपनियों और अमरीका सरकार की मिलीभगत से ठप होकर रह गयी है और यह कार कभी भी सड़क पर नहीं उतर सकी । इस बैटरी से चलनेवाले व्हीकल ने जहाँ प्रदुषण को कम करना था, वही तेल की खपत भी कम करनी थी, पर यह सब तेल कम्पनियों को किस तरह बर्दाश्त होता, इसलिए मिलमिलाकर पूरी परियोजना को कोल्ड स्टोर में रख दिया गया ।



इस प्रकार साफ़ है कि लोगों में भौतिकवादी चैतन्य के प्रसार को रोकने के लिए और इसे कुंठित करने के प्रयासों की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी के रूप में, जीव विकास के सिद्धांत पर, जोकि उतने ही प्रमाणों से सिद्ध हो चुके हैं जितने प्रमाणों से यह सिद्ध हो चुका है पृथ्वी प्लेट जैसी नहीं, बल्कि गेंद जैसी, सूर्य पृथ्वी के नहीं, पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है और सूर्य और चन्द्र ग्रहण किसी राहू-केतू के कारण नहीं बल्कि सूर्य, पृथ्वी और चन्द्रमा के एक रेखा में आ जाने से लगते हैं, विवाद पैदा कर वैज्ञानिक प्राप्तियों और सिद्धांतों के उन क्रांतिकारी अंशों को कमजोर करने की कोशिशे हो रही हैं जो किसी भी वस्तु के चिरस्थाई होने की अवधारणा के परखचे उड़ा देते हैं । इसके साथ ही विज्ञान और दर्शन को मानवता की भलाई के लिए उपयोग के स्थान पर पूंजीवाद की पूरी अधिसंरचना इन्हें मुनाफे की चौहदी में कैद करने और श्रमिक लोगों की अधिकाधिक रत निचोड़ने के साधन मात्र बनाने के लिए दिनरात पंजों के बल खड़ी रहती है । इसलिए वर्तमान समय में, न्याय और समानता पर आधारित शोषण रहित समाज के सृजन का स्वप्न देखनेवाले लोगों के लिए यह जरूरी है कि भौतिकवादी वैज्ञानिक चैतन्य के हक़ में खड़े होने और डार्विन के सिद्धांतों समेत विज्ञान के हर क्षेत्र में हो रहे विचारवादी हमलों का और वैज्ञानिक तथ्यों को विकृत करके पूंजीवाद की सेवा करनेवालों का मुंह-तोड़ जवाब देने के लिए तैयारी करें ।





पंजाबी पत्रिका, नवें समाजवादी इन्कलाब दा बुलारा ‘प्रतिबद्ध’ के जनवरी, २०१० अंक से आभार सहित

द्वंदात्मक भौतिकवाद और जीव विकास 1..........

सबसे बड़ी विलुप्त होनेवाली स्थिति २५० मिलियन वर्ष पहले पेकिअन्योक-मीजोयोक युगों के बीच पैदा हुई जब जल और थल दोनों जगहों के ५० फीसदी जंतुओं और रेंगने वाले ८० फीसदी जंतुओं की प्रजातियाँ विलुप्त हो गयीं । इस प्रकार की अंतिम घटना ६३ मिलियन वर्षों पहले हुई जिसके परिणामस्वरूप अन्य अनेक प्रजातियों समेत डाइनासोर भी विलुप्त हो गये । पर ये घटनाये जीव विकास के राह में रूकावट नहीं बनती हैं, बल्कि जीव विकास को नए और उच्च धरातल पर ले जाती हैं । क्योंकि इन घटनाओं से नई प्रजातियाँ अस्तित्व में आती हैं जो पहले वाली प्रजातियों के मुकाबले अधिक विकसित होती हैं ।




‘कैंबरियन धमाके’ की डार्विन अपनी खोजों के आधार पर व्याख्या करने में असफल थे, पर उस समय डार्विन ने यह कहा कि किसी कारण जीवाश्म संबंधी मानव जानकारी अभी अधूरी है और भविष्य में यह जानकारी मुकम्मल हो जाएगी । पर समय के साथ यह पता चला कि जीवाश्म संबंधी जानकारी बिलकुल सही थी और जीवाश्म में अधूरापन इतना भी अधिक नहीं है कि ‘कैंबरियन धमाके’ को सिर्फ जानकारी का अधूरापन कह कर काम चला लिया जाये । इसी प्रकार कई बार प्रजातियों के बीच के रूप भाव ‘लिंक प्रजाति’ भी नहीं मिलती, उन स्थितियों में डार्विन के सिद्धांतों के अनुसार नई प्रजाति की उत्पति की व्याख्या करनी मुश्किल हो जाती है ।



इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए, अमरीका के भू-विज्ञानी स्टीफन जे गोल्ड और नीलज़ ऐलड्रिज़ ने १९७१ में जीव विकास का नया सिद्धांत पेश किया, जो न सिर्फ डार्विन के सिद्धांत के महत्त्व को बनाये रखता है, बल्कि इस और अधिक अमीर बनाते हुए जीव विकास के सिद्धांत को इस काबिल बना देता है, जिससे ‘कैंबरियन धमाका’ और तेजी से प्रजातियों के विलुप्त होने से पैदा होनेवाली घटनाओं की सटीक व्याख्या होती है । इस सिद्धांत का नाम है – ‘पंक्चूएटिड इकूलेबीरीयम’ .



गोल्ड और ऐलड्रिज़ ने अपने निबंधों में यह काफी हद तक सिद्ध कर दिया कि जीव विकास की प्रक्रिया हर समय एक ही रफ़्तार से सीधी रेखा में नहीं चलती बल्कि इस प्रक्रिया में धीमें और लटकते हुए अंतरालों में कुछ पड़ाव ऐसे आते हैं जब जीव विकास की प्रक्रिया तीव्र हो जाती है । इस तीव्र दौर में धीमें विकास के दौरान जमा हुए मात्रात्मक परिवर्तन गुणात्मक परिवर्तनों में बदल जाते हैं । गोल्ड के अनुसार जीव विकास सदैव प्रगतिशील ही नहीं होता, बल्कि कई बार विपर्ययवादी भी होता है, क्योंकि कई जीव जीवित रहने के लिए दूसरे जीवों के परजीवी बन जाते हैं, जैसे की वृक्षों पर लटकती हुई अमरबेल, अलग-अलग परजीवी कीड़े आदि ।



डार्विन इस प्रकार की संभावना से अनजान नहीं थे । ‘जीव की उत्पति’ के पांचवें एडिशन में डार्विन लिखते हैं, “समय के जिन खण्डों में प्रजातियों में परिवर्तन आते हैं, वे प्रजातियों के लगभग स्थिर रहनेवाले समय खण्डों के मुकाबले छोटे होते हैं ।” चार्ल्स डार्विन, जीवों की उत्पति, १८६९ लन्दन, जॉन मरे, पांचवां एडिशन, पेज -५५१)



इस सिद्धांत के प्रस्तुत करने के समय से ही गोल्ड और ऐलड्रिज़ का बाकी बहुत सारे विज्ञानियों द्वारा निरंतर विरोध होता रहा है क्योंकि छलांगों द्वारा जीव विकास का सिद्धांत पूंजीवाद के बंधक चाकर गुलामों को हजम नहीं होते और वे धीमें और लटकते हुए बदलावों के सिद्धांत को ही एकमात्र सही सिद्धांत सिद्ध करने पर तुले रहते हैं । इस विरोधी शिविर में एक बार रिचर्ड डाकिनज़ और जॉन मेरिनार्ड स्मिथ प्रमुख रहे हैं । अपने मृत्यु के वर्ष, २००२ तक, गोल्ड ने अपने सिद्धांत की डटकर हिमायत की और अन्य तरह के शंकों का निवारण किया. चार्ल्स डार्विन के बाद, स्टीफन जे गोल्ड को जीव विकास के क्षेत्र में दूसरा सबसे बड़ा नाम माना जाता है ।



गोल्ड के सिद्धांतों की रोशनी में आज, छलांगों द्वारा जीव विकास के सिद्धांत को अधिकाधिक मान्यता मिल रही है और जीव विकास विज्ञान के क्षेत्र में ऐसे तरीकों की खोज हो रही है जो इस सिद्धांत को और अधिक स्पष्ट कर रहे हैं ।

द्वंदात्मक भौतिकवाद और जीव विकास

द्वंदात्मक भौतिकवाद और जीव विकास


द्वंदात्मक भौतिकवादी नजरिये के जन्मदाता, मार्क्स और एंगेल्ज़, ने डार्विन की खोजों का पुरजोर समर्थन किया । इसके अलावा इसके अधूरेपन और भविष्य में इसके और विस्तारित होने की पेशनगोई भी की । डार्विन की खोजों ने मार्क्स-एंगेल्ज़ के भौतिकवादी नजरिये को प्रकृति में और स्पष्टता से सिद्ध किया । जनवरी १८६१ में मार्क्स ने एंगेल्ज़ को लिखा, “डार्विन की पुस्तक (जीवों की उत्पति – अनु.) बहुत ही महत्त्वपूर्ण है और इसने मुझे वर्ग संघर्ष के लिए प्राकृतिक आधार प्रदान किया है । पर इसमें हमें विकास के अपरिपक्व तरीके को भी सहन करना पड़ता है । अपनी सभी सीमाओं के बावजूद, न सिर्फ उदेश्यवाद (Taleology) (हर वस्तु के पीछे कोई न कोई उदेश्य होता है. अनु.) की प्राकृतिक विज्ञान में विद्यमान धारणा पर निर्णायक चोट है, बल्कि अपने तार्किक मतलब की भी अच्छी तरह व्याख्या करती है ।”



‘डियूरिंग विरुद्ध’ पुस्तक में एंगेल्ज़ ने लिखा, ” जीव विकास का सिद्धांत अभी अपने प्रारंभिक चरणों में है और इसमें कोई शक नहीं कि भविष्य की खोजें हमारी अब तक की जीव विकास संबंधी धारणाओं, डार्विन की खोजों समेत, को बदल देंगी ।”



इसी प्रकार एंगेल्ज़ ने ‘डाईलेक्ट्स ऑफ नेचर’ में भी डार्विन के ‘जीवित रहने के लिए संघर्ष’ के सिद्धांत का मूल्यांकन कुछ इस प्रकार किया, ” डार्विन से पहले तक, उसके अबतक के पक्के अनुयायी भी प्रकृति में सामंजस्यपूर्ण सहयोग पर जोर देते हैं, कि कैसे पौधे, जीव, जंतुओं को खाद्य-खुराक और आक्सीज़न प्रदान करते हैं और जीव जंतु पौधों को बदले में खाद, अमोनिया और कार्बोनिक एसिड (कार्बन डाईआक्साईड – अनु.) प्रदान करते हैं । जैसे ही डार्विन का सिद्धांत सामने आया, इन्हें हर जगह संघर्ष ही दिखाई देने लगा । दोनों ही नजरिये अपनी-अपनी सीमाओं के अन्दर ठीक हैं, पर दोनों ही एक समान तरह से एकतरफा और तुअस्बग्रस्त हैं । जैसे प्रकृति में निर्जीव वस्तुओं के संबंध अनुरूपता के टकराव दोनों तरह के होते हैं, वैसे ही सजीव वस्तुओं में भी सचेतन और अचेतन सहयोग के साथ-साथ सचेतन और अचेतन संघर्ष भी होता है । इसलिए, प्रकृति के संबंध में, सिर्फ संघर्ष को ही सबकुछ मान लेना ठीक नहीं । बल्कि ऐतिहासिक जीव विकास और जटिलता की पूरी दौलत को एक छोटे से और एकतरफा वाक्यांश ‘जीवित रहने के लिए संघर्ष’ में बाँधने की इच्छा करनी बचकाना ही होगी । इसका कुछ भी मतलब नहीं है ।



‘डार्विन का जीवित रहने के लिए संघर्ष’ का सिद्धांत समाज में प्रचलित अवधारणाओं जैसे सबकी सबके खिलाफ जंग, की हौबिस की थियूरी , मुकाबले की बुर्जुआ अर्थशास्त्र की अवधारणा और माल्थस की जनसंख्या संबंधी अवधारणा का प्रकृति विज्ञान में लागू करने का प्रयत्न हैं । जब ऐसा करके सफलता हासिल कर ली गयी है (बेशक इस मूलभूत आधार, माल्थस की थियूरी पर आज तक प्रश्न चिह्न लगा हुआ है), यह आसान हो जाता है कि प्रकृति विज्ञान की अवधारणाओं को समाज के इतिहास पर लागू कर दिया जाये और इसे बिलकुल सीधे-सादे तरीके से कहा जाता है कि इस तरह ये प्रस्तुतियां समाज के चिरस्थायी नियमों के तौर पर सिद्ध की जा चुकी हैं । ” (मार्क्स-एंगेल्ज़, सम्पूर्ण रचनाएँ, जिल्द 25, पेज, 583-584, अंग्रेजी एडिशन 1987, प्रगति प्रकाशन.)



“जीवित रहने के लिए संघर्ष – सबसे बड़ी बात यह है कि इसे पौधों और जनसँख्या की अधिक बढौतरी तक ही सीमित रखा जाये, जोकि पौधों और निम्न जंतुओं के विकास के कुछ चरणों में वास्तव में होता है । परन्तु इन्हें उन परिस्थितियों में, जिसकी जीव-जंतुओं और पौधों को नए वातावरण पर भू-परिस्थितियों वाले नए भूभागों में परवास से बिलकुल अलग रखा जाना चाहिए जिनमें जीवों की प्रजातियाँ बदलती हैं, पुरानी मर जाती हैं और नई विकसित उनका स्थान ग्रहण कर लेती हैं, जनसँख्या में अधिक बढौतरी हुए बिना ही । नए वातावरण में जो जीव स्वयं को ढाल लेते हैं, जीवित रह जाते हैं और लगातार बदलावों से स्वयं को एक नई प्रजाति में विकसित कर लेते हैं पर ज्यादा स्थिर जीव मर जाते हैं और विलुप्त हो जाते हैं, साथ ही मंझोले जीव-रूप भी विलुप्त हो जाते हैं । यह सब कुछ किसी भी माल्थसवाद के बिना संभव है और होता है भी है, और अगर यह लागू भी होता है तो यह उस प्रक्रिया को, ज्यादा से ज्यादा थोडा तेज कर देता है ।”वही पेज, 582-83)



“चलें तर्क करने के लिए ‘जीवित रहने के लिए संघर्ष’ नाम के वाक्यांश को मान भी लें । एक जानवर ज्यादा से ज्यादा इकठ्ठा कर सकता है, पर इन्सान तो उत्पादन करता है । वह जीवित रहने के साधन तैयार करता है, ज्यादा विस्तारित शब्दों में, जोकि प्रकृति ने उसके बिना न बनाये होते । यह जानवरों पर लागू होनेवाले नियमों को मानव समाज पर अपरिपक्व तरीके से लागू करना मुश्किल बना देता है । उत्पादन के कारण जल्दी ही ‘जीवित रहने का संघर्ष’ शुरू हो जाता है, पर यह संघर्ष जीवित रहने के साधनों के लिए नहीं, बल्कि मनोरंजन और विकसित होने के साधनों के लिए होता है । यहाँ – क्योंकि विकसित होने के साधन भी सामाजिक तौर पर पैदा होते हैं – जानवरों पर लागू होनेवाले नियम पूरी तरह से आधारहीन हो जाते हैं । अंत में, पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली में, उत्पादन का स्तर इतना ऊँचा हो जाता है कि समाज जीवित रहने, मनोरंजन और विकसित होने के साधनों का अब और पूरी तरह उपयोग नहीं कर सकता क्योंकि उत्पादन करने वालों के बड़े हिस्से को इन साधनों के उपयोग करने से गैर-कुदरती तरीके से और जबरन हटा दिया जाता है । और इसीलिए संतुलन कायम रखने के लिए एक संकट (आर्थिक संकट – अनु.) प्रत्येक दस वर्षों बाद न सिर्फ जीवित रहने के, मनोरंजन और विकसित होने के साधन, बल्कि उत्पादन शक्तियों के एक बड़े हिस्से का भी विनाश कर देता है । इस प्रकार, यह ‘जीवित रहने के लिए संघर्ष’ कुछ इस तरह का रूप धारण कर लेता है – बुर्जुआ समाज द्वारा पैदा की गई वस्तुएं और उत्पादक शक्तियों की पूंजीवादी प्रणाली के विनाशकारी, विध्वंशकारी प्रभावों से रक्षा करने के लिए, सामाजिक उत्पादन और वितरण का अधिकार, इस कार्य के लिए अयोग्य हो चुकी पूंजीपति जमात के हाथों से छीन लें और इसको उत्पादन करनेवाले जन-समूहों को सौंप दें -और यह है समाजवादी क्रांति ।



“वर्ग संघर्षों के क्रमिक सिलसिले के तौर पर इतिहास का बोध, इनको ‘जीवित रहने के संघर्ष’ के बहुत कम विभेदन वाले चरणों तक सीमित कर देने से विषय-वस्तु और गंभीरता के पक्ष के लिहाज से कहीं अधिक अमीर है ।” (वही, पेज -584 -85 )



“डार्विन को पता नहीं था कि उसने मानवता, विशेषतया अपने देववासियों पर कितना कड़वा व्यंग्य लिख दिया है, जब उसने यह दिखा दिया कि ‘मुक्त प्रतिस्पर्द्धा’ , जीवित रहने के लिए संघर्ष जिसको अर्थशास्त्री सबसे ऊँची ऐतिहासिक उपलब्धि समझते हैं, जानवरों की दुनिया में एक आम स्थिति है । जैसे उत्पादन की क्रिया ने मानव को अन्य जानवरों से जीव-वैज्ञानिक तौर पर विभेदन प्रदान किया, उसी प्रकार सामाजिक पक्ष से भी ; सिर्फ चैतन्य तौर पर सामाजिक उत्पादन के ढांचे, जिसमें उत्पादन और वितरण योजनाबद्ध तरीके से होगा, मानवता को अन्य जानवरों से श्रेष्ठता प्रदान करेगी । इतिहास विकास इस प्रकार को दिन-प्रतिदिन आवश्यक ही नहीं बना रहा, बल्कि अधिकाधिक संभव भी बना रहा है ।” (वही, पेज -331 )



जैसे एंगेल्ज ने ‘ डियूरिंग विरुद्ध’ में यह कहा था कि जीव विकास के सिद्धांत अभी और विकसित होंगे, उसी प्रकार डार्विन को भी अपने सिद्धांत में विद्यमान खामियों का अहसास था ।



जीवाश्म विज्ञान के अनुसार, कैंबरियन युग (६००-७०० मिलियन वर्ष) से पहले की चट्टानों में जीवों के बहुत कम अंश मिलते हैं और वह भी ‘परोकेरीआईक’ नाम के आरंभिक जीव-रूप ही मिलते हैं । पर इससे बिलकुल बाद की चट्टानों में एकदम ही अलग तरह के बहुभांति जीव-रूप मिलते हैं । इनमें वर्तमान में मौजूद जीवों के लगभग बहुत जीव-रूप मिल जाते हैं. इसको ‘कैंबरियन धमाका’ कहा जाता है । यह ध्यान रखना चाहिए कि यह ‘कैंबरियन धमाका’ कोई रातों-रात हो गयी घटना नहीं थी, बल्कि कई मिलियन वर्षों में होनेवाली घटना थी, पर भू-वैज्ञानिक तौर पर देखा जाये तो पृथ्वी की उम्र के मुकाबले यह घटना एक धमाके की तरह ही तेजी से होनेवाली घटना थी । इसके पश्चात् अनेक प्रजातियाँ अस्तित्व में आ गयीं । डार्विन के समय भी इस तथ्य का ज्ञान था । बाद में यह भी सिद्ध हो गया कि समय-समय पर पृथ्वी पर कुछ इस प्रकार की परिस्थितियाँ पैदा होती हैं, चाहे ये परिस्थितियाँ कई मिलियन वर्ष लंबी होती हैं, पर फिर भी भू-वैज्ञानिक तौर पर बहुत छोटी होती हैं, जिस दौरान पृथ्वी पर उस वक्त मौजूद बहुत सारी प्रजातियाँ विलुप्त हो जाती हैं और उनके स्थान पर नई प्रजातियाँ पैदा हो जाती हैं जो समय के साथ धीरे-धीरे विकास करती हैं, विकास के इस चरण में, जब नई प्रजातियों के अस्तित्व में आ जाने के बाद के समय में ‘प्राकृतिक चुनाव’ अहम भूमिका निभाता है । इस तरह जीवों की प्रजातियों के तेजी से विलुप्त होने की अब तक छः घटनाएँ हो चुकी हैं ।

नव-डार्विनवाद 1...........

बीसवीं शताब्दी के पिछले अर्द्ध की महत्त्वपूर्ण खोज पीढ़ी दर पीढ़ी जीवों की बनावट और अन्य लक्षणों संबंधी सूचना संचारित करनेवाला रसायन डी.एन.ए. है. १९५३ में वाटसन और क्रिक ने डी.एन.ए. की बनावट का मॉडल विकसित कर लिया और इसके बाद जीनज़ की खोज हुई. जीन डी.एन.ए. एक विशेष प्रकार से डिज़ाईन किया गया और यह शरीर के किसी एक हिस्से या लक्ष्ण संबंधी सूचना जमा रखता है, एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक यह सूचना संचारित करता है, जैसे आँखों का रंग, आदमी का कद, चमड़ी का रंग, जीव के बालों का रंग आदि. जीन कोशिका के केन्द्रक (नीयूक्लियस) में पड़े रहते हैं और कोशिका की क्रियायों को रेगूलेट करते हैं । इस खोज के पश्चात कुछ विज्ञानियों ने प्रत्येक मानवी क्रिया चाहे वह शारीरिक हो, मानसिक या सामाजिक, का आधार जीन के रूप में डी.एन.ए. के टुकड़े को बना दिया । जीव विकास होता है तो जीनों में सांयोगिक बदलावों से होता है, कोई मनुष्य अपराध कर लेता है तो उसके जीन में नुक्स है, अगर कोई उच्च शिक्षा प्राप्त कर लेता है तो उसके जीन बेहतर हैं, अगर कोई आलिशान घर में रहता है, तो उसके जीन ही इतने काबिल हैं, अगर कोई पूंजीपति अमीर बनता जा रहा है और मजदूर दिन प्रतिदिन गरीब तो अमीर पूंजीपति के जीन गरीब मजदूर के जीनों से बेहतर हैं, अगर किसी को क्रोध अधिक आता है तो उसमें क्रोध वाले जीन अधिक हैं इत्यादि ।




रिचर्ड डाकिंज़ ने मानव की संस्कृति और स्वभाव की व्याख्या करने हेतू एक नया सिद्धांत पेश किया, कि हर व्यक्ति में स्वभाव के अलग-अलग लक्षणों के लिए, जैसे क्रोध, लालच, परोपकार, खीझना, हंसमुख होना आदि के लिए जीनज़ की तरह ही ‘मीमज़’ (Memes) होते हैं । चाहे अभी तक इन ‘मीमज़’ का पता-ठिकाना नहीं चला है । उसके अनुसार ‘मीमज़’ ही मानव का स्वभाव और सभ्यता तय करती हैं और इन्हें बाह्य वातावरण और मानव की परिस्थितियों के बदलने से बदला नहीं जा सकता । लेकिन अगर थोडा बारीकी में जाएँ, तो देखेंगे कि हर समाज और मानव समूह की सभ्यता प्रत्येक पीढ़ी के साथ बदलती रहती है, बल्कि एक मनुष्य के स्वभाव और सभ्यता में उसके जीवन काल में परिवर्तन आते रहते हैं । अगर डाकिंज़ के अनुसार चलें तो हर अपराधी की सन्तान अपराधी होगी, शराबी की शराबी, गुस्सैल की सन्तान गुस्सैल, शर्मीले की संतान शर्मीली और हंसमुख की सन्तान हंसमुख. और इससे भी बढ़कर मानव सारी उम्र एक जैसा ही बना रहेगा । पर हम देखते हैं ऐसा बिलकुल नहीं होता, प्रतिदिन डाकिन्ज़ साहेब का सिद्धांत मानव जीवन द्वारा गलत साबित किया जाता है । असल में इस प्रकार के सिद्धांत सिर्फ इसलिए निर्मित किये जाते हैं ताकि लोगों को मुर्ख बनाया जा सके । दूसरे महारथी स्टीवन पिंकर का ‘विकासवादी मनोविज्ञान’ का वर्णन भी कुछ इसी प्रकार का ही है । बस पिंकर साहेब ‘मीमज़’ के स्थान पर मॉडियूल (Module) शब्द का प्रयोग करते हैं । इनके अनुसार भी मानव स्वभाव को, इसलिए मानव समाज को बदला नहीं जा सकता । इस सिद्धांत को मनोविज्ञानियों द्वारा पूर्णतया रद्द किया जा चूका है । ज्यादातर मनोविज्ञानी यह मानते हैं कि मानव स्वभाव चाहे कुछ हद तक वंशानुगत होता है पर ज्यादातर यह सामाजिक हालात और मानव के छोटी उम्र में पालन-पोषण, माता-पिता का प्यार, सेहत और शिक्षा पर निर्भर करता है ।



इस सोच के कारण, बहुत समय तक यह समझा जाता रहा कि मानव के विकास दौरान सबसे पहले दिमाग का आकार बड़ा हुआ, उसने अपने हाथ का प्रयोग और सीधा खड़ा होना सीखा, इसी कारण से ही वह भाषा का प्रयोग करने लगा और अपने दिमाग द्वारा सोचने से ही वह समूह बनाकर, फिर मानव समाज के रूप में रहने लगा । पर, असल में, जैसाकि एंगेल्ज़ ने अपने आलेख ‘वानर से मानव तक परिवर्तन में श्रम की भूमिका’ में पेश किया था, सबसे पहले मानव के पूर्वज वृक्षों से उतरकर धरती पर चलने लगे जिस दौरान वे सीधा खड़े रहकर चलना सीखे । इस प्रकार अगले पंजे चलने से मुक्त होकर अन्य कार्यों के लिए प्रयुक्त होने लगे, जिस कारण मानव औजारों का प्रयोग करने लगा, जो बाद में भाषा और सामाजिक उत्पादन का कारण बना । इसके साथ ही हाथों का प्रयोग होने के कारण दिमाग का आकार बड़ा होने लगा, जो हाथों के विकास होने से कहीं बाद में जाकर हुआ । इन सच्चाईयों को आधुनिक जीवाश्म विज्ञान ने पूरी तरह स्पष्ट कर दिया है ।



इसके बारे में ज्यादा विस्तार से जॉन पिकार्ड के आलेख “एंगेल्ज़ और मानव विकास’ में पढ़ा जा सकता । जीनज़ में आनेवाली तब्दीलियों के जीव विकास में भूमिका के बारे में ब्रिटिश विज्ञानी जे. बी. एस. हालडेल ने भी अपने आलेखों में विस्तार सहित लिखा है ।



हाल्डेल ने १९२९ में जीवन के पहले रूपों की उत्पत्ति के रहस्यों से आवरण उठाया । हालडेल के समय में ही, एक सोवियत विज्ञानी, अलेग्जान्द्र उपरेन भी उन्हीं नतीजों पर पहुंचा, इसलिए इस थियूरी को उभयनिष्ठ तौर पर उपरेन-हाल्डेल मॉडल कहा जाता है । इन दोनों विज्ञानियों ने अपने खोज कार्यों में द्वंदात्मक भौतिकवाद को लागू करते हुए इस सिद्धांत की खोज की । १९५३ में मिलर और युरे ने प्रयोगशाला में इस थियूरी को सही सिद्ध कर दिया । अब इस सिद्धांत को थोडा सुधार कर के.आर. एन.ए. मॉडल का रूप दे दिया गया है ।

नव-डार्विनवाद

नव-डार्विनवाद


एक और छुपा हुआ हमला हुआ है डार्विन के सिद्धांत पर । यह छुपा हुआ इस अर्थ में है क्योंकि यह स्वयं को डार्विन के मानने और फैलाने के चोगे में छिपाकर रखता है, इसका नाम है नव-डार्विनवाद । इसीका ही विस्तारित रूप है, आधुनिक जीव विकास का सिद्धांत ।



नव-डार्विनवाद शब्द का प्रयोग सबसे पहले वीज़मैन (Weissman ) नाम के विज्ञानी के सिद्धांत के अनुयायियों के लिए किया गया । उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में १८९५ में वीज़मैन ने यह सिद्ध किया कि वातावरण के प्रभाव अधीन किसी जीव में होनेवाले बदलाव आगमी पीढ़ी के जीवों में संचारित नहीं हो सकते । इसको वीज़मैन की ‘जर्म-प्लाज्म थियूरी’ कहा जाता है । इस सिद्धांत ने मुख्य तौर पर लैमार्क के जीव विकास के सिद्धांत पर चोट की और जीव विज्ञानियों ने लैमार्क के ‘वातावरण के प्रभाव के अधीन आनेवाले बदलाव का कारण जीव विकास होने के सिद्धांत ‘ को पूरी तरह रद्द कर दिया । अपने सिद्धांत को सही सिद्ध करने के लिए वीज़मैन ने कुछ प्रयोग किये जिनमें चूहों की पूँछें काटने वाला प्रयोग सबसे प्रसिद्ध है ।



वीजमैन के इस प्रयोग में, पीढ़ी दर पीढ़ी चूहों की पूँछें काटी गयी, पर हरवार चूहों की अगली पीढ़ी में पूंछ उग आती थी. इससे उसने यह नतीजा निकाला कि शरीर पर पडनेवाले प्रभाव वंशानुगत तौर पर अगली पीढ़ियों में संचारित नहीं होते. सबसे पहले तो इस प्रयोग में बहुत बड़ी खामियां है – जैसेकि जीव विकास प्राकृतिक स्थिति में होता है और उसे बहुत लंबा समय लगता है । दूसरा उस गुण की, जो प्रकृति में संचरण के लिए जीव के लिए लाभदायिक होता है, प्राकृतिक देन होता है । इस प्रयोग को करने से पहले चूहे के लिए पूंछ की उपयोगिता है या नहीं, के बारे में कुछ भी निर्धारित नहीं किया गया । इसके अलावा नये अध्ययनों और खोजों से यह स्पष्ट हो गया है कि शारीरिक तौर पर पडनेवाले बाहरी प्रभाव, एक जीव से उसकी, जहाँ तक कि कई पीढ़ियों तक भी संचारित हो सकते हैं और इससे विज्ञान की एक पूरी शाखा ‘ऐपीजैनेटिक्स’ अस्तित्व में आ गयी है.



वीज़मैन की ‘जर्म-प्लाज़्म थियूरी’ और डार्विन की ‘प्राकृतिक चुनाव’ को आधार बनाकर ही आधुनिक जीव विकास अस्तित्व में आया । इस सिद्धांत के अनुसार जीवों में आये अलग-अलग बदलावों में कुछ बदलाव, जो जीव के लिए वातावरण में संचरण और अपने अस्तित्व को बनाये रखने के लिए सहायक सिद्ध होते हैं, प्रकृति द्वारा चुन्न लिए जाते हैं । भाव कि जिस जीव में ये लाभदायिक बदलाव आते हैं, उस जीव को वातावरण में जिंदा रहने का ज्यादा मौका मिलता है और इसलिए उस द्वारा प्रजनन करने के अवसर भी ज्यादा होते हैं और धीरे-धीरे बदलावों वाले जीवों की गिनती मुख्य हो जाती है और समय पाकर और बदलावों के जमा होते जाने के कारण एक नयी प्रजाति अस्तित्व में आ जाती है । यहाँ तक बिलकुल डार्विन के सिद्धांतानुसार है. पर आधुनिक जीव विकास संबंधी सिद्धांतानुसार बदलावों के आने का कारण वातावरण और हालात अनुसार स्वयं को ढलने की जीव की जरूरत नहीं, बल्कि बदलाव जीव के जीनस में संयोगवश होनेवाले आकस्मिक परिवर्तन हैं । इस प्रकार नव-डार्विनवादी प्राकृतिक परिस्थितियों का जीव पर पड़नेवाले प्रभावों से बिलकुल मुकर जाते हैं । यहां से शुरू हुआ यह विचारवादी तर्क बढ़ता हुआ यहाँ तक चला जाता है कि मानव की बनावट और स्वभाव सबकुछ पहले ही निश्चित है और इसे मानव की सामाजिक परिस्थितियों को बदलने से बदला नहीं जा सकता और ऐसा करने के प्रयत्न गैर-वैज्ञानिक और प्रकृति के विरुद्ध हैं और डार्विन विरोधी हैं । नव डार्विनवादी परम्परा में से मुख्य हैं – रिचर्ड डाकिंज़ और स्टीवन पिंकर ।

डार्विन के आलोचक..

एक और अमेरिकी संस्था, टेम्पलटन फाऊंडेशन नें वर्ष २००६ में ६० मिलियन डॉलर, उन व्यक्तिओं के प्रोजेक्टों के लिए बांटे, जो ‘विज्ञान’ और अध्यात्मवादी विचारों का मेल मिलाप कराने की कोशिशों में जुटे हुए हैं । इन व्यक्तिओं में अमेरिका और इंग्लैंड के अलावा पूरी दुनिया के अध्यापक, विद्यार्थी, पत्रकार, शोध-कर्त्ता और युनिवर्सिटियों के प्रोफैसर, अकादमीशियन शामिल हैं. यू. एस. क्रॉनिकल ऑफ़ हायर एजुकेशन में छपे एक लेख के अनुसार उपरोक्त संस्था नें २५० मिलियन डॉलर से ज्यादा की धनराशी विज्ञान की इस तरह की ‘सेवा’ के लिए खर्ची । यह संस्था खुले-आम पूँजीवाद तथा मुनाफा आधारित उद्यम की हिमायत करती है ।




इस तरह की एक संस्था वार्डी फाऊंडेशन ब्रिटेन में काम करती है । यह संस्था मुख्य तौर पर वार्डी कार बिजनैस के मुनाफे पर चलती है । इसका मुख्य काम भी ईसाई मूल्यों और मान्यताओं का प्रचार करना और स्कूल खोलना है । इस संस्था के स्कूलों में ईश्वरवादी सृजनात्मकता को विज्ञान के तौर पर पढ़ाया जाता है ।



भारत में भी ऐसी संस्थाएं मौजूद हैं. इनमें से एक है- कृष्णा कान्सैंस (चेतना). यह संस्था भी अपने अन्य कामों के साथ-साथ ईश्वरवादी सृजनात्मकता के सिद्धांत का प्रचार करने के लिए जगह जगह व्याख्यानों का आयोजन करती है और पर्चे बांटती है ।



पूंजीवादी प्रतिक्रियावादी शक्तियों के उपाय सिर्फ नए सिद्धांत घड़ने और उनका प्रचार करने तक ही सीमित नहीं हैं, वह पूंजीवादी सत्ता को अपने ‘विज्ञान’ (?) को लोगों पर थोपने के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं । स्कूलों में ‘सचेतन सृजनात्मकता’ के सिद्धांत को पढ़ाने के लिए अमेरिकी अदालत में केस किया गया । सारे पूंजीपति ऐसे सिद्धांतकारों और ऐसे सिद्धांतों के पक्ष में खड़े हैं । मिसिसिपी, उकलहामा और न्यू मैक्सिको की प्रतिनिधि सभाओं में वर्ष 2009 के दौरान डार्विन के जीव विकास के सिद्धांत को एक ‘विवादग्रस्त सिद्धांत’ का दर्ज़ा देने या फिर दूसरे सिद्धांतों की शिक्षा देने के बिल दाखिल हो चुके हैं । लुसिआना स्टेट की प्रतिनधि सभा तो एक ऐसा ही बिल पास भी कर चुकी है और गवर्नर बॉबी जिंदल ने हस्ताक्षर भी कर दिये हैं ।



इस तरह की ही लड़ाई टेक्सास में चल रही है, जिसके अनुसार कक्षाओं में अध्यापकों को डार्विन के जीव विकास के सिद्धांत की आलोचना करनी अनिवार्य हो जायेगी । यह सिर्फ अमेरिका तक ही सीमित नहीं, इंग्लैंड में भी ऐसी ही कोशिशें जारी हैं, और यूरोप के कई और देशों में भी बाइबल की उत्पत्ति की धारणा को स्कूलों के सिलेबस में पढ़ाने के उपाए किये जा रहे हैं । भारत में भी वह दिन दूर नहीं, यहाँ भी ज्योतिष को तो पहले ही विज्ञान का दर्ज़ा मिल चुका है ।



और तो और कानास यूनिवर्सिटी के प्रोफैसर पाल मिरेकी को डार्विन के सिद्धांत की प्रौढ़ता करने की वजह से जान से मारने की धमकियाँ दीं गयीं, उसको बुरी तरह पीटा गया जिस वजह से उन्हें अस्पताल दाखिल करवाना पड़ा । उन्हें उस पद से हटा दिया गया और उनसे अपराधियों की तरह पूछताछ की गयी ।



आम तौर पर विज्ञान से सम्बन्धित शोध-कार्य या किसी संग्रहालय के निर्माण के लिए कोर्पोरेट जगत चंदा मुहैया करवाता है । लेकिन नवम्बर 2005 में जब ‘अमेरिकन मियुसियम ऑफ नैचुरल हिस्ट्री’ को नए सिरे से बनाने और जीव विकास के सिद्धांत को लोगों में प्रचारित करने की बात हुई तो किसी भी कोर्पोरेट घराने नें चंदा देने की ज़हमत नहीं उठायी और इस संग्रहालय द्वारा लगाई गयी प्रदर्शनी ‘डार्विन’ को मीडिया में कोई कवरेज नहीं दी गयी । लेकिन जब 25 मिलियन डॉलर की लागत से ‘ईश्वरवादी उत्पत्ति’ के संग्रहालय को बनाने की बात चली तो कोर्पोरेट जगत नें दिल खोलकर चंदे मुहैया करवाए । इस संग्रहालय में डायनासोरों को मनुष्यों के साथ रहते हुए दिखाया जा रहा है । इस तरह पढ़ाया जाता है कि भयानक बाढ़ आने से पहले मनुष्य और डायनासोर इकट्ठे धरती पर रहते थे । वैज्ञानिक इस बकवास को कब का रद्द कर चुके हैं । डायनासोर लगभग 63 मिलियन वर्ष पहले धरती से अलोप हो चुके हैं और मनुष्य जैसे पहले प्राणी की उत्पत्ति 4 से 10 मिलियन वर्ष से पुरानी नहीं । यह है वह विज्ञान जिसे पूँजीवाद पढ़ा रहा है और फाईनैंस कर रहा है । जबकि पूंजीवादी टहलुये यह डींग मारते नहीं थकते कि पूँजीवाद के बिना विज्ञान का विकास रुक जाएगा ।

डार्विन के आलोचक.............

इसी तर्क को थोडा और आगे लेकर जाइये – घडी, मशीन या कंप्यूटर को बनाने वाला सचेतन मानव दिमाग बहुत जटिल है, तो इतने जटिल मानव दिमाग को बनाने वाली शक्ति तो और भी जटिल होगी । फिर इस और भी जटिल शक्ति को बनाने के लिए और भी ज्यादा जटिल शक्ति – और इस यह जटिलता का पहाड़ा कभी न ख़त्म होने वाला थोथा तर्क बन जाता है ।




एक और तर्क के अनुसार जीवाणु (Bacteria) को गति प्रदान करने वाले हिस्से फ्लैजिला (Flagella), मनुष्य की प्रतिरक्षा प्रणाली या उसकी आँख जैसे अंग इतने ज्यादा विकसित हैं कि इनके किसी और कम विकसित रूप से विकसित होने के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता और अपने कम विकसित रूपों में इनकी कोई उपयोगिता संभव भी नहीं होगी; यह तर्क भी थोथा सिद्ध किया जा चुका है. जैसे कि आँख के विकास की विभिन्न अवस्थाओं के विकसित रूप जैविक संसार में पाए जाते हैं. कीट-पतंगे में आँखों का इस्तेमाल होता है और उससे कम विकसित प्राणियों में भी । इसी तरह गाय-भैंसों की आँखों की बनावट काफी हद तक मनुष्य की आँखों से मेल खाती है, लेकिन उनमें रंग पहचानने की योग्यता नहीं होती, और वे चीज़ों को काले और सफ़ेद रंग की अलग शेड्स में ही देख सकती हैं । लेकिन कोई पागल ही यह कहेगा कि उन्हें आखों का कोई लाभ नहीं या फिर उनकी आँखें बेकार हैं । प्रतिरक्षा प्रणाली भी हर तरह के प्राणी में मौजूद है और फ्लैजिला के विभिन्न स्तरों के विकसित रूप जीवाणु (Bacteria) में पाए जाते हैं । लेकिन जैसेकि प्रत्येक विचारवादी का काम होता है, एक तर्क के प्रमाणित हो जाने के बाद कोई दूसरा कुतर्क ढूँढने की बौद्धिक कसरत में लग जाना । और तो और, इनकी विज्ञान की किताब ‘बाइबल’ में धरती की उम्र 6000 साल बताई गयी है और सृष्टि के सृजन में ईश्वर को 6 दिन लगे. आज के वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर धरती की उम्र 4.5 बिलियन वर्ष या इससे भी ज्यादा आंकी गयी है और जीवन की उत्पत्ति के आरंभिक प्रमाण भी 3.5 बिलियन साल पुराने हैं.



एक और काम, जो यह ईश्वरवादी सृजनात्मकता के सिद्धांतकार करते हैं, वह है- वैज्ञानिक सिद्धांतों में किन्हीं छोटी सी त्रुटियों को ढूंढना और फिर उसकी आधार पर पूरे सिद्धांत के ऊपर विवाद खड़ा करना. और इन त्रुटियों को विज्ञान द्वारा दूर कर लेने पर ऐसी ही कोई और तुच्छ कोशिश । यह है नया विज्ञान – जो अपने आप को प्रमाणित करने में असमर्थ है, लेकिन दूसरी सिद्धांतों की छोटी सी त्रुटियों को भी आधार बनाकर हो हल्ला मचाता है । एक और बहुत ही ‘शानदार’ विचार, जो ऐसे विज्ञानी लोग अक्सर प्रचार करते हैं, वो है- साईंस को ईश्वर भरोसे रहने वाली ‘आस्तिक साईंस’ बनाना जिससे कि ये समझते हैं कि विज्ञान को और वैज्ञानिकों को बहुत फायदा मिलेगा और विज्ञान को सही दिशा मिलेगी ।



इस पूरे ‘विज्ञान’(?) को लोगों में प्रचारित करने और लोगों के दिमागों में ईश्वरवादी सृजनात्मकता का कूड़-कबाड़ा ठूसने के काम को पूरा करने के लिए अमेरिका और इंग्लैंड में शक्तिशाली राजनैतिक लाबी है, और इसमें कोई हैरानी की बात नहीं इस लाबी का मुख्य हिस्सा राजनैतिक हलकों की दक्षिणपंथी फासीवादी धारा है । जैसाकि होता ही है फासीवाद को वित्तीय सहायता की भी कोई कमी नहीं है ।



यह प्रतिक्रियावादी शक्तियां अमेरिकी सरकार पर लगातार यह दबाव बनाती रही हैं कि धार्मिक विश्वास पर आधारित स्कूलों का खर्च सरकार उठाये, इन स्कूलों में मुख्य तौर पर ईसाई मिशनरी स्कूल हैं । अमीर संस्थाओं ने इस प्रचार मुहीम के लिए लाखों-करोड़ों डॉलर खर्चे । अकेली वाल्टन फैमिली फाऊंडेशन नें 2006 में 28 मिलियन डॉलर इस तरह का दबाव बना रहे संगठनों पर खर्च किये । याद रखा जाना चाहिए कि यह फाऊंडेशन वाल-मार्ट के सहारे चलती है, जो कि ट्रेड-यूनियनों के सबसे खूंखार विरोधियों में से जानी जाती है ...................

डार्विन के आलोचक...............

जैसे ही डार्विन नें, बाईबल की अवधारणा, कि धरती की उम्र 6000 साल है और संसार की रचना’ परम परमेश्वर प्रभु’ नें 6 दिनों में और सदा सदा के लिए की थी, पर चोट की और इसको अपनी खोजों द्वारा तीतर-बीतर कर दिया; तो धार्मिक कट्टरपंथियों नें उसके खिलाफ जेहाद छेड़ दी । लेकिन अब समय बदल चुका था, अब मध्य युग का सामंती ढांचा नहीं रहा था, अब पूंजीवादी ढांचा अस्तित्व में आ चुका था, और विज्ञान की जरूरत उसके लिए जिंदा रहने की शर्त था, इसलिए थोड़े ही समय में डार्विन के सिद्धांतों को वैज्ञानिकों की तरफ से मान्यता मिल गयी । अब डार्विन के सिद्धांत को पूंजीवादी प्रबंध को सही साबित करने के लिए इस्तेमाल किया जाने लगा और उसके क्रांतिकारी अंश को को छुपाने की कोशिशें होने लगीं ।



‘अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष’ और ‘ योग्यतम का बचाव’ नामक डार्विन की अवधारणाओं को पूंजीवादी प्रबंध को जायज ठहराने के लिए इस्तेमाल किया जाने लगा और आज भी इसी प्रकार की दलीलें देने वालों की कमीं नहीं है । लेकिन ये सिद्धांतकार ‘अपने अस्तित्व के लिए सर्वहारा के संघर्ष’ से भी उतना ही डरते हैं जितना जोर ये पूँजीवाद को जायज ठहराने के लिए लगाते हैं । ‘ योग्यतम का बचाव’ के सिद्धांत द्वारा पूंजीवादी शोषकों को जायज ठहराने और अल्पमत द्वारा विशाल बहुमत की लूट को ठीक सिद्ध करने की कोशिशें लगातार होती रही हैं । पर यह राग अलापने वाले जन संघर्ष की जगह शान्तिपूर्ण सुधारों और कानूनी कार्रवाई द्वारा गरीबी ख़त्म करने जैसे भद्दे सिद्धांतों को भी साथ-साथ पेश करते रहते हैं । इन दलीलों के बिना भी देखा जाये तो दूसरे जानवरों और मनुष्यों में बहुत अंतर है । मनुष्य वातावरण के साथ खुद भी बदलता है और उसे भी अपने अनुकूल ढाल लेता है, जबकि यह गुण दूसरे जानवरों में बहुत कम विकसित है । इसके अलावा मनुष्य उत्पादन प्रक्रिया में प्रकृति के साथ संघर्ष करता है और जीवन निर्वाह के लिए औजारों का निर्माण करता है । और चूँकि यह सब सामूहिक रूप में ही संभव है, इसलिए ‘योग्यतम का बचाव’ की अवधारणा मनुष्यों पर लागू ही नहीं होती. और तो और, पूंजीवादी प्रणाली में जब भी इन औजारों की (बहुतायत) हो जाती है तो संकट आ जाता है, फिर बहुतायत होने के बावजूद संघर्ष की अवधारणा की तो इसमें कोई गुन्जाईश ही नहीं रह जाती ।



इससे भी बढ़कर, डार्विन की यह अवधारणा मुख्य तौर पर अलग अलग जीवों की प्रजातियों और किसी जीव प्रजाति की जनसँख्या को कंट्रोल में रखने तक ही सीमित रहती है । पहली सूरत में यह अवधारणा मनुष्यों में आपस में लागू नहीं होती, दूसरी सूरत में , जिन यूरोपीय देशों की जनसँख्या वृद्धि दर शून्य हो चुकी है पूंजीवादी दैत्य वहां भी लोगों को संघर्ष करने के लिए मजबूर कर रहा है । जिन देशों में जनसँख्या बढ़ रही है, वहां डार्विन के योग्यतम के बचाव के सिद्धांत के मुताबिक पूंजीपतियों की संख्या बढ़नी चाहिए, लेकिन हो तो इसके विपरीत रहा है, गरीबों (अयोग्यों) की संख्या बढ़ रही है और पूंजीपतियों की या तो स्थिर है या कम हो रही है ।



चर्च और अन्य धार्मिक कट्टरपंथी, जिनमें सिर्फ इसाई ही नहीं, अन्य सभी धर्मों के पादरी-पुजारी भी शामिल हैं, के विरोध और डार्विन के सिद्धांतों को तोड़-फोड़ कर की गयी व्याख्याओं से भी पूँजीवाद का कुछ नहीं संवर सका । इस सबके बावजूद इस पूंजीवादी प्रबंध को डार्विन के सिद्धांतों और पूरे जीव विकास के सिद्धांत से ही खतरा बना हुआ है । एक बार फिर मध्य-युगीन काले दौर के सिरे से खारिज किये जा चुके गैर-वैज्ञानिक ईश्वरवादी सरंचना के सिद्धांत को नए लबादे में सजा कर लोगों पर थोपा जा रहा है और लोगों में भौतिकवादी वैज्ञानिक नज़रिये की पकड़ को कमजोर करने की कोशिशें हो रहीं हैं । इन सब कोशिशों के पीछे हर तरह के धार्मिक कट्टरपंथी और फासीवादी ताने-बाने से लेकर सरकारों, कोर्पोरेट जगत, और लोक कल्याण प्रपंच रचने वाली संस्थाएं शामिल हैं ।



इस नए प्रचारित किये जा रहे सिद्धांत का नाम है ‘सचेतन सृजन’(Intelligent Design) । इनके ज्यादातर तर्क तो डार्विन के समकालीन विरोधी विलियम पैले (William Paley) से उधार लिए हुए हैं । इस दलील के अनुसार, जैसेकि किसी जटिल जेब घड़ी या किसी आधुनिक मशीन या कंप्यूटर जैसे यन्त्र बनाने के लिए किसी सचेतन शक्ति यानीकि मानव दिमाग की जरूरत होती है, उसी तरह जैसे किसी बहुत ही जटिल मानव अंग जैसेकि आँख, दिमाग, या अन्य जीव जंतुओं को पैदा करने के लिए या सृजन के लिए भी किसी सचेतन शक्ति की जरूरत है, जोकि इनके अनुसार ईश्वर ही हो सकता है । यह बिलकुल वैसे ही जैसे कोई कहे कि दूध भी पानी की तरह तरल पदार्थ है इसलिए यह पानी की ही तरह धरती में से नल लगाकर निकाला गया होगा या फिर पानी दूध की तरह किसी गाय-भैंस को दुहने से मिलता होगा । खैर इनके तर्क की थोड़ी और छानबीन करते हैं । घड़ी या मशीन बनाने के लिए बहुत सारे मनुष्यों को इकट्ठे होकर या अलग अलग रहकर औजारों का इस्तेमाल करते हुए और भट्टियों में लोहा पिघलाते हुए श्रम करना पड़ता है, और दूसरी तरफ इनके ईश्वर के औजार और भट्टियाँ कहाँ हैं और वह दिखाई क्यों नहीं देते, तो ये भाग निकलेंगे ...................

डार्विन की उपलब्धियां...............

डार्विन की उपलब्धियां


एच. एम. एस. बीगल के साथ अपने समुद्री सफ़र के दौरान डार्विन ने अनेक महत्त्वपूर्ण तथ्य इकट्ठे किये । गैलापैगोस टापू पर उनका ध्यान घरेलू चिड़ियों जैसे पक्षियों की एक नस्ल पर गया । इन पक्षियों की शक्ल-सूरत आपस में काफी मिलती जुलती थी और ये पक्षी मुख्य धरती पर पाए जाने वाले इसी किस्म के पक्षियों से भी मिलते जुलते थे । पर टापुओं पर रहने वाले पक्षी कीड़े खाकर गुजारा करते थे जबकि दक्षिण अमेरिका की मुख्य धरती वाले पक्षी पौधों के बीज खाते थे । कीड़े खाने वाले पक्षियों की चोंच बीज खाने वाले पक्षियों से लम्बी थीं । अतः डार्विन ने यह परिणाम निकला कि किसी कारणवश यह पक्षी मुख्य धरती से टापुओं पर आ गए । बदलते हालत में जीवन निर्वाह के लिए उन्हें कीड़ों पर निर्भर होना पड़ा । लेकिन आम तौर पर कीड़े वृक्षों के तनों में गहरे छुपे होते थे, अतः समयानुसार टापुओं पर लम्बी चोंच वाले पक्षी अस्तित्व में आ गए ।



इसी तरह उन्होंने दक्षिणी अमेरिका के तट के साथ साथ एक दक्षिण अमेरिकी जानवर ‘सलौथ’ के अवशेषों का अध्ययन किया । इन आलोप हो चुके जानवरों का आकार हाथी जितना था, परन्तु उस समय के अमेरिकी सलौथों का आकार काफी छोटा था, डार्विन ने अपने अध्ययन से यह परिणाम निकला कि छोटे आकार के सलौथ अलोप हो चुके सलौथों से ही विकसित हुए हैं ।



इस तरह डार्विन ने उस समय तक खोजे गए विभिन्न अवशेषों का अध्ययन किया । उनके समय तक अवशेषों पर खोज करने वाले वैज्ञानिकों को धरती कि सतह पर चट्टानों की अलग अलग परतें मिलीं और प्रत्येक परत में अलग अलग किस्म के जानवरों और पौधों के अवशेष मिले । डार्विन ने अपने अध्ययन से यह जाना कि नीचे की परत से ऊपर की तरफ आते हुए, इन परतों में जानवरों और पौधों के विकास का सिलसिला सीधा-सीधा नजर आ रहा था । उस समय तक यह भी पता लग चुका था कि चट्टानों की एक परत जमने में लाखों साल लग जाते हैं । इससे डार्विन का यह निश्चय पक्का हो गया कि धरती पर जीवन हमेशा एक जैसा नहीं रहा है, और यह बदलता रहा है । डार्विन इस नतीजे पर भी पहुँच गए कि जीवन की उत्पत्ति किसी सरल रूप में हुई और इस सरल रूप से विकसित होते हुए जीवों और पौधों की अलग अलग प्रजातियाँ अस्तित्व में आयीं और इस प्रक्रिया में लाखों वर्ष लगे। आज वैज्ञानिक यह जान चुके हैं कि धरती की उम्र लगभग 4.5 बिलियन वर्ष है । जीवन के प्रथम प्रारूप 3.5 मिलियन वर्ष पहले अस्तित्व में आये । मनुष्य का जनम कोई एक लाख वर्ष पहले ही हुआ है ।



अपने पुश्तैनी घर में रहते समय डार्विन ने देखा कि किसान ज्यादा दूध देने वाले पशुओं का चयन करके और उनका प्रजनन करवाकर ज्यादा दूध देने वाले पशुओं की गिनती बढ़ा लेते हैं । उन्होंने इसको ‘कृत्रिम चयन’ (Artificial Selection) का नाम दिया । लेकिन उन्होंने इससे आगे चलते हुए अपने पास उपलब्ध अन्य तथ्यों के आधार पर यह सिद्धांत दिया कि प्रकृति में भी इस तरह की ‘प्राकृतिक चयन’ की प्रक्रिया घटित होती है ।



इसको एक सरल उदाहरण से समझा जा सकता है । एक ख़ास किस्म का उड़ने वाला कीड़ा पक्षियों द्वारा खाया जाता है । इस कीड़े की दो किस्में हैं – एक सफ़ेद पंखों वाला जो ज़हरीला नहीं है और दूसरा चमकीले रंगों वाला ज़हरीला कीड़ा । धीरे धीरे पक्षी पंखों के रंग से ज़हरीले कीड़े को पहचानने लगते हैं और उसे खाना बंद कर देते हैं । शुरू में चमकीले पंखों वाले कीड़ों की गिनती काफी थी, लेकिन कुछ ही पीढ़ियों बाद चमकीले रंग वाले कीड़ों की बहुतायत हो जाएगी क्योंकि उनके पास प्रजनन करने के और अपने से आगे नए कीड़े पैदा करने के मौके सफ़ेद पंखों वाले कीड़ों से तुलनात्मक रूप में ज्यादा हैं । इस तरह चमकीले पंखों वाले कीड़े प्राकृतिक चयन के ज़रीये बहुतायत में आ जाते हैं ।



इस तरह डार्विन ने देखा कि प्रकृति में जीव जन्तु बहुत ज्यादा बच्चे पैदा करते हैं लेकिन प्रत्येक जीव प्रजाति की संख्या को नियंत्रण में रखने के लिए किसी तरह का कोई नियम होना जरूरी है । यहीं से उन्होंने अपने दूसरे, जो कि मुख्य रूप में विवाद का कारण बना, ‘योग्यतम के बचाव’ के सिद्धांत को रूप दिया । उनके मुताबिक वातावरण की परिस्थितियों के अनुसार सबसे योग्य जीव ‘जिंदा रहने के संघर्ष’ में कामयाब हो जाते हैं और प्रजनन कर पाते हैं और बाकी मर जाते हैं । इस तरह जिंदा रहने के लिए लाभकारी गुण चुनिन्दा रूप में अगली पीढ़ियों में चले जाते हैं ।



इन दोनों सिद्धांतों के आधार पर डार्विन नें यह नतीजा निकाला कि लाभकारी लक्षणों और वातावरण के अनुसार ढलने के लिए जीवों में आये बदलाव, जो कि पीढी दर पीढ़ी जीवों में संचारित हो सकते हों, इकट्ठे होते रहते हैं और समय आने पर एक बिलकुल ही नयी प्रजाति के अस्तित्व में आ जाने का कारण बनते हैं ।



डार्विन के सिद्धांतों की अपनी खामियां भी हैं । लेकिन फिर भी डार्विन के सिद्धांत आधुनिक जीव विकास के सिद्धांत की बुनियाद हैं । उनके दिए गए सिद्धांतों के बिना आज भी किसी जीव विकास के सिद्धांत की कल्पना संभव नहीं । डार्विन की सबसे बड़ी और महत्त्वपूर्ण देन थी, संसार के सदा-सदा स्थिर रहने वाली अवधारणा का सदा सदा के लिए अंत ! यही बात डार्विन के विरोधियों को सबसे ज्यादा चुभती है ।



इन सिद्धांतों के अलावा डार्विन की मानवता को और भी बहुत महत्त्वपूर्ण और क्रांतिकारी देन है । डार्विन के दोस्त, टॉमस हक्सले नें उस समय दिखाया कि शारीरिक रचना के पक्ष से मनुष्य बहुत हद तक ऐप (Ape) के साथ मिलता जुलता है । 1871 में डार्विन नें अपनी पुस्तक ‘मनुष्य का विकास’ प्रकाशित की । इस पुस्तक में उसने मनुष्य की सांस्कृतिक विकास और मनुष्यों में पाए जाने वाली लैंगिक, शारीरिक, और सांस्कृतिक विभिन्नताओं की व्याख्या के लिए ‘लैंगिक चयन’ का सिद्धांत पेश किया । इस पुस्तक में उन्होंने जोर दिया कि सारे मनुष्य एक ही पूर्वज से विकसित हुए हैं और यह विकास अफ्रीका महांद्वीप में हुआ । उस समय अलग-अलग नस्ल के मनुष्यों को अलग अलग प्रजातियाँ मानने और कुछ नस्लों को दूसरी नस्लों से बेहतर मानने और उनके अलग-अलग तौर पर विकसित होने के सिद्धांतों का काफी बोलबाला था, लेकिन डार्विन के द्वारा एक ही पूर्वज से सारे मनुष्यों के विकास के सिद्धांत को पेश करने के बाद बाकी सिद्धांत धीरे धीरे प्रभावहीन हो गए । डार्विन के सिद्धांत की प्रौढ़ता अब डी.एन. ए. के अध्ययन से भी हो चुकी है ।

डार्विन के जन्मदिन पर विशेष................


जीव विकास का सिद्धांत – डार्विन और वाद-विवाद

डॉ अमृत

डार्विन के जीवन का संक्षेप ब्यौरा



डार्विन की उपलब्धियां



डार्विन के आलोचक



नव-डार्विनवाद



द्वंदात्मक भौतिकवाद और जीव विकास



बीते वर्ष 2009 के 12 फरवरी के दिन, मानव प्रकृति विज्ञानी चार्ल्स डार्विन का दो सौवां जनमदिन था और संयोगवश 150 साल पहले ही नवम्बर 1859 में ही मनुष्य की वैज्ञानिक समझ का एक मील पत्थर चार्ल्स डार्विन द्वारा लिखित पुस्तक ‘ जीवों की उत्पत्ति’ छपी थी । इन दोनों ही ऐतिहासिक दिनों की याद को समर्पित 2009 का वर्ष, डार्विन के सिद्धांत को आम लोगों में प्रचारित करने और इस पर हो रहे हमलों का जवाब देने के लिए पूरी दुनिया में मनाया गया । इन कार्यक्रमों की समाप्ति 12 फरवरी 2010 को होगी । इसके अलावा पिछले कुछ सालों में 12 फरवरी का दिन डार्विन दिवस के तौर पर भी मनाया जाता है ।



डार्विन के जीवन का संक्षेप ब्यौरा

चार्ल्स डार्विन का जन्म 12 फरवरी 1809 को इंग्लैंड के शहर सर्युस्बरी में हुआ । उनके पिता पेशे से डॉक्टर थे और दादा इरासमस डार्विन एक प्रकृति दार्शनिक, डॉक्टर और कवि थे । पिता की इच्छा थी कि डार्विन डॉक्टर बनें लेकिन उनकी रूचि प्रकृति विज्ञान में थी । 1828 में पिता ने डार्विन को पादरी बनाने के लिए क्राईस्ट कॉलेज, कैम्ब्रिज में दाखिल करवा दिया । यहाँ उनका मेल वनस्पति विज्ञान के प्रोफैसर स्टीवन हैन्स्लो से हुआ और वहां काम करने लगे । डार्विन पहले ही लामारक के जीव विकास सम्बन्धी विचारों को पढ़ चुके थे और अब इनकी रूचि और भी बढ़ गयी । इसी दौरान वह प्रकृति का ध्यान से निरीक्षण करने में लग गये और कीड़े मकौड़े तथा पौधे एकत्रित करने में जुट गये । 1831 में उनकी पढाई पूरी हो गयी ।



इंग्लैण्ड में विभिन्न स्थानों पर प्रकृति का निरीक्षण करने के लिए घूमते-घूमते, उनके प्रोफेसर हैन्स्लो ने, उनकी सिफारिश एक सर्वेक्षण करने जा रहे जहाज पर बतौर प्रकृति विज्ञानी कर दी । डार्विन के पिता नें इनकार कर दिया, लेकिन आखिरकार डार्विन ने किसी न किसी तरह उन्हें अपनी यात्रा का खर्च उठाने के लिए मना ही लिया और 27 दिसंबर, 1831 को डार्विन एच. एम. एस. बीगल नामक जहाज पर सफ़र के लिए निकल पड़े । किसे पता था कि यह सफ़र जीव विज्ञान के क्षेत्र में क्रांति लाने वाला है और पृथ्वी पर मौजूद जीवों और पौधों की उत्पत्ति और विभिन्नता के बारे में मनुष्य की सदियों पुरानी अवधारणाओं को सदा के लिए बदलने वाला है ।



अपने समुद्री सफ़र के दौरान डार्विन नें तथ्यों का भण्डार इकट्ठा कर लिया और अक्तूबर 1836 में इंग्लैंड वापिस आने पर अध्ययन में जुट गये । उनके द्वारा पृथ्वी की सरंचना संबंधी लिखे गये लेखों की वजह से , वह अपनी यात्रा से लौटने से पहले ही काफी प्रसिद्ध हो चुके थे । वापसी पर उनके संबंध उस समय के कई बड़े-बड़े विज्ञानियों से बन गये और वे कई साईंस सोसायटियों के मैम्बर चुने गये । अपने सफरनामे के बारे में किताब लिखते वक्त बहुत ज्यादा मेहनत के दबाव के चलते 1838 में वे बीमार हो गये और डॉक्टरों के कहने पर उन्हें लन्दन वापिस अपने पिता के घर जाना पड़ा । पर यहाँ भी उनकी खोजी रूचि कायम रही । वह अपना ज्यादा समय दुधारू पशुओं को पालने वाले किसानों के साथ बातें करते हुए और उनके द्वारा पशुओं की नसल सुधार के कामों का निरीक्षण करते हुए बिताते थे । हृदयस्पंदन और जठरीय रोग के दर्दों की ये बीमारी इसके बाद डार्विन का उम्र भर पीछा करती रही ।



अपने अध्ययन के आरंभिक वर्षों में ही, डार्विन जीव विकास संबंधी अपनी दो महत्त्वपूर्ण अवधारणाओं का विकास कर चुके थे । ये दो अवधारणाएं- ‘ प्राकृतिक चयन’ (Natural Selection) और ‘योग्यतम का बचाव’ (Survival of the fittest) थी । डार्विन की अवधारणाओं ने यह पक्के तौर पर सिद्ध कर देना था कि प्रकृति पल-पल बदलती है । यह अपने आरम्भकाल से एकसमान नहीं रही जैसाकि उस समय की धार्मिक शिक्षाओं में बताया जाता था । डार्विन को पता था कि उसकी खोजों का समाज के कठमुल्लों की तरफ से भयंकर विरोध किया जायेगा । कुछ इस डर की वजह से और कुछ अपनी खोजों को प्रमाणिक तौर पर और मजबूत बनाने के लिए प्रकृति में से तथ्य इकट्ठे करने और अध्ययन करने के कारण डार्विन 1859 तक अपनी इस क्रान्तिकारी खोज को प्रकाशित न कर सके ।



1856 के शुरुआती दिनों में चार्ल्स डार्विन के दोस्त चार्ल्स लिल को एक और विज्ञानी अल्फ्रेड वालेस का पत्र मिला जिस में वालेस ने डार्विन की अवधारणाओं के साथ मिलती जुलती बातें कहीं । इसके बाद लिल ने डार्विन को अपनी खोजों को छपवाने के लिए कहा और उसके कहने पर डार्विन ने, जीवों की प्रजातिओं की उत्पत्ति’ (Origin of Species) से सम्बंधित एक खोज पत्र लिखना शुरू किया । जून, 1858 में डार्विन को वालेस का पत्र मिला जिसमें उसने ‘प्राकृतिक चयन’ की धारणा का जिक्र किया । 1859 में 1 जुलाई के दिन , डार्विन और वालेस ने इकट्ठे ही अपनी खोजों के बारे में खोज पत्र पढने का निर्णय किया, पर अपने बेटे की मृत्यु की वजह से डार्विन इसमें शामिल न हो सके । आखिरकार नवम्बर में डार्विन की पुस्तक’ जीवों की उत्पत्ति’ (Origin of Species) छप कर लोगों में पहुँच गयी ।



जैसाकि उम्मीद ही थी, किताब की काफी प्रशंसा हुई और कुछ ही दिनों में इसके पहले संस्करण की सारी प्रतियाँ बिक गयीं । वैज्ञानिकों में बहुतों ने डार्विन की उपलब्धियों के साथ सहमती प्रकट की, चाहे कुछ वैज्ञानिकों ने डार्विन की अवधारणाओं का सख्त विरोध भी किया । सबसे ज्यादा भयानक विद्रोह धार्मिक कठमुल्लों और कट्टरपंथियों ने किया और डार्विन के भद्दे कार्टून बना कर बांटे गये । जब डार्विन नें यह रहस्योदघाटन किया कि मनुष्य का विकास बंदरों की एक नसल एप (Ape) से हुआ है तो इसका प्रचंड विरोध हुआ । डार्विन का चेहरा बन्दर के धड़ के ऊपर लगा कर उसकी खिल्ली उड़ाई गयी । लेकिन उनकी खोजों के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए कट्टरपंथी चर्च ने अब उसकी खोजों को अपने धार्मिक लबादे में फिट करना शुरू कर दिया ।



अपने खोज कार्य जारी रखते हुए, डार्विन ने इसके बाद ‘मनुष्य की उत्पत्ति’ (Descent of Man) और अन्य कई किताबें लिखीं । 19 अप्रैल, 1882 के दिन 73 वर्ष की उम्र में इस महान विज्ञानी की मृत्यु हो गयी जो अपने पीछे छोड़ गया मानवता को अपनी बेमिसाल उपलब्धियां ।

मैं बिक गया हूँ........................

नहीं मान्यवर,


मैं जब भी व्यवस्था से विद्रोह करता हूँ,

ग़लत होता हूँ,

मैं जब भी

आपके महान देश और संस्कृति पर

आरोप मढ़ता हूँ,

ग़लत होता हूँ,



नहीं....

इस पवित्र देश में

कभी फ़साद नहीं होते,

यहाँ अपराध हैं ही नहीं

तो किसी जेल में ज़ल्लाद नहीं होते,

जो लड़की रोती है टी.वी. पर

कि उसकी चार बहनों पर

बलात्कार हुआ दंगे में,

वो मेरी तरह झूठी है,

उसकी बहनें बदचलन रही होंगी

या टी.वी. वालों ने पैसे दिए हैं उसे,

और जो रिटायर्ड मास्टर

पेंशन के लिए

सालों तक दफ़्तरों के चक्कर काटने के बाद

भरे बाज़ार में जल जाता है,

उसकी मौत के लिए

कोई पुरानी प्रेम-कहानी उत्तरदायी होगी,

आपका ‘चुस्त’ सिस्टम नहीं,



नहीं मान्यवर,

यह झूठ है

कि एक पवित्र किताब में लिखा है-

विधर्मी को मारना ही धर्म है

और उस धर्म के कुछ ‘विद्यालयों’ से

आपके महान देश में बम फोड़े जा रहे हैं,



नहीं मान्यवर,

यह मेरा नितांत गैरज़िम्मेदाराना बयान है

कि दर्जनों मन्दिरों-मठों की आड़ में

वेश्याएँ पलती हैं

और पचासों बाबाओं के यहाँ

हथियारों की तस्करी के धन्धे किए जा रहे हैं,



यह वह देश नहीं है,

जहाँ बार-बार

धर्म-पंथ के नाम पर

कृपाण उठाकर अलग देश माँगा जाता है,
यह वह देश नहीं है,

जहाँ समाजसेवा के वर्क में लिपटी हुई

चार रुपए की बरफी खिलाकर

आदिवासी बच्चों से

'राम' की जगह ‘गॉड’ बुलवाया जाता है,



नहीं मान्यवर,

उस बेकरी वाली की बहनों का नहीं,

बलात्कार तो मेरे दिमाग का हुआ है,

जो मैं कुछ भी बके जाता हूँ,

मुझे जाने किसने खरीद लिया है

कि मैं इस महान धरती के

आप महान उद्धारकों को

नपुंसक कहे जाता हूँ,

आप विश्वगुरु हैं,

ग़लत कैसे हो सकते हैं?

जहाँ सोने सा जगमगाता अतीत है,

वहाँ ये पाप कैसे हो सकते हैं?



मान्यवर,

मैं नादान हूँ,

पागल हूँ,

मुँहफट हूँ,

गैरज़िम्मेदार हूँ,

मेरी बातें मत सुनिए,

आप महान हैं, समर्थ हैं,

मेरा मुँह बन्द करवाइए

या जीभ पर कोयले धरवाइए,

ज़ल्लाद ढूंढ़ लाइए मेरे लिए

या मेरे विरुद्ध फतवे जारी करवाइए

क्योंकि

मैं कम्बख़्त

जन्म से ही बिक चुका हूँ,

कड़वे सच और उसकी पीड़ा के बदले में।

क्रान्तिकारी छात्र-युवा आन्दोलन ..............

एक नयी शुरुआत से जुड़े कुछ बुनियादी सवाल और कुछ बुनियादी समस्याएँ :

 एक सच्ची क्रान्तिकारी छात्र राजनीति का मतलब केवल फीस-बढ़ोत्तरी के विरुद्ध लड़ना, कक्षाओं में सीटें घटाने के विरुद्ध लड़ना, मेस में ख़राब खाने को लेकर लड़ना, छात्रावासों की संख्या बढ़ाने के लिए लड़ना, कैम्पस में जनवादी अधिकारों के लिए लड़ना या यहाँ तक कि रोज़गार के लिए लड़ना मात्र नहीं हो सकता। क्रान्तिकारी छात्र राजनीति वही हो सकती है जो कैम्पसों की बाड़ेबन्दी को तोड़कर छात्रों को व्यापक मेहनतकश जनता के जीवन और संघर्षों से जुड़ने के लिए तैयार करे और उन्हें इसका ठोस कार्यक्रम दे। क्रान्तिकारी परिवर्तन की भावना वाले छात्रों को राजनीतिक शिक्षा और प्रचार के द्वारा यह बताना होगा कि मज़दूर वर्ग और व्यापक मेहनतकश जनता के संघर्षों में प्रत्यक्ष भागीदारी किये बिना और उसके संघर्षों के साथ अपने संघर्षों को जोड़े बिना वे उस पूँजीवादी व्यवस्था को कतई नष्ट नहीं कर सकते जो सभी समस्याओं की जड़ है। व्यापक मेहनतकश जनता के जीवन और संघर्षों में भागीदारी करके ही मध्यवर्गीय छात्र अराजकतावाद, व्यक्तिवाद और मज़दर वर्ग के प्रति तिरस्कार-भाव की प्रवृत्ति से मुक्त हो सकते हैं और सच्चे अर्थों में क्रान्तिकारी बन सकते हैं।


प्रकाशक : राहुल फाउण्‍डेशन

मूल्‍य : 15 रु

विदेशी विश्वविद्यालय :शिक्षा की दुकानें

*जाने क्यों मुझे यह शक होता है कि यह सब सरकार की सोची समझी साज़िश है. एक तरफ़ तो अपने विश्वविद्यालयों को नख-दंत विहीन करते जाओ, उनके संसाधनों में लगातार कटौती करके उन्हें बरबाद करते जाओ, और दूसरी तरफ़ पहले निजी विश्वविद्यालयों का और फिर विदेशी विश्वविद्यालयों का रास्ता साफ़ करो. ज़ाहिर है कि जिन विद्यार्थियों के पास थोड़े भी साधन होंगे वे आपके सरकारी विश्वविद्यालयों से विमुख ही होंगे. तब सरकार को अपने ही विश्वविद्यालयों की लानत-मलामत करते हुए उन पर ताला लगाने का मौक़ा मिल जाएगा.

Dr Durgaprasad Agrawal Jaipur
*विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में अपनी शाखाएं खोलने की अनुमति देना तब तक उचित नहीं है, जब तक भारत में प्राथमिक कक्षाओं से लेकर कॉलेज तक की शिक्षा में व्याप्त अमीरी-ग़रीबी जैसी गंभीर खाई का दोहरापन समाप्त करके एकरूपता नहीं लाई जाती. नहीं तो यह भारत के दलितों और ग़रीबों के साथ भारी अन्याय होगा. क्योंकि चालाक लोग वर्तमान दोहरी शिक्षा व्यवस्था को समाप्त भी नहीं करना चाहते और विश्वविद्यालयों तथा उच्च शिक्षा में आरक्षण भी नहीं देना चाहते. ऐसा क्यों?

सिद्धार्थ कौसलायन आर्य ग्रेटर नौएडा-भारत
Added: 3/19/10 7:19 AM GMT
*देश में विदेशी विश्वविद्यालयों के आने का मतलब है उच्च शिक्षा से ग़रीब आदमी का और दूर हो जाना. अगर सरकार देश की उच्च शिक्षा संस्थानों के विकास और गुणवत्ता मं सुधार के लिए कोई क़ानून लाए तो जनहित में कहा जा सकता है. इसकी कौन गारंटी देगा कि विदेशी विश्वविद्यालय गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मुहय्या कराएगी. यह क़दम ग़रीबों को उच्च शिक्षा से और दूर करने की साज़िश है.
धनॅजय नाथ
जादोपुर, गोपालगॅज, बिहार भारत
*कोई फ़ायदा नहीं होगा.विदेशी विश्वविद्यालय देश का पैसा अपने देश में ले जाएँगे और बहुत बढ़िया पढ़ाई भी नहीं होगी.

ashutosh jasrotia

विदेशी विश्वविद्यालयों की भारत में शाखाएँ :बीबीसी बहस

*मैं ये सोच रहा हूं कि कब मेरा भारत बढ़ेगा. अंग्रेज़ चले गए अंग्रेज़ी छोड़ गए. मेरे विचार से यह सौ फ़ीसदी सही है. आज हमारे बीच अमरीकी, ब्रितानी और यूरोपियन कंपनियां हैं जो भारत से सस्ते मज़दूर हासिल कर रही हैं और काफ़ी पैसे बना रही हैं. उन्होंने ने पाया है कि भारतीय उनकी शिक्षा को अहमियत देते हैं इसलिए अब वह उस क्षेत्र में भी पैसे बनाना चाहते हैं. कोई बताए कि वे हमें कैसे पढ़ाएंगे जबकि उनके अपने ही देश में अनपढ़ हैं या 12वीं पास हैं. वे सिर्फ़ पैसे चाहते हैं. वे अब ग़रीब हो चुके हैं.

naveen hindustan
Added: 3/19/10 3:09 PM GMT

*कपिल सिब्बल जी के अनुसार देश के 22 करोड़ लोग उच्च शिक्षा प्राप्त करना चाहते हैं लेकिन 2 करोड़ लोग ही शिक्षा प्राप्त कर पा रहे हैं. क्या कपिल सिब्बल जी इसके पीछे छिपे कारणों की तरफ़ ध्यान दिया है. देश के 32 करोड़ लोगों की दैनिक मज़दूरी का औसत जब 30 रुपए प्रतिदिन आता है तो वे कहाँ से उच्च शिक्षा के लिए शुल्क जुटा पाएँगे. कपिल सिब्बल जी को चाहिए कि पहले देश के लोगों की आर्थिक स्थिति को सुधारें तब विदेशी विश्वविद्यालयों को देश में लाने के बारे में सोचें.
तारकनाथ शुक्ल धुले , महाराष्ट्र
Added: 3/19/10 2:55 PM GMT

*मेरे विचार से भारत के किसी भी हिस्से में विदेशी स्कूल नहीं खुलने दिया जाना चाहिए क्योंकि इससे भारतीय संस्कृति प्रभावित होगी. जिस प्रकार अमरीकी अपने माता-पिता, भाई-बहन की परवाह नहीं करते, वे काफ़ी शराब पीते हैं जब भारतीय उन्हें देखेंगे तो वे वैसा ही करने लगेंगे. मेरे विचार से भारत में विदेशी स्कूल खोलना कोई अच्छा विचार नहीं है. मैं अमरीका में हूं और स्कूल में पढ़ता हूं, यहां का स्कूल इतना बुरा है कि कह नहीं सकता. कोई पढ़ाई नहीं होती और शिक्षकों को भी कोई मतलब नहीं. भारतीय स्कूल बेहतर हैं.
vikram singh new delhi
Added: 3/19/10 2:55 PM GMT
*यह भारतीय छात्रों के लिए अच्छा नहीं है कि विदेशी विश्वविद्यालयों की शाखा यहां खुले और उन्हें भारतीय शिक्षा मैदान में आने का मौक़ा दिया जाए. पश्चिमी देश हमारी गंगा-जमुनी तहज़ीब का लाभ उठाना चाह रहे हैं. भारत में उनकी शाखाए खोलने का अर्थ है कि उनकी सभ्यता और संस्कृति का यहां प्रचार करना और लोगों को यह जताना कि ग़रीबों के लिए बहुत कुछ किया जा रहा है. अगर हमरी सरकार उन्हें यहां आने की इजाज़त दे रही तो उसका कोई तो माप-दंड होगा ही.
zaid arif falahi AMU aligarh
Added: 3/19/10 9:30 AM GMT

*लाजवाब, उच्च वर्ग भारतीय समाज के लिए एक और उपलब्धि, लेकिन यह ग़रीब भारतीय छात्रों के लिए एक और परेशानी का कारण होगा कि उन्हें निजी क्षेत्रों में नौकरियों की और भी कमी हो जाएगी. यह ग़रीब-मज़दूर वर्ग की एक और हार है.
Dinesh Kumar New Delhi ..........................

विदेशी विश्वविद्यालयों की भारत में शाखाएँ: बीबीसी पर बहस

विदेशी विश्वविद्यालयों की भारत में शाखाएँ :

क्या विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में अपनी शाखाएं खोलने की अनुमति देना उचित है?
इस सोमवार को केंद्रीय मंत्रिमंडल ने एक विधेयक को हरी झंडी दिखाई जिसके तहत विदेशी विश्वविद्यालय भारत में अपनी शाखाएं खोल सकेंगे.
अब इसे संसद में रखा जाएगा.
इस विधेयक के तहत विदेशी विश्वविद्यालयों को फीस तय करने की छूट होगी.
जिस मुद्दे पर समसे ज्यादा विवाद होने की आशंका है वो है शिक्षा में आरक्षण. नए कानून के तहत पिछड़े वर्गों और दलितों के लिए कालेजों में कोई आरक्षण नहीं होगा.
लेकिन क्या सरकार का यह फ़ैसला मुनाफे के लिए शिक्षा की दुकानें चलाने वालों को रोक पाएगा?
बीबीसी की टीम पहुंचेगी छात्रों और अध्यापकों के बीच- दिल्ली के जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय ताकि उनके सरोकार और अपेक्षाएं सामने आ सके. :

मार्च 24, 2010

Citizens of Lahore name Shadman Chowk after Bhagat Singh..................

LAHORE: A large number of citizens, including students from various educational institutions gathered, at Shadman Chowk on Tuesday to mark the 79th martyrdom anniversary of Bhagat Singh Shaheed, one of the pioneers of the struggle for an independent subcontinent.

It was at this very spot the British rulers hanged Singh on March 23, 1931, for his role in the freedom struggle. Participants of the rally carried candles, banners and posters, demanding the preservation of historic places that had linkages to revolutionaries like Singh.  The participants mainly consisted of students from the Institute of Peace and Secular Studies, Punjab National Conference, the Lahore University of Management Sciences (LUMS), Beaconhouse National University, Punjab University, University of Engineering and Technology, Socialist artists front, National College of Arts, National Students Federation Punjab and several others.
Renaming: The participants demanded the government rename Shadman Chowk as Bhagat Singh Chowk, and in a token gesture, placed a plaque carrying details of Singh’s heroics at the square.
Rights activist Saeeda Diep told Daily Times that citizens of Lahore had taken the initiation for the preservation of city’s heritage by naming the square after Singh, and said the government should also rename Shadman Colony as Bhagat Singh colony, as he lost his life in a struggle for the independence of the subcontinent. She said the citizens had taken a significant step and would acquire other places like Bradlauch Hall from the government to convert them into a small museum or a library dedicated to the life of Singh. “The government has named cities and places after a number of foreigners, but it has failed to name a few places after a legendary person who received worldwide recognition and was the son of the soil. People wont tolerate this injustice anymore and that is why they have gathered here today,” she added.
She said the ruling establishment might not like heroes like Bhagat Singh, Dullah Bhatti, Rai Ahmad Khan Kharal, Peer Sibghat Ullah and Kartar Singh for being those who challenged the authoritarian agendas of the establishment, but they were heroes of the people and they would not be forgotten.
A Hassan Abdal-based Pakistani Sikh, Taranjeet Singh, told Daily Times that he came to Shadman Chowk all the way from his city to mark the martyrdom anniversary of Bhagat Singh. He said Singh was the person who took up arms against the British and launched the freedom struggle taking along people of all colours and creeds, unlike political parties, which only talked about the people having similar ideologies. He said he had seen schools, colleges, colonies and other places named after Bhagat Singh in Canada, the United Kingdom, Europe and India, but it was unfortunate that Singh had been ignored by the people of his own homeland.

भगत सिंह का साथियों को अंतिम पत्र .......................

साथियों को अंतिम पत्र



22 मार्च,1931



साथियो,



स्वाभाविक है कि जीने की इच्छा मुझमें भी होनी चाहिए, मैं इसे छिपाना नहीं चाहता. लेकिन मैं एक शर्त पर जिंदा रह सकता हूँ, कि मैं क़ैद होकर या पाबंद होकर जीना नहीं चाहता.



मेरा नाम हिंदुस्तानी क्रांति का प्रतीक बन चुका है और क्रांतिकारी दल के आदर्शों और कुर्बानियों ने मुझे बहुत ऊँचा उठा दिया है - इतना ऊँचा कि जीवित रहने की स्थिति में इससे ऊँचा मैं हर्गिज़ नहीं हो सकता.



आज मेरी कमज़ोरियाँ जनता के सामने नहीं हैं. अगर मैं फाँसी से बच गया तो वो ज़ाहिर हो जाएँगी और क्रांति का प्रतीक-चिन्ह मद्धिम पड़ जाएगा या संभवतः मिट ही जाए. लेकिन दिलेराना ढंग से हँसते-हँसते मेरे फाँसी चढ़ने की सूरत में हिंदुस्तानी माताएँ अपने बच्चों के भगत सिंह बनने की आरज़ू किया करेंगी और देश की आज़ादी के लिए कुर्बानी देनेवालों की तादाद इतनी बढ़ जाएगी कि क्रांति को रोकना साम्राज्यवाद या तमाम शैतानी शक्तियों के बूते की बात नहीं रहेगी.



हाँ, एक विचार आज भी मेरे मन में आता है कि देश और मानवता के लिए जो कुछ करने की हसरतें मेरे दिल में थी, उनका हजारवाँ भाग भी पूरा नहीं कर सका. अगर स्वतंत्र, ज़िंदा रह सकता तब शायद इन्हें पूरा करने का अवसर मिलता और मैं अपनी हसरतें पूरी कर सकता.



इसके सिवाय मेरे मन में कभी कोई लालच फाँसी से बचे रहने का नहीं आया. मुझसे अधिक सौभाग्यशाली कौन होगा? आजकल मुझे ख़ुद पर बहुत गर्व है. अब तो बड़ी बेताबी से अंतिम परीक्षा का इंतज़ार है. कामना है कि यह और नज़दीक हो जाए.



आपका साथी,

भगत सिंह

हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोशिएशन का घोषणा पत्र........

हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोशिएशन का घोषणा पत्र के कुछ अंश



(लाहौर कांग्रेस में बांटे गए इस दस्तावेज़ को मुख्य तौर पर भगवतीचरण वोहरा ने लिखा था. जब वे वितरित किया गया तो सीआईडी के हाथ लग गया और उसी के कागज़ों से इसकी प्रति मिली.)



स्वतंत्रता का पौधा शहीदों के रक्त से फलता है. भारत में स्वतंत्रता का पौधा फलने के लिए दशकों से क्रांतिकारी अपना रक्त बहाते रहे हैं. बहुत कम लोग हैं जो उनके मन में पाले हुए आदर्शों की उच्चता तथा उनके महान बलिदानों पर प्रश्नचिन्ह लगाएं, लेकिन उनकी कार्यवाहियाँ गुप्त होने की वजह से उनके वर्तमान इरादे और नीतियों के बारे में देशवासी अंधेरे में हैं, इसलिए हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन ने यह घोषणापत्र जारी करने की आवश्यकता महसूस की है......



......विदेशियों की गुलामी से भारत की मुक्ति के लिए ये एसोसिएशन सशस्त्र संगठन द्वारा भारत में क्रांति के लिए दृढ़ संकल्प है...... क्रांति कोई मायूसी से पैदा हुआ दर्शन भी नहीं है और न ही सरफ़रोशो का कोई सिद्धांत है. क्रांति ईश्वर विरोधी हो सकती है, लेकिन मनुष्य विरोधी नहीं. यह एक पुख़्ता और जिंदा ताकत है. नए और पुराने के, जीवन और जिंदा मौत के, रोशनी और अंधेरे के आंतरिक द्वंद का प्रदर्शन है, कोई संयोग नहीं........



‘नौजवान ग़ैर-जिम्मेदार नहीं’



.....हमारे देश के नौज़वानों ने इस सत्य को पहचान लिया है. उन्होंने बहुत कठिनाइयाँ सहते हुए यह सबक सीखा है कि क्रांति के बिना- अफ़रा-तफ़री, क़ानूनी गुण्डागर्दी और नफ़रत की जगह, जो आजकल हर ओर फैली हुई है - व्यवस्था, क़ानूनपरस्ती और प्यार स्थापित नहीं किया जा सकता.



हमारी आर्शीवाद-भरी धरती पर किसी को ऐसा विचार नहीं आना चाहिए कि हमारे नौजवान ग़ैर-ज़िम्मेदार हैं. वे पूरी तरह जानते हैं कि वे कहां खड़े हैं. उनसे बढ़कर किसे मालूम है कि उनकी राह कोई फूलों की सेज नहीं है. समय-समय पर उन्होंने अपने आदर्शों के लिए बहुत बड़ी क़ीमत चुकाई है.इस कारण यह किसी के मुंह से नहीं निकलना चाहिए कि नौजवान उतावलेपन में किन्ही मामूली बातों के पीछे लगे हुए हैं.



यह कोई अच्छी बात नहीं है कि हमारे आदर्शों पर कीचड़ उछाला जाता है. यह काफ़ी होगा अगर आप जानें कि हमारे विचार बेहद मज़बूत और तेज़-तर्रार हैं जो न सिर्फ़ हमें आगे बढ़ाए रखते हैं बल्कि फांसी के तख़्ते पर भी मुस्कराने की हिम्मत देते हैं...........



‘महात्मा गांधी का ढंग नामंज़ूर’



.....आजकल यह फ़ैशन हो गया है कि अहिंसा के बारे में अंधाधुंध और निरर्थक बात की जाए.महात्मा गांधी महान हैं और हम उनके सम्मान पर कोई भी आंच नहीं आने देना चाहते, लेकिन हम यह दृढ़ता से कह सकते हैं कि हम देश को स्वतंत्र कराने के उनके ढंग को पूर्णतया नामंजूर करते हैं.



यदि हम देश में चलाए जा रहे उनके असहयोग आंदोलन द्वारा लोक जागृति में उनकी भागीदारी के लिए उनकों सलाम न करें तो यह हमारे लिए बड़ा नाशुक्रापन होगा. परंतु हमारे लिए महात्मा असंभवताओं का एक दार्शनिक हैं. अहिंसा भले ही एक नेक आदर्श है, लेकिन यह अतीत की चीज़ है.



जिस स्थिति में आज हम हैं, सिर्फ़ अहिंसा के रास्ते से कभी भी आज़ादी प्राप्त नहीं कर सकते. दुनिया सिर तक हथियारों से लैस है और (ऐसी) दुनिया हम पर हावी है. अमन की सारी बातें ईमानदार हो सकती हैं, लेकिन हम जो गुलाम क़ौम हैं, हमें झूठे सिद्धांतों के ज़रिए अपने रास्ते से नहीं भटकना चाहिए. हम पूछते हैं कि जब दुनिया का वातावरण हिंसा की लूट और ग़रीब की लूट से भरा हुआ है, तब देश को अहिंसा के रास्ते पर चलाने का क्या तुक है? हम अपने पूरे ज़ोर के साथ कहते हैं कि क़ौम के नौजवान कच्ची नींद के ऐसे सपनों से रिझाए नहीं जा सकते.............



........भारत साम्राज्यावाद के जुए के नीचे पिस रहा है. इसमें करोड़ों लोग आज अज्ञानता और ग़रीबी के शिकार हो रहे हैं. भारत की बहुत बड़ी जनसंख्या जो मज़दूरों और किसानों की है, उनको विदेशी दबाव एवं आर्थिक लूट ने पस्त कर दिया है. भारत के मेहनतकश वर्ग की हालत आज बहुत गंभीर है. उसके सामने दोहरा ख़तरा है - विदेशी पूंजीवाद का एक तरफ़ से और भारतीय पूंजीवाद के धोखे भरे हमले का दूसरी तरफ़ से ख़तरा है. भारतीय पूंजीवाद विदेशी पूंजी के साथ रोज़ाना बहुत से गठजोड़ कर रहा है. कुछ राजनैतिक नेताओं का डोमिनयन (प्रभुतासंपन्न) का रूप स्वीकार करना भी हवा को इसी रुख़ को स्पष्ट करता है.



भारतीय पूंजीपति भारतीय लोगों को धोखा देकर विदेशी पूंजीपति से विश्वासघात की कीमत के रूप में सरकार में कुछ हिस्सा प्राप्त करना चाहता है. इसी कारण मेहनतकश की तमाम आशाएं अब सिर्फ़ समाजवाद पर टिकी हैं और सिर्फ़ यही पूर्ण स्वराज और सब भेदभाव खत्म करने में सहायक हो सकता है.



करतार सिंह

अध्यक्ष

रिपब्लिकन प्रेस, अरहवन, भारत से प्रकाशित

विद्यार्थियों के नाम पत्र ..........................

विद्यार्थियों के नाम पत्र ..........................



(भगत सिंह और बुटकेश्वर दत्त की ओर से जेल से भेजा गया यह पत्र 19 अक्तूबर, 1929 को पंजाब छात्र संघ, लाहौर के दूसरे अधिवेशन में पढ़कर सुनाया गया था. अधिवेशन के सभापित थे सुभाषचंद्र बोस)



इस समय हम नौजवानों से यह नहीं कह सकते कि वे बम और पिस्तौल उठाएँ. आज विद्यार्थियों के सामने इससे भी अधिक महत्वपूर्ण काम है. आनेवाले लाहौर अधिवेशन में कांग्रे़स देश की आज़ादी की लड़ाई के लिए जब़रदस्त संघर्ष की घोषणा करने वाली है. राष्ट्रीय इतिहास के इस कठिन छण में नौजवानों के कंधों पर बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी आ पड़ेगी. यह सच है कि स्वतंत्रता के इस युद्ध में अग्रिम मोर्चों पर विद्यार्थियों ने मौत से टक्कर ली है. क्या परीक्षा की इस घड़ी में वे उसी प्रकार की दृढ़ता और आत्मविश्वास का परिचय देने से हिचकिचाएँगे ? नौजवानों को क्रांति का यह संदेश देश के कोने-कोने में पहुंचाना है, फैक्ट्री-कारखानों के क्षेत्रों में गंदी बस्तियों और गांवों की जर्जर झोपड़ियों में रहने वाले करोड़ों लोगों में इस क्रांति की अलख जगानी है, जिससे आज़ादी आएगी और तब एक मनुष्य द्वारा दूसरे मनुष्य का शोषण असंभव हो जाएगा. पंजाब वैसे ही राजनैतिक तौर पर पिछड़ा हुआ माना जाता है. इसकी भी ज़िम्मेदारी युवा वर्ग पर ही है. आज वे देश के प्रति अपनी असीम श्रद्धा और शहीद यतींद्रनाथ दास के महान बलिदान से प्रेरणा लेकर यह सिद्ध कर दें कि स्वतंत्रता के इस संघर्ष में वे दृढ़ता से टक्कर ले सकते हैं.



22 अक्तूबर,1929 के द ट्रिब्यून (लाहौर) में प्रकाशित

असेंबली में पर्चा................

धमाके के बाद फेंका गया पर्चा.................



‘हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी’



सूचना



(आठ अप्रैल, 1929 को असेम्बली में बम फेंकने के बाद भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त द्वारा बाँटे गए अंग्रेज़ी पर्चे का हिन्दी अनुवाद)



“बहरों को सुनाने के लिए बहुत ऊँची आवाज़ की आवश्यकता होती है", प्रसिद्ध फ्रांसीसी अराजकतावादी शहीद वैलियां के यह अमर शब्द हमारे काम के औचित्य के साक्षी हैं.



पिछले दस वर्षों में ब्रिटिश सरकार ने शासन-सुधार के नाम पर इस देश का जो अपमान किया है उसकी कहानी दोहराने की आवश्यकता नहीं है और न ही हिन्दुस्तानी पार्लियामेण्ट पुकारी जाने वाली इस सभा ने भारतीय राष्ट्र के सिर पर पत्थर फेंककर उसका जो अपमान किया है, उसके उदाहरणों को याद दिलाने की आवश्यकता है. यह सब सर्वविदित और स्पष्ट है. आज फिर जब लोग “साइमन कमीशन” से कुछ सुधारों के टुकड़ों की आशा में आँखें फैलाए हैं और कुछ इन टुकड़ों के लोभ में आपस में झगड़ रहे हैं, विदेशी सरकार “सार्वजनिक सुरक्षा विधेयक” (पब्लिक सेफ़्टी बिल) और “औद्योगिक विवाद विधेयक”(ट्रेड्स डिस्प्यूट्स बिल) के रूप में अपने दमन को और भी कड़ा कर लेने का यत्न कर रही हैं. इसके साथ ही आने वाले अधिवेशन में “अखबारों द्वारा राजद्रोह रोकने का क़ानून” (प्रेस सैडिशन एक्ट) लागू करने की धमकी दी जा रही है। सार्वजनिक काम करने वाले मज़दूर नेताओं की अंधाधुंध गिरफ़्तारियाँ यह स्पष्ट कर देती हैं कि सरकार किस रवैए पर चल रही है.



राष्ट्रीय दमन और अपमान की इस उत्तेजनापूर्ण परिस्थिति में अपने उत्तरदायित्व की गंभीरता को महसूस कर “हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन” ने अपनी सेना को यह कदम उठाने की आज्ञा दी है. इस कार्य का प्रयोजन है कि क़ानून का यह अपमानजनक प्रहसन समाप्त कर दिया जाए. विदेशी शोषक नौकरशाही जो चाहे करें परन्तु उसकी वैधानिकता का नकाब फाड़ देना आवश्यक है.

जनता के प्रतिनिधियों से हमारा आग्रह है कि वे इस पार्लियामेण्ट के पाखंड को छोड़कर अपने-अपने निर्वाचन क्षेत्रों को लौट जायें और जनता को विदेशी दमन और शोषण के विरुद्ध क्रांति के लिए तैयार करें. हम विदेशी सरकार को यह बता देना चाहते हैं कि हम “सार्वजनिक सुरक्षा” और “औद्योगिक विवाद” के दमनकारी कानूनों और लाला लाजपतराय की हत्या के विरोध में देश की जनता की ओर से यह कदम उठा रहे हैं.

हम हर मनुष्य के जीवन को पवित्र मानते हैं. हम ऐसे उज्जवल भविष्य में विश्वास रखते हैं जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को पूर्ण शांति और स्वतंत्रता का अवसर मिल सके. हम इन्सान का ख़ून बहाने की अपनी विवशता पर दुखी हैं। परन्तु क्रांति द्वारा सबको समान स्वतंत्रता देने और मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण को समाप्त कर देने के लिए क्रांति में कुछ-न-कुछ रक्तपात अनिवार्य है.



इन्क़लाब जिन्दाबाद !



हस्ताक्षर–

बलराज

कमाण्डर-इन-चीफ

जेल नोटबुक-3.............

(नोटबुक का एक और पन्ना)





पृष्ठ 102



‘मार्क्सवाद बनाम समाजवाद’



(1908-12)

लेखक व्लादीमिर जी सिखोविच

पीएचडी कोलंबिया विश्वविद्यालय

वह एक-एक करके मार्क्स के सारे सिद्धांतों की आलोचना करते हैं और इन सभी को ख़ारिज करते हैं-

मूल्य का सिद्धांत

इतिहास की आर्थिक व्याख्या

संपदा का थोड़े से हाथों, अर्थात पूँजीपतियों के हाथों में संकेंद्रण, मध्यम वर्ग का पूरी तरह खात्मा और सर्वहारा वर्ग की बाढ़

बढ़ती गरीबी का सिद्धांत, जिसकी परिणति के तौर पर

आधुनिक राज्य और सामाजिक व्यवस्था का अपरिहार्य संकट.



वह निषकर्ष निकालते हैं कि मार्क्सवाद सिर्फ़ इन्हीं मूलभूत सिद्धांतों पर आधारित है, और उन्हें एक-एक करके ख़ारिज करते हुए, निष्कर्ष के तौर पर कहते हैं कि क्रांति के जल्दी फूट पड़ने की सारी धुंधली आशंकाएँ अभी तक निर्मूल ही साबित हुई हैं. मध्यम वर्ग घट नहीं, बल्कि बढ़ रहा है. धनी वर्ग संख्या में बढ़ रहा है, तथा उत्पादन और उपभोग की प्रणाली भी परिस्थितियों के अनुसार बदल रही है, अतः मज़दूरों की दशा में सुधार करके किसी भी प्रकार के संघर्ष को टाला जा सकता है. सामाजिक अशांति का कारण बढ़ती गरीबी नहीं, बल्कि औद्योगिक केंद्रों पर गरीब वर्गों का संकेंद्रण है, जिसके नाते वर्ग-चेतना पैदा हो रही है. इसीलिए यह सब चिल्ल-पों है.



भगत सिंह की नोटबुक में दर्ज टिप्पणी



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पृष्ठ 124



जीवन का उद्देश्य



‘‘जीवन का उद्देश्य मन को नियंत्रित करना नहीं बल्कि उसका सुसंगत विकास करना है, मरने के बाद मोक्ष प्राप्त करना नहीं, बल्कि इस संसार में ही उसका सर्वोत्तम इस्तेमाल करना है, केवल ध्यान में ही नहीं, बल्कि दैनिक जीवन के यथार्थ अनुभव में भी सत्य, शिव और सुंदर का साक्षात्कार करना है, सामाजिक प्रगति कुछेक की उन्नति पर नहीं, बल्कि बहुतों की समृद्धि पर निर्भर करती है, और आत्मिक जनतंत्र या सार्वभौमिक भ्रातृत्व केवल तभी प्राप्त किया जा सकता है, जब सामाजिक-राजनीतिक और औद्योगिक जीवन में अवसर की समानता हो.’’



स्रोत अज्ञात



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जेल नोटबुक-2.................

(नोटबुक का एक और पन्ना)





पृष्ठ 44



क्राँति और वर्ग

सारे के सारे वर्ग सत्ता पाने की कोशिश में क्राँतिकारी ही होते हैं और समानता की बातें करते हैं. और सारे के सारे वर्ग जब सत्ता प्राप्त कर लेते हैं तो संकीर्णतावादी हो जाते हैं और मान लेते हैं कि समानता सिर्फ़ एक रंगीन सपना भर है. सारे के सारे वर्ग, सिर्फ़ एक को – मज़दूर वर्ग को छोड़कर, क्योंकि जैसा कि आगस्त कॉम्ते (फ्रांसीसी विचारक) ने कहा है, ‘‘सच कहा जाए तो मज़दूर वर्ग एक वर्ग होता ही नहीं, बल्कि वह तो समाज के निकाय का संघटक होता है. लेकिन मज़दूर वर्ग का वक़्त, यानी सभी लोगों के एक हो जाने का वक़्त अभी भी नहीं आया है.’’



‘‘वर्ल्ड हिस्ट्री फॉर वर्कर्स’’ पृ 47, अल्फ्रेड बार्टन कृत



पृष्ठ-47-



क्राँति शब्द की परिभाषा



‘‘क्राँति शब्द की अवधारणा को इस शब्द की पुलिसिया व्याख्या के अर्थ में, यानी सशस्त्र विद्रोह के अर्थ में नहीं लेना चाहिए. यदि किसी पार्टी के पास दूसरे, कम खर्चीले, और अपेक्षाकृत अधिक सुरक्षित तरीके इस्तेमाल करने की गुंजाइश है, और तब भी वह सिद्धांत के नाते विद्रोह का ही तरीका अपनाती है, तो उसे पागल की कहा जाएगा. इस अर्थ में, सामाजिक जनवाद कभी भी सिद्धांत के नाते क्राँतिकारी नहीं रहा. ऐसा यह सिर्फ़ इसी अर्थ में है कि यह इस बात को मानता है कि जब इसे राजनीतिक सत्ता हासिल हो जाएगी, तो यह इसका इस्तेमाल वर्तमान व्यवस्था को टिकाए रखने वाली उत्पादन-प्रणाली को खत्म करने के अलावा और किसी मकसद के लिए नहीं करेगा.’’



कार्ल काउत्स्की

कार्ल काउत्सकी (1854-1938) जर्मन सामाजिक-जनवादी आंदोलन और दूसरे इंटरनेशलन के एक नेता.



पृष्ठ 47



अमरीका के बारे में कुछ तथ्य और आंकड़े

5 आदमी 1000 लोगों के लिए रोटी पैदा कर सकते हैं.

1 आदमी 250 लोगों के लिए सूती कपड़ा पैदा (कर सकता) है.

1 आदमी 300 लोगों के लिए ऊनी कपड़ा पैदा कर सकता है.

1 आदमी 1000 लोगों के लिए बूट और जूते पैदा कर सकता है.



आयरन हील (पृ-78)

जैक ग्रिफिथ लण्डन (1876-1916) का उपन्यास ‘आयरन हील’, जो 1908 में प्रकाशित हुआ.



15,000,000 लोग बेपनाह गरीबी (में) जी रहे हैं जो अपनी श्रम-दक्षता को भी बनाए नहीं रख सकते. 3,000,000 बाल श्रमिक.



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पृष्ठ 50

अवसरवाद का जन्म

क़ानून के दायरे में रहकर काम करने की संभावना ने ही दूसरे इंटरनेशनल के समय में मज़दूर पार्टियों के भीतर अवसरवाद को जन्म दिया.



लेनिन, द्वितीय इंटरनेशनल का पतन



गैरक़ानूनी काम

‘‘किसी देश में जहाँ बूर्ज़ुआ वर्ग या प्रतिक्राँतिकारी सामाजिक जनवाद सत्ता में है, कम्युनिस्ट पार्टी को अपने क़ानूनी और गैर क़ानूनी कामों के बीच एक तालमेल रखना अवश्य सीख लेना चाहिए और क़ानूनी काम को हमेशा और निश्चित रूप से ग़ैर क़ानूनी पार्टी के प्रभावी नियंत्रण में ही रहना चाहिए.’’



बुखारिन

निकोलाई अलेक्सांद्रोविच बुखारिन (1888-1938) रूसी सामाजिक-जनवादी मजदूर पार्टी के सदस्य, जो 1937 में कथित पार्टी विरोधी गतिविधियों के कारण पार्टी से निकाले गए.



दूसरे इंटरनेशनल के लक्ष्य के साथ विश्वासघात

समाजवाद और श्रम के इस विराट संगठन को ऐसी शांतिकालीन गतिविधियों के लिए अनुकूलित कर दिया गया, और जब संकट आया, तो बहुत से नेता और जनसमुदायों के भारी हिस्से अपने आपको इस नई स्थिति के अनुरूप बनाने में असमर्थ हो गए... यही वह अपरिहार्य स्थिति है जो बहुत हद तक दूसरे इंटरनेशनल के विश्वासघात का कारण है.



मार्क्स टु लेनिन, पृ 140 मारिस हिलक्वीट



(क्रमशः)