जंग-ए-आज़ादी में अहम् रोल निभाया था AISF ने ......
आल इण्डिया स्टूडेन्ट्स फेडरेशन भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन का बेहद गौरवमयी और प्रेरणाप्रद हिस्सा है। ए0आई0एस0एफ0 भारतीय स्वाधीनता संग्राम का वह भाग है जिसके माध्यम से देश के छात्र समुदाय ने आज़ादी की लड़ाई में अपने संघर्षों और योगदान की अविस्मरणीय कथा लिखी। भारतीय इतिहास में छात्रांे के इस गौरवशाली संघर्ष गाथा का सफर 19वीं सदी से आरम्भ होकर आज़ाद भारत के तमाम उतार-चढ़ावांे से होते हुए 21वीं सदी के वर्तमान पड़ाव तक पहुँचता है
भारतीय छात्र आन्दोलन का संगठित रूप 1828 में सबसे पहले कलकत्ता में एकेडमिक एसोसिएसन के नाम से दिखाई देता है, जिसकी स्थापना एक पुर्तगाली छात्र विवियन डेरोजियों द्वारा की गई। एकेडमिक एसोसिएसन देश का पहला छात्र संगठन था जिसने सामंतवाद विरोधी, स्वतंत्रता, प्रगति और आधुनिकता जैसे विचारों के प्रचार-प्रसार का काम किया। एकेडमिक एसोसिएसन के पश्चात दूसरा संगठित रूप 1840 से 1860 के मध्य यंग बंगाल मूवमेंट के रूप में दिखाई पड़ता है। यंग बंगाल मूवमेंट ने बंगाल के सामाजिक और राजनैतिक जीवन पर गहरा प्रभाव छोड़ा। इसके बाद भी छात्र संगठनों के रूप में छोटी और लगातार कोशिशंे दिखाई पड़ती हैं। इन सबके अलावा छात्र संगठन के रूप में दूसरी महत्वपूर्ण कोशिश 1948 में दादा भाई नौरोजी की पहल पर मुम्बई में स्टूडेन्ट्स लिटरेरी और साइंटिफिक सोसायटी के रूप में जान पड़ती है। कलकत्ता के आनन्द मोहन बोस और सुरेन्द्र नाथ बनर्जी द्वारा 1876 में स्थापित स्टूडेन्ट्स एसोसिएसन संभवतः 19वीं सदी का सबसे महत्वपूर्ण संगठन था। इस संगठन के नेतृत्व ने संगठन बनाने के लिए पहली बार जनसभाओं एवं जनान्दोलनों का सहारा लिया इसके अलावा इस संगठन ने 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना में विशेष एवं महती भूमिका अदा की। इन कुछ महत्वपूर्ण कोशिशांे के अलावा भी देश के कई अन्य भागों में युवा एवं छात्र संगठनों और छात्र आन्दोलनों की पहल अनेक छात्र नेताओं द्वारा की गई।
19वीं सदी का अन्तिम दशक और 20वीं सदी का शुरुआती दौर काफी घटना प्रधान समय था। विशेषतौर पर शिक्षा के प्रसार के लिए कई काम किए जा रहे थे, जहाँ बम्बई विश्वविद्यालय, मद्रास विश्वविद्यालय, कलकत्ता विश्वविद्यालय और इलाहाबाद विश्वविद्यालय की स्थापना हो चुकी थी तो वहीं कई काॅलेज और विद्यालयों की स्थापना भी इस दौर में हो रही थी। माध्यमिक और उच्चतर शिक्षा लेने वाले छात्रों की संख्या जहाँ दो लाख थी, स्नातक और स्नातकोत्तर स्तर पर 14 हजार से भी अधिक छात्र शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। एक प्रकार से यह वह समय था जब छात्र आन्दोलन और संगठनों के लिए भौतिक परिस्थितियाँ धीरे -धीरे तैयार हो रही थीं। 20वीं सदी के शुरुआती दशक की परिस्थितियाँ छात्र आन्दोलनों और संगठनों के लिए बेहद उपयुक्त थीं। बंगाल विभाजन ने जहाँ देश की राजनीति पर एक अमिट छाप छोड़ी तो वहीं छात्र एवं युवा भी इस घटना से उद्वेलित और आन्दोलित हुए बिना नहीं रह सके। 1902 में स्थापित डान सोसायटी इस दौर का बेहद प्रभावशाली संगठन था। इंडियन यूनिवर्सिटीज कमीशन की एक रिपोर्ट प्रकाशित होने के बाद छात्र और शिक्षाविदों ने मिलकर 1902 में इस संगठन की स्थापना की। शिक्षा के लिए सबसे पहले स्वदेशी संस्थानों की माँग करने वाले इस संगठन ने ही भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में स्वदेशी और बंग भंग विरोध का आधार तैयार किया। 16 अक्टूबर 1905 में बंगाल का विभाजन हो गया। विभाजन के विरोध स्वरूप देश भर में बंग भंग विरोधी एक आन्दोलन उठ खड़ा हुआ। प्रतिरोध की इस आग के कारण छात्र समुदाय में भी एक जबरदस्त विरोध का उभार दिखाई दिया। इसी विरोध के परिणाम स्वरूप विदेशी वस्तुओं और वस्त्रों के बहिष्कार और स्वदेशी के इस्तेमाल और स्वदेशी शिक्षा की माँग को लेकर देश भर में स्वदेशी आन्दोलन की शुरुआत हुई। बंग भंग विरोध एवं स्वदेशी आन्दोलन भारत का पहला बड़ा छात्र-युवा आन्दोलन था, जिसमें कुछ दूसरे तबकों ने भी भाग लिया। इस आन्दोलन ने भारत के इतिहास में गहरा प्रभाव छोड़ा जिस कारण बाद के वर्षों में कई संगठनो और आन्दोलनांे ने जन्म लिया और इस आन्दोलन का फैलाव भी देश के अन्य भागों में होना शुरू हुआ। यह दौर छात्र समुदाय की संख्या में उतारोतर बढ़ोत्तरी के साथ ही छात्रांे की राजनैतिक गतिविधियों में भी गुणात्मक और मात्रात्मक उभार का था। छात्रों के संगठित होने की इसी कड़ी में 1906 में पटना में बिहारी स्टूडेन्ट्स सेन्ट्रल एसोसिएशन की स्थापना राजेन्द्र प्रसाद की पहल पर हुई। राजेन्द्र प्रसाद आगे चलकर आज़ाद भारत के पहले राष्ट्रपति बने। बिहारी स्टूडेन्ट्स सेन्ट्रल एसोसिएशन ने बिहार के सभी जिलों में अपनी शाखाएँ स्थापित करने के साथ ही कलकत्ता और बनारस तक भी संगठन का फैलाव किया। इस संगठन की स्थापना कोई अस्थायी घटना नहीं थी, यह संगठन 1921 के बाद तक भी संगठन के सम्मेलन नियमित रूप से आयोजित करता रहा और इसके अलावा 1908 में बिहार में कांग्रेस की स्थापना में भी इस छात्र संगठन की महती भूमिका रही।
एनी बेसेंट ने 1908 में बनारस से सेन्ट्रल हिन्दू कॉलेज नामक पत्रिका का प्रकाशन प्रारम्भ किया। जिसमें उन्होंने कई बार एक अखिल भारतीय छात्र संगठन की आवश्यकता पर बल दिया।
एनी बेसेंट की इन्हीं कोशिशों के कारण देश के शिक्षित हिस्से, छात्र, अध्यापक और राजनेताओं में अखिल भारतीय छात्र संगठन की जरूरत पर चर्चा होना शुरू हो गई। इन्हीं चर्चाओं के चलते 1917 में रूसी क्रान्ति हो गई जिसके कारण दुनिया में माक्र्सवादी विचारों का तेजी से प्रचार-प्रसार होना शुरू हो गया। समाजवाद के इस प्रचार ने दुनिया के स्वतंत्रता आन्दोलनांे पर गहरा प्रभाव छोड़ा तो वहीं दूसरी तरफ ब्रिटिश साम्राज्यवाद के संकटों को भी बढ़ाया। भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन में भी इन बदली हुई परिस्थितियों के कारण तेजी देखने में आई। भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के क्षितिज पर कई क्रान्तिकारी और जनाधार वाले नेताओं का उदय हुआ इनमें तिलक, महात्मा गांधी, लाला लाजपत राय, जवाहर लाल नेहरू और सुभाष चन्द्र बोस प्रमुख नाम थे। इसके साथ ही समाजवादी और वामपंथी विचारांे के फैलाव में भी तेजी आई। इसी के साथ 1919-20 में कई शहरों और प्रांतों में छात्र सम्मेलनों का आयोजन किया गया। यह असहयोग-आन्दोलन की तैयारियों का समय था। अन्त में दिसम्बर 1920 में कांग्रेस अधिवेशन के मौके पर एक अखिल भारतीय स्तर के छात्र सम्मेलन के आयोजन पर सहमति बनी। जिसके कारण 25 दिसम्बर 1920 को नागपुर में आॅल इंडिया काॅलेज स्टूडेन्ट्स काॅन्फ्रेंस का आरम्भ हुआ। इस सम्मेलन की स्वागत समिति के अध्यक्ष आर0 जे0 गोखले थे और इसका उद्घाटन लाला लाजपत राय ने किया। इस सम्मेलन में निर्णय लिया गया कि सभी छात्र असहयोग-आन्दोलन और स्वदेशी आन्दोलन में बढ़ चढ़कर भाग लेंगे। यह देश का पहला अखिल भारतीय स्तर का छात्र सम्मेलन था। इस पहल की खबर पूरे देश में तेजी से फैली और इसने छात्रांे के अन्दर एक नई तरह की राजनैतिक समझदारी और उत्साह का संचार किया। इस संगठन के कम से कम पंच सम्मेलन आयोजित किए गए और संगठन के तौर पर इस पहल ने कुछ वर्षांे तक सक्रियता के साथ काम किया।
1920 से 1935 के बीच का समय काफी घटना प्रधान था। इस दौरान देश में बड़े स्तर पर विद्याालयों और महाविद्यालयों की भी स्थापना हुई। छात्र समुदाय की संख्या में लगभग तीन गुना बढ़ोत्तरी 20वीं सदी की शुरुआत से अब तक हो चुकी थी। यह देश में एक मजबूत छात्र आन्दोलन के लिए भौतिक परिस्थितियाँ और आधार तैयार होने की प्रक्रिया थी। बड़ी संख्या के साथ ही देश की आजादी के संघर्षो में भी अब छात्रांे की एक महत्वपूर्ण भूमिका दिखाई दे रही थी। छात्र समुदाय अब राष्ट्र के सार्वजनिक जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था। इसी के साथ नए-नए छात्र संगठनों के बनने की प्रक्रिया तेज हो रही थी। इसी दौर में 1928-30 के मध्य देश में यूथ लीग मूवमेंट नामक एक संगठन का निर्माण कुछ छात्र युवाआंे ने मिलकर किया। इस संगठन ने छात्रों और युवाओं के मध्य क्रान्तिकारी विचारांे का तेजी से प्रचार किया। यह संगठन छात्र, युवाओं के मध्य वामपंथी और माक्र्सवादी विचारों को ले जाने का वाहक बनकर उभरा। सोवियत रूसी क्रान्ति के प्रभाव से देश में छात्रों और युवाओं ने एक नई क्रान्तिकारी विचारधारा की राह प्रशस्त की। देश में समाजवादी क्रान्ति का शुरुआती सपना बुनने वालों में जवाहर लाल नेहरू, यूसुफ मैहर अली, सुभाष चन्द्र बोस और पूरन चन्द्र जोशी प्रमुख नाम थे। इस संगठन ने काॅलेज, स्कूल, गली मोहल्लों और बस्तियों के स्तर पर देशभर में संगठन की स्थापना की तथा लगातार पत्र पत्रिकाएँ प्रकाशित करके भी एक देशव्यापी छात्र संगठन के भविष्य की नींव रखी। छात्र आन्दोलनों की इसी कड़ी में पूरे देश में लगातार अलग-अलग प्रांतों में छात्र सम्मेलनों का आयोजन होता रहा। 1928 में कलकत्ता में पं0 जवाहर लाल नेहरू की अध्यक्षता में एक आॅल इण्डिया सोशलिस्ट यूथ कांफ्रेंस का आयोजन किया गया तो वहीं 1929 में लाहौर में मदन मोहन मालवीय के नेतृत्व में आल इण्डिया स्टूडेन्ट्स कंवेंशन का भी आयोजन किया गया, 1920-30 के मध्य पूरे देश के सभी प्रांतो में मानो छात्र संगठनो, सम्मेलनों और छात्र संघों की बाढ़ सी आ गई थी। लगातार छात्र संगठनों के बनने की ये घटनाएँ दरअसल एक अखिल भारतीय छात्र संगठन की जरुरतांे और उसके बनने की प्रक्रिया को रेखांकित कर रही थीं। पंजाब, बिहार, यूपी, मद्रास, कलकत्ता, इलाहाबाद, आसाम, बंगाल, लाहौर और सिंन्ध सभी जगह छात्र संगठन बन रहे थे जिनमें से अधिकतर का विलय आगे चलकर ए0आई0एस0एफ0 में हो गया। इनमें से कई संगठनों का किसी राजनैतिक धारा से जुड़ाव था तो कई बिल्कुल अराजनैतिक एवं स्वतंत्र संगठन थे।इसी क्रम में आगे चलकर 26, मार्च 1931 को कराँची में पं0 जवाहर लाल नेहरू की अध्यक्षता में एक अखिल भारतीय छात्र सम्मेलन का आयेजन किया गया। इस सम्मेलन में देशभर से 700 प्रतिनिधियों ने भाग लिया परन्तु किसी कारणवश यह एक अखिल भारतीय छात्र संगठन का रूप धारण नहीं कर पाया।
ए0आई0एस0एफ0 की स्थापना की कहानी भी बेहद दिलचस्प है। संयुक्त प्रांत (यूपी) के उस समय के गवर्नर सर मालकाम हैली उस समय के युवा छात्र संगठन के उभार को लेकर काफी फिक्रमंद थे। उनकी कोशिश थी कि छात्रों के असंतोष से बनने वाले किसी प्रभावी छात्र संगठन से पहले सरकार की ओर से कोई आधिकारिक ढ़ाचा खड़ा किया जाए। इसके मद्देनजर इलाहाबाद, बनारस, आगरा, अलीगढ़ और लखनऊ के छात्रों की एक बैठक लखनऊ विश्वविद्यालय के उप कुलपति द्वारा बुलाई गई। परन्तु यह कोशिश ब्रिटिश अधिकारियों को भारी पड़ी। राष्ट्रवादी छात्रों ने बैठक और उसकी कार्यवाही को अपने कब्जे में ले लिया। एम0 बदयँूद्दीन, पी0एन0 भार्गव, शफी नकवी, जमाल अहमद किदवई और जगदीश रस्तोगी सरीखे छात्रों ने ब्रिटिश साम्राज्य की मंशाओं को ध्वस्त कर दिया। इस बैठक में जार्ज वी0 पर एक शोक प्रस्ताव लाया गया जिसके विरोध में उपर्युक्त छात्र ब्रिटिश कम्युनिस्ट नेता एवं सांसद सापुरजी सकतवाला की मृत्यु पर एक शोक प्रस्ताव लेकर आ गए। परन्तु उपकुलपति ने शोक प्रस्ताव में सकतवाला के नाम जोड़े जाने का मुखर विरोध किया। छात्रों के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्यवाही करने की धमकी भी दी गई यहाँ तक कि तीन छात्रों को विश्वविद्यालय से निलंबित भी कर दिया गया। बावजूद इस घटनाक्रम के बैठक का 50 छात्रों ने बहिष्कार कर दिया। इसके बाद छात्र नेताओं ने निर्णय किया कि यदि फौरन एक अखिल भारतीय छात्र संगठन का निर्माण नहीं किया गया तो ब्रिटिश प्रशासन अपना कठपुतली छात्र संगठन खड़ा कर लेगा। परिणाम स्वरूप यू0पी0 विश्वविद्यालय छात्र फैडरेशन ने तुरन्त अपनी कार्यकारिणी की एक बैठक 23 जनवरी 1936 को बुलाकर निर्णय किया कि उन्हें तत्काल प्रभाव से एक अखिल भारतीय छात्र सम्मेलन बुलाना चाहिए अन्यथा ब्रिटिश सरकार ऐसी पहल करके एक सरकारी छात्र संगठन खड़ा कर देगी। अन्ततोगत्वा अखिल भारतीय सम्मेलन बुलाने की तारीख 12-13 अगस्त 1936 तय की गई। पी0 एन0 भार्गव की अध्यक्षता में प्रस्तावित सम्मेलन के लिए एक स्वागत समिति का गठन किया गया। इस स्वागत समिति की तर्ज पर यू0पी0 के सभी प्रमुख जिलो में भी तैयारी समितियों का गठन किया गया। इसके साथ ही देश के सभी छात्र संगठनो और कांग्रेस, सोशलिस्ट पार्टी और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी सहित सभी राजनैतिक धड़ांे से संपर्क करने का काम विधिवत शुरू हुआ। सम्मेलन की घोषणा ने देश भर में उत्साह का संचार कर दिया और सभी छात्र नेता और संगठन उत्साह पूर्वक सम्मेलन की तैयारियों में लग गए। सम्मेलन में बेहद जनवादी तरीके से नेतृत्व का चुनाव हुआ। सम्मेलन की प्रतिनिधि फीस एक रूपया थी।
ए0आई0एस0एफ0 का स्थापना सम्मेलन लखनऊ के सर गंगा राम मैमोरियल हाॅल में संपन्न हुआ। सम्मेलन में 936 प्रतिनिधियांे ने भाग लिया जिसमें 200 स्थानीय और शेष 11 प्रांतीय संगठनों के प्रतिनिधि थे। सम्मेलन में महात्मा गांधी, रवीन्द्र नाथ टैगोर, सर तेज बहादुर सप्रू और श्रीनिवास शास्त्री सरीखे गणमान्य व्यक्तियों के बधाई संदेश भी प्राप्त हुए। सभी विश्वविद्यालयों के प्रतिनिधित्व के साथ यह विद्यार्थियों की सबसे बड़ी गोलबंदी थी।
स्वागत समिति के अध्यक्ष के तौर पर पी0एन0 भार्गव ने स्वागत भाषण दिया और पं0 जवाहर लाल नेहरू के भाषण से सम्मेलन का उद्घाटन हुआ। अपने उद्घाटन भाषण में जवाहर लाल नेहरू ने तत्कालीन राजनैतिक परिस्थितियांे का विश्लेषण करते हुए छात्रों से आजादी का परचम उठाने का आह्वान किया। इसके अलावा अपने अध्यक्षीय भाषण में जिन्ना ने भी इस बात की खुशी जाहिर की कि देश के अलग-अलग जाति और समुदाय के लोग आज यहाँ पर एक साझे मकसद के लिए एकत्र हुए हैं। आजादी की लड़ाई में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेने के अलावा कई सवालों पर सम्मेलन द्वारा प्रस्ताव भी पारित किए गए।
ए0आई0एस0एफ0 के इस स्थापना सम्मेलन में पी0एन0 भार्गव पहले महासचिव निर्वाचित हुए। इसी के साथ स्टूडेन्ट्स ट्रिब्यून भी ए0आई0एस0एफ0 का पहला आधिकारिक मुखपत्र बना। ए0आई0एस0एफ0 का गठन एक ऐसी ऐतिहासिक घटना थी जिसने पूरे छात्र समुदाय में एक जोश के साथ परिपक्वता का संचार किया। ए0आई0एस0एफ0 का दूसरा सम्मेलन महज तीन महीने के अन्तराल पर ही 22 नवम्बर 1936 को लाहौर में संपन्न हुआ। इस सम्मेलन में ए0आई0एस0एफ0 का संविधान तैयार करने पर सहमति हुई। शरत चन्द्र बोस की अध्यक्षता में हुए दूसरे सम्मेलन में 150 प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया। शरत चन्द्र बोस ने अपने अध्यक्षीय भाषण में छात्रों को रूसी क्रान्ति से प्रेरणा लेने के लिए प्रेरित किया। सम्मेलन ने स्पेन में नाजी जर्मन की अनुचित दखलंदाजी के खिलाफ भी एक प्रस्ताव पारित किया। देश भर में चल रहे छात्र आंदोलनों के आधार पर ए0आई0एस0एफ0 ने छात्रांे का एक माँगपत्र भी लाहौर सम्मेलन में तैयार किया।
लाहौर सम्मेलन में एक ओर उल्लेखनीय घटना घटी। यहाँ पर कुछ मुस्लिम छात्रों द्वारा 1936 के अन्त में लखनऊ में एक आल इंडिया मुस्लिम छात्र सम्मेलन आयोजित किए जाने से संबंधित प्रस्ताव लाने की कोशिश की गई। परन्तु उन्हें मुस्लिम छात्रों का ही भारी विरोध झेलना पड़ा और उनकी योजना धराशायी हो गई। प्रतिनिधिया ने इस अलग संगठन के विचार के खिलाफ एक जनसभा का आयोजन किया। इस जनसभा में अलग मुस्लिम छात्र संगठन के विचार का भारी विरोध हुआ। यहाँ तक कि अली सरदार जाफरी इस विचार के विरोध में एक प्रस्ताव भी ले आए। इसके अलावा मौलाना अब्दुल कलाम आजाद और खान अब्दुल गफ्फार खान के संदेश भी सम्मेलन में पढ़े गए। जिसमें उन्होनें किसी भी मुस्लिम छात्र संगठन के विचार का विरोध करते हुए छात्रों से अधिक से अधिक संख्या में ए0आई0एस0एफ0 में शामिल होने का आह्वान किया। अलग मुस्लिम छात्र सम्मेलन के विचार को प्रतिपादित करने वाले इफि़्तख़ार हसन ने इसके पक्ष में कई तर्क दिए मगर उनकी बात को छात्रों ने एकदम खारिज कर दिया।
ए0आई0एस0एफ0 की स्थापना के बाद का समय
सम्मेलन की स्थापना के बाद 1936 और 1937 का साल छात्रों की अभूतपूर्व गतिविधियों और सक्रियता का दौर था। इन छात्र गतिविधियों को कुचलने के लिए फैजाबाद, कानपुर और अलीगढ़ में कई छात्रों को निलम्बित कर दिया गया। इस कार्यवाही ने छात्र आन्दोलन और उनकी गतिविधियों को और हवा दी जिससे लगातार धरने, प्रदर्शनों और छात्र हड़तालों का लम्बा सिलसिला शुरू हो गया। आन्दोलन की इस अविराम आँधी के बाद 1937 में होने वाले चुनावों में ए0आई0एस0एफ0 ने कांग्रेस का खुलकर समर्थन किया जिससे कांग्रेस को चुनावों में जीत हासिल हुई।
छात्र नेता रमेश चन्द्र सिन्हा और जे0जे0 भट्टाचार्य की गिरफ्तारी के विरोध में यू0पी0 के छात्रों ने विरोध प्रदर्शन किया। गिरफ्तारी का विरोध करते हुए और अपनी 37 सूत्री माँगों के लिए प्रदर्शन करते हुए 15 हजार छात्र उस समय के यू0पी0 के मुख्यमंत्री गोविन्द बल्लभ पन्त के निवास के सामने पहुँच गए। इसी तरह के छात्र आंदोलन कलकत्ता, मद्रास सहित देश के अन्य भागों में भी दिखाई दिए। स्टूडेन्ट्स फैडरेशन ने नवम्बर 1936 से अपने मुखपत्र स्टूडेन्ट्स ट्रिब्यून का प्रकाशन शुरू किया तो वहीं मुम्बई से स्टूडेन्ट्स काॅल और कलकत्ता से छात्र अभिजन का प्रकाशन शुरू हुआ। ए0आई0एस0एफ0 के गठन ने केवल भारत में ही नहीं विदेशों में शिक्षा ग्रहण कर रहे भारतीय छात्रों को भी संगठन बनाने के लिए प्रेरित किया। यूरोप में पढ़ने वाले छात्रों द्वारा 1937 में ऐसी ही एक कोशिश आॅक्सफोर्ड और कैम्ब्रिज मजलिस की पहल पर एक सम्मेलन के रूप में लंदन में हुई। इस सम्मेलन में दस ब्रिटिश विश्वविद्यालयों के अलावा कई छात्र संगठनांे एवं भारत से आए बिरादराना संगठनों के छात्र नेताओं ने हिस्सा लिया। यहाँ पर ब्रिटेन और आयरलैंड में शिक्षारत भारतीय छात्रों का एक फैडरेशन बनाने का निर्णय लिया गया इसके अलावा भारत में ए0आई0एस0एफ0 से संपर्क बनाने का भी फैसला हुआ।
तीसरा ए0आई0एस0एफ0 सम्मेलन
ए0आई0एस0एफ0 का तीसरा सम्मेलन 1938 में 1 से 3 जनवरी तक मद्रास में आयोजित किया गया। इस बीच ए0आई0एस0एफ0 का फैलाव दूर दराज के गाँवांे और कई प्रांतों में भी हुआ। ए0आई0एस0एफ0 के काम का फैलाव राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर तेजी से हुआ। तीसरे सम्मेलन ने अंसार हरवानी को महासचिव के तौर पर चुना।
चैथा सम्मेलन
ए0आई0एस0एफ0 एक व्यापक जनाधार वाले छात्र आंदोलन के रूप में उभर रहा था। ए0आई0एस0एफ0 का चैथा सम्मेलन 1 से तीन जनवरी 1939 को कलकत्ता में आयोजित किया गया। चालीस हजार से अधिक सदस्य छात्रों के प्रतिनिधि के रूप में देश भर से इस सम्मेलन में 800 छात्रों ने भाग लिया। इसके अलावा 1500 और छात्रों ने पर्यवेक्षक के रूप मंे सम्मेलन की तमाम कार्यवाही में भाग लिया। एम0एल0 शाह सम्मेलन में नए महासचिव चुने गए।
1939 में ए0आई0एस0एफ0 ने कई देशव्यापी आंदोलनों का नेतृत्व किया। उड़ीसा के मेडिकल छात्रों की माँगांे को लेकर राज्य में बडे़ अंादोलन की शुरुआत हुई जिसका बाद में देश भर में प्रभाव नजर आया। छात्रों ने प्रदर्शन, हड़ताल और सत्याग्रह जैसे विरोध के सभी तरीकों का प्रयोग किया। अन्ततोगत्वा प्रशासन को छात्रों की माँगों के समक्ष झुकना पड़ा। नाजीवाद और फासीवाद के बढ़ते खतरे के बीच 1 सितम्बर 1939 को दूसरे विश्वयुद्ध की शुरुआत हुई। ब्रिटिश सरकार ने बगैर भारतीय नेताआंे से मंत्रणा किए भारत के युद्ध में शामिल होने की घोषणा कर दी। अंग्रेजांे की इस घोषणा का पूरे देश में जोरदार विरोध हुआ और बम्बई के मजदूरों ने 2 अक्टूबर 1939 को ऐतिहासिक युद्ध विरोधी हड़ताल का आयोजन किया। इस ऐतिहासिक हड़ताल के समर्थन मंे छात्रों ने 8-9 अक्टूबर 1939 को नागपुर में एक बड़ी रैली और कन्वेंशन का आयोजन किया। इस रैली की अध्यक्षता सुभाष चन्द्र बोस और स्वामी सहजानन्द सरस्वती ने की।
पाँचवाँ सम्मेलन
विश्वयुद्ध की इसी छाया के बीच 1-2 जनवरी 1940 को ए0आई0एस0एफ0 का पाँचवाँ सम्मेलन दिल्ली में आयोजित किया गया। सम्मेलन ने युद्ध की कठोर शब्दों में निन्दा करते हुए 26 जनवरी को भारत का स्वतंत्रता दिवस मनाने का निर्णय किया। एम0एल0 शाह को फिर से संगठन का महासचिव निर्वाचित किया गया।
भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के नेताओं ने युद्ध के दौरान एक प्रोविजनल सरकार बनाने की माँग की जिसे ब्रिटिश सरकार ने खारिज कर दिया। इसके जवाब में ब्रिटिश सरकार 8 अगस्त 1940 को 1 अगस्त प्रस्ताव लेकर आ गई। ए0आई0एस0एफ0 ने पहले भी इस प्रकार के डिफेंस आॅफ आॅर्डिनेंस का बंगाल में विरोध किया था। इसके अलावा ए0आई0एस0एफ0 ने कपड़ा मजदूरांे की युद्ध विरोधी 1940 की बम्बई हड़ताल का बेहद सक्रिय ढ़ंग से समर्थन किया था। इसके बाद देशभर में विरोध प्रदर्शनों, हड़तालों और विरोधांे का दौर शुरू हुआ। छात्र भी बड़ी संख्या में ब्रिटिश सरकार के इस विरोध के समर्थन में आए। ए0आई0एस0एफ0 की एक बुकलेट ‘‘रोल आॅफ स्टूडेन्ट्स इन एन्टी इम्पीरियस्टि स्ट्रगल’’ भी अंग्रेज सरकार ने जब्त कर लिया।
ए0आई0एस0एफ0 का छठाँ सम्मेलन ए0आई0एस0एफ0 का छठा सम्मेलन एक महत्वपूर्ण घटना थी। यह समय संगठन के लिए बेहद कठिन एवं निर्णायक था। ए0आई0एस0एफ0 के इस ऐतिहासिक सम्मेलन का आयोजन 25-26 दिसम्बर 1940 को नागपुर में किया गया। कई तरह की राजनैतिक धाराओं और राष्ट्रवादी आंदोलनों के साँझे छात्र आन्दोलन के अन्तर्विरोध इस सम्मेलन के दौरान उभर कर सतह पर आ गए थे। लम्बे समय के वैचारिक संघर्ष अब एक नए निर्णायक मुक़ाम पर पहँुच चुके थे। वामपंथी, दक्षिणपंथी, मध्यमार्गी और कई अन्य राजनैतिक रुझान वाले इसी छठें सम्मेलन में कई तरह के मुद्दों के साथ ही राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय सवालों पर बहस में उलझ गए थे। ब्रिटिश सरकार के रुख से लेकर राष्ट्रीय सरकार के गठन के कांग्रेस के प्रस्ताव विश्वयुद्ध के प्रति और उसके चरित्र को लेकर सभी के अपने विचार थे। गांधीवादी, माक्र्सवादी, सोशलिस्ट, कांग्रेसी सोशलिस्ट से लेकर रायवादी और ट्राटस्कीवादियों सहित सभी के इन परिस्थितियांे को लेकर अपने-अपने विचार थे। हालाँकि छात्रों का एक बड़ा हिस्सा इन विचारधाराओं से इतर छात्रों की समस्याआंे को लेकर चिन्तित था।
अन्ततोगत्वा सम्मेलन के प्रतिनिधि दो हिस्सों में बँट गए। एक हिस्सा जो अति राष्ट्रवादी था और दूसरा हिस्सा जो कम्युनिस्टों से संबंधित था और सांगठनिक एवं राजनैतिक तौर पर अधिक स्पष्ट भी था। दोनांे गुटों ने राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय सवालों को लेकर अपना-अपना कठोर रुख कायम कर लिया। इस गुटबाजी के कारण नागपुर सम्मेलन में ए0आई0एस0एफ0 दो भागों में बँट गया। एक हिस्सा जिसने वामपंथी नेता एम0 फारूकी को अपना महासचिव चुना तो दूसरे हिस्से ने एम0एल0 शाह को अपना महासचिव चुना। प्रो0 सतीश कालेकर ने दोनांे गुटों को मिलाने की भरपूर कोशिश की मगर दोनों गुटों के कठोर रुख के कारण उन्हंे असफलता ही हाथ लगी। इस फूट के कारण देश का छात्र आंदोलन दो फाड़ हो गया और जिसके कारण छात्रों में काफी निराशा और असंतोष था।
इसी बीच 22 जून 1941 में नाजी जर्मनी ने समाजवादी सोवियत संघ पर बड़ा हमला कर दिया। अब द्वितीय विश्वयुद्ध में एक गुणात्मक परिवर्तन आ चुका था। हिटलर के फासीवादी इरादांे के खिलाफ लड़ाई में ब्रिटेन भी सोवियत संघ के साथ शामिल हो गया। दुनिया में पहले सर्वहारा राज्य पर आक्रमण के साथ ही अब यह संघर्ष साम्राज्यवादी अन्तर्विरोधों के संघर्ष से बदलकर सर्वहारा पर हमले और नाजीवादी हमले से बचाव का एक जनयुद्ध बन चुका था।
सातवाँ सम्मेलन
ऐसी परिस्थितियांे में ए0आई0एस0एफ0 का सातवाँ सममेलन 31 दिसम्बर 1941 को शुरू हुआ। विश्वयुद्ध के चरित्र पर लम्बी और बड़ी बहस के बाद संगठन ने नाजी जर्मनी के खिलाफ युद्ध की किसी भी कोशिश के समर्थन करने का प्रस्ताव पारित किया। विश्वयुद्ध में आए इस गुणात्मक परिवर्तन और नाजी जर्मनी के खिलाफ सोवियत संघ के समर्थन का आवाह्न संगठन की बड़ी उपलब्धि थी। दरअसल नाजी जर्मनी के सामने इस युद्ध में सोवियत संघ ही सबसे बड़ा खतरा और बाधा थी, अब सोवियत का समर्थन ही दुनिया में फासीवाद के खतरे को रोक सकता था। इतिहास गवाह है कि ऐसा हुआ भी। ए0आई0एस0एफ0 के इस आवह्न के बावजूद सरकार ने संगठन की राह में रुकावटें खड़ी करना जारी रखा। ए0आई0एस0एफ0 ने एक राष्ट्रीय सरकार गठित करने की माँग रखी। संगठन के कुछ राष्ट्रवादी छात्रों ने जापानी सेनाआंे के सामने समर्पण की बात भी रखी जिसे ए0आई0एस0एफ0 ने आत्मघाती कदम कह कर एकदम खारिज कर दिया। फासीवादी खतरे का सामना करने के लिए ए0आई0एस0एफ0 ने देशव्यापी सघन अभियान चलाया। फासीवादी खतरे के खिलाफ इस मुहिम के तहत संगठन ने 15 मई 1942 को दिल्ली में एक सफल डिफेंस कंवेंशन का भी आयोजन किया जिसके फौरन बाद 9 अगस्त 1942 से कांग्रेस ने ‘‘भारत छोड़ो‘‘ आंदोलन का आवाह्न कर दिया।
पूरी दुनिया में फासीवादी खतरे और भारतीय सीमा पर खड़ी हिटलर की सहयोगी जापानी फौजों के कारण ए0आई0एस0एफ0 ‘‘भारत छोड़ो‘‘ आंदोलन और उसके समय से सहमत नहीं था। बावजूद इसके ए0आई0एस0एफ0 ने आंदोलन के दौरान गिरफ्तार राजनेताआंे की रिहाई के लिए देशव्यापी आन्दोलन चलाया। इसी के साथ ए0आई0एस0एफ0 ने जापानी खतरे का सामना करने के लिए आसाम, बंगाल और मणिपुर के सीमावर्ती इलाकों में सशस्त्र और बिना हथियारांे के जत्थों का गठन किया।
1943 में देश बडे़ अकाल की चपेट में आ चुका था। बम्बई, आसाम, बंगाल, उड़ीसा, बिहार और मद्रास आदि बुरी तरह इस अकाल की चपेट में आ चुके थे। जहाँ देश की एक तिहाई आबादी इस अकाल का शिकार थी वहीं बंगाल इस अकाल की सबसे बुरी तरह चपेट में था। ए0आई0एस0एफ0 ने इस संकट के समय में राहत कार्यों में बढ़-चढ़कर भागेदारी की, साथ ही राहत सामग्री और फण्ड के लिए देशव्यापी अभियान भी चलाया। ए0आई0एस0एफ0 ने इस दौरान सस्ता अनाज मुहैया कराने के लिए जहाँ बंगाल में ढेरों सस्ती दर की दुकानंे चलाईं तो वहीं कई सारी रसोइयाँ भी भूखों को खाना खिलाने के लिए चलाई। इस सारे राहत कार्यो में ए0आई0एस0एफ0 के तीन हजार कार्यकर्ताओं ने प्रतिबद्धता के साथ काम किया।
आठवाँ सम्मेलन
ए0आई0एस0एफ0 का आठवाँ सम्मेलन 28 से 31 दिसम्बर 1944 को कलकत्ता में संपन्न हुआ। सम्मेलन में 76 हजार सदस्यों के प्रतिनिधि के तौर पर 987 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। सम्मेलन को संबोधित करते हुए डाॅ0 बी0सी0 राॅय और सरोजिनी नायडू ने ए0आई0एस0एफ0 के राहत कार्यों की भरपूर प्रशंसा की। सम्मेलन के बाद स्वतः स्फूर्त एवं संगठित आंदोलनों की एक लम्बी श्रृंखला ही मानो शुरू हो गई। स्टूडेन्ट्स फैडरेशन ने कई छात्र संगठनों से मिलकर 26 जनवरी 1945 को स्वतंत्रता दिवस का आयोजन किया। संगठन ने कांग्रेस नेताओं की रिहाई के उत्साह में देश के कई शहरों में कार्यक्रमों का आयोजन किया। वहीं कूच बिहार में 21 अगस्त 1945 को छात्रों पर हमले के विरोध स्वरूप कलकत्ता में एक जनसभा आयेजित की गई जिसमें 35 हजार से अधिक छात्रों ने भाग लिया।
छात्र आंदोलन का उभार 1944-45
हिटलर पर सोवियत संघ की विजय और विश्वयुद्ध की समाप्ति के साथ ही पूरी दुनिया के गुलाम देशों में सम्राज्यवाद से मुक्ति का आंदोलन निर्णायक रूप से तेज हो गया।
विश्वयुद्ध के फौरन बाद आजाद हिंद फौज के तीन अधिकारियांे सहगल, ढिल्लो और शाहनवाज पर ऐतिहासिक मुकदमा शुरू हुआ। इस मुकदमें के विरोध और अधिकारियों की आजादी के लिए पूरे देश में आन्दोलन शुरू हो गए। ए0आई0एस0एफ0 के आवाह्न पर देश भर में छात्रों ने विरोध प्रदर्शनों का आयोजन किया।
इसी बीच छात्र आंदोलनों का संगठन केवल देश के पैमाने पर ही नहीं दुनिया के स्तर पर भी खड़ा हो रहा था और इसमें भी ए0आई0एस0एफ0 ने मजबूत भागेदारी दर्ज कराई। नवम्बर 1945 में लंदन में वल्र्ड फैडरेशन आॅफ डेमोक्रेटिक यूथ का गठन हुआ जिसमें ए0आई0एस0एफ0 की तरफ से मिस के बूमला ने शिरकत करते हुए
सर्वाधिक मतों के साथ कार्यकारिणी के चुनाव में जीत दर्ज की।
नौंवाँ सम्मेलन
ए0आई0एस0एफ0 के नौंवें सम्मेलन की शुरूआत 20 जनवरी 1946 को आन्ध्र प्रदेश के गंुटूर में हुई। जिसमें देश भर से 571 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। सम्मेलन स्थल का नाम अजाद हिंद फौज के समर्थन में चले आंदोलनों के समय शहीद हुए रामेश्वर के नाम पर रखा गया। इसके साथ ही सम्मेलन ने बम्बई मिल मालिकों द्वारा कत्ल करा दिए गए ए0आई0एस0एफ0 मुखपत्र के प्रबन्धक बी0 गोलवला के लिए शोक भी प्रकट किया। फरवरी 1946 में नौसैनिक विद्रोह हुआ जिसके समर्थन में छात्र और मजदूर भी सड़कों पर उतर आए। नौसैनिक विद्रोह के समर्थन में ए0आई0एस0एफ0 से संबद्ध बम्बई छात्र यूनियन ने एक हैण्डबिल निकाल कर हड़ताल का आवाह्न किया और यूनियन के इस आवाह्न पर भारी संख्या में छात्र मजदूरों और नौसैनिकों के समर्थन में आए। आजाद हिंद फौज के कैप्टन रशीद की गिरफ्तारी और जेल के विरोध में एक जनांदोलन बंगाल में उठ खड़ा हुआ। बंगाल प्रांतीय स्टूडेन्ट्स फैडरेशन ने फरवरी 1946 में राज्य भर में प्रदर्शनों और बैठकों की झड़ी लगा दी। 25 जुलाई 1946 को संगठन ने बंगाल एसेम्बली के सामने राजनैतिक कैदियों की रिहाई के लिए बड़ा प्रदर्शन किया जिसमें 15 हजार छात्रों ने भाग लिया। मार्च 1946 में ब्रिटिश सरकार ने तीन सदस्यीय कैबिनेट मिशन का गठन किया। इस मिशन का उद्देश्य राष्ट्रीय नेताओ के बीच मतभेदों को सुलझाने और डोमिनियन स्टेट्स की अपनी इच्छा को लागू करने का था। कैबिनेट मिशन अपने मकसद में बेशक असफल रहा मगर सरकार ने मई 1946 में एक योजना घोषित कर दी। योजना से प्रांतों और रियासतों में डोमिनियन स्टेट्स लागू हो गया। अंग्रेजों ने भारत विभाजन की योजना तैयार कर ली थी साथ ही साम्प्रदायिक आधार पर चुनाव की भी तैयारी हो रही थी। चुनावों के बाद मुस्लिम लीग ने अंतरिम सरकार में शामिल होने से इंकार कर दिया। साथ ही मुस्लिम लीग ने देश विभाजन और पाकिस्तान बनाने की सार्वजनिक घोषणा करते हुए उसके लिए खुला संघर्ष छेड़ने का एलान भी कर दिया। अन्त में अगस्त 1946 में जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में अंतरिम सरकार का गठन हुआ और सितम्बर 1946 में मुस्लिम लीग भी इसमें शामिल हो गई परन्तु उसने एसेम्बली का बहिष्कार जारी रखा। ए0आई0एस0एफ0 अंग्रेजों की साम्प्रदायिक विभाजन की कुचेष्टा और इससे बचाव के लिए जन आंदोलनों और जन लामबन्दी की जरूरत को पहले ही रेखांकित कर चुका था। अन्तर्राष्ट्रीय छात्र सम्मेलन 31 अगस्त 1946 को चेकोस्लोवाकिया की राजधानी प्राग में हुई। इसमें दुनिया भर के 39 देशों से 300 छात्रों ने भाग लिया। भारत का प्रतिनिधित्व ए0आई0एस0एफ0 की तरफ से गौतम चटोपाध्याय ने किया। सम्मेलन ने इंटरनेशनल यूनियन और स्टूडेन्ट्स (आई0यू0एस0) की स्थापना की। इस बीच शिक्षा के लोकतंत्रीकरण के विषय पर ए0आई0एस0एफ0 ने एक विशेष सम्मेलन का आयोजन किया जिसमें इस विषय पर एक ऐतिहासिक महत्व का दस्तावेज भी पेश किया गया।
1946 में देश के कई भागों में साम्प्रदायिक दंगे भड़क उठे। जिसमें हिंदू-मुसलमान दोनों पक्षों के निर्दोष लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। देश ने पहली बार इस स्तर के नरसंहार को देखा था। इन दंगों की पटकथा ब्रिटिश साम्राज्यवाद के मंसूबो के साथ मिलकर मुस्लिम लीग, आर0एस0एस0, हिंदू महासभा और अन्य साम्प्रदायिक संगठनों ने लिखी थी। दंगों की इस आग में कलकत्ता, बिहार और बम्बई जैसे कई महत्वपूर्ण शहर सुलग उठे। नोआबाली ने इस अभूतपूर्व नरसंहार के सबसे अमानवीय रूप को देखा। बावजूद इसके कम्युनिस्ट और कांग्रेस के धर्मनिरपेक्ष लोग दंगों की रोकथाम के लिए सामने आए। ए0आई0एस0एफ0 ने दंगांे की परवाह नहीं करते हुए सक्रियता के साथ राहत कार्यो में भाग लिया। यह ए0आई0एस0एफ0 ही था जिसने दंगांे की परवाह नहीं करते हुए भी दंगों की आग के बीच दिल्ली में हिंदू-मुस्लिम एकता यात्रा की पहल की। ए0आई0एस0एफ0 ने ही बंगाल में दंगा राहत फण्ड की शुरुआत की।
दसवाँ सम्मेलन
ए0आई0एस0एफ0 के दसवंे सम्मेलन की शुरुआत 3 जनवरी 1947 को दिल्ली में हुई जिसमें 1500 प्रतिनिधियों और पर्यवेक्षकों ने भाग लिया। सम्मेलन के फौरन बाद ए0आई0एस0एफ0 ने 21 जनवरी को वियतनाम दिवस के रूप में मनाया। आॅल इण्डिया स्टूडेन्ट्स कांग्रेस और मुस्लिम स्टूडेन्ट्स लीग ने भी कलकत्ता में इसका स्वागत किया। कलकत्ता के 50 हजार छात्रों ने इस दिन हड़ताल में भाग लिया। शान्तिपूर्ण प्रदर्शन पर पुलिस ने लाठीचार्ज किया। छात्रों का गुस्सा फूट पड़ा और वे सड़कों पर उतर आए। भारी विरोध प्रदर्शन के साथ रैली हुई जिस पर पुलिस ने गोलीबारी की जिससे दो छात्र प्रदर्शन के साथ स्थल पर ही शहीद हो गए। अगले ही दिन सरकार को भारी विरोध प्रदर्शनों और हड़ताल का सामना करना पड़ा। विरोध प्रदर्शनों और हड़तालों का यह दौर पूरे फरवरी माह चलता रहा। वियतनाम स्टूडेन्ट्स एसोसिएशन ने अपने मार्च सत्र में मारे गए छात्रों की याद में विशेष प्रस्ताव पारित किया।
आजादी का दिन
जनवरी से अगस्त 1947 भारतीय स्वतंत्रता के लिए गहन राजनैतिक
गतिविधियों से परिपूर्ण कठिन समय था। यह ए0आई0एस0एफ0 की संयुक्त जन कार्यवाहियांे का समय था। बम्बई के प्रांतीय गृहमंत्री मोरारजी देसाई ने 22 जुलाई को छात्रों की एक बैठक पर रोक लगा दी तो बम्बई के 60000 छात्र हड़ताल पर चले गए। इसके समर्थन में बनारस और कानपुर में भी बडी हड़तालों का आयोजन किया गया।
14-15 अगस्त की रात को लाल किले से ब्रिटिश यूनियन जैक उतर गया और उसकी जगह तिरंगे ने ले ली। आखिरकार भारत की आजादी का दिन आ ही गया। ए0आई0एस0एफ0 ने भी विभिन्न संगठनों और देश के साथ मिलकर आजादी के उत्सव में हिस्सेदारी की। दिल्ली में स्टूडेन्ट्स कांग्रेस के साथ मिलकर ए0आई0एस0एफ0 ने लार्ड डरविन की मूर्ति पर चढ़कर उसके मुँह पर कालिख पोती और ब्रिटिश साम्राज्यवाद का पुत्तला फूँका। यह आजादी का वह उत्सव था जिसके लिए संघर्ष में आर0एस0एस0 जैसे संगठनों ने बाधाएँ खड़ी करने के अलावा कोई योगदान नहीं दिया और अपने कुत्सित प्रयासों को उन्होंनें साम्प्रदायिक सद्भाव खत्म करने के तौर पर जारी रखा।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद छात्र आन्दोलन
आजादी के वातावरण में नई उम्मीदंे, नए सपने और नई महत्वकांक्षाएँ जन्म ले रही थीं। इस समय नए नेतृत्व के सामने विकास का एक ऐसा रोडमैप तैयार करने की चुनौती थी जिस पर चलकर विकास की निर्धारित मंजिल तक पहँुचा जा सके। स्टूडेन्ट्स फैडरेशन ने औद्योगिकीकरण की योजनाओं के साथ ही नया प्रशासनिक ढ़ाँचा तैयार करने में भरपूर योगदान किया। छात्र फैडरेशन ने सांमतशाही के खिलाफ देश की अखण्डता और रियासतों के विलय के सवालों पर उठे आन्दोलनों में बढ़-चढ़कर भाग लिया। चाहे औरंगाबाद का संघर्ष हो या निज़ाम हैदराबाद के खिलाफ लड़ाई, छात्रों ने संघर्षों में एक जुझारू भूमिका अदा की। हैदराबाद स्टूडेन्ट्स फैडरेशन ने तेलंगाना सशस्त्र आंदोलन में भी बढ़-चढ़कर शिरकत की। ए0आई0एस0एफ0 के 400 छात्रों ने गुरिल्ला लड़ाई में सामंतशाही को खत्म करने के लिए भाग लिया। हालाँकि यह संघर्ष आजादी के बाद भी जारी रहा और अन्ततोगत्वा हैदराबाद की जनता ने नई भारतीय सरकार का साथ दिया।
ग्यारहवाँ सम्मेलन
ए0आई0एस0एफ0 का ग्यारहवाँ सम्मेलन दिसम्बर 1947 में हुआ। बम्बई के मुख्यमंत्री मोरारजी देसाई ने सम्मेलन के पहले दिन 28 दिसम्बर को इस पर
प्रतिबंध लगा दिया। सम्मेलन गुप्त रूप से सम्पन्न हुआ जिसमें 1500 प्रतिनिधियों और पर्यवेक्षकों ने भाग लिया। परन्तु संगठन की कार्यकारिणी को आम सभा और रैली करने की इजाजत नहीं मिल पाई। फिर भी नेतृत्व ने प्रतिबंध को तोड़कर कार्यक्रम करने का निर्णय किया जिस के कारण छात्रों को लाठीचार्ज और गोलीबारी का सामना करना पड़ा। इस पुलिस ज्यादती के खिलाफ ए0आई0एस0एफ0 ने 9 जनवरी को विरोध दिवस के रूप में मनाया। सरकार की ज्यादतियों की दुनिया भर में निन्दा हुई दुनिया के कई छात्र एवं युवा संगठनों ने सरकार के इस कृत्य की आलोचना की। ए0आई0एस0एफ0 ने आजादी के फौरन बाद से ही छात्र और देशहित की लड़ाई जारी रखी। चाहे वह फीस वृद्धि का सवाल हो, शिक्षा के जनवादीकरण का या सांप्रदायिकता से लड़ने का ए0आई0एस0एफ0 ने अन्य जनवादी धर्मनिरपेक्ष छात्र संगठनों के साथ मिलकर संघर्ष जारी रखा।
बारहवाँ सम्मेलन
ए0आई0एस0एफ0 का बारहवाँ सम्मेलन 23-27 जुलाई को कलकत्ता में सम्पन्न हुआ। 80 हजार सदस्यों के प्रतिनिधियों के तौर पर सम्मेलन में 340 छात्रों ने भाग लिया। इस सम्मेलन में संगठन ने एक दुस्साहसिक और संकीर्णतावादी दिशा में बढ़ने का निर्णय किया। इस निर्णय द्वारा संगठन ने आजादी के स्वागत को छोड़कर उसके खिलाफ खड़ा होने की दिशा ली। संगठन ने संकीर्णतावादी नारा दिया देश की जनता भूखी है, यह आजादी झूठी है। संगठन के इस कदम से ए0आई0एस0एफ0 छात्रों के बीच अलग-थलग पड़ गया। तमाम असहमतियों के बावजूद देश की जनता हथियार उठाकर नेहरू सरकार को उखाड़ फंेकने के लिए अभी तैयार नहीं थी क्योंकि जनता अभी तक आजादी का स्वागत कर रही थी। दरअसल यह आत्मघाती कदम अति वामपंथी बी0टी0आर0 लाइन के कारण था।
ए0आई0एस0एफ0 ने अपनी दिशा और गतिविधियों में सुधार किया। संगठन ने तय किया कि उसे छात्रांे की समस्याओं पर ही अधिक ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। ए0आई0एस0एफ0 ने अब छात्रों की शैक्षिक, आर्थिक और राजनैतिक समस्याओं पर ध्यान केन्द्रित करते हुए जन आंदोलन के निर्माण का काम शुरू किया। यह देश को एक नए व वैकल्पिक विकास के रास्ते पर ले जाने की तरफ बढ़ने में ए0आई0एस0एफ0 की भागेदारी का प्रयास था।
1950 में भारत के एक गणराज्य बनने की घोषणा और नया संविधान लागू हो जाने के साथ ही देश के विकास की संभावनाओ के लिए नई राहें और आशाएँ बन रही थीं। युवा और छात्र आन्दोलन के विकास की भी नई राहंे बन रही थीं जिसके लिए नए रास्ते और नए तरीकों की आवश्यकता थी। यह समय पूरे देश में एक नए जनवादी ढाँचे के तैयार होने का था। पूरे देश में छात्र संघांे का निर्माण हो रहा था जिसमें ए0आई0एस0एफ0 ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।
तेरहवाँ सम्मेलन
ए0आई0एस0एफ0 का तेरहवाँ सम्मेलन 1-5 जनवरी 1953 को हैदराबाद में हुआ। एक लाख से अधिक की सदस्यता के आधार पर सम्पन्न इस सम्मेलन में देश भर से 400 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। सम्मेलन के बाद संगठन ने देश भर में छात्र संघों के निर्माण के लिए और फीस बढ़ोत्तरी के खिलाफ आन्दोलन चलाए। इस दौरान पुलिस द्वारा दिसम्बर 1953 को डाॅ0 जगदीश लाल की हत्या कर दिए जाने के खिलाफ राज्य भर में आन्दोलन उठ खड़ा हुआ। वहीं 1954 में शैक्षिक संस्थानो की स्वायŸाता बचाने के लिए और यू0पी0 यूनिवर्सिटी बिल के खिलाफ भी यू0पी0 में बड़ा आन्दोलन ए0आई0एस0एफ0 के नेतृत्व में हुआ।
चैदहवाँ सम्मेलन और गोवा मुक्ति संग्राम
ए0आई0एस0एफ0 का चैदहवाँ सम्मेलन 5-8 जनवरी 1955 में लखनऊ में सम्पन्न हुआ। इस सम्मेलन में पुर्तगाली दासता से गोवा की मुक्ति का प्रश्न छाया रहा। ए0आई0एस0एफ0 ने देश के छात्रों से बड़ी संख्या में गोवा के मुक्ति संघर्ष में शामिल होने का आवाह्न किया। ए0आई0एस0एफ0 और समाजवादी युवक सभा ने संयुक्त रूप से 12 जुलाई को दिल्ली में गोवा मुक्ति के लिए कार्यक्रम आयोजित किया। 9 अगस्त 1955 को ‘पुर्तगालियों भारत छोड़ो’ दिवस के रूप में मनाया गया। वहीं 3 अगस्त 1955 को 59 कम्युनिस्टों सहित 250 स्वयंसेवकों ने गोवा में प्रवेश किया। जहाँ पुर्तगाली सैनिकों ने उन पर गोलीबारी की और इसमें दो कम्युनिस्ट वी0 के0 थोराट और नित्यानन्द साहा शहीद हुए। इस गोलीबारी के खिलाफ देश भर में छात्र हड़तालों और विरोध प्रदर्शनों की झड़ी लग गई जिसमें चार लाख से भी अधिक छात्रों ने भाग लिया। देश भर से लोग गोवा में दाखिल होने के लिए उमड़ पड़े। गोवा की सीमा पर इन सत्याग्रहियों का साथ देने के लिए ए0आई0एस0एफ0 के महासचिव सुखेन्दु मजूमदार के साथ छात्र नेता सी0 के0 चन्द्रप्पन भी मौजूद थे। इसके बाद 16 अगस्त को दिल्ली में एक बड़ी रैली आयोजित की गई जिसमें 2 लाख छात्रों ने भाग लिया।
12 अगस्त 1955 को पटना के0बी0एन0 काॅलेज के छात्रों और राज्य परिवहन सेवा के कर्मचारियों के बीच एक छोटी सी झड़प ने एक बडे़ देशव्यापी जनांदोलन का रूप धारण कर लिया। दरअसल पुलिस ने इस पूरे मामले में गलत तरीके से हस्तक्षेप करते हुए छात्रों पर बर्बरतापूर्वक हमला किया। इस हमले में काॅलेज प्रांगण में एक छात्र दीनानाथ की मौत हो गई, जिसके बाद विरोध की आग पूरे बिहार और फिर पूरे देश में फैल गई। इस बर्बर पुलिस कार्यवाही के विरोध में 14 अगस्त को बिहार भर में विरोध प्रदर्शन और सभाएँ आयोजित की र्गइं। जिस पर पुलिस ने गोलीबारी की जिसमें कई छात्रों ने अपनी जानें गँर्वाइं। सरकार की इस कार्यवाही के खिलाफ 15 अगस्त को तिरंगे की जगह काला झण्डा फहराकर विरोध प्रकट किया गया। इसके बाद कम्युनिस्ट पार्टी सहित कई पार्टियों ने विरोध सभाएँ और प्रदर्शन करके अपने विरोध का इज़हार करते हुए इस ऐतिहासिक जनांदोलन में शिरकत की।
1959 में बंगाल ने भयावह भुखमरी और खाद्य संकट का सामना किया। खाद्य संकट का प्रमुख कारण राज्य सरकार की अदूरदर्शिता पूर्ण नीतियाँ थीं जिनका ए0आई0एस0एफ0 ने जबरदस्त विरोध किया। इस संकट से निपटने के लिए वामपंथी पार्टियांे एवं संगठनों ने अकाल एवं मूल्य वृद्धि के खिलाफ कमेटी का गठन किया। खाद्य संकट के खिलाफ गुस्सा और जनाक्रोश फूट पड़ा। बंगाल के मुख्यमंत्री बी0सी0 राय ने 20 अगस्त से होने वाले आंदोलन को वापस लेने की अपील की जिसे कमेटी ने खारिज कर दिया। सरकार ने आंदोलन से पहले रातो-रात आंदोलन के अगुवा नेताओं को गिरफ्तार कर लिया। तत्पश्चात कमेटी ने 31 अगस्त को एक बड़ी रैली आयोजित करने का निर्णय किया। ट्रेड यूनियनांे ने भी 3 सितम्बर को आम हड़ताल करने का निर्णय किया। अब डाॅ0 बी0सी0 राय ने बर्बरता पूर्वक इस आन्दोलन को कुचलने के प्रयास शुरू कर दिए। लाठी, गोली, आँसू गैस और दमन के सभी तरीकांे का इस्तेमाल किया। परन्तु सरकार के सारे हथकण्डे विफल रहे, आन्दोलन दिनो दिन तेज होता गया। लाखों लोग सड़कांे पर उतर आए और छात्रों ने प्रत्येक गाँव कस्बे और शहरों में इस आंदोलन में आगे बढ़कर हिस्सेदारी की। यह बंगाल के छात्रों और जनता के संघर्षांे का गौरवशाली और ऐतिहासिक आंदोलन था।
ए0आई0वाई0एफ0 की स्थापना
आजादी के बारह वर्ष बीत जाने के बाद भी युवाआंे के सामने बेरोजगारी और शिक्षा के प्रश्न अभी तक ज्यों के त्यों खडे़ थे। जिसके कारण देश की जनता विशेषकर युवाओं में आक्रोश लगातार बढ़ता ही जा रहा था, इस आक्रोश को संगठित करने के लिए देश के युवाओं के एक संगठन की बड़ी व्यग्रता से आवश्यकता महसूस की जा रही थी। ए0आई0एस0एफ0 और उसके संघर्षांे का लम्बा इतिहास भी देश के युवाओं के लिए एक प्रेरक का काम कर रहा था। ऐसी स्थिति में देश की राजधानी दिल्ली में 28 से 31 मार्च 1959 को देशभर के 11 राज्यों के 250 प्रतिनिधि युवाओं ने एकत्र होकर ए0आई0वाई0एफ0 की स्थापना की। ए0आई0वाई0एफ0 वल्र्ड फैडरेशन आॅफ डेमोक्रेटिक यूथ से सम्बंधित हुआ। सम्मेलन ने प्रसिद्ध फिल्म अभिनेता बलराज साहनी को अपने पहले अध्यक्ष के रूप में चुना, शारदा मित्रा इसके पहले महासचिव निर्वाचित हुए और साथ ही पी0के0 वासुदेवनायर को संगठन की राष्ट्रीय कार्यसमिति का चेयरमैन चुना गया। 1962 के आम चुनावों में कम्युनिस्ट और प्रगतिशील ताकतों ने अच्छा प्रदर्शन किया। जिसमें ए0आई0एस0एफ0 ने भी अपनी सक्रिय भूमिका अदा की। आम चुनावों के बाद सरकार की नीतियों के खिलाफ 1963 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने देश में पहली बार संसद चलो का नारा दिया जिसमें लाखों की संख्या में लोगांे ने भाग लिया। ए0आई0एस0एफ0 की भी इस संसद मार्च में उल्लेखनीय भागेदारी थी।
चीनी आक्रमण
चीनी फौजी टुकडि़यांे ने 1962 में भारतीय सीमा पर चढ़ाई कर दी। यह चीनी आक्रमण भारतीय कम्युनिस्टों, वामपंथी, प्रगतिशील और जनवादी शक्तियों के लिए बड़े संकट का समय था। ए0आई0एस0एफ0 ने इस चीनी हमले की तीखे और साफ शब्दो में निन्दा की। साथ ही भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने भी इस चीनी दुस्साहस की कड़ी भत्र्सना की।
क्रमश: ............................