जीव विकास का सिद्धांत – डार्विन और वाद-विवाद
डॉ अमृत
डार्विन के जीवन का संक्षेप ब्यौरा
डार्विन की उपलब्धियां
डार्विन के आलोचक
नव-डार्विनवाद
द्वंदात्मक भौतिकवाद और जीव विकास
बीते वर्ष 2009 के 12 फरवरी के दिन, मानव प्रकृति विज्ञानी चार्ल्स डार्विन का दो सौवां जनमदिन था और संयोगवश 150 साल पहले ही नवम्बर 1859 में ही मनुष्य की वैज्ञानिक समझ का एक मील पत्थर चार्ल्स डार्विन द्वारा लिखित पुस्तक ‘ जीवों की उत्पत्ति’ छपी थी । इन दोनों ही ऐतिहासिक दिनों की याद को समर्पित 2009 का वर्ष, डार्विन के सिद्धांत को आम लोगों में प्रचारित करने और इस पर हो रहे हमलों का जवाब देने के लिए पूरी दुनिया में मनाया गया । इन कार्यक्रमों की समाप्ति 12 फरवरी 2010 को होगी । इसके अलावा पिछले कुछ सालों में 12 फरवरी का दिन डार्विन दिवस के तौर पर भी मनाया जाता है ।
डार्विन के जीवन का संक्षेप ब्यौरा
चार्ल्स डार्विन का जन्म 12 फरवरी 1809 को इंग्लैंड के शहर सर्युस्बरी में हुआ । उनके पिता पेशे से डॉक्टर थे और दादा इरासमस डार्विन एक प्रकृति दार्शनिक, डॉक्टर और कवि थे । पिता की इच्छा थी कि डार्विन डॉक्टर बनें लेकिन उनकी रूचि प्रकृति विज्ञान में थी । 1828 में पिता ने डार्विन को पादरी बनाने के लिए क्राईस्ट कॉलेज, कैम्ब्रिज में दाखिल करवा दिया । यहाँ उनका मेल वनस्पति विज्ञान के प्रोफैसर स्टीवन हैन्स्लो से हुआ और वहां काम करने लगे । डार्विन पहले ही लामारक के जीव विकास सम्बन्धी विचारों को पढ़ चुके थे और अब इनकी रूचि और भी बढ़ गयी । इसी दौरान वह प्रकृति का ध्यान से निरीक्षण करने में लग गये और कीड़े मकौड़े तथा पौधे एकत्रित करने में जुट गये । 1831 में उनकी पढाई पूरी हो गयी ।
इंग्लैण्ड में विभिन्न स्थानों पर प्रकृति का निरीक्षण करने के लिए घूमते-घूमते, उनके प्रोफेसर हैन्स्लो ने, उनकी सिफारिश एक सर्वेक्षण करने जा रहे जहाज पर बतौर प्रकृति विज्ञानी कर दी । डार्विन के पिता नें इनकार कर दिया, लेकिन आखिरकार डार्विन ने किसी न किसी तरह उन्हें अपनी यात्रा का खर्च उठाने के लिए मना ही लिया और 27 दिसंबर, 1831 को डार्विन एच. एम. एस. बीगल नामक जहाज पर सफ़र के लिए निकल पड़े । किसे पता था कि यह सफ़र जीव विज्ञान के क्षेत्र में क्रांति लाने वाला है और पृथ्वी पर मौजूद जीवों और पौधों की उत्पत्ति और विभिन्नता के बारे में मनुष्य की सदियों पुरानी अवधारणाओं को सदा के लिए बदलने वाला है ।
अपने समुद्री सफ़र के दौरान डार्विन नें तथ्यों का भण्डार इकट्ठा कर लिया और अक्तूबर 1836 में इंग्लैंड वापिस आने पर अध्ययन में जुट गये । उनके द्वारा पृथ्वी की सरंचना संबंधी लिखे गये लेखों की वजह से , वह अपनी यात्रा से लौटने से पहले ही काफी प्रसिद्ध हो चुके थे । वापसी पर उनके संबंध उस समय के कई बड़े-बड़े विज्ञानियों से बन गये और वे कई साईंस सोसायटियों के मैम्बर चुने गये । अपने सफरनामे के बारे में किताब लिखते वक्त बहुत ज्यादा मेहनत के दबाव के चलते 1838 में वे बीमार हो गये और डॉक्टरों के कहने पर उन्हें लन्दन वापिस अपने पिता के घर जाना पड़ा । पर यहाँ भी उनकी खोजी रूचि कायम रही । वह अपना ज्यादा समय दुधारू पशुओं को पालने वाले किसानों के साथ बातें करते हुए और उनके द्वारा पशुओं की नसल सुधार के कामों का निरीक्षण करते हुए बिताते थे । हृदयस्पंदन और जठरीय रोग के दर्दों की ये बीमारी इसके बाद डार्विन का उम्र भर पीछा करती रही ।
अपने अध्ययन के आरंभिक वर्षों में ही, डार्विन जीव विकास संबंधी अपनी दो महत्त्वपूर्ण अवधारणाओं का विकास कर चुके थे । ये दो अवधारणाएं- ‘ प्राकृतिक चयन’ (Natural Selection) और ‘योग्यतम का बचाव’ (Survival of the fittest) थी । डार्विन की अवधारणाओं ने यह पक्के तौर पर सिद्ध कर देना था कि प्रकृति पल-पल बदलती है । यह अपने आरम्भकाल से एकसमान नहीं रही जैसाकि उस समय की धार्मिक शिक्षाओं में बताया जाता था । डार्विन को पता था कि उसकी खोजों का समाज के कठमुल्लों की तरफ से भयंकर विरोध किया जायेगा । कुछ इस डर की वजह से और कुछ अपनी खोजों को प्रमाणिक तौर पर और मजबूत बनाने के लिए प्रकृति में से तथ्य इकट्ठे करने और अध्ययन करने के कारण डार्विन 1859 तक अपनी इस क्रान्तिकारी खोज को प्रकाशित न कर सके ।
1856 के शुरुआती दिनों में चार्ल्स डार्विन के दोस्त चार्ल्स लिल को एक और विज्ञानी अल्फ्रेड वालेस का पत्र मिला जिस में वालेस ने डार्विन की अवधारणाओं के साथ मिलती जुलती बातें कहीं । इसके बाद लिल ने डार्विन को अपनी खोजों को छपवाने के लिए कहा और उसके कहने पर डार्विन ने, जीवों की प्रजातिओं की उत्पत्ति’ (Origin of Species) से सम्बंधित एक खोज पत्र लिखना शुरू किया । जून, 1858 में डार्विन को वालेस का पत्र मिला जिसमें उसने ‘प्राकृतिक चयन’ की धारणा का जिक्र किया । 1859 में 1 जुलाई के दिन , डार्विन और वालेस ने इकट्ठे ही अपनी खोजों के बारे में खोज पत्र पढने का निर्णय किया, पर अपने बेटे की मृत्यु की वजह से डार्विन इसमें शामिल न हो सके । आखिरकार नवम्बर में डार्विन की पुस्तक’ जीवों की उत्पत्ति’ (Origin of Species) छप कर लोगों में पहुँच गयी ।
जैसाकि उम्मीद ही थी, किताब की काफी प्रशंसा हुई और कुछ ही दिनों में इसके पहले संस्करण की सारी प्रतियाँ बिक गयीं । वैज्ञानिकों में बहुतों ने डार्विन की उपलब्धियों के साथ सहमती प्रकट की, चाहे कुछ वैज्ञानिकों ने डार्विन की अवधारणाओं का सख्त विरोध भी किया । सबसे ज्यादा भयानक विद्रोह धार्मिक कठमुल्लों और कट्टरपंथियों ने किया और डार्विन के भद्दे कार्टून बना कर बांटे गये । जब डार्विन नें यह रहस्योदघाटन किया कि मनुष्य का विकास बंदरों की एक नसल एप (Ape) से हुआ है तो इसका प्रचंड विरोध हुआ । डार्विन का चेहरा बन्दर के धड़ के ऊपर लगा कर उसकी खिल्ली उड़ाई गयी । लेकिन उनकी खोजों के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए कट्टरपंथी चर्च ने अब उसकी खोजों को अपने धार्मिक लबादे में फिट करना शुरू कर दिया ।
अपने खोज कार्य जारी रखते हुए, डार्विन ने इसके बाद ‘मनुष्य की उत्पत्ति’ (Descent of Man) और अन्य कई किताबें लिखीं । 19 अप्रैल, 1882 के दिन 73 वर्ष की उम्र में इस महान विज्ञानी की मृत्यु हो गयी जो अपने पीछे छोड़ गया मानवता को अपनी बेमिसाल उपलब्धियां ।