जनवरी 08, 2011

किस तरह भारतीय मीडिया का भ्रष्टाचार लोकतंत्र को क्षति पहुंचाता है

पेड न्यूज : एक दस्तावेज  
 रिपोर्ट के अंश 
गत वर्ष हुए लोकसभा व कुछ राज्यों के चुनावों के दौरान बड़े पैमाने पर अखबारों द्वारा पैसे लेकर समाचार छापने की खबरों ने मीडिया जगत में तहलका मचा दिया था। इन आरोपों की जांच करने के लिए अंतत: 3 जुलाई, 2009 को भारतीय प्रेसपरिषद ने अपने अधिकारों का उपयोग करते हुए परिषद की धारा 8 (1) और 15 के तहत दो सदस्यों की एक कमेटी बनाई। इन दो सदस्यों कालिमेकोलन श्रीनिवास रेड्डी और परंजॉय गुहा ठकुरता ने परिषद की मदद से जो रिपोर्ट तैयार की उसे गत माह परिषद के सम्मुख प्रस्तुत किया गया था। पर अंतत: परिषद ने अपनी अंतिम रिपोर्ट में इसे शामिल नहीं किया। 71 पृष्ठों की इस रिपोर्ट को छापना चूंकि संभव नहीं है इसलिए यहां प्रस्तुत है उस रिपोर्ट के वे संपादित अंश जिन से देश के बड़े-बड़े अखबारों द्वारा पैसा कमाने के लिए ताक पर रख दिए गए पत्रकारिता के मूल्यों और आदर्शों का खुलासा होता है।

पृष्ठभूमि

वे सभी खबरें जो अखबारों में छपती हैं या टीवी चैनलों पर प्रसारित होती हैं, उनका मकसद न सिर्फ ऐसी सूचनाएं उपलब्ध कराना होता है जो आम जनता की रुचि की हों बल्कि उन खबरों का सत्य, तथ्यगत रूप से सही, संतुलित, वस्तुनिष्ठ होना भी जरूरी होता है। इसी अर्थ में खबर के रूप में प्रसारित सूचना को संपादकीय लेखों में व्यक्त विचारों से अलग समझा जा सकता है। खासतौर पर इन सूचनाओं को विज्ञापनों से पूरी तरह भिन्न माना जाता है जो कारोबारी जगत के लोगों, सरकारों, संगठनों व व्यक्तियों द्वारा प्रायोजित होते हैं। पर जब खबर व विज्ञापन के बीच फर्क खत्म होने लगता है, जब विज्ञापन ही खबर के रूप में सामने आने लगते हैं जिनके लिए कीमत वसूली जाती है, या जब खबर का प्रकाशन या प्रसारण खास कीमत के बदले किसी खास राजनेता या राजनीतिक दल को फायदा पहुंचाने के लिए होता है, तब पाठक या दर्शक को यह भरोसा दिलाकर गुमराह किया जाता है कि अमुक विज्ञापन या प्रायोजित कार्यक्रम अपने में खबर है और पूरी तरह से सत्य, निष्पक्ष व वस्तुनिष्ठ है।
‘पेड न्यूज’ के बारे में प्रेस काउंसिल के दो सदस्यों वाली सब कमेटी द्वारा तैयार रिपोर्ट खबर व विज्ञापन (या कहें कि एडवरटोरियल) के बीच खत्म होते अंतर को सामने लाती है। यह कुछ व्यक्तियों व संगठन के प्रतिनिधियों द्वारा किए गए प्रयासों को भी सामने लाती है जिन्होंने समाचार माध्यमों में पैसों के लेनदेन के बदले खबरें छापने व दिखाने, खासतौर पर देश में अप्रैल-मई 2009 के आम चुनावों या सितंबर-अक्टूबर 2009 के महाराष्ट्र व हरियाणा के चुनावों के दौरान इस बारे में हुई सौदेबाजी का पूरा ब्यौरा तैयार किया है।
भारत में व अन्य जगहों पर मीडिया उद्योग को कई कारणों से नियंत्रित करना लगातार मुश्किल होता जा रहा है। इनमें तकनीकी विकास, मीडिया का वैश्वीकरण या मीडिया में विभिन्न हित समूहों, विज्ञापनदाताओं व जन संपर्क से जुड़े लोगों की बढ़ती निर्भरता व संबंध भी शामिल हैं। मीडिया उद्योग की सक्रियता के अलावा मीडिया द्वारा आम लोगों के मानस को जिस तरह से प्रभावित किया जाता है, वह भी मीडिया संगठनों के कामकाज व कारोबार संबंधी गतिविधियों पर चौकसी रखने की जरूरत को रेखांकित करता है।

किस प्रकार ‘पेड न्यूज’ के जरिए समाचारों में समझौते किए गए

जैसा कि पहले कहा गया है, खबरों को वस्तुनिष्ठ, सही व तटस्थ होना चाहिए। खबरों के इसी चरित्र के कारण वे पैसे लेकर दिखाए जा रहे विज्ञापनों की सूचना व विचार से भिन्न होती हैं। पर जब खबरें धन की सौदेबाजी के बदले खास राजनेता या राजनीतिक दल के पक्ष में प्रसारित की जाती हैं या छापी जाती हैं, तब ‘पेड न्यूज’ का पूरा मसला ज्यादा खतरनाक आयाम ग्रहण कर लेता है। चुनाव में प्रत्याशियों व राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों के बारे में 2009 के लोकसभा चुनावों व विधानसभा चुनावों के दौरान अनगिनत खबरें, फीचर लेख व रिपोर्ट्स छापी गईं या चैनलों में दिखाई गईं। इनमें यह कहीं नहीं बताया गया कि इन कथित खबरों को छापने या दिखाने के बदले राजनेताओं व उनके दलों तथा मीडिया समूहों के बीच किस प्रकार से पैसों का लेनदेन हुआ है।
इस तरह के गोरखधंधे से उम्मीदवारों को चुनाव अभियान के वास्तविक खर्च को छिपाने का मौका भी मिल गया। अगर वह सही-सही खर्च बताते तो जरूर ही कुछ मामलों में चुनाव आचार संहिता 1961 के उल्लंघन का मामला सामने आता जिसे चुनाव आयोग द्वारा जन प्रतिनिधि कानून 1951 के तहत लागू किया जाता है। अखबारों व टीवी चैनलों ने खबरों (पेड न्यूज) के बदले जो भी पैसा लिया वह नगद में था, चेक में नहीं और उन्होंने अपनी कंपनी की बैलेंस शीट में इस कमाई का रिकार्ड भी नहीं रखा। यह पूरा गोरखधंधा काफी व्यापक पैमाने पर फैल गया है। छोटे-बड़े व विभिन्न भाषाओं के देश भर के सभी अखबारों, पत्रिकाओं व टीवी चैनलों, सभी जगह इसने पैर पसार लिए हैं। यह इस रिपोर्ट में दिए गए उदाहरणों से भी प्रमाणित होता है।
ज्यादा बुरी बात यह है कि यह अवैध कार्य काफी संगठित रूप ले चुका है। इसमें विज्ञापन एजेंसियों व जनसंपर्क से जुडी संस्थाओं के अलावा पत्रकार, मैनेजर व मीडिया कंपनियों के मालिक आदि सभी शामिल हैं। मार्केटिंग विभाग से जुड़े लोग पत्रकारों की मर्जी से या उनपर दबाव डालकर राजनेताओं से संपर्क साधते हैं। फिर उन्हें रेट कार्ड व पैकेज का आफर दिया जाता है जिसमें ऐसी खबरों के प्रकाशन का रेट भी होता है जिसके तहत न केवल खास उम्मीदवार की तारीफ की जाती है बल्कि उसके राजनीतिक विरोधी की आलोचना भी की जाती है। जो उम्मीदवार मीडिया संगठनों के इस तरह के वसूली के धंधे में शामिल नहीं होता उसके बारे में खबरें छपनी बंद हो जाती हैं। भारत में मीडिया का खास हिस्सा उन गलत गतिविधियों में जानबूझकर हिस्सेदारी कर रहा है जिसने राजनीति में धनबल के इस्तेमाल को बढ़ावा दिया है और बदले में लोकतांत्रिक प्रक्रिया व नियमों को कमजोर किया है। ठीक इसी दौरान मीडिया संगठनों के प्रतिनिधियों ने जिनके खिलाफ इस बारे में आरोप लगे हैं, वही लोग ‘पेड न्यूज’ की प्रणाली की सार्वजनिक निंदा करते देखे जा रहे हैं। इस तरह के कुछ लोगों का बर्ताव काफी झूठ व धोखाधड़ी से भरा हुआ है और अपनी ऊंची नैतिक छवि चमकाने की फिराक में भी रहते हैं।
इस तरह की कारगुजारियां जो चोरी-छिपे व अवैध ढंग से चलती हैं, उसमें ऐसे पुख्ता प्रमाण एकत्र करना मुश्किल होता है जिसके आधार पर किसी खास व्यक्ति या संगठन की जिम्मेदारी को तय किया जा सके। पर परिस्थितिगत साक्ष्यों का विशाल जखीरा ऐसा है जो मीडिया संस्थानों में ‘पेड न्यूज’ के बढ़ते कारोबार की ओर इशारा करता है जो कि अपने में चुनाव से जुड़ी बुराई व अवैध कार्य है। चुनाव प्रचार के दौरान एक जैसे लेख, एक जैसी तस्वीरों व शीर्षक वाली खबरें भिन्न-भिन्न नाम वाले संवाददाताओं की बाइलाइन के साथ अखबारों में प्रकाशित हुईं। कुछ खास अखबारों में एक ही पेज पर परस्पर विरोधी उम्मीदवारों के बारे में प्रशंसापूर्ण समाचार प्रकाशित हुए और दोनों के ही जीतने की संभावना का दावा किया गया।

मीडियानेट व प्राइवेट ट्रिटीज का मामला

यह कहा जा सकता है कि मुनाफे के पीछे भागने के कारण कुछ मीडिया संगठनों ने पत्रकारिता के ऊंचे सिद्धांतों व अच्छे कामकाज की शैली की बलि चढ़ा दी है। हाल तक इस तरह की चीजों में सिर्फ कुछ लोग ही लिप्त पाए जाते थे, जैसे कि रिपोर्टरों व संवाददाताओं को नगद या अन्य तरह से लुभाया जाता था। उन्हें देश-विदेश में किसी कंपनी या किसी शख्स के बारे में अनुकूल खबरें छापने पर पैसा मिलता था, पर हाल तक ये सारी चीजें नियम न होकर अपवाद की तरह ही थीं। इस तरह की खबरें संदिग्ध समझी जाती थीं क्योंकि भले ही खबर पूरी तरह सही व वस्तुनिष्ठ होने का दावा करे पर जिस अंदाज से घटनाओं या व्यक्तियों के बारे में चापलूसी की जाती थी, वह आसानी से पकड़ में आ जाती थी। पत्रकारों की बाइलाइन सबसे ऊपर प्रमुखता से छपती थी। पर धीरे-धीरे इस तरह के निजी विचलनों ने संस्थागत रूप धारण कर लिया।
1980 के दशक में जब टाइम्स आफ इंडिया समूह की पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन करने वाली कंपनी बेनेट कोलमैन कंपनी लिमिटेड (बीसीसीएल) में समीर जैन एक्जीक्यूटिव हेड बने तभी से भारतीय मीडिया के कामकाज की शैली व नियमों में बदलाव आने शुरू हो गए। मूल्यों को तय करने में गलाकाट प्रतियोगिता के अलावा बीसीसीएल को देश का सबसे अधिक मुनाफे वाला मीडिया समूह बनाने के लिए मार्केटिंग का सबसे ज्यादा रचनात्मक इस्तेमाल किया गया। अब यह अन्य सभी प्रकाशन उद्योगों की कुल आय की तुलना में अधिक मुनाफा कमाता है, हालांकि एक कार्पोरेट समूह के रूप में स्टार ग्रुप ने हाल के वर्षों में अधिक मात्रा में सालाना कारोबार किया है।
मीडिया के क्षेत्र में आगे चलकर जिस चीज ने काफी खलबली पैदा की, वह था 2003 में बीसीसीएल द्वारा पैसे के बदले प्रकाशन यानी ‘पेड कंटेंट’ की मीडियानेट नाम से सेवाएं आरंभ करना। इसके तहत पैसों के बदले पत्रकारों को किसी प्रोडक्ट के लांच या व्यक्ति से संबंधी कार्यक्रमों व घटनाओं को कवर करने के लिए भेजने का खुला प्रस्ताव दिया गया। जब दूसरे अखबारों ने इस तरह की गतिविधियों से पत्रकारिता के उसूलों के उल्लंघन का सवाल उठाया तो बीसीसीएल के अधिकारियों व मालिकों ने तर्क दिया कि इस तरह के एडवरटोरियल्स टाइम्स आफ इंडिया में नहीं छप रहे हैं । केवल वे शहरों के रंगीन स्थानीय पेजों के लिए हैं जिसमें ठोस खबरों के प्रकाशन के स्थान पर समाज की हल्की-फुल्की मनोरंजक बातों के बारे में सामग्री प्रकाशित की जाती है। यह भी कहा गया कि अगर जन संपर्क से जुड़ी एजेंसियां पहले ही अपने ग्राहकों के बारे में खबरें छपवाने के लिए पत्रकारों को रिश्वत दे रही हैं तब इस तरह की एजेंसियों जैसे बिचौलियों के खत्म करने में क्या बुराई है।
मीडियानेट के अलावा बीसीसीएल ने एक और नए तरह की मार्केटिंग व जन संपर्क की रणनीति ईजाद की। 2005 में वीडियोकान इंडिया और कायनेटिक मोटर्स समेत 10 कंपनियों ने बीसीसीएल को अघोषित कीमत वाले इक्विटी शेयर प्रदान किए ताकि उन्हें बीसीसीएल द्वारा संचालित मीडिया के विभिन्न प्रकाशनों में विज्ञापन के लिए जगह मिल सके। इस योजना की सफलता ने बीसीसीएल को भारत के सबसे बड़े निजी इक्विटी निवेशकों में बदल दिया। 2007 के अंत में इस मीडिया कंपनी ने अन्य क्षेत्रों समेत उड्डयन, खुदरा बाजार, मनोरंजन, मीडिया आदि क्षेत्रों की 140 कंपनियों में निवेश का दावा किया जिसकी कीमत 1500 करोड़ रुपये के करीब थी। बीसीसीएल के एक प्रतिनिधि (एस. शिवकुमार) द्वारा जुलाई 2008 को एक वेबसाइट को दिए गए इंटरव्यू के मुताबिक कंपनी के साथ 175 से 200 के बीच निजी समझौते (प्राइवेट ट्रीटी) वाले ग्राहक जुड़े हुए हैं और उनके साथ 15 से 20 करोड़ रुपये वाले समझौते किए गए हैं। इस तरह कुल निवेश 2600 करोड़ रुपए से लेकर 4000 करोड़ रुपए तक का किया गया है।
पर यह अलग बात है कि 2008 में स्टाक मार्केट के धराशायी होने के फलस्वरूप बीसीसीएल द्वारा किए गए निजी समझौतों के उद्देश्यों की हवा निकल गई। बीसीसीएल द्वारा खरीदे गए विभिन्न कंपनियों के शेयरों की कीमतें गिर गईं, उसके बावजूद मीडिया कंपनी को विज्ञापन की जगह देने के पुराने समझौते को पूरा करना पड़ा, वह भी शेयरों की पुरानी ऊंची कीमतों पर और उसे आमदनी में भी दिखाना पड़ा जिस पर टैक्स भी चुकाना पड़ता है।
निजी समझौतों की इस योजना का उद्देश्य टाइम्स आफ इंडिया में विज्ञापन की प्रतिस्पर्धा को कमजोर करना था, पर बाद में कई दूसरे अखबारों व टीवी चैनलों ने भी इसी योजना को आरंभ कर दिया। बीसीसीएल द्वारा शुरू की गई निजी समझौतों की योजना में इक्विटी निवेश के बदले निजी कंपनियों व विज्ञापनदाताओं के लिए विज्ञापन प्रसारित किए जाते थे, हालांकि कंपनी के अधिकारी इस बात से इनकार करते हैं कि निजी समझौते करने वाली कंपनियों व ग्राहकों के बारे में प्रशंसापूर्ण खबरें छापी जाती हैं या उनके बारे में आलोचना को छपने से रोका जाता है।
पर भले ही बीसीसीएल के प्रतिनिधि अपनी पत्र-पत्रिकाओं व चैनलों में पैसे लेकर अनुकूल खबरें छापने व दिखाने की बात का खंडन करें पर सच यह है कि खबरों से जुड़ी ईमानदारी व निष्पक्षता में समझौता किया गया है। 4 दिसंबर 2009 को इकोनामिक टाइम्स व टाइम्स आफ इंडिया में निजी समझौतो (प्राइवेट ट्रिटीज) की सफलता पर जश्न मनाते हुए आधा पेज के रंगीन विज्ञापन छपे, ‘हाऊ टू परफार्म द ग्रेट इंडियन रोप ट्रिक’ जिसमें पेंटालून का खास उदाहरण दिया गया। जो बताने की कोशिश की जा रही थी, वह यह थी कि टाइम्स आफ इंडिया समूह के साथ पेंटालून की रणनीतिक साझेदारी ने किस प्रकार से लाभ पहुंचाया है। विज्ञापन के मुताबिक, मीडिया हाउस के लाभ के तौर पर टाइम्स प्राइवेट ट्रिटीज (टीपीटी) अपने साझीदार पर आर्थिक बोझ कम करते हुए निवेशक की चिर-परिचित भूमिका से बाहर निकल गया। ऐसा इसलिए भी हुआ क्योंकि भारत के सबसे आगे रहनेवाले मीडिया घराने के पास विज्ञापन की अतुलनीय ताकत है। जब पैंटालून का तेजी से विकास हुआ, टाइम्स प्राइवेट ट्रिटीज ने भी पूरी कोशिश की कि उसे विज्ञापनों के लिए अखबार में पूरा स्पेस मिले। टीपीटी ने इसके लिए बेहतर शब्द इजाद किया, बिजनेस सेंस।
कई मीडिया संगठनों में खबर को विज्ञापनों से अलगाने के लिए ‘एडवरटोरियल’ या ‘एडवरटीजमेंट’ जैसे शब्द इस्तेमाल किए जाते हैं। विज्ञापनों के लिए अलग किस्म के फांट व फांट साइज, उनके चारों ओर लकीरें खींचने या स्पांसर्ड फीचर अथवा विज्ञापन में कहीं कोने में एडीवीटी जैसे शब्द बहुत छोटे आकार में लिखने का काम किया जाता है जो कई बार पाठकों की निगाह में पड़ता है और कई बार नहीं। जैसा कि टाइम्स आफ इंडिया के सिटी सप्लीमेंट के तौर पर छपने वाले दिल्ली टाइम्स में त्वचा की देखभाल वाले प्रोडक्ट ‘ओले’ के बारे में एक साल तक छपी स्टोरी अपने सारे खंडन या अखबार के द्वारा किए इनकार के बावजूद ‘पेड न्यूज’ की ही श्रेणी में आती है। बीसीसीएल के प्रतिनिधि प्राय: कहते हैं कि कंपनी की प्राइवेट ट्रिटीज स्कीम किसी भी सार्वजनिक जांच के लिए खुली हुई है क्योंकि जिन कंपनियों में बीसीसीएल की भागीदारी है, वह सबकुछ सार्वजनिक ही है और उसका अपने वेबसाइट में उसका उल्लेख है। पर बहस व विवाद का कारण कुछ और है। वह यह कि ये सभी कंपनियां अखबार में छपने वाली सामग्री को प्रभावित करती हैं।
इसी तरह सीएनएन-आईबीएन टीवी न्यूज चैनल पर प्रसारित रेजर ब्लेड बनाने वाली कंपनी जिलेट का विज्ञापन अभियान- ‘वार अगेंस्ट लेजी स्टबल’- में फीचर कथाएं व नामचीन हस्तियों के साक्षात्कार दिखाए गए। इसके अलावा इस मुद्दे पर पैनल की बहस आयोजित की गई कि मर्दों को शेव करना चाहिए या नहीं और इस निष्कर्ष को पहले से इस बहस में केंद्र में रखा गया कि भारतीय स्त्रियां क्लीन शेवन मर्दों को ज्यादा पसंद करती हैं। यह दावा किया गया कि जिलेट व सीएनएन-आईबीएन की साझेदारी दोनों के लिए लाभप्रद है। एडवरटोरियल से जुड़े ऐसे अन्य कई उदाहरण और भी हैं।

प्रेस काउंसिल आफ इंडिया को सेबी की सलाह

15 जुलाई 2009 को भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) के निगरानी विभाग के विशेष कर्तव्य अधिकारी (ओएसडी) श्री एस. रामन ने प्रेस काउंसिल आफ इंडिया के चेयरमैन जस्टिस जी.एन. रे को लिखा कि कई मीडिया कंपनियां ऐसी कंपनियों के साथ निजी समझौते (प्राइवेट ट्रिटीज) में शामिल हो रही हैं जिनके इक्विटी शेयर स्टाक एक्सचेंज में दर्ज हैं या ऐसी कंपनियों के साथ हैं जो अपने शेयर को मार्केट में ला रही हैं। मीडिया कंपनियां भी इन कंपनियों में हिस्सेदारी कर रही हैं और बदले में उन्हें विज्ञापनों, समाचार व संपादकीय में प्रचार की सुविधा उपलब्ध करा रही हैं। सेबी, जिसकी स्थापना सिक्यूरिटी एंड एक्सचेंज बोर्ड आफ इंडिया एक्ट, 1992 के तहत की गई थी, उसका काम निवेशकों के हितों की सुरक्षा करना है और इसका मत है कि शेयरों के बदले ब्रांड खड़े करने व प्रचार कार्य करने की नीति हितों के टकराव को पैदा करेगी। नतीजतन न्यूज व संपादकीय की प्रकृति व अंतर्वस्तु के रूप में प्रेस की स्वतंत्रता कमजोर होगी।
सेबी का कहना है कि निजी समझौते समाचारों के व्यवसायीकरण को जन्म देंगे क्योंकि वे मीडिया समूह व कंपनियों के बीच विज्ञापन संबंधी समझौतों पर आधारित होंगे। इसके अलावा निजी समझौतों का लाभ उठा रही कंपनियों के बारे में इकतरफा व असंतुलित रिपोर्टिंग से मिथ्या धारणाएं पैदा होंगी। अत: सेबी का अनुभव था कि सही ढंग से जानकारी दिए बगैर चलाई जा रही ब्रांड के प्रचार से जुड़ी मीडिया की ऐसी नीतियां संभव है कि निवेशकों व आर्थिक बाजार के हित में न हों क्योंकि इससे सही ढंग से व सही सूचनाओं पर आधारित फैसले लेने की प्रक्रिया को चोट पहुंचती है। सेबी की सलाह के मुताबिक -
1 . जिस भी कंपनी में मीडिया कंपनी की हिस्सेदारी हो उसके बारे में न्यूज रिपोर्ट, लेख, अखबारों में संपादकीय या टीवी में खबर प्रकाशित करने पर उस संबंध में जानकारी देना अनिवार्य कर दिया जाए।
2 . निजी समझौतों के तहत जितने भी प्रतिशत की मीडिया समूहों की किसी भी कंपनी में हिस्सेदारी हो, उसके बारे में मीडिया समूह की वेबसाइट में जानकारी देना अनिवार्य कर देना चाहिए।
3 . इसके अलावा उन जानकारियों को भी देना चाहिए जिसका संबंध मीडिया समूह द्वारा कंपनी के बोर्ड में नामित सदस्य रखने, कंपनी पर प्रबंधकीय नियंत्रण रखने से जुड़े समझौतों से हो और ऐसे अन्य ब्यौरों की जानकारी भी देनी अनिवार्य हो जिसका संबंध मीडिया समूहों के हितों के टकराव से जुड़ा हो व जिसकी जानकारी दिया जाना जरूरी हो।
प्रेस काउंसिल आफ इंडिया को सेबी की सलाह के मुताबिक सिक्यूरिटीज मार्केट के विकास के लिए, खासकर छोटे निवेशकों द्वारा सही सूचनाओं पर आधारित निर्णय लेने के मद्देनजर मुक्त व निष्पक्ष प्रेस का विकास बेहद जरूरी है और सेबी ने प्रेस काउसिंल को इस संबंध में तुरंत कोई निर्णय लेने के लिए कहा।
इस प्रसंग में प्रेस काउंसिल ने आर्थिक जगत के पत्रकारों का ध्यान 1996 में तैयार गाइडलाइन्स की ओर खींचा जिसके मुताबिक-
1 . आर्थिक मामलों के पत्रकारों को उपहार, कर्ज, यात्राएं, डिस्काउंट, शेयर या अन्य ऐसी चीजें स्वीकार नहीं करनी चाहिए जिससे उन्हें कामकाज या अपने पद के अनुरूप बर्ताव करने में समझौते करने पड़ें।
2 . खबर में इस बात को स्पष्टता से बताना चाहिए कि खबर की सूचनाएं कंपनी या उसके आर्थिक प्रायोजकों द्वारा प्रदत्त सूचनाओं पर आधारित हैं।
3 . जब किसी कंपनी द्वारा किसी पत्रकार को निमंत्रित किया जाए, उसका स्वागत-सत्कार किया जाए तब उस संबंध में रिपोर्ट लिखने वाले को इन सुविधाओं के बारे में अपनी रिपोर्ट में स्पष्ट उल्लेख करना चाहिए।
4 . ऐसे रिपोर्टर जो भ्रष्टाचार का भंडाफोड़ करते हों या अच्छे प्रोजेक्ट्स का अपनी रिपोर्ट में प्रचार करते हों उन्हें प्रोत्साहित एवं पुरस्कृत करना चाहिए।
5 . जिस पत्रकार के किसी कंपनी से आर्थिक हित जुड़े हों (जिनमें शेयर इत्यादि भी शामिल हों) उन्हें कंपनी से जुड़ी रिपोर्ट नहीं तैयार करनी चाहिए।
6 . पत्रकार को प्रकाशन से पूर्व प्राप्त सूचनाओं का इस्तेमाल निजी लाभ या संबंधियों अथवा मित्रों को लाभ पहुंचाने के लिए नहीं करना चाहिए।
7. किसी भी अखबार मालिक, संपादक या अखबार से जुड़े व्यक्ति को अखबार की ताकत के बल पर अपने दूसरे कारोबारी हितों को पूरा नहीं करना चाहिए।
8. जब भी एडवरटाइजिंग स्टैंडर्ड्स काउंसिल आफ इंडिया द्वारा किसी विज्ञापन एजेंसी या विज्ञापनदाता की आलोचना व भत्र्सना की जाए तब उस विज्ञापन को छापने वाले अखबार को इस बारे में स्पष्ट तौर पर समाचार प्रकाशित करना चाहिए।
इस बारे में विचार करने के उपरांत प्रेस काउंसिल आफ इंडिया ने सेबी के विचारों को समर्थन प्रदान किया और कहा कि इस बारे में प्रासंगिक दिशानिर्देशों को केवल आर्थिक मामलों के पत्रकारों के लिए ही नहीं बल्कि मीडिया कंपनी के मालिकों के लिए भी अनिवार्य बनाया जाना चाहिए। यह पारदर्शिता व निष्पक्षता के लिए ठीक रहेगा और कंपनियों के बारे में पक्षपातपूर्ण समाचारों के प्रकाशन की घटनाओं को कम करेगा जो कि निवेशकों के हितों की दृष्टि से भी खतरनाक होता है।
पत्रकारों के आचरण के बारे में ‘द मिंट’ का कोड नई दिल्ली के हिंदुस्तान टाइम्स समूह ( एचटी मीडिया के स्वामित्व वाला) द्वारा प्रकाशित दैनिक अखबार ‘द मिंट’ ने पत्रकारों के आचरण के बारे में विस्तृत संहिता तैयार की है और सभी कर्मचारियों को समुचित प्रोफेशनल आचरण के लिए दिशानिर्देश भी जारी किए हैं। अखबार का कहना है कि इस आचरण संहिता का उद्देश्य नए विचारों या आचरण के नए नियमों को बताना नहीं है बल्कि चली आ रही कार्यशैली व मूल्यों पर विश्वास व्यक्त करना है। आचरण संहिता के मुताबिक अखबार किसी से पैसों के बदले इंटरव्यू नहीं लेता है और न ही पैसों का लेनदेन कर लोगों से फोटोग्राफ या फिल्म लेता है और न उनके बारे में खबरें रिकार्ड करता है। आचरण संहिता सभी कर्मचारियों पर दायित्व डालती है कि वे खबरें, ग्राफिक्स व फीचर स्टोरीज को केवल संपादकीय मापदंडों के आधार पर तैयार करें और उनका उद्देश्य अखबार में विज्ञापन देने वाली कंपनियों से ठीक वैसा बर्ताव करना हो जैसा बर्ताव विज्ञापन न देने वाली कंपनियों के साथ होता है। द मिंट ने अपने कर्मचारियों को निर्देश दिया है कि चाहे कोई भी वजह हो पर वे किसी कंपनी विशेष का पक्ष न लें और न ही खबरों में पक्षपात करें और न ही किसी से भेदभाव करें।
अखबार का यह भी दावा है कि अखबार के सभी संपादक व संपादकीय जरूरतें ही अखबार के स्वरूप को निर्धारित करती हैं और राजस्व पैदा करने वाली सामग्री के मामले में प्रबंधन विशेष सुविधाएं देता है। पर अखबार में डिजाइन पर खास तवज्जो देने के कारण यह भी सुनिश्चित कर लिया जाता है कि संपादकीय व कारोबारी सामग्री की डिजाइन में स्पष्ट रूप से अंतर हो। इस नियम के तहत ही, जैसा कि अखबार का दावा है कि वह किसी भी संपादकीय उद्देश्य से इतर विज्ञापनदाता की वेबसाइट से अपनी खबरों के इलेक्ट्रानिक स्वरूप को जोड़ता नहीं है।
इन सिद्धांतों के पालन के लिए अखबार इस बात पर जोर देता है कि बड़ी संख्या में इसके संपादकीय विभाग में काम करने वालों का सामान्य सामाजिक शिष्टाचार के अलावा इसके बिजनेस विभाग में काम करने वाले लोगों से संपर्क न रहे। हालांकि यह अपने मैनेजिंग एडिटर या संबंधित विभाग प्रमुखों को इस मामले में छूट देने की इजाजत भी देता है जिससे सामान्य कारोबार में अड़चन न आए। आचरण संहिता यह भी कहती है कि अगर कभी भी संपादकीय सामग्री में समझौते करने या आचरण संहिता का उल्लंघन करने के लिए किसी पत्रकार अथवा कर्मचारी को बाहरी दबाव अथवा द मिंट के ही बिजनेस विभाग के दबाव का सामना करना पड़े तो यह बात उसे तुरंत मैनेजिंग एडिटर अथवा डिप्टी मैनेजिंग एडिटर के ध्यान में लानी चाहिए।
यह गौरतलब है कि बहुत कम अखबारों व पत्रिकाओं ने मिंट की तरह अपने यहां काम करने वालों के लिए आचरण व व्यवहार के संबंध में नियम-कानून तैयार किए हैं। प्रेस काउंसिल आफ इंडिया सभी मीडिया संगठनों को न केवल इस उदाहरण का अनुकरण करने के लिए प्रोत्साहित करेगा बल्कि यह भी सुनिश्चित करेगा कि अखबार के सभी लोग पूरी तरह से इन सिद्धांतों व नियमों का पालन करें।

‘पेड न्यूज’ के बारे में दिवंगत प्रभाष जोशी का आखिरी भाषण

भारत के एक प्रख्यात पत्रकार स्वर्गीय प्रभाष जोशी पेड न्यूज के खिलाफ लडऩे वाले योद्धा थे। उन्होंने इस मामले में प्रेस काउंसिल आफ इंडिया व भारत के निर्वाचन आयोग से अपने स्तर पर संपर्क किया और उनसे कहा कि इस अनाचार पर रोक लगाने के लिए जो संभव हो सके किया जाए। 5 नवंबर 2009 को अपने निधन से पूर्व उन्होंने 28 अक्टूबर 2009 को नई दिल्ली में फाउंडेशन फार मीडिया प्रोफेशनल्स के सेमिनार में दिए गए आखिरी भाषण में उन्होंने कुछ राजनेताओं के नाम लिए जिन्होंने या तो खबर छापने के लिए पैसे देने से मना कर दिया या जिन्होंने उनसे इस बारे में शिकायत की कि खबरें छापने के लिए मीडिया के कुछ लोग उनसे धन उगाही करना चाह रहे हैं।
जिन कई नेताओं का उन्होंने नाम लिया जो ‘पेड न्यूज’ के बारे में उनसे बात करते थे उनमें श्री जोशी ने सीपीआई के श्री अतुल कुमार अंजान का भी उल्लेख किया और कहा, ‘सीपीआई के श्री अनजान प्राय: अपने भाषण की शुरुआत चुनाव अभियान व विवाह उत्सव के बीच समानता बताते हुए करते थे। वह कहते थे कि जब शादी होती है तो जो लोग पंडाल और टेंट तैयार करते हैं, सजावट व भोजन का प्रबंध करने का काम करते हैं वे अपनी सेवाओं की कीमतें बढ़ाकर बताते हैं। शादी के सीजन में तो वे लोग मांग बढऩे व आपूर्ति की कमी के नियम का फायदा उठाते हुए अपनी कीमतें खासतौर पर बढ़ा देते हैं। अखबार के मालिक भी इसी तरह से काम करते हैं जब वे चुनाव से ठीक पहले उम्मीदवारों की खबरें छापने के बदले उनसे पैसे मांगने लगते हैं।’ इस अवसर पर श्री जोशी ने मीडिया के उस हिस्से की खास तौर पर कड़ी आलोचना की जिसने आम चुनावों के दौरान विज्ञापनों को राजनीतिक खबर बनाकर प्रस्तुत किया। उनके निशाने पर कुछ मीडिया संगठन थे जो राजनीतिक दलों के उम्मीदवारों के साथ सांठगांठ में शामिल हो गए। उनकी गतिविधियों को छापने या उनके विरोधियों को हराने के लिए अवैध तरीके से पैसा लिया। इस तरह की हरकतें लोकतंत्र में स्वतंत्र मीडिया की पूरी भूमिका से ही समझौता करती हैं। उन्होंने 2009 के आम चुनावों हिंदी भाषी राज्यों में पत्रकारों व मीडिया संगठनों द्वारा किए गए गलत कार्यों के कई उदाहरण दिए। इन राज्यों में कुछ को छोड़कर ज्यादातर अखबार चुनाव लड़ रहे दलों के नेताओं के साथ समझौतों में शामिल हो गए। उन्होंने धन के बदले विशेष उम्मीदवारों व राजनीतिक दलों को प्रचार का पैकेज उपलब्ध कराया।
मीडिया समूहों ने पैकेजों को तैयार किया और इन पैकेजों का प्रस्ताव रखने वाले अखबार ऐसे उम्मीदवारों व राजनीतिक दलों के बारे में समाचार प्रकाशित ही नहीं करते हैं जो इन पैकेजों को खरीदते नहीं हैं। श्री जोशी ने उन कई नेताओं का नाम लिया जिन्होंने उनसे राज्यों में मीडिया समूहों द्वारा पेड न्यूज के विशाल कारोबार के बारे में शिकायत की थी। उन्होंने खासतौर पर लखनऊ से भाजपा के सांसद श्री लालजी टंडन, उप्र में देवरिया से चुनाव लडऩे वाले सपा के श्री मोहन सिंह, प्रधानमंत्री रह चुके दिवंगत श्री चंद्रशेखर के मंत्रिमंडल में केंद्रीय मंत्री रह चुके श्री हरिमोहन धवन और हरियाणा के मुख्यमंत्री श्री भूपिंदर सिंह हुड्डा का इस बारे में नामोल्लेख किया।
इस भाषण को देने से पूर्व श्री जोशी ने कई अखबारों व पत्रिकाओं में इस विषय पर कई लेख भी लिखे थे। जैसे कि 10 मई 2009 को उन्होंने जनसत्ता में लिखा कि हिंदुस्तान अखबार के वाराणसी संस्करण में 15 अप्रैल को मुखपृष्ठ पर एक उम्मीदवार तुलसी सिंह राजपूत की प्रशंसा में तीन लेख एक साथ प्रकाशित किए गए। ये अखबार की मुख्य खबर, दूसरे मुख्य आलेख व अखबार के बाटम की स्टोरी के रूप में थे। इसके अलावा इसी पृष्ठ पर श्री राजपूत की तीन तस्वीरें, जिनमें एक तो तीन कालम की थी, प्रकाशित की गईं। अगले दिन के संस्करण में हिंदुस्तान अखबार में यह स्पष्टीकरण भी छपा कि विगत दिवस जो प्रकाशित हुआ था, वह एक विज्ञापन था। स्पष्टीकरण में यह भी लिखा था कि पहले की खबर विज्ञापन थी, इस बारे में जानकारी देनी चाहिए थी क्योंकि यह अखबार की संपादकीय नीति का हिस्सा है।
अखबारों में लेख लिखने के अलावा श्री जोशी ने सभी विवेकवान लोगों से अपील की कि वे पेड न्यूज के पूरे कारोबार का विरोध करें और इस अनाचार के विरुद्ध अभियान चलाएं। श्री जोशी का निधन हो चुका है लेकिन कई पत्रकारों समेत ढेरों लोग उनके विचारों से प्रेरित हैं और इस संबंध में अभियान का आगे संचालन कर रहे हैं। जैसा कि श्री जोशी व अन्य लोगों ने बताया था कि पेड न्यूज के पूरे मामले के चलते चुनाव प्रक्रिया भी दूषित हो गई है क्योंकि जो पैसा खर्च होता है उसका हिसाब नहीं रखा जा सकता। यह भारतीय निर्वाचन आयोग द्वारा लागू किए जाने वाले जन प्रतिनिधि कानून 1951 के तहत चुनावी खर्च का ब्योरा देने के संदर्भ में जारी अनिवार्य गाइडलाइन का भी उल्लंघन करता है।
द हिंदू अखबार में 18-19 मार्च 2010 को दो खंडों में लिखे लेख में वरिष्ठ पत्रकार मृणाल पांडे ने कहा- खबरों के पुनर्निर्धारण व अखबारों में इनके प्रसार के बारे में हाल में लिए गए कई फैसले बेहद जल्दबाजी में संपादकीय विभागों की सलाह के बगैर लिए गए हैं। उन्होंने संभव है कि पूरे तंत्र में अदृश्य व खतरनाक वायरस को पैदा कर दिया है जो अखबारों का क्षरण करते हुए अंतत: उन्हें नष्ट कर देंगे। भाषाई मीडिया हो सकता है कि इस नई प्रवृत्ति के कारण फिलहाल अपनी गरीबी दूर होने को लेकर खुश हो पर उन्हें अब नए प्रकार की गरीबी का दृढ़ता व निर्णायक ढंग से सामना करना होगा और वह है कामकाज से जुड़ी नैतिकता व उसूलों की गरीबी।

हिंदी अखबारों से पेड न्यूज के कुछ उदाहरण

हिंदी भाषी प्रेस से यहां कुछ उदाहरणों का चयन किया गया है जिन्हें ‘पेड न्यूज’ के उदाहरणों के रूप में माना जा सकता है।
दैनिक जागरण के रांची संस्करण ने 15 अप्रैल, 2009 को पेज तीन पर एक समाचार प्रकाशित किया। यह झारखंड मुक्ति मोर्चा के उम्मीदवार कामेश्वर बैठा के समर्थन में था। इस समाचार में कहा गया कि श्री बैठा को समाज के हर वर्ग का समर्थन मिल रहा है और वह पलामू लोकसभा क्षेत्र से चुनाव जीत जाएंगे। इस समाचार में कोई क्रेडिट लाइन (रिपोर्टर या अखबार को अपनी समाचार सेवा के हवाले से नहीं लिखा गया था) नहीं दी गई थी। इस समाचार के लिए इस्तेमाल किया गया फांट इसी अखबार में प्रकाशित अन्य समाचारों के लिए इस्तेमाल फांट से अलग था। इसी पृष्ठ पर इस अखबार ने एक और समाचार प्रकाशित किया था। इस समाचार में जेएमएम, झारखंड विकास मोर्चा और निर्दलीय उम्मीदवार के बीच त्रिकोणीय मुकाबले की बात कही गई थी। यह खबर अखबार ने अपने रिपोर्टर के हवाले से दी थी।
13 अप्रैल, 2009 को दैनिक जागरण के रांची संस्करण में पृष्ठ सात पर दो समाचार प्रकाशित किए गए। ये दोनों समाचार छतरा लोकसभा क्षेत्र से संबंधित थे। पहला समाचार राष्ट्रीय जनता दल के उम्मीदवार श्री नागमणि के समर्थन में था। इसका शीर्षक था- नागमणि को मिल रहा है हर वर्ग और समुदाय का समर्थन। असल में उन्हें निर्विवाद रूप से विजेता के तौर पर दिखाया गया था। इसी पेज पर एक और समाचार था। यह समाचार जनता दल यूनाइटेड के उम्मीदवार अरुण कुमार यादव के बारे में था। यह भी छतरा लोकसभा क्षेत्र से ही संबंधित था। इस समाचार में अरुण कुमार यादव को स्पष्ट तौर पर विजेता के रूप में उभरता हुआ बताया गया था। इन दोनों समाचारों में कोई बाईलाइन नहीं थी। इन दोनों समाचारों का भी फांट इस पेज पर अन्य समाचारों के फांट से अलग था।
रांची से ही प्रकाशित होने वाले दो अन्य समाचारपत्रों प्रभात खबर और हिन्दुस्तान ने लोकसभा चुनावों से पहले विभिन्न उम्मीदवारों की प्रशंसा में कई लेख प्रकाशित किए। लेकिन प्रभात खबर ने इस तरह के प्रत्येक आइटम के ऊपर पीके मीडिया मार्केटिंग इनिशिएटिव लिखा, जबकि हिन्दुस्तान ने एचटी मीडिया मार्केटिंग इनिशिएटिव लिखा।
प्रथम प्रवक्ता पत्रिका (16 जुलाई, 2009 का अंक) में पूर्व नागरिक उड्डयन मंत्री हरमोहन धवन के हवाले से कहा गया, ”मैं 2009 का चुनाव बसपा के टिकट पर चंडीगढ़ से लड़ रहा था। प्रिंट मीडिया के प्रतिनिधि मेरे पास आए और उन्होंने पैसे की मांग की। उन्होंने कहा कि उनके अखबार उनको कवरेज देंगे यदि मैं उन्हें पैसा दूं। उन्होंने मेरे सामने एक पैकेज का प्रस्ताव रखा और इस तरह के एक पैकेज में मुझसे कहा गया कि संपादकीय मेरे पक्ष में लिखे जाएंगे। मैं 1974 से चुनाव लड़ रहा हूं लेकिन इससे पहले कभी भी किसी अखबार ने मुझसे पैसे की मांग नहीं की। मेरे सामने पैकेज का प्रस्ताव रखने वाले समाचारपत्रों में पंजाब केसरी था। चुनाव से बीस दिन पहले मेरे पास दैनिक जागरण का एक प्रतिनिधि आया और उसने मुझसे साफ तौर पर कहा: यदि आप इस चुनाव में कवरेज चाहते हैं तो आपको पैकेज खरीदना होगा। ये पैकेज लाखों रुपए के थे। इसके बाद मेरे घर में दैनिक भास्कर का एक प्रतिनिधि आया। उसने भी मेरे सामने एक पैकेज का प्रस्ताव रखा।”
”मैंने इन प्रस्तावों को ठुकरा दिया। मुझे लगा कि अखबार बड़ी चुनावी सभाओं के बारे में तो छापेंगे ही, जहां बड़ी संख्या में लोग एकत्रित हैं, लेकिन जो रैलियां मेरे समर्थन में आयोजित की गई थीं, उनका इन अखबारों ने कोई जिक्र नहीं किया। जबकि दूसरे उम्मीदवारों की रैलियों के बारे में काफी विस्तार के साथ लिखा गया था। जब मैंने इन अखबारों के प्रबंधन के प्रतिनिधियों के सामने इस मुद्दे को उठाया तो उन्होंने मुझसे कहा कि जब तक मैं एक पैकेज के लिए धन नहीं दूंगा तब तक कुछ नहीं किया जा सकता। 28 अप्रैल, 2009 को मैंने बी.एस.पी की प्रमुख और उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री कुमारी मायावती की मौजूदगी में सार्वजनिक रूप से इस पेड न्यूज के धंधे के बारे में बात की। तीस अप्रैल को मेरे पास दैनिक भास्कर के महाप्रबंधक आए और उन्होंने कहा कि वह स्वयं यह मानते हैं कि बी.एस.पी और उसके सभी प्रतिनिधियों की चुनाव पूर्व गतिविधियों को पूर्ण रूप से उनके अखबार में पूरी कवरेज मिलनी चाहिए लेकिन वह इस मामले में असहाय हैं क्योंकि अखबार के प्रबंधन ने यह तय किया है कि वे किसी भी दल के या उम्मीदवारों के विषय में अपने अखबार में तब तक कुछ नहीं प्रकाशित करेंगे जब तक वे अखबार को धनराशि नहीं देते। उन्होंने मेरे सामने पांच लाख के ‘पैकेज ‘ का प्रस्ताव रखा लेकिन मैंने उसे ठुकरा दिया। कुछ रिपोर्टरों ने भी मुझे बताया कि उन्होंने जो भी मेरे चुनाव प्रचार के बारे में लिखा था, वह कुछ भी नहीं छपा। मुझे अहसास हुआ कि अखबार रिपोर्टर को अपने औजार के रूप इस्तेमाल कर रहे हैं।”
प्रथम प्रवक्ता पत्रिका (16 जुलाई 2009) को दिए एक साक्षात्कार में उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ से कांग्रेस के उम्मीदवार डाक्टर संतोष सिंह ने कहा ”मेरे नामांकन दाखिल करने के बाद दैनिक जागरण के वाराणसी संस्करण के एक प्रतिनिधि ने मुझसे संपर्क किया और मुझसे दस लाख और पांच लाख के दो पैकेजों में से एक को खरीदने को कहा, जिसमें मेरे चुनाव प्रचार का व्यापक कवरेज करने का प्रस्ताव था। एक और समाचार पत्र आज ने मुझसे पचास हजार से लेकर पांच लाख तक की धनराशि की मांग की। इन अखबारों के जो प्रतिनिधि मुझसे मिले उन्होंने मुझसे कहा कि उनके प्रबंधकों ने उन्हें जो आदेश दिए हैं वे उसका पालन कर रहे हैं…इन प्रतिनिधियों ने मुझे बताया कि वे केवल प्रबंधन के आदेश का पालन कर रहे हैं। मैंने उन्हें कोई पैसा नहीं दिया।”
भाजपा के रमाकांत यादव जिन्होंने आजमगढ़ से लोकसभा का चुनाव लड़ा और जीता भी ने प्रथम प्रवक्ता पत्रिका (अंक 16 जुलाई 2009) को दिए साक्षात्कार में कहा, ”हिन्दुस्तान अखबार ने मेरे चुनाव प्रचार से संबंधित समाचारों को प्रकाशित करने के लिए मुझसे दस लाख रुपए की मांग की। मैंने कुछ भी पैसा देने से इनकार कर दिया। एक लेख में इस अखबार ने यह दावा किया कि मैं चुनाव हारूंगा। लेकिन, अब जबकि चुनाव परिणाम घोषित हो चुके हैं। आप जानते हैं कि मैं जीत गया हूं।”
उत्तर प्रदेश के घोसी लोकसभा क्षेत्र के तीन उम्मीदवारों ने प्रथम प्रवक्ता पत्रिका ( अंक 16 जुलाई2009) को जो बताया उसका सार इस प्रकार है:
”समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार अरशद जमाल ने कहा, दैनिक जागरण, हिन्दुस्तान, अमर उजाला, आज और उर्दू सहारा जैसे समाचारपत्रों ने मुझसे पैसे मांगे और दो लाख से लेकर दस लाख के बीच पैकेजों का प्रस्ताव किया।” भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार अतुल कुमार अनजान ने कहा, ”उत्तर भारत के दो बड़े अखबारों के प्रतिनिधियों ने मुझे फोन किया। ये अखबार थे दैनिक जागरण और हिन्दुस्तान। इन्होंने अपने प्रकाशनों में मेरे प्रचार को कवरेज देने के लिए मुझसे 15-15 लाख रुपए की मांग की। जब मैंने इन प्रस्तावों को ठुकरा दिया तो दैनिक जागरण ने 22 मार्च से 16 अप्रैल के बीच मेरी गतिविधियों के बारे में कुछ भी नहीं प्रकाशित किया। इस अखबार ने मेरी रैली के बारे में भी कुछ नहीं छापा, इस रैली को भाकपा के महासचिव ए.बी. बर्धन ने संबोधित किया था। जब मैंने दैनिक जागरण और हिन्दुस्तान के मऊ ब्यूरो के रिपोर्टरों और संवाददाताओं से संपर्क किया तो उन्होंने कहा कि उन्हें अपने वाराणसी और दिल्ली कार्यालयों से जो निर्देश मिले हैं वे उनका पालन कर रहे हैं। जब मैंने वाराणसी और दिल्ली स्थित इन अखबारों के प्रतिनिधियों से इसकी शिकायत की तो उन्होंने अपने पैकेजों की दरों को कुछ कम कर दिया। और मुझसे 12 लाख देने को कहा गया।”
भाजपा के उम्मीदवार राम इकबाल सिंह ने प्रथम प्रवक्ता के रिपोर्टर रूपेश पांडेय को लखनऊ में पांच फरवरी, 2010 को एक साक्षात्कार में बताया: ”वर्ष2009 में चुनाव प्रचार के दौरान दैनिक जागरण का ब्यूरो प्रमुख मेरे पास आया और कवरेज के लिए मुझसे पैसे की मांग की। उसने कहा कि उसके ब्यूरो के सदस्य उनके हेड आफिस से दिए गए निर्देशों का केवल पालन कर रहे हैं। उसने मुझसे 15 लाख रुपए की मांग की। उन दिनों के दौरान उसके अखबार ने मेरे बारे में चंद लाइनें ही प्रकाशित कीं। लेकिन बहुत अधिक स्थान, वास्तव में, पूरे दो पृष्ठ क्षेत्र की कांग्रेस उम्मीदवार सुधा राय के बारे में रिपोर्टों को समर्पित थे। मैं मानता हूं कि ‘पेड न्यूज’ के इन समाचारों के प्रकाशन के परिणामस्वरूप 50 हजार से 60 हजार के बीच वोटरों ने अपनी निष्ठा कांग्रेस उम्मीदवार के समर्थन में परिवर्तित कर दी। किसी और समाचारपत्र ने मुझसे पैसे के लिए नहीं कहा।”
उत्तर प्रदेश में लालगंज से भाजपा की उम्मीदवार नीलम सोनकर ने प्रथम प्रवक्ता (16 जुलाई 2009) को दिए साक्षात्कार में कहा, ”आज, दैनिक जागरण और अमर उजाला के प्रतिनिधि मेरे पास आए और अपने अखबारों में कवरेज के लिए मेरे सामने दस लाख रुपए के पैकेज का प्रस्ताव रखा। जब मैंने किसी भी पैकेज के लिए पैसे देने से इनकार कर दिया तो इन अखबारों में काम करने वाले वरिष्ठ एक्जीक्यूटिव ने मुझसे संपर्क किया और कहा कि वे अपने पैकेजों की दरों में मेरे लिए कटौती कर देंगे।”
हिन्दुस्तान के पटना संस्करण में 16 अप्रैल को बैनर शीर्षक लगाया गया जिसमें कहा गया- बिहार में इतिहास रचने के लिए कांग्रेस तैयार। लेकिन विचित्र बात यह है कि इस शीर्षक से संबंधित कोई समाचार नहीं था।
चंडीगढ़ स्थित एक स्वतंत्र पत्रकार संजीव पांडेय ने भारतीय प्रेस परिषद को 70 से अधिक कटिंग उपलब्ध कराईं। ये कटिंग हरियाणा से प्रकाशित होने वाले अलग-अलग अखबारों की थीं। ये सभी कटिंगें हरियाणा में विधानसभा चुनावों में अखबारों के संस्करणों में प्रकाशित हुई थीं और पेड न्यूज समाचारों के तहत प्रकाशित की गई थीं।
हरिभूमि के रोहतक संस्करण में 8 अक्टूबर 2009 को कांग्रेस उम्मीदवार बीरेंद्र सिंह के पक्ष में एक समाचार प्रकाशित किया गया। श्री सिंह उछाना क्षेत्र से विधानसभा चुनाव लड़ रहे थे। यद्यपि, इस न्यूज आइटम में कोई बाईलाइन नहीं थी। इस न्यूज आइटम में दावा किया गया था कि श्री सिंह को समाज में हर वर्ग का समर्थन मिल रहा है। उनके चुनाव प्रचार की योजना का विस्तृत विवरण भी इसमें दिया गया था। इसी फार्मेट का इस्तेमाल करते हुए नौ अक्टूबर, 2009 को हरिभूमि में भाजपा उम्मीदवार मेवा सिंह के पक्ष में एक न्यूज आइटम प्रकाशित किया गया था। इसमें भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह की रैली को महत्व दिया गया था। इस न्यूज आइटम में दावा किया गया था कि इस रैली के बाद मेवा को समाज के हर एक तबके का समर्थन मिला है।
दैनिक जागरण के पानीपत संस्करण ने अपने आठ अक्टूबर, 2009 के अंक में पृष्ठ नौ पर एक समाचार प्रकाशित किया। यह समाचार कांग्रेस की चुनावी संभावनाओं के बारे में था। इस समाचार में भी कोई बाईलाइन (बिना संवाददाता के नाम के) नहीं थी। इस समाचार के शीर्षक में कहा गया था कि ”कांग्रेस द्वारा किए गए अच्छे कार्यों ने राज्य में विपक्ष के नेता की चुनावी संभावनाओं को हाशिए पर कर दिया है। इस न्यूज आइटम में एक-एक वाक्य कांग्रेस पार्टी के पक्ष में था। इसमें गैर कांग्रेसी दलों के नेताओं की आलोचना की गई थी। और कहा गया था कि वे चुनाव में खाता खोलने के लायक भी नहीं हैं क्योंकि कांग्रेस ने समाज के हर वर्ग के लिए बहुत ही बेहतरीन कार्य किए हैं। इस समाचार में यह भी जोड़ा गया था कि भजनलाल के नेतृत्व वाली हरियाणा जनहित कांग्रेस पार्टी के उम्मीदवार कांग्रेस से जुड़े उम्मीदवारों की चुनावी संभावनाओं को नुकसान पहुंचाने की स्थिति में नहीं हैं।
जबकि एकदम इसके विपरीत इसी अखबार के लुधियाना संस्करण में 11 अक्टूबर, 2009 को हरियाणा जनहित कांग्रेस के पक्ष में एक समाचार प्रकाशित किया गया। इसका शीर्षक था कि हरियाणा जनहित कांग्रेस चुनाव के बाद किगं या किंगमेकर की भूमिका अदा करेगी। इस समाचार की हर पंक्ति में हरियाणा जनहित कांग्रेस की प्रशंसा में विजय गीत गाए गए थे और भविष्यवाणी की गई थी कि चुनाव परिणाम घोषित होने के बाद पार्टी सरकार के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी। आश्चर्यजनक रूप से अगले ही दिन यानी 12 अक्टूबर, 2009 को इसी अखबार के लुधियाना संस्करण में एक समाचार प्रकाशित किया गया था, जो कि स्पष्ट रूप से हरियाणा के ओमप्रकाश चौटाला की पार्टी इंडियन नेशनल लोकदल (आईएनएलडी) के पक्ष में ‘पेड’ था। इस खबर के शुरू में रिपोर्टर लिखा गया था। इस खबर के शीर्षक में कहा गया था कि आईएनएलडी सत्तारूढ़ पार्टी (जो कि कांग्रेस थी) के खिलाफ चुनावी फायदा हासिल करेगी।
चुनाव पूर्व की भविष्यवाणियों से संबंधित इससे पहले के समाचारों के एकदम उलट उपरोक्त समाचार में प्रत्येक पंक्ति आईएनएलडी के पक्ष में थी। इस समाचार में कहा गया था कि हरियाणा में आईएनएलडी के पक्ष में लहर चल रही है और हरियाणा में चौटाला और आईएनएलडी के लिए स्पष्ट जीत की भविष्यवाणी की गई थी। इस समाचार में दावा किया गया था कि आईएनएलडी 46 विधानसभा सीटों के जादुई अंकों को आसानी से हासिल करने में सक्षम है, जो कि सरकार गठन के लिए राज्य विधानसभा में बहुमत हासिल करने के जरूरी होंगे। इसमें यह भी कहा गया था कि आंतरिक झगड़ों के चलते कांग्रेस पार्टी संघर्ष कर रही है और यह आईएनएलडी के लिए फायदेमंद होगा। यह कहानी यहीं खत्म नहीं होती है।
अगले दिन यानी 13 अक्टूबर, 2009 को दैनिक जागरण के लुधियाना संस्करण में एक दूसरे न्यूज आइटम में एकदम उलट कांग्रेस पार्टी की प्रशंसा की गई। इस स्टोरी में इस बात का जिक्र नहीं था कि यह अखबार के संवाददाता ने लिखी है या अखबार के न्यूज नेटवर्क की है। इसके शीर्षक में दावा किया गया था कि कांग्रेस इतिहास दोहराने के लिए तैयार है। जैसा कि उसने लोकसभा चुनाव के दौरान किया था जब वह शानदार तरीके से जीती थी। खासतौर से इस समाचार की हर एक पंक्ति में कांग्रेस पार्टी और मुख्यमंत्री भुपिंदर सिंह हुड्डा की तारीफ की गई थी। इस समाचार में दावा किया गया था कि इस चुनाव में गैर कांग्रेसी दलों का प्रदर्शन बहुत ही कमजोर रहेगा और उनके उम्मीदवारों की जमानतें जब्त हो जाएंगी। इससे आगे बढ़कर यह भी भविष्यवाणी की गई थी कि राज्य विधानसभा में कांग्रेस 90 सीटों में से 75 सीटें जीतेगी।
इंडियन नेशनल लोकदल के राष्ट्रीय अध्यक्ष ओमप्रकाश चौटाला ने 2 दिसंबर, 2009 को भारतीय प्रेस परिषद को एक पत्र लिखा। उन्होंने पेड न्यूज की इस प्रवृत्ति पर अपनी घृणा का इजहार किया, और दैनिक भास्कर के हरियाणा संस्करण के 13 अक्टूबर, 2009 के अंक के प्रथम पृठ का उदाहरण दिया। यह राज्य विधानसभा चुनावों के लिए मतदान का दिन था। इस अखबार ने केवल कांग्रेस पार्टी का ही विज्ञापन प्रकाशित किया, चौटाला ने इसके साथ यह भी जोड़ा कि इस अखबार के इस अंक में पृष्ठ दो पर आधे पेज का एक विज्ञापन प्रकाशित हुआ जिसमें कुछ समाचार भी थे, जो कि जाहिर है कि ‘पेड’थे। इन समाचारों के शीर्षकों में दावा किया गया था कि कांग्रेस राज्य में इतिहास रचने जा रही है। चौटाला का मानना था कि यदि मीडिया की ताकत का इतने खुल्लम-खुल्ला तरीके से गलत इस्तेमाल होगा और विरोधी स्वरों को दबाने का काम किया जाएगा तो देश के लोग भारत के संविधान में अपना विश्वास खो देंगे, जो कि स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों की गारंटी देता है।
23 दिसंबर, 2009 को उत्तर प्रदेश पत्रकार एसोसिएशन, फैजाबाद, ने भारतीय प्रेस परिषद को एक पत्र लिखा। इसमें ‘पेड न्यूज’ के चलन की भत्र्सना की गई। इसमें साथ ही यह भी कहा गया कि इस तरह का कदाचार पत्रकारिता की स्वतंत्रता को तबाह करेगा और साथ में देश के लोकतंत्र को भी।
लखनऊ स्थित गैर सरकारी संगठन नेशनल एलायंस ऑफ पीपुल्स मूवमेंट्स ने लखनऊ और गोरखपुर से प्रकाशित चार हिंदी दैनिक समाचार पत्रों के 1 अप्रैल, 2009 से 30 अप्रैल, 2009 के बीच प्रकाशित अंकों का विश्लेषण किया। ये अखबार थे दैनिक जागरण, दैनिक हिन्दुस्तान, राष्ट्रीय सहारा और वॉयस ऑफ लखनऊ। इस संस्था ने पेड न्यूज सामग्री के बहुत सारे उदाहरणों का दस्तावेजीकरण किया। संस्था की राय थी कि इन लेखों ने चुनाव नियमों की संहिता का उल्लंघन किया है। इसने सुझाव दिया कि भारतीय समाचारपत्रों के रजिस्ट्रार को इन संबंधित प्रकाशनों का पंजीकरण रद्द कर देना चाहिए।
एनजीओ ने इस ओर ध्यान आकृष्ट कराया कि तथाकथित ‘पेड न्यूज’ लेखों में से बहुत सारे अखिलेश दास गुप्ता के पक्ष में थे जो बहुजन समाज पार्टी के उम्मीदवार के रूप में लखनऊ लोकसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ रहे थे ( मजेदार बात तो यह है कि जब चुनाव परिणाम घोषित हुए तो वह भाजपा के लालजी टंडन और कांग्रेस की रीता बहुगुणा जोशी के बाद तीसरे नंबर पर थे)। अंग्रेजी साप्ताहिक आउटलुक (21 दिसंबर, 2009) में अखिलेश दास गुप्ता को यह कहते हुए उद्धृत किया गया- मैं अपनी पार्टी को दोष नहीं देता हूं यदि वह अपने पक्ष में समाचारों के लिए पैसा देती है, यह मेरी पार्टी के खिलाफ आमतौर पर मीडिया का पूर्वाग्रह है।
आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र तथा दूसरे राज्यों से प्रकाशित होने वाले अखबारों के ‘पेड न्यूज’ के ऐसे बहुत सारे उदाहरण हैं जो कि भारतीय प्रेस परिषद के सामने लाए गए। परिस्थितिजन्य और स्वीकार योग्य सबूतों की मौजूदगी के बावजूद अखबारों के प्रतिनिधियों ने इस बात से इनकार किया कि उन्होंने उम्मीदवारों से उनकी गतिविधियों पर समाचार प्रकाशित करने के लिए पैसे की मांग की थी। ऐसे उदाहरण देने से पहले यह निर्देशात्मक रहेगा कि देश के कानून की नजर में इस संबंध में वे कहां खड़े होते हैं।

भारतीय चुनाव आयोग के नियम

16 दिसंबर, 2009 को भातीय प्रेस परिषद के सामने भारतीय चुनाव आयोग के दो प्रतिनिधि पेश हुए और कहा कि देश के वर्तमान कानूनों के तहत अपने सामान्य पार्टी प्रचार के लिए राजनीतिक दलों द्वारा चुनाव प्रचार से संबंधित जो खर्चा किया जाता है उसकी कोई सीमा (सीलिंग) तय नहीं की गई है। भारतीय चुनाव आयोग के अनुसार जब कोई राजनीतिक दल किसी विशेष उम्मीदवार के समर्थन में पैसा खर्च करता है, और जो कि सामान्य पार्टी प्रचार से अलग है, तो इस तरह का खर्च उम्मीदवार के चुनावी खर्च में शामिल नहीं माना जाता है। जनप्रतिनिधित्व कानून 1951 की धारा 77 और चुनाव नियम 1961 के नियम 90 के अनुसार चुनाव प्रचार के सिलसिले में मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय स्तर या राज्य स्तर की पार्टी के 40 नेताओं और पंजीकृत गैर मान्यताप्राप्त दलों के 20 नेताओं का चुनाव प्रचार से संबंधित यात्रा खर्च अपवाद स्वरूप चुनाव खर्च के दायरे से बाहर होता है। भारतीय दंड संहिता की धारा 171 (एच) के तहत उम्मीदवार के समर्थक और मतदाता प्रत्याशी की अनुमति के बगैर चुनाव में कोई खर्च नहीं कर सकता है।
चुनाव आयोग का कहना है कि इलैक्ट्रानिक मीडिया (रेडियो, टेलीविजन और इंटरनेट) को विज्ञापन सुप्रीम कोर्ट के आदेश (13 अप्रैल 2004) द्वारा नियमित हैं। (भारत सरकार के सूचना और प्रसारण सचिव बनाम मेसर्स जेमिनी टेलीविजन प्रा. लि. , 2004 (5) एससीसी 714 के मामले में)। भारतीय चुनाव आयोग का 15 अप्रैल, 2004 का आदेश सुप्रीम कोर्ट के उसी आदेश के आधार पर दिया गया है। इसमें यह विसंगति है कि यह आदेश केवल इलैक्ट्रानिक मीडिया के लिए है और प्रिंट मीडिया पर लागू नहीं होता है। अत: मतदान के दिन के 48 घंटे पहले प्रचार बंद होने के बाद रेडियो स्टेशनों और टीवी चैनलों पर चुनाव प्रचार संबंधी खबरों को प्रसारित करने पर निषेध या प्रतिबंध है, जबकि इस तरह का प्रतिबंध प्रिंट मीडिया पर लागू नहीं है। अत: समाचारपत्र मतदान की सुबह तक चुनाव प्रचार संबंधी खबरें और विज्ञापन प्रकाशित करते हैं। भारतीय प्रेस परिषद का यह मानना है कि इस विसंगति को सुधारने के लिए चुनाव आयोग को तत्काल प्रभाव से पहल करनी चाहिए और संभवत: मीडिया कंपनियों के मालिक भी इसका विरोध नहीं करेंगे क्योंकि यह कदम प्रिंट और इलैक्ट्रानिक मीडिया को एक ही पायदान पर खड़ा कर देगा।
यह कदम राजनीतिक दलों, उनके उम्मीदवारों और अन्यों के द्वारा चुनाव पर किए जाने वाले खर्च पर कड़ी नजर रखने के लिए तथा यह सुनिश्चित करने के लिए कि कोई विज्ञापन या पेंफेलेट आदि के रूप में ऐसा कुछ नहीं छापें जो कि आपत्तिजनक हो।
भारतीय चुनाव आयोग के अनुसार यह देखा गया है कि पोस्टर और पंफलेटों की छपाई और प्रकाशन पर प्रकाशकों द्वारा उपरोक्त पाबंदियों का पालन कम ही होता है। भारतीय प्रेस परिषद को दिए एक बयान में चुनाव आयोग ने यह कहा कि प्रिंटिंग प्रेसों द्वारा छापे गए पोस्टरों आदि की प्रतियां संबंधित जिलाधिकारी और मुख्य चुनाव अधिकारी को भेजी जाएं, ऐसा कम ही होता है। एक विशेष मामले में आयोग ने पाया कि कुछ प्रेस विज्ञापन, जो कि एक प्रमुख राष्ट्रीय दैनिक में प्रकाशित हुए, उनमें विज्ञापन के प्रकाशक के नाम का कोई जिक्र नहीं था। आयोग का मानना है कि यह धारा 127 (ए) का उल्लंघन है। जब आयोग ने धारा 127 (ए) के तहत विस्तृत सूचना मांगी तो अखबार ने इस आधार पर इसे देने से इनकार कर दिया कि धारा 127 (ए) समाचारपत्रों पर लागू नहीं होती।
जब भारतीय प्रेस परिषद ने भारतीय चुनाव आयोग के कानूनी सलाहकार एस.के मेहंदीरत्ता से संपर्क किया तो उन्होंने बताया कि इस संदर्भ में आयोग द्वारा जिस अखबार का जिक्र किया जा रहा है कि वह टाइम्स ऑफ इंडिया है। आयोग द्वारा टाइम्स ऑफ इंडिया को पत्र 2004 के आम चुनाव से पहले ही भेज दिया गया था।
भारतीय चुनाव आयोग के अनुसार कुछ संगठनों या व्यक्तियों द्वारा किसी खास राजनीतिक दल या उम्मीदवार के उद्देश्यों के समर्थन में या विरोध में छद्म (सेरोगेट) विज्ञापनों के जरिए उनकी राजनीतिक संभावनाओं पर प्रतिकूल असर डालना एक समस्या पैदा कर रहा है, क्योंकि उम्मीदवारों द्वारा इस तरह से किए गए चुनावी खर्च पर नियंत्रण रखने में चुनाव आयोग के सामने समस्या पैदा हो रही है।
कोई संगठन या उम्मीदवार के दोस्त या समर्थक उसके पक्ष में उस समय छद्म विज्ञापनों का सहारा लेते हैं तो उनके द्वारा किए गए इस खर्च के लिए भारतीय जनप्रतिनिधित्व कानून 1951 की धारा 77 के तहत उम्मीदवार उत्तरदायी नहीं होगा। तब इस मामले में भारतीय चुनाव आयोग ने निम्नलिखित स्थायी निर्देश जारी किए:
विज्ञापनों के मद्देनजर जो कि प्रिंट मीडिया में और विशेषकर अखबारों में किसी विशेष राजनीतिक दल या उम्मीदवार के पक्ष में अथवा विरोध में चुनाव के दौरान छपते हैं, उनमें निम्नलिखित बिंदुओं का ध्यान रखा जाए:
विज्ञापनों के मामले में, इनके स्रोत का पता लगाया जा सके तो निम्नलिखित कदम उठाए जाने चाहिए
(1) अगर विज्ञापन उम्मीदवार की जानकारी या सहमति से दिया गया हो तो यह माना जाएगा कि यह संबंधित उम्मीदवार की आज्ञा से हुआ है और यह उम्मीदवार के चुनावी खर्च में भी जोड़ा जाएगा।
(2) यदि विज्ञापन के लिए उम्मीदवार की ओर से कोई आदेश नहीं है तब भारतीय दंड संहिता की धारा 171 (एच) के उल्लंघन के लिए प्रकाशक के खिलाफ बिना उम्मीदवार के लिखित आदेश के विज्ञापन में खर्च करने के लिए अभियोजन का कदम उठाया जाएगा।
(3) यदि विज्ञापन में प्रकाशक की पहचान नहीं इंगित की गई है तो आप संबंधित अखबार से मिलकर सूचना मांग सकते हैं और उचित कदम उठा सकते हैं।
इस लिहाज से छद्म विज्ञापनों पर खर्च को रोकने के लिए भारत के चुनाव आयोग ने चुनाव सुधार के अपने प्रस्ताव के तहत सन 2004 में भारत सरकार से निम्र सिफारिशें भी कीं:
भारतीय चुनाव आयोग का मानना है कि ”प्रिंट मीडिया में छद्म विज्ञापनों के मामलों से निपटने के लिए स्पष्ट प्रावधान होने चाहिए। इस उद्देश्य के लिए भारतीय जनप्रतिनिधित्व कानून 1951 की धारा 127 (ए) में एक नया उप नियम (2 ए) जोड़कर उचित संशोधन किया जा सकता है। इसके तहत किसी भी राजनीतिक दल या उम्मीदवार के पक्ष या विपक्ष में चुनाव के दौरान किसी भी तरह का विज्ञापन/चुनाव सामग्री के प्रकाशक का नाम व पता सामग्री/विज्ञापन के साथ अवश्य दिया जाना चाहिए। उप नियम (4) को भी जरूरत के मुताबिक संशोधित किया जाना चाहिए जिससे कि इस में नये प्रस्तावित उपनियमों को भी शामिल किया जा सके।”
भारत सरकार ने चुनाव आयोग द्वारा प्रस्तावित सिफारिशों को अभी तक लागू नहीं किया है। इस बीच चुनाव और संबंधित अन्य कानून (संशोधन) 2003, में बदलाव होने के कारण चुनावी खर्च से संबंधित कानूनों में जबर्दस्त परिवर्तन हो चुके हैं, जिसके कारण समर्थकों और कार्यकर्ताओं द्वारा किया गया सभी खर्च उम्मीदवार द्वारा किया गया या अधिकृत खर्च माना जाएगा और यह कानून द्वारा नियत खर्च की सीमा के अंतर्गत आएगा।
भारतीय प्रेस परिषद को भेजे अपने नोट में चुनाव आयोग ने माना: ”हाल ही में मीडिया (खासकर प्रिंट मीडिया) को इस्तेमाल करने के अभियान ने और ज्यादा असामान्य मोड़ ले लिया है। छद्म विज्ञापनों या खबरों के रूप में पेश किए जाने वाले पेड न्यूज की अनेक शिकायतें हैं। ऊपर से देखने में तो ऐसे विज्ञापन किसी विशेष उम्मीदवार के चुनाव प्रचार को कवर करने वाली सच्ची न्यूज रिपोर्ट का आभास देते हैं, लेकिन जब इस तरह के समाचार अखबार में आमतौर पर लगातार छप रहे हों तो मामले पर शक होता है कि ‘ये रिपोर्टें उम्मीदवार के चुनाव प्रचार की ईमानदार कवरेज हैं या नहीं’।”
चुनाव आयोग द्वारा भारतीय प्रेस परिषद को दिए गए नोट में कहा गया है कि ”यह मामला तब बड़ा रूप ले लेता है जब इस तरह के समाचार एक से अधिक समाचार पत्रों में कुछ मामूली बदलावों के साथ हू-ब-हू छाप दिए जाते हैं। जाहिर है कि ऐसे समाचारों के प्रकाशन में जो दिखाई देता है उससे कुछ ज्यादा ही होता है। इस चलन का प्रभाव मतदाताओं के सही सूचना जानने के अधिकार पर पड़ता है। आयोग को जो शिकायतें मिली हैं उनमें अधिकांश अनौपचारिक हैं। इन शिकायतों में कहा गया है कि कुछ राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों ने ‘पेड न्यूज’ आइटम के बतौर ‘प्लांटिड स्टोरीज’ (प्रायोजित समाचार) प्रकाशित करने के लिए पत्रकारों या प्रेस रिपोर्टरों को अच्छा खासा पैसा देकर अखबारों में स्थान प्राप्त किया है।”
चुनाव आयोग के नोट में यह भी उल्लेख था कि हाल ही में बहुत ही चिंताजनक प्रवृत्ति सामने आई है और जो आयोग के लिए अत्यंत गंभीर चिंता की बात है। आयोग को मिली ताजा शिकायतों में कहा गया है कि अब अखबारों को बहुत ही मोटी रकम तीन प्रकार की सेवाओं के लिए दी जाती हैं। पहला, संबंधित राजनीतिक दल या उम्मीदवार की सकारात्मक छवि प्रस्तुत करने के लिए। दूसरा, विरोधी दल या उम्मीदवार की नकारात्मक छवि पेश करने के लिए। ऐसे पैकेज के रेट उस चुनावी सीट के क्षेत्र में उस अखबार के वजूद और प्रसार पर निर्भर करते हैं। यह इस बात पर निर्भर करता है कि वह अखबार कितने समय के लिए इस तरह के प्रचार को करता है। अर्थात वह अपनी सेवाएं पूरे प्रचार काल के लिए दे रहा है या मात्र आखिरी एक हफ्ते के लिए या इससे भी कम चुनाव के आसपास के समय के लिए। यह चिंताजनक स्थिति न केवल चुनाव आयोग अपितु सभी संभ्रांत, पढ़े-लिखे संवेदनशील लोगों के लिए चिंता का विषय बनी हुई है। यहां तक कि प्रिंट मीडिया और राजनीतिक ढांचे के कुछ हिस्सों में भी इसको लेकर बहुत चिंता है। लेकिन व्यवहार में इस समस्या से निपटने के लिए मीडिया और राजनीतिक दलों द्वारा कोई ठोस कदम उठाया जाना जरूरी है।
चुनाव आयोग ने भारतीय प्रेस परिषद से कहा है कि इस बढ़ती हुई अनिष्टकारी समस्या पर गंभीरता से सोचें क्योंकि अगर शीघ्र ही इस समस्या का कोई समाधान नहीं ढूंढा गया तो यह पूरे चुनावी तंत्र की विश्वसनीयता को खत्म कर देगा। छद्म विज्ञापनों पर किसी भी प्रकार के सोच-विचार में मीडिया नियमन, मीडिया स्वतंत्रता और मीडिया नीति आदि जैसे मुद्दे भी शुमार होते हैं। भारतीय प्रेस परिषद को इन पर भी गौर करना चाहिए। भारतीय चुनाव आयोग, विशेषकर ‘पेड न्यूज’ के मामले में भारतीय प्रेस परिषद का दिशा-निर्देश चाहेगा ताकि राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों द्वारा ऐसे समाचारों पर किए गए खर्च को चुनावी खर्च में शामिल किया जा सके।
भारतीय प्रेस परिषद का मानना है कि वास्तव में ‘पेड न्यूज’ की व्याख्या करना तो बहुत ही आसान है: किसी अखबार/पत्रिका में छपा कोई लेख या टीवी का प्रसारण, जो समाचार जैसा प्रतीत होता हो और जिसकी सामग्री स्वतंत्र रूप से तैयार की गई लगती हो पर वास्तव में इसके लिए पैसे का लेन-देन हुआ हो, जिसके तहत यह समाचार सामग्री छपी हो या उसका प्रसारण हुआ हो।
समस्या ‘पेड न्यूज’ को परिभाषित करने की नहीं है अपितु साबित करना समस्या है कि चुनाव में खड़े उम्मीदवार या उसकी राजनीतिक पार्टी या प्रतिनिधि या जानकार का किसी मीडिया कंपनी के प्रतिनिधि के साथ पैसे का आदान-प्रदान हुआ है, जिसके कारण उस समाचार का छपना या प्रसारित संभव हुआ है। चूंकि ऐसी राशि छिपकर या अवैध तरीके से दी जाती है। जैसे कि चेक के बजाए नकद के रूप में, इसका किसी प्रकार का आधिकारिक रिकार्ड ( रसीद, बिल या इनवायस के रूप में) संबंधित मीडिया कंपनी के बहीखाते या एकाउंट स्टेटमेंट में जानबूझकर नहीं रखा जाता है। इस तरह के लेन-देन के मामलों को उजागर किया जा सकता है यदि कानून लागू करने वाली संबंधित एजेंसियां तलाशी और जब्ती की कार्रवाई करें और इसमें आयकर विभाग के अधिकारी और पुलिस बल के सदस्य शामिल हों।
आगे बढऩे से पहले इसपर पुन: जोर देना जरूरी है कि ‘पेड न्यूज’ स्वयं मीडिया कंपनियों के लिए क्यों घातक है। यह उसकी एक स्वतंत्र, संतुलित और निष्पक्ष सूचना प्रदान करने वाले की विश्वसनीयता को बट्टा लगाता है। यह विचार कि मीडिया लोकतांत्रिक समाज को बनाए रखने में मीडिया मुख्य केंद्रीय भूमिका निभाता है, मीडिया की नैतिकता (इथिक्स) को लेकर एक बहस को जन्म दिया है। एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए अन्य जरूरतों के साथ यह भी आवश्यक है कि जानकार लोग अपनी भागीदारी निभाएं और मीडिया की विभिन्न भूमिकाओं में से एक भूमिका यह भी है कि वे राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और अन्य मुद्दों पर सूचना देकर लोगों की भागीदारी को हर स्तर पर बढ़ाए और यह सूचना जितनी हो सके उतनी सत्य तथा उद्देश्यपूर्ण हो।
यह दुर्भाग्य है कि भारत में मीडिया राजनीति को किसी अन्य बाजार की तरह देखने लगा है। मान्यता यह है कि यदि एक राजनेता पैसे देता है तो उसे सकारात्मक रूप से और लाभकारी तरीके से कवर किया जाएगा, इसके बजाय कि मीडिया निष्पक्ष सूचना प्रसारित या प्रकाशित करे। ‘पेड न्यूज’आइटम जो पंफलेट उम्मीदवारों की प्रशंसा जैसे होते हैं, अंत में स्वयं मीडिया की ही विश्वसनीयता को अगर नष्ट नहीं करते तो कम से कम गंभीर हानि तो पहुंचाते ही हैं। जहां इस प्रकार की गलत हरकत व्यक्तिगत उल्लंघन तक सीमित है वहीं कुछ समाचारपत्रों और कुछ टीवी चैनलों के लिए जो हाल में हो रहा है वह न केवल चौकन्ना करने वाला है अपितु भयावह भी है। क्योंकि इस तरह का चलन लोकतंत्र के हृदय पर सीधी चोट करता है। जिस मीडिया को चौथा स्तंभ या समाज का पहरेदार होना चाहिए था वह लोकतांत्रिक प्रक्रिया को विपरीत रूप से प्रभावित करके पहला स्तंभ बन गया है।

दैनिक जागरण: आरोप और प्रत्यारोप

भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता लालजी टंडन ने 2009 का लोकसभा चुनाव उत्तर प्रदेश की लखनऊ सीट से लड़ा और जीता। उन्होंने सार्वजनिक रूप से कहा कि 2009 के लोकसभा चुनाव के दौरान ”विश्व के सबसे बड़े प्रसार संख्या वाले भाषाई (भारतीय) अखबार” ने किस तरह उनके बारे में कोई भी समाचार प्रकाशित करने से मना कर दिया क्योंकि उन्होंने पैसे देने से मना कर दिया था। श्री टंडन ने कहा, ”जब मैंने इसके बारे में पूछा तो मुझे बताया गया कि यदि मैं अपने पक्ष में चाहता हूं तो इसके लिए मुझे पैसा देना होगा।” उन्होंने साथ ही यह भी कहा कि बसपा से उनके प्रतिद्वंद्वी को इस सीट से खड़े अन्य उम्मीदवारों से ज्यादा प्रचार मिला। यद्यपि श्री टंडन ने कहा कि यह मसला बाद में अखबार के साथ सुलटा लिया गया था। उन्होंने सार्वजनिक रूप से जिस स्तर के आरोप लगाए वह यह दर्शाता है कि इस अखबार में ‘पेड न्यूज’ का कदाचार किस निरंकुश तरीके से चल रहा था। यह वह अखबार है जो कि भारत में भाषाई अखबारों में सबसे अधिक प्रसार संख्या वाला है बल्कि दुनिया के व्यापक प्रसार संख्या वाले अखबारों में से एक है।
जिस सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले अखबार की बात श्री टंडन कर रहे थे वह दैनिक जागरण था। जिसका नाम उन्होंने सार्वजनिक रूप से लिया था। भारतीय प्रेस परिषद ने 11 जनवरी, 2010 को अखबार के एक प्रतिनिधि से पूछा कि क्या श्री टंडन के इस दावे में सत्यता है और क्या अखबार ने उनके चुनाव प्रचार पर पक्ष में समाचार प्रकाशित करने के लिए सचमुच उनसे पैसे की मांग की थी? इस पर उस प्रतिनिधि ने कहा, ”जब श्री टंडन जैसी राजनीतिक हस्ती कुछ कहती है तो स्वाभाविक है कि मीडिया उसे गंभीरता से लेता है। हम तो यही कह सकते हैं कि हम पैसे के लिए अपने संपादकीय स्थान (एडिटोरियल स्पेस) का प्रस्ताव नहीं करते हैं।” जब आगे उनसे यह पूछा गया कि क्या श्री टंडन यह झूठ बोल रहे हैं कि अखबार के प्रतिनिधि ने उनसे अपने चुनाव अभियान के बारे में खबर प्रकाशित करने के लिए पैसे की मांग की थी तो इस पर दैनिक जागरण के प्रतिनिधि ने दोहराया कि उनके अखबार से किसी ने भी श्री टंडन से पैसे की मांग नहीं की।
जब आउटलुक की अनुराधा रमन ने श्री टंडन से पूछा कि क्या उन्होंने अखबार के मालिकों के साथ सुलह कर ली है। इस पर उनके जवाब ने यह साबित कर दिया कि असल में यही हुआ था। श्री टंडन ने जवाब में उलटा सवाल दागा ”क्यों वही बात दोहराना चाहते हैं ? रहने दीजिए”।
भारतीय प्रेस परिषद को 10 जनवरी, 2010 को सौंपे गए एक औपचारिक पत्र में जागरण प्रकाशन लिमिटेड के मुख्य महाप्रबंधक निशिकांत ठाकुर ने दावा किया कि ‘पेड न्यूज’ से संबंधित विवाद ”कुछ भी नहीं है बल्कि यह हारे हुए उम्मीदवारों द्वारा कुंठा में फैलाई गई अफवाह है।” उन्होंने आरोपों को क्षुद्र और तथ्यात्मक रूप से गलत करार दिया। श्री ठाकुर ने दावा किया कि वह ”निश्चितता के साथ कह सकते हैं कि देश में सम्मानित अखबार का कोई भी संपादक पैसे के लिए खबरों के साथ खिलवाड़ नहीं करता है”। उन्होंने साथ ही यह भी कहा कि अखबारों में ”प्रचार सामग्री” में जो पैसा खर्च किया जाता है वह चुनावों के लिए खड़े उम्मीदवारों द्वारा जो कुल खर्च किया जाता है कि उसके मुकाबले ”बहुत ही कम है”।
श्री ठाकुर ने दावा किया कि भारतीय चुनाव अयोग ने खर्च की जो सीमा तय की गई है वह ”अव्यावहारिक” और ”वास्तविकता से दूर” है। आगे उन्होंने दावा किया कि चुनाव प्रचार की ”भागदौड़ में ” उम्मीदवारों द्वारा व्यक्तिगत रिपोर्टों को प्रभावित करने के प्रयास संबंधित ”अखबार के संपादकीय बोर्ड” द्वारा बिना पड़ताल के जा सकते हैं। उनका सुझाव था कि चुनावों में ”स्टेट फंडिंग” होनी चाहिए। उम्मीदवारों द्वारा किए गए खर्चों को जांचने के लिए भारतीय चुनाव आयोग द्वारा ”उचित कदम उठाने चाहिए”। इसके अलावा राजनीतिक दलों में ”अंदरूनी लोकतंत्र” होना चाहिए।
श्री ठाकुर ने तर्क दिया कि नागरिकों के ”अप्रदूषित सूचना पाने के अधिकार” को ”मीडिया के आर्थिक रूप से उचित तरीके से अपने कामकाज चलाने के अधिकार, जो कि भारतीय संविधान के तहत वैध पाबंदियों के अधीन है, के जरिए संतुलित बनाने की जरूरत है”। उन्होंने साथ ही यह भी कहा कि प्रेस के पास यह अधिकार है कि वह किसी उम्मीदवार की अच्छी उपलब्धियों को सामने लाए और उन्होंने इस बात पर जोर देकर अपनी बात समाप्त की कि जिस चीज की जरूरत है वह है- चुनाव सुधार, पूरे तंत्र की ठीक करना और न की मात्र कुछ ”अंगों की शल्यक्रिया” करना।

‘पेड न्यूज’ पर श्री पी. साईनाथ के निष्कर्ष

द हिंदू के रूरल अफेयर्स (ग्रामीण मामलों) संपादक पगलुम्मी साईनाथ मुख्यधारा के अखबारों के उन पत्रकारों में एक हैं जिन्होंने ‘पेड न्यूज’ के पतित रुझानों को प्रकाशित करते हुए कई लेख लिखे हैं। भारतीय प्रेस परिषद के समक्ष 13 दिसंबर, 2009 और दोबारा 27 जनवरी, 2010 को अपने प्रतिवेदन में उन्होंने निम्न निष्कर्ष रखे:
”अपने पत्रकारीय करियर के दौरान मैंने देखा है कि किस तरह धनबल और भ्रष्ट पत्रकारिता हमेशा से किसी भी चुनाव के परिणामों को प्रभावित करने के पीछे प्रमुख कारक रहे हैं- यह रातोंरात पैदा हो जाने वाला कोई रुझान नहीं है। इसके बावजूद पिछले दो आम चुनाव- 2004 और 2009 पिछले चुनावों से इस मारमले में भिन्न रहे कि इनमें उम्मीदवारों ने अपने चुनाव प्रचार में बड़े पैमाने पर अभूतपूर्व पैसा खर्च किया। 2004 के चुनावों में खर्च किया गया पैसा किसी भी मानक से कहीं ज्यादा चौंकाने वाला था, लेकिन 2009 में खर्च की गई रकम ने 2004 के उम्मीदवारों के चुनावीखर्च को पीछे छोड़ दिया। 2009 का चुनाव सातवां चुनाव था जिसे मैंने कवर किया और अपने करियर में मैंने कभी भी चुनाव प्रचार पर इतना पैसा खर्च होते नहीं देखा। मेरे पास ऐसे साक्ष्य नहीं हैं जिनसे मैं साबित कर सकूं कि उम्मीदवार जो खर्च कर रहे थे, वह भारत के निर्वाचन आयोग द्वारा मंजूर खर्च की राशि से कहीं ज्यादा था। यह तो नंगी आंखों से ही देखा जा सकता था। इसे दस्तावेजी साक्ष्यों से सिद्ध करना एक अलग बात है।”
श्री साईनाथ ने पाया कि 2009 के आम चुनावों में इस लिहाज से एक बदलाव देखने में आया कि उम्मीदवार और राजनीतिक दल प्रेस व मीडिया प्रतिष्ठानों के साथ मिल कर राजनीतिक ”खबर” के रूप में उम्मीदवारों व पार्टियों के विज्ञापन छपवा रहे थे। उन्होंने बताया:
- ”पेड न्यूज” के बाजार का आकार बहुत बड़ा है। आंध्र प्रदेश में पत्रकार यूनियनों का आंकलन है कि ”पेड न्यूज” का बाजार 300 करोड़ से 1000 करोड़ रुपए के बीच है।
- उत्तर प्रदेश में राजनेताओं ने शिकायत की कि कैसे प्रमुख अखबार उनके पक्ष में खबर छापने और/या उनके विरोधियों की खबर को पूरी तरह गोल करने के लिए विभिन्न ”पैकेज” या ”रेट कार्ड” बेच रहे थे।
- पंजाब और हरियाणा में नेताओं की ओर से मिली शिकायतों में कहा गया कि चुनावों की घोषणा होने से काफी पहले कैसे अखबारों ने एजेंडा तय कर दिया था। एक ओर जहां भाषाई अखबारों ने दावा किया कि राष्ट्रीय अखबार अपने स्थानीय संस्करणों और राजनीतिक परिशिष्टों के माध्यम से संपादकीय स्पेस को बेचने का प्रस्ताव दे रहे थे, तो दूसरी और राष्ट्रीय दैनिकों ने इस आरोप को खारिज किया। यहां तक कि राष्ट्रीय राजधानी के मीडिया प्रतिष्ठान भी इस कलंक से अछूते नहीं रहे।
- ”पेड न्यूज” अब एक संगठित ”उद्योग” का रूप ले चुका है। यह कॉरपोरेट द्वारा नियंत्रित है और देश के कुछ बड़े मीडिया समूहों के पूर्ण संरक्षण और भागीदारी से काम कर रहा है। इस ”उद्योग” में एक पत्रकार की निजी हैसियत कोई नहीं है क्योंकि जिसे ”खबर” के रूप में छापा जाता है, वह संवाददाताओं या पत्रकारों द्वारा एकत्रित नहीं की जाती बल्कि संबद्ध राजनीतिक दल या उम्मीदवार की इच्छा के मुताबिक लिखी जाती है जिसने प्रकाशन या मीडिया हाउस को उसके लिए पैसा दिया होता है। कई मामलों में तो इसमें पत्रकारों की जरूरत ही नहीं पड़ती क्योंकि नेता के पीछे खड़ा उसका जनसंपर्क ही इस काम को अंजाम दे देता है। गुजरात के कुछ अखबारों में संवाददाताओं ने शिकायत की कि उन्हें राजनीतिक रिपोर्टें लिखने से ही मना किया गया था।
- यह ”उद्योग” इतना ज्यादा संगठित हो चुका है कि विशाल जनसंपर्क फर्में, पेशेवर डिजाइनर और विज्ञापन एजेंसियों ने करोड़ों की रकम के ठेकों को संभाला- न सिर्फ विज्ञापन लगवाने के लिए बल्कि ”खबर” लिखने के लिए भी। ”खबर” के रूप में इन एजेंसियों द्वारा किया गया प्रचार एक्सक्लूसिव खबर के रूप में प्रस्तुत किया गया जो प्रतिद्वंद्वी अखबारों में शब्दश: एक ही रूप में अलग-अलग बाईलाइन से छपा। इन विशाल कॉरपोरेट पीआर प्रतिष्ठानों के इस्तेमाल से संसाधन संपन्न राजनीतिक पार्टियों को अपने विरोधियों पर बढ़त मिल गई (जिनके बारे में खबरों को दबा दिया गया क्योंकि वे पैसे दे पाने में अक्षम थे) और इस दुराचार ने भारत के गौरवपूर्ण चुनावी लोकतंत्र को अपनी चपेट में ले लिया।
- 2009 में ”पेड न्यूज” का नया पहलू यह रहा कि इस प्रक्रिया में राजनीतिक पार्टियों की भागीदारी व्यापक रही। इस रैकेट में प्रमुख राजनीतिक पार्टियों और कॉरपोरेट जनसंपर्क संस्थानों की मिलीभगत भी 2009 के चुनावों के लिहाज से अभूतपूर्व है।
श्री साईनाथ ने बताया कि कैसे महाराष्ट्र में सत्तारूढ़ दल ने इस स्थिति का पूर्ण दोहन किया। ”महाराष्ट्र में कांग्रेस-एनसीपी का गठजोड़ ही सबसे ऊपर रहा क्योंकि राज्य की अन्य पार्टियां संसाधनों की कमी से जूझ रही हैं। इसकी वजह किसी पार्टी का अपना चरित्र नहीं है, सीधी सी बात है कि एक गठबंधन पिछले दस साल से राज्य की सत्ता में है और इसके कारण उसके पास पैसे ज्यादा हैं। हो सकता है कि दूसरे राज्य में कोई अन्य सत्तारूढ़ दल इसकी जगह पर हो।
”मसलन, एक खबर का शीर्षक देखें, ”युवा गतिमान नेतृत्व”, जो कि महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री श्री अशोक चव्हाण के लिए लिखा गया था और तीन मराठी अखबारों में शब्दश: एक ही था- लोकमत, पुढारी और महाराष्ट्र टाइम्स। यदि इन तीनों अखबारों से यह सवाल पूछा जाता कि आखिर तीनों में एक ही खबर कैसे छपी, तो इनका तयशुदा जवाब होता कि संयोग से कांग्रेस पार्टी की एक विज्ञप्ति डेस्क पर गए बगैर सीधे प्रेस में चली गई और इसीलिए तीनों अखबारों में एक ही खबर छपी। लेकिन यदि वह प्रेस विज्ञप्ति होती, तो उसे हर अखबार में दिखना चाहिए था, सिर्फ तीन में नहीं। इसलिए सवाल उठता है कि आखिर प्रेस विज्ञप्ति सिर्फ तीन अखबारों में क्यों गई। पुढारी में यह खबर 7 अक्टूबर, 2009 को छपी जबकि अन्य दो में 10 अक्टूबर को। क्या इन अखबारों में तीन दिन पुरानी प्रेस विज्ञप्ति को छापा जाता है?”
श्री साईनाथ ने बताया कि 2009 के आम चुनावों में अखबारों और टीवी चैनलों के मुख्यालयों में क्षेत्रीय संस्करणों और कार्यालयों के लिए ”लक्ष्य” और ”कोटा” तय किया गया था। इन लक्ष्यों को फिर रिपोर्टरों, करेस्पॉन्डेंट और स्पेशल करेस्पॉन्डेंट के बीच बांट दिया गया, जो कर्मचारी के ओहदे के मुताबिक था। अप्रैल 2009 में पंद्रहवें आम चुनावों के दौरान द हिंदू ने महाराष्ट्र के कई छोटे शहरों जैसे नागपुर और अमरावती के पत्रकारों पर खबर की थी जिसमें उनकी शिकायत थी कि उन्हें जबरदस्ती ऐसी खबरें लिखने को कहा जाता था जिनके बदले में पैसे दिए गए थे।
मुंबई के सियोन-कोलीवाड़ा से स्वतंत्र उम्मीदवार और वकील श्री शकील अहमद ने बताया कि जिन अखबारों ने पहले उन्हें सामाजिक कार्यकर्ता होने की हैसियत से स्पेस दिया था, अब वे चुनावी उम्मीदवार होने के नाते उनसे पैसे की मांग कर रहे थे। ”चूंकि मैंने पैसे देने से मना कर दिया, इसलिए मेरे बारे में किसी ने नहीं लिखा।”
”पेड न्यूज” के रुझान की पड़ताल करते हुए श्री साईनाथ ने लिखा, ”महाराष्ट्र से प्रकाशित अखबारों के कई संस्करणों को 1 अक्टूबर और 10 अक्टूबर 2009 के बीच देखें तो पता चलता है कि खबरों के लिए जगह पाने के लिए उम्मीदवारों में मारामारी थी। ऐसी कई खबरों के उदाहरण हैं जिनका आकार रहस्यमय तरीके से तय होता था, जिनमें शब्दों की संख्या 125-150 के बीच होती लेकिन उम्मीदवार की तस्वीर दो कॉलम की होती। ‘निश्चित आकार’ की ऐसी खबरें जितना बताती नहीं थीं, उससे कहीं ज्यादा छुपा ले जाती थीं। खबरों को लिखने और लगाने का आकार विज्ञापनों से अलग होता है। कुछ अखबारों में एक से ज्यादा फॉन्ट टाइप और एक से ज्यादा ड्रॉप केस में लिखी कई खबरें एक ही पन्ने पर थीं। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि लेआउट, फॉन्ट, प्रिंटआउट और तस्वीर सब कुछ उम्मीदवार द्वारा मुहैया कराए गए थे जिसने अखबार में उक्त जगह के लिए पैसे चुकाए थे।”
श्री साईनाथ के मुताबिक चुनाव आयोग को जमा अपने चुनावी खर्च के ब्यौरे में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण ने बताया कि उन्होंने सिर्फ 7 लाख रुपए अपने प्रचार पर खर्च किए थे। चुनावी खर्च की अधिकतम सीमा चुनाव आयोग के मुताबिक 10 लाख रुपए है। सात लाख में चव्हाण के मुताबिक उन्होंने अखबारों में विज्ञापन पर सिर्फ 5,379 रुपए खर्च किए और केबल टीवी नेटवर्क पर विज्ञापनों हेतु सिर्फ 6000 रुपए। साईनाथ के मुताबिक ”चुनाव अभियान के दौरान मुख्यमंत्री की अभूतपूर्व मीडिया कवरेज को देखते हुए यह खर्च का ब्यौरा गलत लगता है। मेरे पास कुल 89 पन्ने ऐसे हैं जो श्री अशोक चव्हाण की खबरों से पटे पड़े हैं। इनमें अधिकतर खबरें रंगीन हैं। इनमें अधिकतर पन्ने मराठी अखबार लोकमत के हैं, जो नेशनल रीडरशिप सर्वे 2006 के मुताबिक वितरण के मामले में देश का चौथा सबसे बड़ा अखबार है।”
श्री साईनाथ का कहना है कि श्री चव्हाण को मिली इस व्यापक मीडिया कवरेज से कई प्रासंगिक सवाल खड़े होते हंैं। यदि उनके बारे में और उनकी उपलब्धियों का बखान करती खबरों और विज्ञापनों की कुल कीमत को आंका जाए तो उन्होंने कुल कितना खर्च किया होगा? आप कैसे एक ऐसे व्यक्ति के बारे में अकेले 150 पन्ने की ”खबरों” की पुष्टि करेंगे जिसे राज्य का मुख्यमंत्री बने सिर्फ 11 महीने हुए हों? यहां तक कि अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में ओबामा को भी अपने चुनाव के दौरान ऐसा कोई अखबार नहीं मिला जिसने पूरे पन्ने उनको दिए हों। जबकि उनका चुनाव अभियान अब तक का सबसे महंगा अभियान था।
श्री साईनाथ ने जो कुछ भी बताया, उसकी पुष्टि भाजपा के श्री योगी आदित्यनाथ के बयानों से होती है जिन्होंने आउटलुक पत्रिका को बताया था कि उत्तर प्रदेश के प्रमुख अखबारों में आई रिपोर्टों में उनका नाम तक नहीं था। ”मेरे संसदीय क्षेत्र गोरखपुर में जहां पिछली बार मैं चुनाव जीता था,, मेरी उम्मीदवारी के बारे में अखबारों में एक शब्द नहीं था।” भाजपा के इस सांसद ने बताया कि कैसे उनके संसदीय क्षेत्र में हर अखबार अपने संपादकीय स्पेस को पैसे के बदले बेच रहा था।
श्री साईनाथ के मुताबिक पेड न्यूज के धंधे को सिर्फ भाषाई अखबारों तक सीमित करना गलत होगा। उन्होंने बताया, ”यहां तक कि अंग्रेजी के अखबार जैसे विदर्भ प्लस (टाइम्स ऑफ इंडिया का परिशिष्ट) ने भी खबर के रूप में उम्मीदवारों के विज्ञापन छापे। विदर्भ प्लस ने अमरावती के विधानसभा क्षेेत्र से कांग्रेस के उम्मीदवार और भारत की राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा देवीसिंह पाटिल के बेटे श्री राओसाहब शेखावत का एक विज्ञापन खबर के रूप में छापा। रिपोर्ट का शीर्षक था, ”मोटरबाइक रैली के साथ चुनाव प्रचार का अंत”। इस खबर में श्री शेखावत की कही गई अंतहीन प्रशंसा को पढऩा काफी रोचक था।
”जैसा के मैंने द हिंदू में 20 जून 2009 को लिखा था, ‘एक लोकसभा सांसद की औसत संपत्ति 5.1 करोड़ रुपए है। लेकिन ऐसे कई सांसद हैं जिनके खिलाफ आपराधिक मामले हैं और उनकी संपत्ति औसतन छह करोड़ रुपए है। यानी वे संसद की प्लैटिनम श्रेणी में आते हैं। और एक कैबिनेट मंत्री की औसत परिसंपत्ति साढ़े सात करोड़ रुपए है।’ (ये आंकड़े इस विषय पर नेशनल इलेक्शन वॉच द्वारा करवाए गए एक अध्ययन में सामने आए हैं, जो एक गैर-सरकारी संगठन एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉम्र्स की पहल है)। जैसा कि मैंने 15वीं लोकसभा पर अपने उस आलेख में बताया था, इसके 543 संासदों की कुल संपत्ति 2800 करोड़ रुपए है जबकि लोकसभा से केंद्रीय कैबिनेट के 64 मंत्रियों की कुल आय 500 करोड़ या उससे ज्यादा है। इस तरह हम देख सकते हैं धन और चुनाव जीतने के बीच का रिश्ता पहले से कितना ज्यादा पुख्ता हो गया है।
”नेताओं का धन बल ही उन्हें चुनावों के दौरान मीडिया की ताकत को हथियाने में सक्षम बनाता है। इसी तरह मीडिया दिग्गजों की प्रचार की ताकत ही उन्हें राजनीतिक सत्ता को नियंत्रित करने या हासिल करने की ताकत देती है- और दोनों ही कवायदें मूलत: वित्तीय रूप से फायदेमंद होती हैं। एक तरीके से देखें तो चुने गए प्रतिनिधियों के मुकाबले कहीं ज्यादा गरीब आम आदमी को चुनावी प्रक्रिया से बाहर रखने में मीडिया नेतृत्वकारी भूमिका में है। यह भी ध्यान दें कि मीडिया मालिक नेता भी हो सकते हैं और साथ में धनबल से संपन्न भी। मसलन, लोकमत भारत का चौथा सबसे ज्यादा वितरण वाला अखबार है।
साईनाथ ने कहा, ”इसके एक मालिक श्री राजेंद्र दर्ढा को महाराष्ट्र में 2009 में कैबिनेट मंत्री बनाया गया था (इससे पहले वह राज्यमंत्री थे)। न्यू-एडीआर ने अपनी रिपोर्ट ’2009 चुनावों के आधार पर मंत्रालयों का विश्लेषण- महाराष्ट्र, हरियाणा और अरुणाचल प्रदेश- में कहा है कि सबसे ज्यादा परिसंपत्ति महाराष्ट्र से किसी भी सांसद की राजेंद्र जवाहरलाल दडऱ्ा की है जो पूर्वी औरंगाबाद से आते हैं- 32 करोड़ रुपए।’ यह भी पाया गया कि उन्हीं के द्वारा चुनाव में दाखिल हलफनामे के मुताबिक 2004 और 2009 के बीच उनकी परिसंपत्तियों में 408.13 फीसदी का इजाफा हुआ है। जब हम मीडिया की सत्ता, धन की सत्ता और खबरों के रूप में छापे जा रहे विज्ञापन के इस जहरीले मिश्रण को हिलाते हैं तो क्या होता है? और लोकमत ”पेड न्यूज” के धंधे में दूध का धुला नहीं है।”
उन्होंने निष्कर्ष दिया, ”असली मुद्दा यह साबित करना है कि खबर के लिए पैसे दिए गए हैं। इस तरह के जितने भी नापाक सौदे हुए, जिसमें पैसे की लेन-देन बड़े पैमाने पर शामिल है, उन्होंने अपने पीछे कोई निशान या सबूत नहीं छोड़ा। कोई भी समझौता या रसीद नहीं जिससे पैसे को लेन-देन का कोई सबूत रह पाता।”
महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री श्री अशोक चव्हाण का बचाव:
प्रेस काउंसिल ने ”पेड न्यूज” के मसले पर महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री श्री अशोक चव्हाण से मुंबई में 28 जनवरी, 2010 को बात की और श्री साईनाथ द्वारा उन पर लगाए गए गंभीर आरोपों पर सवाल किया। उनके प्रतिवेदन से नीचे कुछ अंश दिए जा रहे हैं:
प्रेस काउंसिल: अखबारों द्वारा एबेसी सामग्री छापे जाने के बारे में आपकी क्या राय है जो पाठकों को तो खबर की तरह लगती है लेकिन वास्तव में उसे छापने के लिए पैसे दिए जाते हैं? पाठक ऐसी पेड खबरों और विज्ञापनों के बीच में फर्क नहीं कर पाता क्योंकि ऐसा कोई संकेत नहीं होता जिससे पता चल सके कि इन खबरों के छपने के पीछे पैसे का लेन-देन शामिल है। आपकी राय में क्या ऐसी ‘खबरें’ जिनके लिए वास्तव में पैसे दिए जाते हैं, प्रेस को छापनी चाहिए?
श्री अशोक चव्हाण: विभिन्न अखबारों में अक्सर आने वाली ऐसी खबरों की सबसे पहले व्याख्या होनी चाहिए। सबसे पहले यह तथ्य स्थापित करना होगा कि जो छपा है वह वास्तव में खबर है या विज्ञापन। यदि वह विज्ञापन है, तो इसे सिद्ध करने के लिए कागजी साक्ष्य होने चाहिए, जैसे भुगतान की रसीद। विपक्षी दलों ने आरोप लगाया है कि अखबारों में खबरों के रूप में विज्ञापन छपवाए गए। जो राजनीतिक दल ऐसे आरोप लगा रहे हैं, उनके पास इसे सिद्ध करने का कोई तरीका नहीं है। इसलिए सबसे पहले यह सुनिश्चित करना चाहिए कि कोई खबर वास्तव में विज्ञापन है या नहीं।
पीसीआई: किसी उम्मीदवार या राजनीतिक दल और अखबार या टीवी न्यूज चैनल के बीच वास्तव में कोई वित्तीय लेन-देन हुआ है या नहीं, इसे साबित करने के लिए चेक जैसा कोई कागजी साक्ष्य तो नहीं है, लेकिन हमारे पास ऐसे परिस्थितिजन्य साक्ष्य हैं जो हमें श्री पी. साईनाथ ने उपलब्ध कराए हैं और जिसके बारे में उन्होंने अपने अखबार द हिंदू में पर्याप्त लिखा भी है। उन्होंने प्रेस काउंसिल को लोकमत, पुढारी और महाराष्ट्र टाइम्स की प्रतियां उपलब्ध कराई हैं जो प्रतिद्वंद्वी अखबार हैं। तीनों अखबारों में श्री अशोक चव्हाण के बारे में एक ही सामग्री शब्दश: समान छपी हुई है। पुढारी में यह 7 अक्टूबर को छपी जबकि अन्य दो अखबारों ने इसे 10 अक्टूबर को छापा। तीनों खबरों में इकलौता फर्क यही था कि तीनों अलग-अलग बाईलाइन से थीं। इसका मतलब यह हुआ कि परिस्थितिजन्य साक्ष्य हैं जो बताते हैं कि ये खबरें नहीं थीं, विज्ञापन थे।
एसी: चूंकि आपने ऐसा मसला उठाया है जो मुझसे ताल्लुक रखता है, इसलिए पहले मैं आपकी बात को दुरुस्त कर दूं। कई राजनीतिक दलों ने इस मसले पर मेरे खिलाफ शिकायत भी की है। मेरे हिसाब से ऐसी शिकायतों को दर्ज कराने का उपयुक्त मंच अदालत में एक चुनावी याचिका दायर करना है। मैं फिर अपने विचार अदालत के सामने ही रखूंगा। तकनीकी तौर पर जब चुनाव खत्म हो जाएं, तो किसी भी शिकायत को दर्ज कराने का उपयुक्त तरीका अदालत में चुनावी याचिका दायर करना होता है। जन प्रतिनिधित्व कानून और भारतीय संविधान कहता है कि चुनाव के बाद ऐसे सारे मामले किसी अदालत के माध्यम से उठाए जाने चाहिए। इसलिए मामला न्यायालय में निपटाया जाना चाहिए। दूसरे, चुनाव के दौरान तमाम प्रेस विज्ञप्तियां बांटी जाती हैं और कई प्रेस कॉन्फ्रेंस होती हैं। चुनाव से पहले सरकारें अपनी उपलब्धियों पर कई विज्ञापन भी जारी करती हैं। इसलिए हम नहीं जानते कि इन खबरों का स्रोत क्या है। मेरी पार्टी में प्रदेश कांग्रेस कमेटी कई प्रेस कॉन्फ्रेंस करती है जिसमें अखबारों को तमाम प्रेस विज्ञप्तियां जारी की जाती हैं। जाहिर है कि अखबारी सामग्री इन्हीं विज्ञप्तियों से ली जाती है। मेरा तो किसी ऐसे शख्स से वास्ता नहीं पड़ा जिसने मुझसे पैसों की मांग की हो। क्या प्रेस परिषद के पास खबर और विज्ञापन के बीच फर्क करने के लिए कोई दिशानिर्देश मौजूद है?
पीसीआई: 14 लाख प्रति रोजाना के वितरण वाला लोकमत 13 संस्करण छापता है। हमने पाया कि चुनावों के दौरान इस अखबार में विज्ञापनों की बाढ़ आ गई थी। अब आप कहेंगे कि चूंकि श्री राजेंद्र जवाहरलाल दडरा जो औरंगाबाद पूर्वी से सांसद हैं, इस अखबार के मालिक भी हैं और कांग्रेस के सदस्य भी, इसलिए उन्होंने ये सारे लेख आपके समर्थन में लिखवाए। हमने पाया है कि लोकमत ने चुनावी तैयारियों के दौरान आपके पक्ष में 156 पन्ने का विज्ञापन छापा। ये सारे लेख अगस्त, सितम्बर और अक्टूबर 2009 में छापे गए थे। तो आप क्या कहेंगे के श्री दडरा के संगठन ने यह सब स्वैच्छिक रूप से किया और इसके बदले कोई पैसा उन्हें नहीं दिया गया?
एसी: मैंने आपको बार-बार कहा है कि विज्ञापन के अलावा जो कुछ भी छपा, उसके लिए किसी को पैसे देने का सवाल ही नहीं उठता। आधिकारिक विज्ञापन, जो प्रदेश कांग्रेस कमेटी की ओर से जारी किए गए, उनका तो हिसाब है। और साथ ही आपको यह नहीं भूलना चाहिए कि मैं राज्य में पार्टी का नेतृत्व मुख्यमंत्री की हैसियत से कर रहा था। तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि मेरे बारे में लेख लिखे गए। रिपोर्टरों ने पार्टी द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्तियों और प्रेस नोट से ही अपनी सामग्री उठाई।

अन्य आरोप और प्रत्यारोप

प्रेस काउंसिल को 23 जनवरी, 2010 को लिखे अपने पत्र में लोकमत के श्री विजय दडरा ने कहा था, ‘यह बताया जाना जरूरी है कि प्रेस काउंसिल इस मुद्दे को काफी देर से उठा रहा है। मीडिया प्रतिष्ठान अपनी न्यूज स्पेस को काफी लंबे समय से बेचते आ रहे हैं और प्रेस काउंसिल मूक दर्शक बनी हुई थी। देश में सबसे बड़े मराठी समाचारपत्र समूह होने के नाते अपने पाठकों का भरोसा और विश्वसनीयता बनाए रखने के प्रति हम दृढ़ रूप से वचनबद्ध हैं। हम अपने पेशे में उच्च मानकों को अपनाते हैं, यह हमारा चुना हुआ रास्ता है और हम इस पर चलते रहेंगे।’
एक अन्य हिंदी के अखबार हिंदुस्तान ने, जो एचटी मीडिया द्वारा प्रकाशित है, अपने वाराणसी संस्करण में एक नेता का विज्ञापन प्रमुख रूप से छापा था- अक्षरों के आकार और फॉन्ट को इस तरह से रखा गया था कि वह खबर की तरह दिखे। 30 अप्रैल, 2009 को, जिस दिन चुनाव हुए, हिंदुस्तान के वाराणसी संस्करण में पहले पन्ने पर सबसे ऊपर एक ऐसी सामग्री छपी जो दिखने में खबर जैसी थी और जिसका शीर्षक था, ‘कांग्रेस के पक्ष में लहर’। अगले ही दिन अखबार ने अपनी गलती स्वीकारी और अपने पाठकों से माफी मांगते हुए कहा कि वह खबरों और विज्ञापनों में फर्क करता है। हिंदुस्तान के प्रतिनिधियों ने प्रेसकाउंसिल को बताया कि उन्हें जैसे ही अपनी गलती का अहसास हुआ, उन्होंने अपने पाठकों का ध्यान इसकी ओर खींचा।
एचटी मीडिया के प्रतिनिधियों ने काउंसिल को एक पत्र दिया जो साप्ताहिक आउटलुक में (18 जनवरी, 2010) छपा था जिसमें एचटी मीडिया लिमिटेड के मुख्य कार्यकारी अधिकारी श्री राजीव वर्मा ने लिखा था, ‘हम संपादकीय सामग्री के आवरण में प्रायोजित खबरें नहीं छापते हैं। हिंदुस्तान के वाराणसी संस्करण के विशिष्ट संदर्भ में…जो सामग्री छपी, वह विज्ञापनदाता द्वारा प्रायोजित कंटेंट टैग के तहत छपी। लेकिन कुछ अतिउत्साही विज्ञापन प्रबंधक की गलती के कारण उसका स्वरूप और रंग-रूप मुख्य अखबार की खबरों जैसा हो गया। पाठकों के बीच किसी भी भ्रम को दूर करने के लिए हिंदुस्तान के वाराणसी संस्करण के पहले पन्ने पर अगले ही दिन स्पष्टीकरण दे दिया गया। गलती करनेवाले प्रबंधक को भी उपयुक्त दंड दिया गया। ऊपर दी गई इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना के अलावा ऐसा कोई भी उदाहरण हमारे यहां नहीं है। हमारे सभी प्रकाशनों के लिए हमने ‘प्रायोजित’ फीचर के लिए स्पष्ट दिशानिर्देश जारी किए हैं कि उस पर ऐसी सूचना या संकेत हो और उसकी छपाई अन्य संपादकीय सामग्री से स्पष्ट रूप से भिन्न हो।”
एचटी मीडिया ने इस बात को भी खारिज किया कि हिंदुस्तान की संपादक श्रीमती मृणाल पांडे के इस्तीफे के पीछे वाराणसी संस्करण में हुई यह घटना भी एक कारण थी। ”इससे बड़ा च और क्या होगा कि घटना अप्रैल 2009 में घटी जबकि संपादक ने पांच महीने बाद सितंबर 2009 में भिन्न कारणों के चलते इस्तीफा दिया।”
प्रेस काउंसिल से बातचीत में पंजाब केसरी के एक प्रतिनिधि ने भी संपादकीय स्पेस को पैसे के बदले कभी बेचने की बात से इनकार किया। जब काउंसिल ने उनसे पूछा कि आउटलुक में उनके एक वरिष्ठ प्रबंधक के उस बयान के बारे में उनका क्या कहना है जिसमें उन्होंने स्वीकार किया था कि इस अखबार ने 2009 के चुनावों में पेड खबरें लेने के बदले 10 से 12 करोड़ रुपए कमाए, तो प्रतिनिधि का कहना था कि परिवार के मालिकाने वाले अन्य प्रकाशन के आंतरिक मसलों पर टिप्पणी करना उनके अधिकार क्षेत्र में नहीं आता (पंजाब केसरी के संस्करण दिल्ली और जालंधर से भिन्न प्रबंधन के तहत छपते हैं)।
यह गंदगी पूरे देश में फैल चुकी है और छोटे व बड़े अखबारों में समान रूप से मौजूद है, इसका उदाहरण हरियाणा के मुख्यमंत्री भुपिंदर सिंह हुड्डा का वह बयान है जिसमें उन्होंने स्वीकार किया था कि एक प्रमुख बहुसंस्करण वाले राष्ट्रीय अखबार में सिलसिलेवार नकारात्मक रिपोर्टों से वह इतने परेशान थे कि उन्होंने पैसे देने का प्रस्ताव किया ताकि खबरें तथ्यात्मक रूप से सही छप सकें। श्री हुड्डा से इस बारे में प्रेस द्वारा जवाब तलब भी किया गया कि 2009 के हरियाणा विधानसभा चुनाव से पहले उन्होंने अपनी सरकार की प्रशंसा में जो विज्ञापन छपवाए, उन पर कुल कितना खर्च आया।
अखबार अब भी इस बात से इनकार करते जा रहे हैं कि संपादकीय स्पेस को चुनावों के दौरान बेचा गया था। लेकिन गुजरात, कर्नाटक और छत्तीसगढ़ से आ रही रिपोर्टें बताती हैं कि कैसे विभिन्न अखबारों के संपादकीयों पर उनके प्रबंधन द्वारा दबाव डाला गया कि वे सवाल खड़े करें। श्री हुड्डा ने तो यहां तक बताया कि पेड न्यूज की गंदगी में संवाददाताओं की कोई भूमिका नहीं है। श्री हुड्डा ने आउटलुक को बताया, ”यहां पत्रकारों की गलती नहीं है क्योंकि तथ्यों की छानबीन करने वाली पत्रकारिता अब एक व्यावसायिक गतिविधि बन चुकी है और मौजूदा मालिकों ने अखबारों को धंधा बना लिया है।”
कई नेताओं ने मीडिया पर खुले तौर पर उनसे पैसे ऐंठने की कोशिशों के आरोप लगाए हैं जिसके लिए उन्हें या तो खासकर चुनावों के लिए बनाए रेट कार्ड की ग्राहकी लेने को कहा गया या फिर पर्याप्त सकारात्मक कवरेज के लिए एक निश्चित रकम देने को कहा गया।
प्रेस काउंसिल को लिखे एक पत्र में श्री के. रामसुब्रमण्यम, तमिलनाडु में बहुजन समाज पार्टी के राज्य सचिव ने बताया कि उन्हें मीडिया द्वारा सकारात्मक प्रचार का वादा किया गया था, बशर्ते वह अखबार द्वारा तैयार एक विशेष योजना के अंतर्गत 15-20 दिनों के लिए चार से पांच लाख की रकम खर्च करते। श्री सुब्रमण्यम ने बताया, ”इसके अलावा अखबार के प्रबंधन ने मुझे यह ज्ञान भी दिया कि अगर मैं वोट मांगने के लिए अखबार में विज्ञापन दूंगा, तो मैं चुनाव आयोग के प्रति जवाबदेह हो जाऊंगा जो कि उम्मीदवारों के चुनावी खर्च पर नजर रखे हुए है। जबकि संपादकीय के हिस्से के तौर पर छपा संदेश उम्मीदवार को उस पर किए गए खर्च को छुपाने में मदद करेगा।”
पूर्वी दिल्ली लोकसभा क्षेत्र से कांग्रेस के सांसद श्री संदीप दीक्षित ने बताया कि कैसे अखबारों और चैनलों ने उनसे कहा कि अगर वे सकारात्मक कवरेज चाहते हैं, तो उन्हें भुगतान करना होगा। उन्होंने बताया, ”जब मेरे पास अखबारों के संवाददाता आए (अपने प्रबंधन के दबाव में) और उन्होंने पूछा कि क्या मैं उनके अखबार से अपने पक्ष में खबरें छपवाने के लिए कोई सौदा करना चाहता हूं, तो मैंने पैसे देने से इनकार कर दिया।”
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के श्री अतुल अंजान ने तो आज तक चैनल और दैनिक जागरण व पंजाब केसरी अखबारों का नाम तक ले डाला जिन्होंने उनके बारे में अच्छी खबरें छापने के लिए पैसे की मांग की थी। उन्होंने जब पैसे देने से इनकार कर दिया, तो अखबारों ने उनके बारे में एक शब्द भी नहीं छाप कर अपना बदला लिया। इस तरह उनके चुनाव अभियान के बारे में कहीं खबर ही नहीं आई।
लोकसत्ता पार्टी के श्री परचा कोडंडा रामा राव ने प्रेस काउंसिल के अध्यक्ष को 10 फरवरी, 2010 को लिखे पत्र में तथा इसी दिन प्रेस काउंसिल के सदस्यों के समक्ष दिए अपने प्रतिवेदन में बताया, ”मैंने अपने क्षेत्र के रिटर्निंग अफसर को पेड न्यूज पर उम्मीदवारों के हुए खर्चों को उनके व्यय खातों में डालने के लिए प्रतिवेदन दिया, लेकिन सब बेकार गया। मैंने तीनों उम्मीदवारों के पेड न्यूज सामग्री की प्रतियां संलग्न कर दीं- कांग्रेस के के. दयासागर राव, पीआरपी के एम. रवींद्र रेड्डी और टीआरएस के विनय भास्कर- जो 16 मार्च 2009 से 28 मार्च 2009 के बीच छपी थीं तथा राज्य सरकार के जनसंपर्क और सूचना विभाग द्वारा स्वीकृत दरों के आधार पर मौजूदा बाजार मूल्य के हिसाब से कुल पेड न्यूज की कीमत भी निकाल ली। चूंकि तेलुगु के अखबार मेरे प्रचार अभियान और खर्च की पूरी तरह से अनदेखी कर रहे थे, इसलिए मैंने ईनाडु के एडवर्टोरियल अधिकारी को 10 अप्रैल, 2009 को कॉल कर के मेरे अभियान को कवर करने को कहा। बचे हुए दिनों के लिए उसने एक लाख रुपए की मांग की लेकिन मैं 50,000 रुपए देने को तैयार हो गया और तुरंत नकद भुगतान कर दिया। उसने मुझे न तो कोई रसीद दी और न ही कोई पावती। मेरे भुगतान का नतीजा मुझे 13, 14 और 15 अप्रैल 2009 को मिली भारी कवरेज के रूप में सामने आया जो कि 28 मार्च से 12 अप्रैल 2009 के बीच मिली मामूली कवरेज के मुकाबले काफी ज्यादा था।
सांसद और प्रजा राज्यम पार्टी के उपाध्यक्ष श्री के.पी. रेड्डइया यादव ने प्रेस काउंसिल को 21 अगस्त 2009 को लिखा था और आरोप लगाया था कि ईनाडु समूह के मालिक श्री रामोजी राव ने दूसरे अखबारों के प्रबंधन के साथ मिल कर योजना बनाई है कि प्रत्येक लोकसभा और विधानसभा क्षेत्र के लिए ”चुनावी पैकेज” के बदले उम्मीदवारों से पैसे लिए जाएं। पैकेज में 15 दिन के लिए 10 लाख रुपए की योजना थी जिसके बदले में उक्त उम्मीदवार को सकारात्मक कवरेज दी जाएगी। श्री यादव ने आरोप लगाया कि ईनाडु, आंध्र ज्योति, वार्ता और आंध्र भूमि जैसे कई प्रकाशन और टीवी-9, ईटीवी-2, टीवी-5 और एचएमटीवी न्यूज जैसे चैनलों ने ”पेड न्यूज” छापने या प्रसारित करने के लिए पैसे लिए थे।
दूसरे प्रकाशनों की ही तरह ईनाडु भी कोई पैसा लेने की बात से इनकार किया। श्री रामोजी राव ने बताया कि ”पेड न्यूज” देश भर के मीडिया में चल रही बुरी प्रवृत्तियों का एक लक्षण है। हालांकि उन्होंने दावा किया कि ईनाडु विज्ञापन और खबर के बीच स्पष्ट अंतर रखता है।
दूसरी ओर कांग्रेस के प्रचार प्रबंधक खुले तौर पर स्वीकार कर रहे हैं कि टीवी चैनल किसी भी उस राजनीतिक दल से पैसे लेने को तैयार थे जो चाहता था कि ओपिनियन पोल और सर्वेक्षण में उसे आगे दिखाया जाए। वहीं कुछ दूसरे लोग, जैसे आंध्र प्रदेश सीपीआई के श्री सुधाकर रेड्डी ने कहा कि उनकी पार्टी को न्यूज स्पेस के लिए तभी आश्वस्त किया गया जब उन्होंने कुछ विज्ञापन का वादा किया। श्री रेड्डी ने बताया, ”हमें बताया गया कि यदि हम विज्ञापन देंगे, तभी खबर छप सकेगी।”
उन्होंने अपने निजी अनुभव से एक उदाहरण दिया, ”6 फरवरी 2009 को, जिस दिन आंध्र प्रदेश विधान परिषद के चुनाव हुए, साक्षी में एक खबर छपी जिसमें भाजपा के महबूबनगर जिला अध्यक्ष के हवाले से मुझे देशद्रोही कहा गया था। इससे भी बुरा यह था कि अखबार ने मेरी मानहानि की क्योंकि उसने दावा किया कि मैं इसलिए दृष्टिहीन हूं क्योंकि मैंने वैज्ञानिकों की सलाह की अनदेखी कर के सूर्य ग्रहण को नंगी आंखों से देख लिया था। यह पूरी तरह सें फर्जी स्टोरी थी। मैंने अखबार को शिकायत भेजी और चुनाव आयोग में भी पत्र भेजा, लेकिन अब तक कुछ नहीं हुआ।”
पीपुल्स मीडिया इनीशिएटिव नामक गैर-सरकारी संगठन द्वारा किए गए गुजरात समाचार जैसे अखबारों के स्वतंत्र विश्लेषण से संकेत मिलता है कि अखबार एक संस्करण में महाराष्ट्र, मागाथाणे और मलाड के दो विधानसभा क्षेत्रों से विजयी तीनों उम्मीदवारों की रिपोर्ट छपी। इससे स्वाभाविक रूप से यह सवाल खड़ा होता है कि क्या रिपोर्टों के बदले पैसे दिए गए थे। गुजरात समाचार ने हालांकि साफ तौर पर इन आरोपों को खारिज कर डाला।

आंध्र प्रदेश श्रमजीवी पत्रकार यूनियन द्वारा मुहैया कराए गए साक्ष्य

आंध्र प्रदेश श्रमजीवी पत्रकार यूनियन (एपीयूडब्ल्यूजे), जो कि पहली यूनियन है जिसने पेड न्यूज के खिलाफ आवाज उठाई और वास्तव में जिसने ”पेड न्यूज” शब्द गढ़ा, उसने 9 फरवरी 2010 को प्रेस काउंसिल को जारी एक ज्ञापन में कहा कि ”पेड न्यूज 2004 के आम चुनावों में चलन में आया जब आंध्र प्रदेश और गुजरात के कुछ छोटे और स्थानीय अखबारों ने संगठित रूप से इस काम को शुरू किया। इन छोटे अखबारों ने, जिनके संपादक और मालिक एक ही थे, प्रमुख दलों के स्थानीय नेताओं या उम्मीदवारों के साथ एक समझौता किया और इन दलों या उम्मीदवारों की प्रचार सामग्री को प्रकाशित करना खबर के रूप में शुरू किया और इसके बदले पैसे लिए ।”
यूनियन ने कहा कि 2009 में जब आम चुनाव और आंध्र प्रदेश विधानसभा के चुनाव एक साथ हो रहे थे, विज्ञापन की कॉपी ”पेड न्यूज” के साथ आती थी जिस पर एक स्टाफर की बाईलाइन होती थी ताकि पाठकों को भ्रमित किया जा सके और वे विश्वास कर लें कि कॉपी अखबार के रिपोर्टर ने ही लिखी है। अपनी विज्ञापन दरों के हिसाब से अखबारों के प्रबंधन ने ”पेड न्यूज” सामग्री के बदले पैसे लिए और इस बात को रेखांकित नहीं किया कि ये विज्ञापन हैं।
एपीयूडब्ल्यूजे ने 2009 के आम चुनावों के प्रचार से पहले ”पेड न्यूज” का मुद्दा आंध्र प्रदेश के मुख्य निर्वाचन आयुक्त के समक्ष 10 अप्रैल 2009 को उठाया था। यूनियन ने कहा कि ”पेड न्यूज” की प्रवृत्ति लोकतांत्रिक चुनावी प्रक्रिया और स्वतंत्र प्रेस का अपमान है। यूनियन ने कई परिस्थितिजन्य साक्ष्यों का संकलन किया, जिनके मुख्य अंश नीचे दिए जा रहे हैं:
आंध्र ज्योति ने अपने पश्चिमी गोदावरी संस्करण के साथ मिलने वाले एक टेब्लॉयड में 23 अप्रैल 2009 को पहले पन्ने पर एक लेख छापा जिसमें दावा किया गया कि नरसापुरम संसदीय क्षेत्र से टीडीपी उम्मीदवार श्रीमती थोटा सीताराम लक्ष्मी चुनावी संघर्ष में विजयी होंगी। लेख में शीर्षक दिया गया कि ”भारी जीत” उम्मीदवार की प्रतीक्षा कर रही है। इसी संस्करण में आखिरी पन्ने पर एक स्टोरी थी जो कहती थी कि इसी संसदीय क्षेत्र से कांग्रेस के उम्मीदवार बापी राजू सीट जीतने जा रहे हैं जिसका शीर्षक था ”विजय, विजय”। यूनियन का कहना था कि यह असाधारण बात थी एक ही अखबार एक ही संसदीय क्षेत्र से दो प्रतिद्वंद्वी उम्मीदवारों का समर्थन कर रहा था, वह भी एक ही दिन। आरोप लगाया कि ये खबरें अखबार के पत्रकारों द्वारा नहीं लिखी गई हैं बल्कि उम्मीदवारों के प्रचारकों द्वारा छपवाई गई हैं।
ऐसी ही स्टोरी उसी दिन 23 अप्रैल 2009 को ईनाडु दैनिक के पश्चिमी गोदावरी संस्करण में छपीं। पहले पन्ने पर अखबार ने भीमावरम के नाम से एक स्टोरी लगाई जिसमें नरसापुरम से टीडीपी उम्मीदवार सीताराम लक्ष्मी के जीतने का दावा किया गया था। इसका शीर्षक था, ”भारी बहुमत के साथ जीत के रास्ते पर”। इसी संस्करण के आखिरी पन्ने पर एक और स्टोरी छपी जिसमें कांग्रेस के उम्मीदवार बापी राजू के जीतने का दावा किया गया था। खबर का शीर्षक था, ”सबकी राय, बापी राजू जीतेंगे।”
एपीयूडब्ल्यूजे ने आंध्र प्रदेश के पश्चिमी गोदावरी के अखबारों का विस्तृत विश्लेषण 27 दिनों तक 28 मार्च 2009 से 23 अप्रैल 2009 के बीच किया। अध्ययन में यह बात सामने आई कि ईनाडु ने 94 राजनीतिक विज्ञापन और 92 ”पेड न्यूज” का प्रकाशन किया। जबकि आंध्र ज्योति ने 87 राजनीतिक विज्ञापन और 163 ”पेड न्यूज” छापे। दूसरे प्रकाशन जैसे साक्षी, वार्ता, आंध्र भूमि और सूर्या में भी ऐसे ही विज्ञापन और ”पेड न्यूज” छपे। तेलुगु दैनिक साक्षी ने प्रेस काउंसिल को 10 फरवरी 2010 को ”पेड न्यूज” पर लिखे अपने पत्र में दावा किया, ”हम समस्या को संबोधित करने में अपने लक्ष्य से काफी पीछे हैं। यह ऐसे ही है जैसे हम समस्या की जड़ तक न पहुंच पा रहे हों।” चुनाव आयोग के दिशानिर्देशों के मुताबिक आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश जैसे प्रमुख राज्यों में चुनाव खर्च की सीमा लोकसभा उम्मीदवार के लिए 25 लाख रुपए है जबकि विधानसभा उम्मीदवार के लिए दस लाख रुपए है। लक्षद्वीप जैसे छोटे लोकसभा क्षेत्रों के लिए यह सीमा दस लाख रुपए है।
”इसमें कोई छुपाने वाली बात नहीं कि लगातार बढ़ती मुद्रास्फीति और महंगाई के दौर में असेंबली उम्मीदवारों के लिए दस लाख की सीमा हास्यास्पद रूप से कम है। यही बात लोकसभा उम्मीदवारों के लिए भी कही जा सकती है। लेकिन हम जानते हैं कि असेंबली उम्मीदवार दो करोड़ से कम खर्च नहीं करते और लोकसभा के मामले में तो यह आंकड़ा और ज्यादा होता है। यहां तक कि चुनाव आयोग भी अच्छे से जानता है कि कोई भी उम्मीदवार वास्तविक व्यय नहीं बताएगा न ही वह दी हुई सीमा के भीतर खर्च करेगा। इस प्रक्रिया में उम्मीदवारों ने अपने खर्च को छुपाने के तमाम तरीके ईजाद कर लिए हैं और पेड न्यूज इन्हीं में से एक है।”

”पेड न्यूज” पर एडीटर्स गिल्ड

एडीटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया ने अपनी सालाना आम बैठक में 22 दिसंबर 2009 को नई दिल्ली में पेड न्यूज के चलन की कड़ी निंदा की जो उसकी राय में भारतीय पत्रकारिता की नींव को कमजोर कर रही है। गिल्ड ने देश के सभी संपादकों का आह्वान किया कि वे खबर के आवरण में कोई भी विज्ञापन छापने से बाज आएं। गिल्ड ने मीडिया मॉनीटरिंग एजेंसी एडेक्स (टैम मीडिया रिसर्च प्राइवेट लिमिटेड की इकाई) द्वारा संकलित आंकड़ों (जो मिंट में 2 दिसंबर 2009 को प्रकाशित है) के आधार पर इस तथ्य का संज्ञान लिया कि अक्टूबर 2009 में महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में मराठी अखबारों में कुल विज्ञापन का आकार (कॉलम सेंटीमीटर के हिसाब से) 2004 के स्तरों के मुकाबले पांचवां हिस्सा ही रह गया, जिससे विज्ञापन के खबर के आवरण में छापे जाने की संभावना को बल मिलता है।

निष्कर्ष

भले ही ”पेड न्यूज” की व्यापक परिघटना को राजनेताओं और प्रचार प्रबंधकों ने स्वीकारा है और उसकी मौखिक निंदा भी की है, लेकिन इस बात के कोई साक्ष्य नहीं हैं जिससे पुख्ता रूप से यह स्थापित हो सके कि मीडिया प्रतिष्ठानों/विज्ञापन एजेंसियों/पत्रकारों और नेताओं/राजनीतिक दलों के बीच पैसे का लेन-देन हुआ है। ”पेड न्यूज” के चलन को साबित करने के साथ समस्या इसके ठोस साक्ष्य इक_े करने में है। सिर्फ एक अपवाद को छोड़ दें (आंध्र प्रदेश में लोकसत्ता पार्टी के परचा कोडंडा रामा राव), तो कोई भी शिकायतकर्ता प्रेस काउंसिल को सकारात्मक खबर के बदले पैसे लिए जाने संबंधी कोई साक्ष्य मुहैया करा पाया है। यहां तक कि मीडिया प्रतिष्ठानों द्वारा छपवाया गया रेट कार्ड जो चुनावों के दौरान वितरित हुआ, वह भी महज कागज के टुकड़े पर था जिस पर ऐसा कुछ भी नहीं लिखा था जिससे कि उसे अखबार/टीवी न्यूज चैनल से जोड़ा जा सके अथवा ऐसी कोई भी सामग्री नहीं जिससे पत्रकार/विज्ञापन एजेंट का हवाला मिल सके।
हालांकि कुछ सम्मानित पत्रकारों, पत्रकार संगठनों, अन्य व्यक्तियों और संगठनों द्वारा बड़ी मेहनत से जुटाए गए परिस्थितिजन्य साक्ष्य तथा प्रेस काउंसिल के समक्ष नेताओं और पत्रकारों की गवाहियां इस बात को स्थापित करती हैं कि ”पेड न्यूज” का काला धंधा देश के विभिन्न हिस्सों में मीडिया में व्यापक रूप से फैल चुका है (प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक तथा अंग्रेजी और भाषाई पत्रकारिता दोनों में)। दिलचस्प बात यह है कि यह चलन उन राज्यों (केरल और तमिलनाडु) में कम प्रभावी है जहां मीडिया साफ तौर पर राजनीतिक आधार पर बंटा हुआ है।
प्रेस काउंसिल के इस दिशानिर्देश को सभी प्रकाशनों को कड़ाईसे लागू करना चाहिए कि खबर और विज्ञापन के बीच साफ फर्क किया जाए और इसके लिए डिसक्लेमर छापा जाए। जहां तक खबरों की बात है, इसमें हमेशा एक क्रेडिट लाइन होनी चाहिए और इसे ऐसे टाइपफेस में लिखा जाना चाहिए जिससे उसके और विज्ञापन के बीच अंतर साफ हो सके।
सभी उम्मीदवारों/राजनीतिक दलों के लिए अनिवार्य होना चाहिए कि वे उन अखबारों या टीवी चैनलों में अपनी हिस्सेदारी/वित्तीय हितों को पूरी तरह सार्वजनिक करें जिनमें उनके उम्मीदवारों या प्रतिनिधियों के बारे में खबरें या साक्षात्कारों का प्रकाशन-प्रसारण हो रहा है। यदि किसी अखबार या चैनल विशेष पर किसी उम्मीदवार का साक्षात्कार या प्रचार सामग्री का प्रकाशन/प्रसारण हो रहा हो, तो उक्त उम्मीदवार का अखबार या चैनल के साथ कोई भी रिश्ता (वित्तीय या अन्य) पाठक/दर्शक के समक्ष सार्वजनिक किया ही जाना चाहिए।
जनप्रतिनिधित्व कानून 1951 की धारा 123 को संसद द्वारा संशोधित कर अखबारों या टीवी चैनलों पर खबरों की कवरेज के चलन को ”चुनावी धांधली” या भ्रष्टाचार घोषित किया जाए और इसे दंडात्मक कार्रवाई के अनुकूल बनाया जाए।
भारत के चुनाव आयोग को पेड न्यूज के खिलाफ शिकायतें दर्ज करने के लिए एक प्रकोष्ठ का गठन करना चाहिए और एक ऐसी प्रक्रिया शुरू करनी चाहिए जिससे इन शिकायतों के आधार पर कार्रवाइयों को तेजी से अंजाम दिया जा सके। फर्जी शिकायतों पर नजर रखने के लिए शिकायत दर्ज कराने की एक समय सीमा घोषित की जानी चाहिए, मसलन रिपोर्ट के प्रकाशन या प्रसारण के एक महीने के भीतर शिकायत को दर्ज कराने का प्रावधान। चुनाव आयोग को स्वतंत्र पत्रकारों/सार्वजनिक शख्सियतों को प्रेस काउंसिल से परामर्श के बाद पर्यवेक्षक नियुक्त करना चाहिए जो चुनाव आयोग द्वारा तय किए गए चुनाव निरीक्षकों के साथ विभिन्न राज्यों और जिलों में रहेंगे। जिस तरह नियुक्त किए गए चुनाव पर्यवेक्षकों को किसी भी चुनावी धांधली के बारे में रिपोर्ट करना होता है, उसी तरह इन नामांकित पत्रकारों को पेड न्यूज जैसी गतिविधियों पर प्रेस काउंसिल या चुनाव आयोग को अपनी रिपोर्ट देनी होगी।
प्रेस काउंसिल को मीडियाकर्मियों की एक ऐसी इकाई गठित करनी होगी जिसका प्रतिनिधित्व राष्ट्रीय/राज्य/जिला स्तर पर व्यापक हो ताकि वे पेड न्यूज के मामलों पर जांच कर सकें (या तो प्रथम दृष्ट्या अथवा शिकायतों के आधार पर) और एक अपीली प्राधिकरण से गुजरने के बाद ऐसी इकाई की सिफारिशों को चुनाव आयोग व अन्य सरकारी विभागों के लिए बाध्यकारी बनाया जाए।
प्रेस काउंसिल को पत्रकारों की ओर से की गई पेड न्यूज की शिकायतों के प्रति खुला होना चाहिए और यदि वे चाहें तो उनके नामों को गोपनीय रखने का आश्वासन देना चाहिए।
मीडिया प्रतिष्ठानों को अल्पकालिक संवाददाता और ऐसे संवाददाताओं को अपने यहां रखने से बचना चाहिए जो पारिश्रमिक या नियमित वेतन की जगह विज्ञापन इक_ा करने और उसके बदले में कमीशन लेने का दोहरा काम करते हैं।
यदि पत्रकारों के कार्य करने की स्थितियों और नौकरी में सुरक्षा को सुधारा गया तथा मीडिया प्रतिष्ठानों में संपादकीय कर्मियों की स्वायत्तता को बरकरार रखा गया, तो यह काफी हद तक पेड न्यूज पर लगाम लगाने में भूमिका निभाएगा।
अपनी अर्ध-न्यायिक स्थिति के बावजूद प्रेस काउंसिल के पास सीमित अधिकार हैं। काउंसिल के पास पाबंदियां लगाने और सिफारिश करने के तो अधिकार हैं, लेकिन वह धांधली के दोषियों को सजा नहीं दे सकती। इसके अलावा, काउंसिल के अधिकार क्षेत्र में सिर्फ प्रिंट माध्यम आता है। किसी वैकल्पिक संगठन के अभाव में प्रेस काउंसिल के अधिकार क्षेत्र को व्यापक किया जाना चाहिए ताकि वह टीवी चैनलों की कार्यप्रणाली तथा टीवी चैनलों, रेडियो केंद्रों और इंटरनेट की वेबसाइटों के खिलाफ भी शिकायतों को दर्ज कर सके। प्रेस काउंसिल को ऐसे अधिकार दिए जाने चाहिए जिससे वह सिर्फ सिफारिश करने तक सीमित न रहे बल्कि दोषियों के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई भी कर सके।
प्रेस काउंसिल अधिनियम 1978 की धारा 15(4) को संशोधित करने का एक प्रस्ताव, जिसके तहत उसके निर्देश सरकारी अधिकरणों पर बाध्यकारी हों, लंबे समय से लंबित है और इसे जल्द से जल्द संशोधित करना चाहिए ताकि काउंसिल को और ज्यादा अधिकार मिल सकें।
भारत के चुनाव आयोग को पेड न्यूज के मामलों की सक्रियता से पहचान करनी होगी और यदि प्रथम दृष्ट्या कोई मामला बनता हो, तो दोषी के खिलाफ आयोग को अपने स्तर पर कार्रवाई करनी चाहिए और यदि जरूरी हुआ, तो भारतीय दंड संहिता और अन्य कानूनों को लागू करने वाली इकाइयों की भी इसमें मदद लेनी चाहिए।
किसी प्रकाशन के संपादक या प्रधान संपादक को अपने अखबार में एक घोषणा प्रकाशित करनी चाहिए कि जो भी खबर छपी है, उसके बदले में किसी राजनीतिक दल या व्यक्ति द्वारा पैसे नहीं दिए गए हैं। ऐसा डिसक्लेमर चुनाव आचार संहिता लागू होने के बाद छापा जाना चाहिए जिससे मीडिया कंपनी के पत्रकारों पर एक नैतिक बाध्यता हो कि वे नैतिकता के पेशेवर मानकों को अपनाएं और यदि प्रबंधन ऐसा कोई दबाव डालता है तो उसे भी इसके लिए हतोत्साहित करें। हालांकि, आत्मनियमन समस्या का आंशिक समाधान ही देता है क्योंकि हमेशा ऐसे उल्लंघनकर्ता मौजूद होंगे जो आचार संहिता का उल्लंघन करेंगे क्योंकि उसकी कानूनी वैधता नहीं है। मीडिया कंपनियों के मालिकों को यह बात स्वीकार करनी होगी कि दीर्घावधि में ऐसी कार्रवाइयां न सिर्फ देश में लोकतंत्र की अवहेलना करती हैं बल्कि मीडिया की विश्वसनीयता को भी खत्म करती हैं। नागरिक समाज की निगाह भी समस्या को कुछ हद तक ही सुलझा सकती है।
सभी संबद्ध पक्षकारों के बीच एक बहस होनी चाहिए कि क्या सुप्रीम कोर्ट द्वारा चुनावों से 48 घंटे पहले टीवी चैनलों के लिए राजनीतिक दलों व उम्मीदवारों के प्रचार अभियान संबंधी खबरें दिखाने पर रोक के दिशानिर्देश को प्रिंट माध्यम तक विस्तारित किया जा सकता है क्योंकि ऐसी कोई पाबंदी अभी प्रिंट माध्यम के लिए लागू नहीं है।
यह कहा जा सकता है कि हमारे देश के नियम-कानून (भारतीय दंड संहिता और जनप्रतिनिधित्व कानून) पेड न्यूज पर लगाम लगाने में सक्षम हैं, बशर्ते संबद्ध अधिकारी, चुनाव आयोग समेत न सिर्फ सक्रिय रहें बल्कि ज्यादा तेज गति से कार्रवाई करें ताकि इस कुकर्म में संलिप्त लोगों को पकड़ा जा सके जो कि जनता से फर्जीवाड़ा करने के बराबर का अपराध है।
सूचना और प्रसारण मंत्रालय, प्रेस काउंसिल, चुनाव आयोग, संपादकों के प्रतिनिधियों, पत्रकार संगठनों और यूनियनों व राजनीतिक दलों को लेकर इस मसले पर जागरूकता निर्माण के लिए सम्मेलन, कार्यशालाएं, सेमिनार और अभियान आदि किए जाने चाहिए ताकि इस पर विचार हो सके और सामान्य तौर पर मीडिया में व्याप्त भ्रष्टाचार तथा विशिष्ट तौर पर पेड न्यूज पर लगाम लगाने के लिए एक व्यवहारिक समाधान निकाला जा सके।
ऐसी सारी पहलें यदि ईमानदारी के साथ लागू की गईं, तो इनसे न सिर्फ भारतीय मीडिया में हो रही गलत प्रवृत्तियों पर लगाम लगेगी बल्कि ऐसी घटनाओं को भी काफी हद तक रोका जा सकेगा।

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