1886 से 2011 तक 125 वर्ष बीत जाने के बाद भी कार्य दिवस का समय वही आठ घंटे है , जबकि मशीन की बेहतरी ने लोगों को काम से बाहर धकेलने का काम लगातार जारी रखा है | काम के घंटों को कम करने का केंद्रीय कानून बनाने की मांग वाले कार्यक्रम पर संघर्ष न करना अंतर्राष्ट्रीय मजदूर और युवा आन्दोलन की सबसे बड़ी सैधान्तिक भूल है और ठहराव का कारण भी ...
- रोशन सुचान
बात 14 जुलाई 1889 की है , जब लगभग 20 देशों के श्रमिक वर्ग के प्रतिनिधि पेरिस के मजदूर अधिवेशन में पहुंचे थे | मकसद बहुत बड़ा था , मेहनतकशों के हक़ की लड़ाई को आगे बढ़ाना | इस अधिवेशन को इतिहास में दूसरे इंटरनेशनल के नाम से जाना जाता है | मार्क्स की मृत्यु(1883) के बाद उनका सैधान्तिक मित्र फ्रेडरिक एंगल्ज इस अधिवेशन को दिशा देने वाला था | पहले इंटरनेशनल का सम्मेलन 28 सितम्बर 1864 को शुरू हुआ था | जिसमें खुद मार्क्स ने नेतृत्व किया था | एंगल्ज तब से ही मार्क्स का सबसे नजदीकी सैधान्तिक मित्र था | दोनों ने 1848 में पूंजी की वैश्विक एकजुटता के विरुद्ध दुनिया भर के मेहनतकशों को एक हो जाने का निमंत्रण दिया था | तब औद्दोगिक क्रांति और मशीनीकरण बढ़ रहा था | सो उत्पादन में वृद्धि हुई और मुनाफा बढ़ा | फलस्वरूप बेरोज़गारी में भारी वृद्धि हुई , मशीन ने लोगों को काम से बाहर धकेल दिया था | पर श्रमिक वर्ग को उस बढ़े हुए मुनाफे से कोई हिस्सेदारी मिलना तो दूर , काम के घंटे भी निश्चित नहीं थे | इस अंतराष्ट्रीय महाधिवेशन ने मुनाफे में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाने तथा मशीनीकरण से बढ़ रही बेरोज़गारी को दूर करने के उद्देश्य से काम के घंटों को घटाने के लिए संघर्ष का आह्वान किया था | इनका प्रमुख उद्देश्य " Reduction of Working Hours " दर्ज किया गया था | 1886 में मजदूरों को 8 घंटे काम के लिए संघर्ष करने के लिए कहा गया | अमेरिका के शिकागो में 8 घंटे कार्य दिवस के लिए संघर्ष तेज़ हुआ | 3 लाख 50 हज़ार लोगों ने इसमें भाग लिया | हुकूमत ने जुल्म किया , फांसियां दी गई और गोलिया चली , सड़कों पर खून बहा | आखिरकार 2 लाख लोगों ने 8 घंटे के कार्य दिवस को जीत लिया | दूसरे इंटरनेशनल ने पहले इंटरनेशनल के काम को आगे बढ़ाया | हर देश में 8 घंटे के कार्य दिवस के लिए संघर्ष शुरू हुआ | इस नारे को मिला समर्थन और जीत भी मिसाल बनी | एंगल्ज ने उसी शाम को लिखा "42 वर्ष पहले जब हमने दुनिया भर के मेहनतकशों एक हो का नारा दिया , तब बहुत कम आवाजों ने सुर में सुर मिलाया था | आज जब मैं ये शब्द लिख रहा हूँ तो यूरोप और अमेरिकी मजदूर पहली बार लामबंद होकर अपनी जुझारू शक्तियों का जायजा ले रहे हैं | 8 घंटे का कार्यदिवस कानून द्वारा स्थापित किया जाए | जैसा कि 1866 में इंटरनेशनल की जेनेवा कांग्रस में एलान किया गया था और आज की झांकी इस तथ्य के बारे में सभी देशों के पूंजीपतियों और भूमिपतियों की आँखें खोल देगी कि आज सचमुच सभी देशों के मेहनतकश एकजुट हैं | काश! अगर मार्क्स इसे अपनी आँखों से देखने के लिए मेरे साथ होता |"
अब सोचने की बात ये है की 1886 में जब काम के घंटे 8 हुए थे , तब से लेकर आज तक 125 वर्षों में मशीन का विकास कितने गुना बढ़ा है | पर कार्यदिवस वही 8 घंटों का ही है | मानव सभ्यता का इतिहास इस बात का गवाह है की प्रत्येक नईं खोज मनुष्य के जीवन को बेहतर से और बेहतर करती गई है | प्रत्येक नईं मशीन मनुष्य के काम को हल्का और उसकी जरूरतों की पूर्ति के लिए ज्यादा उत्पादन करती गई | 1970 के दशक में आई विज्ञानिक - तकनीकी क्रांति के बल पर आज दुनियाँ ऐसी अद्भुत मशीनों की मालिक है , जिसका मानव जाती की भलाई में प्रयोग करने पर इस धरती पर सभी को स्वर्ग जैसी जिन्दगी दी जा सकती है | जरूरत है तो बस मानवता के भले के लिए फिक्रमंद एक आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था स्थापित करने की | पर पूंजीवादी प्रबंध हर नई खोज को मानवता की भलाई के लिए प्रयोग करने को तैयार नहीं है | तकनीकी क्रांति और आधुनिक मशीनों ने उत्पादन में इतनी अराज़कता पैदा कर दी है की उत्पादन खरीदने वाले नहीं हैं , वहीं मजदूर वर्ग को काम से बाहर का रास्ता भी दिखा दिया है | मशीन की बेहतरी से बेरोज़गारी में खतरनाक वृद्धि हो रही है | 1987 में 500 बड़ी कम्पनियां 5 प्रतिशत श्रमशक्ति द्वारा 25 प्रतिशत उत्पादन कर रही थीं |वहीं 2007 में 500 बड़ी कम्पनियां 0.05 प्रतिशत श्रमशक्ति द्वारा 25 प्रतिशत उत्पादन कर रही हैं | ये है आधुनिक मशीन का कमाल | 21 वर्षों में यह अंतर 1/20 से 1/200 तक पहुंच गया है | आज का पूंजीवादी प्रबंध मानवविरोधी होने के कारण मशीन की लूट द्वारा अपने मुनाफे के ढेर को बड़ा कर रहा है | पूंजी कुछ ही हाथों में , यहाँ तक की एक ही हाथ में चले जाने का काम कर रहा है | एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया की आबादी के महज़ 2 प्रतिशत लोगों के पास कुल दौलत का 50 फीसदी है , उससे नीचे वाले 8 प्रतिशत लोगों के पास 35 प्रतिशत दौलत है , नीचे वाले 20 प्रतिशत के पास 4 प्रतिशत , उससे नीचे वाले 20 प्रतिशत के पास 3 प्रतिशत , नीचे वाले 20 प्रतिशत लोगों के पास 2 प्रतिशत दौलत है , सबसे नीचे वाले 20 प्रतिशत लोगों के पास कुल दौलत का महज़ 1 प्रतिशत है | यानी की 20 प्रतिशत आबादी के पास 89 प्रतिशत और 80 प्रतिशत के पास भीख के रूप में महज़ 11 प्रतिशत दौलत है | भारत में सिर्फ 533 अमीर लोगों के पास 1232135 करोड़ रुपयों की संपत्ति है | सो इन परिस्थितियों में समाज के सामने धन का बंटवारा , श्रम उत्पादकता , बेरोज़गारी , कार्य दिवस का समय , वित्तीय पूंजी विचारणीय बिंदु हैं | 1886 से आज तक 125 वर्षों कार्य दिवस का समय वही आठ घंटे है , जबकि मशीन की बेहतरी से लोगों को काम से बाहर धकेलने का काम लगातार जारी है | काम के घंटों को कम करने का केंद्रीय कानून बनाने की मांग वाले कार्यक्रम के लिए संघर्ष पर ध्यान न देना अंतर्राष्ट्रीय मजदूर और युवा आन्दोलन की सबसे बड़ी सैधान्तिक भूल है और ठहराव का कारण भी | आज फिर पहले - दूसरे इंटरनेशनल की तरह जरूरत है , नए केंद्रीय संघर्ष के केंद्र की | जब ऐसा हुआ , ठहराव टूटेगा और जीत कर निकलेगा मजदूर- नौजवान वर्ग | इसलिए Reduction of Workers की जगह हमारा नारा होना चाहिए " Reduction of Working Hours Without Pay Loss " | कार्य दिवस को तब तक छोटा करो ,जब तक सभी को काम न मिल जाए | 10 प्रतिशत तक कार्य दिवस को छोटा करने पर 11 प्रतिशत नए काम के अवसर पैदा होते हैं और 20 प्रतिशत तक कार्य दिवस को छोटा करने पर 25 प्रतिशत नए लोगों को काम मिलता हैं | 30 प्रतिशत तक कार्य दिवस को छोटा करने पर 42 प्रतिशत नए काम के अवसर पैदा होते हैं और 40 प्रतिशत तक कार्य दिवस को छोटा करने पर 66 प्रतिशत नए लोगों को काम मिलता हैं | 50 प्रतिशत तक काम के घंटों को घटाकर 4 घंटे का कार्य दिवस करने पर सभी को काम मिल जायगा | नौजवानों और ट्रेड यूनियंस के संगठनों को सभी लोगों को रोज़गार प्राप्ति के लिए , मानव शक्ति के नियोजन और कार्यदिवस को कानूनन छोटा करवाने की लड़ाई को मजबूत करने वाले आन्दोलन चलाने चाहियें | दुनिया भर की सरकारों को ललकारकर ये कहना होगा की 18 वर्ष के प्रत्येक युवा को (शिक्षित-अशिक्षित सभी को) काम देने की गारंटी का कानून बनाया जाए , और जब तक सरकार 18 वर्ष का होने पर काम देने में असफल है तो उसको काम के इंतज़ार में न्यूनतम वेतन के मुताबिक भत्ता दिया जाए .......
- रोशन सुचान
बात 14 जुलाई 1889 की है , जब लगभग 20 देशों के श्रमिक वर्ग के प्रतिनिधि पेरिस के मजदूर अधिवेशन में पहुंचे थे | मकसद बहुत बड़ा था , मेहनतकशों के हक़ की लड़ाई को आगे बढ़ाना | इस अधिवेशन को इतिहास में दूसरे इंटरनेशनल के नाम से जाना जाता है | मार्क्स की मृत्यु(1883) के बाद उनका सैधान्तिक मित्र फ्रेडरिक एंगल्ज इस अधिवेशन को दिशा देने वाला था | पहले इंटरनेशनल का सम्मेलन 28 सितम्बर 1864 को शुरू हुआ था | जिसमें खुद मार्क्स ने नेतृत्व किया था | एंगल्ज तब से ही मार्क्स का सबसे नजदीकी सैधान्तिक मित्र था | दोनों ने 1848 में पूंजी की वैश्विक एकजुटता के विरुद्ध दुनिया भर के मेहनतकशों को एक हो जाने का निमंत्रण दिया था | तब औद्दोगिक क्रांति और मशीनीकरण बढ़ रहा था | सो उत्पादन में वृद्धि हुई और मुनाफा बढ़ा | फलस्वरूप बेरोज़गारी में भारी वृद्धि हुई , मशीन ने लोगों को काम से बाहर धकेल दिया था | पर श्रमिक वर्ग को उस बढ़े हुए मुनाफे से कोई हिस्सेदारी मिलना तो दूर , काम के घंटे भी निश्चित नहीं थे | इस अंतराष्ट्रीय महाधिवेशन ने मुनाफे में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाने तथा मशीनीकरण से बढ़ रही बेरोज़गारी को दूर करने के उद्देश्य से काम के घंटों को घटाने के लिए संघर्ष का आह्वान किया था | इनका प्रमुख उद्देश्य " Reduction of Working Hours " दर्ज किया गया था | 1886 में मजदूरों को 8 घंटे काम के लिए संघर्ष करने के लिए कहा गया | अमेरिका के शिकागो में 8 घंटे कार्य दिवस के लिए संघर्ष तेज़ हुआ | 3 लाख 50 हज़ार लोगों ने इसमें भाग लिया | हुकूमत ने जुल्म किया , फांसियां दी गई और गोलिया चली , सड़कों पर खून बहा | आखिरकार 2 लाख लोगों ने 8 घंटे के कार्य दिवस को जीत लिया | दूसरे इंटरनेशनल ने पहले इंटरनेशनल के काम को आगे बढ़ाया | हर देश में 8 घंटे के कार्य दिवस के लिए संघर्ष शुरू हुआ | इस नारे को मिला समर्थन और जीत भी मिसाल बनी | एंगल्ज ने उसी शाम को लिखा "42 वर्ष पहले जब हमने दुनिया भर के मेहनतकशों एक हो का नारा दिया , तब बहुत कम आवाजों ने सुर में सुर मिलाया था | आज जब मैं ये शब्द लिख रहा हूँ तो यूरोप और अमेरिकी मजदूर पहली बार लामबंद होकर अपनी जुझारू शक्तियों का जायजा ले रहे हैं | 8 घंटे का कार्यदिवस कानून द्वारा स्थापित किया जाए | जैसा कि 1866 में इंटरनेशनल की जेनेवा कांग्रस में एलान किया गया था और आज की झांकी इस तथ्य के बारे में सभी देशों के पूंजीपतियों और भूमिपतियों की आँखें खोल देगी कि आज सचमुच सभी देशों के मेहनतकश एकजुट हैं | काश! अगर मार्क्स इसे अपनी आँखों से देखने के लिए मेरे साथ होता |"
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