जुलाई 26, 2011

देशी विश्वविद्यालयों की कब्र पर विदेशी विश्वविद्यालयों की ईमारत


विदेशी नहीं, देशी विश्वविद्यालयों से ज्ञान महाशक्ति बनने का ख्वाब होगा पूरा

पता नही, मनमोहन सिंह सरकार के कैबिनेट मंत्रियों ने विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में अपने परिसर खोलने की इजाजत देनेवाले विधेयक को मंजूरी देते समय बी.बी.सी की वह खबर पढ़ी थी या नहीं जिसके मुताबिक ब्रिटेन में विश्वविद्यालयों की ऊंची फ़ीस चुकाने के लिए विद्यार्थी देह व्यापार करने से लेकर पोर्न फिल्मों में काम करने को मजबूर हो रहे हैं. बी.बी.सी की एक ताजा रिपोर्ट के अनुसार ब्रिटेन के किंग्स्टन विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर रान रोबर्ट्स के सर्वेक्षण में एक चौंकानेवाला तथ्य सामने आया है कि ब्रिटेन में उच्च शिक्षा के भारी खर्चों को उठाने के लिए लगभग 25 फीसदी विद्यार्थियों को देह व्यापार में उतरने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है. दस वर्षों पहले तक ऐसे विद्यार्थियों की संख्या सिर्फ तीन प्रतिशत थी. साफ है कि पिछले डेढ़-दो दशकों में ब्रिटेन में उच्च शिक्षा में सुधार के नाम पर जिस तरह से खुले बाजारीकरण को बढ़ावा दिया गया है, उसके कारण आम विद्यार्थियों के लिए उच्च शिक्षा का बढ़ता खर्च उठाना दिन पर दिन मुश्किल होता जा रहा है.


ब्रिटेन ही नहीं, अमेरिका में भी हालात कुछ खास बेहतर नहीं हैं. अमेरिकी कालेज बोर्ड की एक रिपोर्ट के मुताबिक अमेरिका में स्नातक की डिग्री हासिल करनेवाले दो-तिहाई छात्रों पर औसतन 20 हजार डालर का शिक्षा कर्ज होता है जबकि उनमें से 10 फीसदी 40 हजार डालर से अधिक के कर्ज में डूबे होते हैं. याद रहे यह सिर्फ कालेज/विश्वविद्यालयों की ऊंची फीसों को चुकाने के लिए लिया गया कर्ज है. इसमें अन्य खर्चे शामिल नहीं हैं. दोहराने की जरूरत नहीं है कि अमेरिका और ब्रिटेन ही नहीं, अधिकांश विकसित पूंजीवादी देशों में लगातार महंगी होती उच्च शिक्षा आम विद्यार्थियों के बूते से बाहर होती जा रही है. यह भारत जैसे विकासशील देशों के लिए एक सबक है जहां सरकार और नीति-निर्माताओं को लगता है कि उच्च शिक्षा के क्षेत्र में उनकी सभी समस्याओं का हल अमेरिकी और पश्चिमी उच्च शिक्षा व्यवस्था की आंख मूंदकर नक़ल करना है.


जाहिर है कि यू.पी.ए सरकार भी इसकी अपवाद नहीं है जिसे लग रहा है कि विदेशी विश्वविद्यालयों के आने से देश में उच्च शिक्षा में क्रांति हो जाएगी. विदेशी शिक्षा प्रदाता विधेयक लाने के लिए दिन-रात एक करनेवाले मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल को विश्वास है कि,"विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए देश में आने का दरवाजा खोलना टेलीकाम क्रांति से भी बड़ी क्रांति साबित होगी." विदेशी विश्वविद्यालयों के पक्ष में सिब्बल का सबसे बड़ा तर्क यह है कि इससे उच्च शिक्षा के क्षेत्र में प्रतियोगिता को बढ़ावा मिलेगा और नतीजे में देशी विश्वविद्यालयों की गुणवत्ता में भी सुधार होगा. इससे उच्चस्तरीय शोध और शिक्षण का माहौल बनेगा. सिब्बल का यह भी तर्क है कि विदेशी विश्वविद्यालयों के आने से उन विद्यार्थियों को फायदा होगा जो धन की कमी के कारण बेहतर और गुणवत्तापूर्ण उच्च शिक्षा हासिल करने के लिए विदेश नहीं जा पाते हैं. उन्हें विदेशी विश्वविद्यालयों की डिग्री विदेशों की तुलना में आधी या एक चौथाई फ़ीस में देश में ही मिल जाएगी.


लेकिन लगता है कि सिब्बल मुंगेरीलाल के हसीन सपनो में जी रहे हैं. पहली बात तो यह है कि विदेशी विश्वविद्यालयों को अनुमति देने के बावजूद इस बात की संभावना बहुत कम है कि दुनिया के बेहतरीन ५० विश्वविद्यालयों में से कोई विश्वविद्यालय भारत में अपना परिसर खोलने आएगा. इन विश्वविद्यालयों में से अधिकांश ने अपने देश में ही अपने दूसरे परिसर नहीं खोले हैं. असल में, विश्वविद्यालय खोलने और फैक्टरी खोलने में फर्क है. विश्वविद्यालय फैक्टरी नहीं हैं कि उन्हें कहीं से उठाया और कहीं शुरू कर दिया. भूलिए मत कि अधिकांश विश्वविद्यालय एक दिन में नहीं बल्कि अपनी खास ऐतिहासिक परिस्थितियों में बने और फले-फूले हैं. अच्छा होता अगर सिब्बल साहब ने इस बारे में यशपाल समिति की रिपोर्ट को ध्यान से पढ़ा होता. रिपोर्ट में कहा गया है कि ‘यह बात याद रखी जानी चाहिए कि विश्वविद्यालय अपने सामाजिक, सांस्कृतिक और भौगोलिक परिस्थितियों के साथ जीवंत संबंधों के बीच विकसित होते हैं और उनमें से सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालय को भी किसी और जगह प्रत्यारोपित करके उतना ही बेहतर प्रदर्शन करने की अपेक्षा नहीं की जा सकती है. किसी विश्वविद्यालय की खास पहचान उसके पाठ्यक्रमों से ही नहीं बल्कि उसकी भौतिक उपस्थिति से भी होती है.’


साफ है कि बेहतरीन से बेहतरीन विश्वविद्यालय के भी भारत में परिसर खोलने का अर्थ यह नहीं होगा कि रातोंरात देश में एक नया ऑक्सफोर्ड या कैम्ब्रिज या हार्वर्ड बन जायेगा. कहने की जरूरत नहीं है कि इस सच्चाई को बड़े और बेहतर विदेशी विश्वविद्यालय भी जानते हैं. वे हरगिज नहीं चाहेंगे कि दशकों में बना उनका ब्रांड दूसरे या तीसरे दर्जे के विदेशी परिसर के कारण खतरे में पड़ जाये. इसीलिए इनमें से अधिकांश भारत में परिसर खोलने को लेकर बहुत उत्साहित नहीं हैं. ऐसी स्थिति में खतरा यह है कि विदेशी विश्वविद्यालयों के नाम पर दूसरे और तीसरे दर्जे के संस्थान और विश्वविद्यालय शिक्षा का व्यापार करने के इरादे से देश में न आने लगें. हालांकि सरकार यह दावा कर रही है कि वह विदेशी विश्वविद्यालयों को मुनाफा कमाकर वापस अपने देश नहीं ले जाने देगी लेकिन दूसरी ओर, वह मुनाफा बाहर ले जाने का चोर दरवाजा भी खोल रही है. इन विश्वविद्यालयों को कंसल्टेंसी आदि के जरिये कमाई गई रकम वापस ले जाने की अनुमति होगी. भारत में विनियामक और नियंत्रक संस्थाओं/एजेंसियों की मौजूदा स्थिति को देखते हुए सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि इस चोर दरवाजे कमाई निकल ले जाना कितना आसान होगा.


इसीलिए इस आशंका को बल मिल रहा है कि विदेशी विश्वविद्यालयों के नाम पर भारतीयों के एक हिस्से में विदेशी डिग्री के प्रति विशेष मोह को भुनाने के लिए दूसरे और तीसरे दर्जे के विदेशी संस्थान या विश्वविद्यालय शिक्षा की दुकानें खोलने और मुनाफा कमाने उतर पड़ेंगे. खासकर रोजगार दिलाने का वायदा करनेवाले कथित व्यावसायिक पाठ्यक्रमों की बाढ़ सी आ जायेगी जिनमें मनमानी फ़ीस वसूलने के बावजूद गुणवत्ता की कोई गारंटी नहीं होगी. इस मामले में, भारत और दुनिया के अन्य देशों के अभी तक के अनुभवों से भी स्पष्ट है कि विदेशी विश्वविद्यालयों के नाम पर अधिकतर तीसरे दर्जे के विश्वविद्यालय ही मुनाफा कमाने के इरादे से परिसर खोलने आते हैं. यही नहीं, यू.पी.ए सरकार ने विदेशी विश्वविद्यालय विधेयक में इन विश्वविद्यालयों को उन राष्ट्रीय कानूनों और सामाजिक दायित्व की जिम्मेदारियों से भी बाहर रखा है जो देशी विश्वविद्यालयों पर लागू होते हैं. उन्हें अपनी फ़ीस तय करने से लेकर पाठ्यक्रम/शिक्षक/छात्र आदि चुनने और उनकी सेवा शर्तों को निश्चित करने का अधिकार होगा.

आखिर क्यों? क्या विदेशी विश्वविद्यालयों को आमंत्रित करना इतना जरूरी हो गया है कि उनके लिए देशी कानूनों को भी परे रख दिया जाए? क्या विदेशी विश्वविद्यालयों के बिना उच्च शिक्षा की समस्याएं हल नहीं होंगी? सच यह है कि सरकार की उच्च शिक्षा की समस्याएं हल करने में कोई दिलचस्पी नहीं है. वह न सिर्फ अपनी जिम्मेदारी से भाग रही है बल्कि उच्च शिक्षा को देशी-विदेशी निजी संस्थानों के हवाले करने की पेशकश कर रही है. अगर सरकार की उच्च शिक्षा को बेहतर बनाने में सचमुच दिलचस्पी होती तो वह विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए उनकी शर्तों पर देश के दरवाजे खोलने के बजाय देशी विश्वविद्यालयों को अंतर्राष्ट्रीय स्तर का बनाने के लिए ईमानदारी से प्रयास करती. देश के सैकड़ों विश्वविद्यालय सरकारी उपेक्षा और लापरवाही के कारण बर्बाद हो रहे हैं. क्या सरकार देशी विश्वविद्यालयों की कब्र पर विदेशी विश्वविद्यालयों की इमारतें खड़ी करने की तयारी कर रही है?


यहाँ चीन का उल्लेख करना प्रासंगिक होगा जिसका आजकल हर बात में उदाहरण दिया जाता है. चीन ने विदेशी विश्वविद्यालयों को बुलाने के बजाय अपने देशी विश्वविद्यालयों को वैश्विक स्तर का बनाने के लिए पिछले कुछ वर्षों में योजनाबद्ध प्रयास किया है. उसने अपने विश्वविद्यालयों को अरबों डालर के संसाधन मुहैया कराए हैं और उसी का नतीजा है कि चीन में आज एक दर्जन से भी अधिक ऐसे विश्वविद्यालय हैं जो दुनिया के सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों की सूची में शामिल हैं और अनेकों विश्वविद्यालय उस दिशा में बढ़ रहे हैं. याद रखिये, उधार के ज्ञान की सीमा होती है. उधार के ज्ञान पर दुनिया का कोई देश विश्व की महाशक्ति नहीं बना है. अगर देश सचमुच ज्ञान महाशक्ति बनना चाहता है तो उसे बाहर नहीं, देश के अंदर पटना, इलाहबाद, लखनऊ और गोरखपुर जैसे देशी विश्वविद्यालयों की सुध लेनी पड़ेगी
- आनंद प्रधान
साभार : तीसरा रास्ता .

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