मार्च 25, 2010

द्वंदात्मक भौतिकवाद और जीव विकास

द्वंदात्मक भौतिकवाद और जीव विकास


द्वंदात्मक भौतिकवादी नजरिये के जन्मदाता, मार्क्स और एंगेल्ज़, ने डार्विन की खोजों का पुरजोर समर्थन किया । इसके अलावा इसके अधूरेपन और भविष्य में इसके और विस्तारित होने की पेशनगोई भी की । डार्विन की खोजों ने मार्क्स-एंगेल्ज़ के भौतिकवादी नजरिये को प्रकृति में और स्पष्टता से सिद्ध किया । जनवरी १८६१ में मार्क्स ने एंगेल्ज़ को लिखा, “डार्विन की पुस्तक (जीवों की उत्पति – अनु.) बहुत ही महत्त्वपूर्ण है और इसने मुझे वर्ग संघर्ष के लिए प्राकृतिक आधार प्रदान किया है । पर इसमें हमें विकास के अपरिपक्व तरीके को भी सहन करना पड़ता है । अपनी सभी सीमाओं के बावजूद, न सिर्फ उदेश्यवाद (Taleology) (हर वस्तु के पीछे कोई न कोई उदेश्य होता है. अनु.) की प्राकृतिक विज्ञान में विद्यमान धारणा पर निर्णायक चोट है, बल्कि अपने तार्किक मतलब की भी अच्छी तरह व्याख्या करती है ।”



‘डियूरिंग विरुद्ध’ पुस्तक में एंगेल्ज़ ने लिखा, ” जीव विकास का सिद्धांत अभी अपने प्रारंभिक चरणों में है और इसमें कोई शक नहीं कि भविष्य की खोजें हमारी अब तक की जीव विकास संबंधी धारणाओं, डार्विन की खोजों समेत, को बदल देंगी ।”



इसी प्रकार एंगेल्ज़ ने ‘डाईलेक्ट्स ऑफ नेचर’ में भी डार्विन के ‘जीवित रहने के लिए संघर्ष’ के सिद्धांत का मूल्यांकन कुछ इस प्रकार किया, ” डार्विन से पहले तक, उसके अबतक के पक्के अनुयायी भी प्रकृति में सामंजस्यपूर्ण सहयोग पर जोर देते हैं, कि कैसे पौधे, जीव, जंतुओं को खाद्य-खुराक और आक्सीज़न प्रदान करते हैं और जीव जंतु पौधों को बदले में खाद, अमोनिया और कार्बोनिक एसिड (कार्बन डाईआक्साईड – अनु.) प्रदान करते हैं । जैसे ही डार्विन का सिद्धांत सामने आया, इन्हें हर जगह संघर्ष ही दिखाई देने लगा । दोनों ही नजरिये अपनी-अपनी सीमाओं के अन्दर ठीक हैं, पर दोनों ही एक समान तरह से एकतरफा और तुअस्बग्रस्त हैं । जैसे प्रकृति में निर्जीव वस्तुओं के संबंध अनुरूपता के टकराव दोनों तरह के होते हैं, वैसे ही सजीव वस्तुओं में भी सचेतन और अचेतन सहयोग के साथ-साथ सचेतन और अचेतन संघर्ष भी होता है । इसलिए, प्रकृति के संबंध में, सिर्फ संघर्ष को ही सबकुछ मान लेना ठीक नहीं । बल्कि ऐतिहासिक जीव विकास और जटिलता की पूरी दौलत को एक छोटे से और एकतरफा वाक्यांश ‘जीवित रहने के लिए संघर्ष’ में बाँधने की इच्छा करनी बचकाना ही होगी । इसका कुछ भी मतलब नहीं है ।



‘डार्विन का जीवित रहने के लिए संघर्ष’ का सिद्धांत समाज में प्रचलित अवधारणाओं जैसे सबकी सबके खिलाफ जंग, की हौबिस की थियूरी , मुकाबले की बुर्जुआ अर्थशास्त्र की अवधारणा और माल्थस की जनसंख्या संबंधी अवधारणा का प्रकृति विज्ञान में लागू करने का प्रयत्न हैं । जब ऐसा करके सफलता हासिल कर ली गयी है (बेशक इस मूलभूत आधार, माल्थस की थियूरी पर आज तक प्रश्न चिह्न लगा हुआ है), यह आसान हो जाता है कि प्रकृति विज्ञान की अवधारणाओं को समाज के इतिहास पर लागू कर दिया जाये और इसे बिलकुल सीधे-सादे तरीके से कहा जाता है कि इस तरह ये प्रस्तुतियां समाज के चिरस्थायी नियमों के तौर पर सिद्ध की जा चुकी हैं । ” (मार्क्स-एंगेल्ज़, सम्पूर्ण रचनाएँ, जिल्द 25, पेज, 583-584, अंग्रेजी एडिशन 1987, प्रगति प्रकाशन.)



“जीवित रहने के लिए संघर्ष – सबसे बड़ी बात यह है कि इसे पौधों और जनसँख्या की अधिक बढौतरी तक ही सीमित रखा जाये, जोकि पौधों और निम्न जंतुओं के विकास के कुछ चरणों में वास्तव में होता है । परन्तु इन्हें उन परिस्थितियों में, जिसकी जीव-जंतुओं और पौधों को नए वातावरण पर भू-परिस्थितियों वाले नए भूभागों में परवास से बिलकुल अलग रखा जाना चाहिए जिनमें जीवों की प्रजातियाँ बदलती हैं, पुरानी मर जाती हैं और नई विकसित उनका स्थान ग्रहण कर लेती हैं, जनसँख्या में अधिक बढौतरी हुए बिना ही । नए वातावरण में जो जीव स्वयं को ढाल लेते हैं, जीवित रह जाते हैं और लगातार बदलावों से स्वयं को एक नई प्रजाति में विकसित कर लेते हैं पर ज्यादा स्थिर जीव मर जाते हैं और विलुप्त हो जाते हैं, साथ ही मंझोले जीव-रूप भी विलुप्त हो जाते हैं । यह सब कुछ किसी भी माल्थसवाद के बिना संभव है और होता है भी है, और अगर यह लागू भी होता है तो यह उस प्रक्रिया को, ज्यादा से ज्यादा थोडा तेज कर देता है ।”वही पेज, 582-83)



“चलें तर्क करने के लिए ‘जीवित रहने के लिए संघर्ष’ नाम के वाक्यांश को मान भी लें । एक जानवर ज्यादा से ज्यादा इकठ्ठा कर सकता है, पर इन्सान तो उत्पादन करता है । वह जीवित रहने के साधन तैयार करता है, ज्यादा विस्तारित शब्दों में, जोकि प्रकृति ने उसके बिना न बनाये होते । यह जानवरों पर लागू होनेवाले नियमों को मानव समाज पर अपरिपक्व तरीके से लागू करना मुश्किल बना देता है । उत्पादन के कारण जल्दी ही ‘जीवित रहने का संघर्ष’ शुरू हो जाता है, पर यह संघर्ष जीवित रहने के साधनों के लिए नहीं, बल्कि मनोरंजन और विकसित होने के साधनों के लिए होता है । यहाँ – क्योंकि विकसित होने के साधन भी सामाजिक तौर पर पैदा होते हैं – जानवरों पर लागू होनेवाले नियम पूरी तरह से आधारहीन हो जाते हैं । अंत में, पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली में, उत्पादन का स्तर इतना ऊँचा हो जाता है कि समाज जीवित रहने, मनोरंजन और विकसित होने के साधनों का अब और पूरी तरह उपयोग नहीं कर सकता क्योंकि उत्पादन करने वालों के बड़े हिस्से को इन साधनों के उपयोग करने से गैर-कुदरती तरीके से और जबरन हटा दिया जाता है । और इसीलिए संतुलन कायम रखने के लिए एक संकट (आर्थिक संकट – अनु.) प्रत्येक दस वर्षों बाद न सिर्फ जीवित रहने के, मनोरंजन और विकसित होने के साधन, बल्कि उत्पादन शक्तियों के एक बड़े हिस्से का भी विनाश कर देता है । इस प्रकार, यह ‘जीवित रहने के लिए संघर्ष’ कुछ इस तरह का रूप धारण कर लेता है – बुर्जुआ समाज द्वारा पैदा की गई वस्तुएं और उत्पादक शक्तियों की पूंजीवादी प्रणाली के विनाशकारी, विध्वंशकारी प्रभावों से रक्षा करने के लिए, सामाजिक उत्पादन और वितरण का अधिकार, इस कार्य के लिए अयोग्य हो चुकी पूंजीपति जमात के हाथों से छीन लें और इसको उत्पादन करनेवाले जन-समूहों को सौंप दें -और यह है समाजवादी क्रांति ।



“वर्ग संघर्षों के क्रमिक सिलसिले के तौर पर इतिहास का बोध, इनको ‘जीवित रहने के संघर्ष’ के बहुत कम विभेदन वाले चरणों तक सीमित कर देने से विषय-वस्तु और गंभीरता के पक्ष के लिहाज से कहीं अधिक अमीर है ।” (वही, पेज -584 -85 )



“डार्विन को पता नहीं था कि उसने मानवता, विशेषतया अपने देववासियों पर कितना कड़वा व्यंग्य लिख दिया है, जब उसने यह दिखा दिया कि ‘मुक्त प्रतिस्पर्द्धा’ , जीवित रहने के लिए संघर्ष जिसको अर्थशास्त्री सबसे ऊँची ऐतिहासिक उपलब्धि समझते हैं, जानवरों की दुनिया में एक आम स्थिति है । जैसे उत्पादन की क्रिया ने मानव को अन्य जानवरों से जीव-वैज्ञानिक तौर पर विभेदन प्रदान किया, उसी प्रकार सामाजिक पक्ष से भी ; सिर्फ चैतन्य तौर पर सामाजिक उत्पादन के ढांचे, जिसमें उत्पादन और वितरण योजनाबद्ध तरीके से होगा, मानवता को अन्य जानवरों से श्रेष्ठता प्रदान करेगी । इतिहास विकास इस प्रकार को दिन-प्रतिदिन आवश्यक ही नहीं बना रहा, बल्कि अधिकाधिक संभव भी बना रहा है ।” (वही, पेज -331 )



जैसे एंगेल्ज ने ‘ डियूरिंग विरुद्ध’ में यह कहा था कि जीव विकास के सिद्धांत अभी और विकसित होंगे, उसी प्रकार डार्विन को भी अपने सिद्धांत में विद्यमान खामियों का अहसास था ।



जीवाश्म विज्ञान के अनुसार, कैंबरियन युग (६००-७०० मिलियन वर्ष) से पहले की चट्टानों में जीवों के बहुत कम अंश मिलते हैं और वह भी ‘परोकेरीआईक’ नाम के आरंभिक जीव-रूप ही मिलते हैं । पर इससे बिलकुल बाद की चट्टानों में एकदम ही अलग तरह के बहुभांति जीव-रूप मिलते हैं । इनमें वर्तमान में मौजूद जीवों के लगभग बहुत जीव-रूप मिल जाते हैं. इसको ‘कैंबरियन धमाका’ कहा जाता है । यह ध्यान रखना चाहिए कि यह ‘कैंबरियन धमाका’ कोई रातों-रात हो गयी घटना नहीं थी, बल्कि कई मिलियन वर्षों में होनेवाली घटना थी, पर भू-वैज्ञानिक तौर पर देखा जाये तो पृथ्वी की उम्र के मुकाबले यह घटना एक धमाके की तरह ही तेजी से होनेवाली घटना थी । इसके पश्चात् अनेक प्रजातियाँ अस्तित्व में आ गयीं । डार्विन के समय भी इस तथ्य का ज्ञान था । बाद में यह भी सिद्ध हो गया कि समय-समय पर पृथ्वी पर कुछ इस प्रकार की परिस्थितियाँ पैदा होती हैं, चाहे ये परिस्थितियाँ कई मिलियन वर्ष लंबी होती हैं, पर फिर भी भू-वैज्ञानिक तौर पर बहुत छोटी होती हैं, जिस दौरान पृथ्वी पर उस वक्त मौजूद बहुत सारी प्रजातियाँ विलुप्त हो जाती हैं और उनके स्थान पर नई प्रजातियाँ पैदा हो जाती हैं जो समय के साथ धीरे-धीरे विकास करती हैं, विकास के इस चरण में, जब नई प्रजातियों के अस्तित्व में आ जाने के बाद के समय में ‘प्राकृतिक चुनाव’ अहम भूमिका निभाता है । इस तरह जीवों की प्रजातियों के तेजी से विलुप्त होने की अब तक छः घटनाएँ हो चुकी हैं ।