कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी चाहते हैं कि अलीगढ, इलाहाबाद और बनारस विश्वविद्यालयों में छात्रसंघ बहाल किए जाएं. अच्छा है, देर से ही सही उन्हें छात्रसंघों की याद आई. अन्यथा जब से वे राजनीति में आए हैं, एक के बाद एक बचे-खुचे छात्रसंघों को भी खत्म करने की ही मुहिम चल रही है.
हालांकि छात्रसंघों को खत्म करने की यह मुहिम पिछले दो दशकों से भी ज्यादा समय से चल रही है और इसके लिए व्यक्तिगत तौर पर वे दोषी नहीं हैं लेकिन सच यह भी है कि कांग्रेस के राज में ही छात्रसंघों को प्रतिबंधित और छात्र राजनीति को खत्म करने का अभियान शुरू हुआ और परवान चढ़ा.
तथ्य यह भी है कि जिन दिनों में राहुल गांधी युवा नेता के रूप में तेजी से राजनीति की सीढियाँ चढ रहे थे, उन्हीं दिनों में छात्र राजनीति के सुंदरीकरण के नाम पर सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर यू.पी.ए सरकार द्वारा गठित लिंगदोह समिति ने छात्रसंघों के बधियाकरण की सिफारिश की जिसे उनकी सरकार ने खुशी-खुशी लागू कर दिया. नतीजा- उसके बाद से ही देश के सबसे बेहतरीन विश्वविद्यालयों में से एक जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय के अत्यंत लोकतान्त्रिक और साफ-सुथरे छात्रसंघ चुनाव भी बंद हो गए हैं.
हालांकि उत्तर प्रदेश के केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में छात्रसंघ चुनावों की मांग करते हुए युवराज को जे.एन.यू ही नहीं, दिल्ली के जामिया मिल्लिया का ध्यान नहीं आया जहां पिछले कई सालों से छात्रसंघ चुनाव नहीं हुए हैं.
लेकिन बात सिर्फ बी.एच.यू, जे.एन.यू, ए.एम.यू, इलाहाबाद या जामिया की ही नहीं है बल्कि स्थिति यह है कि देश के अधिकांश राज्यों के विश्वविद्यालयों और कालेजों में छात्रसंघ के चुनाव नहीं हो रहे हैं. यहां तक कि केंद्र सरकार द्वारा लिंगदोह समिति की सिफारिशों को लागू करने और सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के बावजूद अधिकांश राज्य सरकारों और विश्वविद्यालय प्रशासनों की छात्रसंघ बहाल करने और उनका चुनाव कराने में कोई दिलचस्पी नहीं दिख रही है.
छात्रसंघों और छात्र राजनीति के प्रति विश्वविद्यालयों के कुलपतियों के रवैये का अंदाज़ा इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि राहुल गांधी के ज्ञापन पर मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल की तत्काल चुनाव कराने के निर्देश को ए.एम.यू से लेकर बी.एच.यू तक के सभी कुलपतियों ने अंगूठा दिखा दिया है.
असल में, कोई भी कुलपति और विश्वविद्यालय प्रशासन से जुड़ा आला अधिकारी छात्रसंघ नहीं चाहता है. सच तो यह है कि वे कोई यूनियन नहीं चाहते हैं, चाहे वह शिक्षक संघ हो या कर्मचारी संघ या फिर छात्र संघ. लेकिन विश्वविद्यालय अधिकारी इनमें से भी सबसे अधिक छात्रसंघ से ही चिढते हैं. वे इस चिढ को छुपाते भी नहीं हैं.
उनका आरोप है कि छात्रसंघ परिसरों में गुंडागर्दी, अराजकता, तोड़फोड़, जातिवाद, क्षेत्रवाद और अशैक्षणिक गतिविधियों के केन्द्र बन जाते हैं जिससे पढाई-लिखाई के माहौल पर असर पड़ता है. उनकी यह भी शिकायत है कि इससे परिसरों में राजनीतिकरण बढ़ता है जिसके कारण छात्रों, शिक्षकों और कर्मचारियों में गुटबंदी, खींच-तान और संघर्ष शुरू हो जाता है जो शैक्षणिक वातावरण को बिगाड़ देता है.
ऐसा नहीं है कि इन आरोपों और शिकायतों में दम नहीं है. निश्चय ही, पिछले कुछ दशकों में छात्र राजनीति से समाज और व्यवस्था में बदलाव के सपनों, आदर्शों, विचारों और संघर्षों के कमजोर पड़ने के साथ अपराधीकरण, ठेकेदारीकरण, अवसरवादीकरण और साम्प्रदायिकीकरण का बोलबाला बढ़ा है और उसके कारण छात्रसंघों का भी पतन हुआ है. इससे आम छात्रों की छात्रसंघों और छात्र राजनीति से अरुचि भी बढ़ी है. इस सच्चाई को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता है कि अधिकांश परिसरों में इन्हीं कारणों से आम छात्र, शिक्षक और कर्मचारी भी छात्र राजनीति और छात्रसंघों के खिलाफ हो गए हैं.
विश्वविद्यालयों के अधिकारियों ने इसका ही फायदा उठाकर परिसरों में छात्र राजनीति और छात्रसंघों को खत्म कर दिया है. लेकिन सवाल यह है कि छात्र राजनीति और छात्रसंघों के यह पतन क्यों और कैसे हुआ और उसके लिए जिम्मेदार कौन है? क्या इसमें मोरल हाई ग्राउंड लेनेवाले राजनेताओं, अफसरों और विश्वविद्यालयों के अधिकारियों की कोई भूमिका नहीं है?
सच यह है कि छात्र राजनीति को भ्रष्ट, अवसरवादी, विचारहीन और गुंडागर्दी का अखाडा बनाने की सबसे अधिक जिम्मेदारी कांग्रेस, भाजपा और मुख्यधारा के अन्य राजनीतिक दलों के जेबी छात्र संगठनों- एन.एस.यू.आई, ए.बी.वी.पी, छात्र सभा, छात्र जनता आदि की है.
यही नहीं, इन छात्र संगठनों और उनके नेताओं को विश्वविद्यालयों के अधिकारियों और कुलपतियों ने भी भ्रष्ट बनाया ताकि उनके भ्रष्टाचार और अनियमितताओं पर छात्रसंघ उंगली न उठाएं. उत्तर प्रदेश के कई विश्वविद्यालयों के अनुभव के आधार पर दावे के साथ कह सकता हूँ कि छात्र राजनीति और छात्रसंघों को भ्रष्ट और पतित बनाने में विश्वविद्यालयों के भ्रष्ट अफसरों की बहुत बड़ी भूमिका रही है जिन्होंने छात्रसंघ पदाधिकारियों को “खिलाओ-पिलाओ, भ्रष्ट बनाओ, बदनाम करो और निकाल फेंको” की रणनीति का शिकार बनाया.
इस रणनीति के तहत छात्रसंघ पदाधिकारियों को अफसरों ने ही पैसे खिलाए, उनकी गुंडागर्दी को अनदेखा किया, उन्हें मनमानी करने की छूट दी, फिर इन सबके लिए उन्हें छात्रों के बीच बदनाम करना शुरू किया और जब यह लगा कि ये नेता विद्यार्थियों में खलनायक बन गए हैं तो उन्हें दूध से मक्खी की तरह निकाल फेंका.
असल में, वे इसलिए सफल हुए क्योंकि छात्र राजनीति के एजेंडे से जब बड़े सपने, लक्ष्य, आदर्श, विचार और संघर्ष गायब हो गए तो छात्र संगठनों और छात्र नेताओं को भ्रष्ट बनाना आसान हो गया. लेकिन ऐसा नहीं है कि छात्रसंघों के खत्म हो जाने के बावजूद परिसरों में रामराज्य आ गया है. उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश को ही लीजिए जहां बी.एच.यू में १९९७ और अन्य विश्वविद्यालयों में पिछले तीन-चार सालों से छात्रसंघों के चुनाव नहीं हो रहे हैं. सच्चाई यह है कि छात्रसंघों के खत्म होने के बाद से इन विश्वविद्यालयों ने न तो शैक्षणिक श्रेष्ठता का कोई रिकार्ड बनाया है और न ही वहां भ्रष्टाचार और अनियमितताएं खत्म हो गई हैं.
हकीकत यह है कि अधिकांश विश्वविद्यालयों में शैक्षणिक जड़ता इस कदर हावी है कि वहां पढाई-लिखाई के अलावा बाकी सब कुछ हो रहा है. दरअसल, छात्रसंघों और छात्र राजनीति को शैक्षणिक पतन का कारण बताने का यह तर्क सच्चाई और तथ्यों को सिर के बल खड़ा करने की तरह है. बिहार के किसी भी विश्वविद्यालय में पिछले २५ वर्षों से छात्रसंघ नहीं है लेकिन इससे क्या वहां के विश्वविद्यालय शैक्षणिक नव जागरण के केन्द्र बन गए हैं?
तथ्य यह है कि जे.एन.यू, दिल्ली आदि देश के कई बेहतरीन विश्वविद्यालयों में छात्रसंघ हैं और वे वहां के शैक्षणिक वातावरण के अनिवार्य हिस्से हैं. उनके होने से इन परिसरों में बौद्धिक बहस और विचार-विमर्श का ऐसा माहौल बना रहता है जिससे राजनीतिक और बौद्धिक रूप से सचेत नागरिकों की नई पीढ़ी तैयार करने में मदद मिलती है.
यहां यह कहना जरूरी है कि परिसरों में छात्र राजनीति और छात्रसंघों का होना न सिर्फ जरूरी है बल्कि इसे संसद से कानून पारित करके अनिवार्य किया जाना चाहिए. आखिर विश्वविद्यालयों और कालेजों के संचालन में छात्रों की भागीदारी क्यों नहीं होनी चाहिए? दूसरे, छात्रों के राजनीतिक प्रशिक्षण में बुराई क्या है? क्या उन्हें देश-समाज के क्रियाकलापों में हिस्सा नहीं लेना चाहिए?
कल्पना कीजिये, अराजनीतिक छात्र-युवाओं की जो कल देश के नागरिक होंगे, वे कैसा लोकतंत्र बनाएंगे? इन अराजनीतिक छात्र-युवाओं की आज छात्र राजनीति से चिढ कल अगर आम राजनीति से चिढ़ में बदल जाए तो क्या होगा? साफ है कि छात्रसंघों और छात्र राजनीति का विरोध वास्तव में, न सिर्फ अलोकतांत्रिक बल्कि तानाशाही की वकालत है.
वास्तव में, आज अगर विश्वविद्यालयों डिग्रियां बांटने का केन्द्र बनाने के बजाय देश में बदलाव और शैक्षणिक पुनर्जागरण का केंद्र बनाना है तो उसकी पहली शर्त परिसरों का लोकतंत्रीकरण है. इसका मतलब सिर्फ छात्रसंघ की बहाली नहीं बल्कि विश्वविद्यालय के सभी नीति-निर्णयों में भागीदारी है. इसके लिए जरूरी है कि सिर्फ शिक्षकों और कर्मचारियों ही नहीं, छात्रों को भी विश्वविद्यालय के नीति निर्णय करनेवाले सभी निकायों में पर्याप्त हिस्सेदारी दी जाए. आखिर विश्वविद्यालयों की शैक्षणिक बेहतरी में सबसे ज्यादा स्टेक और हित छात्रों के हैं, इसलिए उनके संचालन में छात्रों की भागीदारी सबसे अधिक होनी चाहिए. इससे परिसरों के संचालन की मौजूदा भ्रष्ट नौकरशाह व्यवस्था की जगह पारदर्शी, उत्तरदायित्वपूर्ण और भागीदारी आधारित व्यवस्था बन सकेगी.
जैसाकि भारतीय पुनर्जागरण के कविगुरु टैगोर ने कहा था, “जहां दिमाग बिना भय के हो, जहां सिर ऊँचा हो, जहां ज्ञान मुक्त...उसी स्वतंत्रता के स्वर्ग में, मेरे प्रभु मेरा देश (या विश्वविद्यालय) आँखें खोले.” इस स्वतंत्रता के बिना परिसरों में सिर्फ पैसा झोंकने या उन्हें पुलिस चौकी बनाने या विदेशी विश्वविद्यालयों के सुपुर्द करने से बात नहीं बननेवाली नहीं है. क्या राहुल गांधी इसके लिए तैयार हैं? क्या वे छात्रसंघों को कानूनी रूप से अनिवार्य बनाने के लिए संसद में कानून पारित करवाने की पहल करेंगे?
- आनंद प्रधान
साभार : तीसरा रास्ता http://teesraraasta.blogspot.com/2010/11/blog-post_20.html
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