प्लेटिनम जुबली समारोह .... |
लखनऊ में एक बार फिर से इतिहास ने अपने आप को दोहराया है . 12-13 अगस्त को देश के प्रथम छात्र संगठन आल इंडिया स्टुडेंट्स फैडरेशन ने इतिहास रचते हुए अपना 75 वां ( प्लेटिनम जुबली ) स्थापना दिवस लखनऊ के उसी गंगा प्रशाद मेमोरिअल हाल में मनाया , जहाँ 12 अगस्त 1936 को संगठन की स्थापना हुई थी . सम्मलेन में आये अधिकाँश प्रतिनिधियों को उसी छेदी लाल धर्मशाला मे ठहराया गया , जिसमे 1936 मे आए प्रतिनिधि को ठहराया गया था। यह वही धर्मशाला है जिसमे ठहर कर क्रांतिकारी रामप्रसाद 'बिस्मिल' ने अपने साथियों के साथ 'काकोरी' अभियान की रूप-रेखा तैयार की थी। ये दोनों स्थान क्रांतिकारियों की कर्मस्थली रह चुकने के कारण किसी तीर्थ से कम नहीं हैं।
गंगा प्रशाद मेमोरिअल हाल के निकट का बाज़ार |
छात्र मार्च ....... |
मंच ........... |
प्रदर्शनी ......... |
दरअसल ए .आई .एस.एफ. देश का प्रथम छात्र संगटन है , साम्राज्यवाद विरोधी आन्दोलन के दोरान 12 अगस्त 1936 को लखनऊ के गंगा प्रसाद मेमोरियल हाल'में ए .आई .एस.एफ. का गठन हुआ था . सम्मेलन में 936 प्रतिनिधियों ने भाग लिया था , जिसमें 200 स्थानीय और शेष 11 प्रांतीय संगठनों के प्रतिनिधि थे . तब पंडित जवाहर लाल नेहरु ने सम्मलेन की अध्यक्षता की थी , तो मुहमद अली जिन्नाह मुख्य अतिथि थे . जो बाद में हिंदुस्तान और पाकिस्तान के प्रधान मंत्री बने .
नेहरु-जिन्ना : सम्मेलन में |
मोलाना आज़ाद और प्रेम नारायण भार्गव भी स्थापना दिवस पर मुख्य रूप से हाज़िर थे , जबकि महात्मा गाँधी , गुरुवर रवीन्द्रनाथ टैगोर , गफ्फार खान , सरोजनी नायडू सर तेज बहादुर सप्रू और श्रीनिवास शास्त्री सहित देश भर के राष्ट्रीय नेताओं ने सम्मेलन के नाम अपना शुभकामना सन्देश भेजे . भगत सिंह , राजगुरु,सुखदेव के साथी भी इस संगठन के सदस्य रहे. प्रथम महामंत्री लखनऊ के ही प्रेम नारायण भार्गव चुने गए और अध्यक्ष पं.जवाहर लाल नेहरू . अपने उद्घाटन भाषण में जवाहर लाल नेहरू ने तत्कालीन राजनैतिक परिस्थितियांे का विश्लेषण करते हुए छात्रों से आजादी का परचम उठाने का आह्वान किया. इसके अलावा अपने अध्यक्षीय भाषण में जिन्ना ने भी इस बात की खुशी जाहिर की कि देश के अलग-अलग जाति और समुदाय के लोग आज यहाँ पर एक साझे मकसद के लिए एकत्र हुए हैं .
पटना में गोलियों से शहीद एआईएसएफ के छात्रों का स्मारक |
बढ़ रहे अरबपति |
शिक्षा संस्थाय़ें अब शिक्षा मंदिर नहीं रहीं , अब तो ये एजूकेशनल शोप्स हैं ?? ये शिक्षकों के रेस्ट हाउसिज हैं और शिक्षकों के घर शिक्षा की आढतें ? टयूशन नक़ल करने का बीमा और पास कराने की गारंटी है ?? जाति और धर्म की राजनीति करने वाले नेता हैं इनके मालिक ? राजनैतिक अखाड़े भी हैं और मुनाफा देने वाला व्यापार भी ? जातिवाद और सांप्रदायिकता के बीज इसी उपजाऊ भूमि में अंकुरित और पल्वित होकर सड़कों पर आते हैं .शिक्षा संस्थाएं तो ऐसे कारखाने बनने चाहीएँ थे , जहाँ बेहतर इंसान बनते ?? सरकार ने अपनी जिम्मेदारी से भागकर अमीरजादों की तिजोरियों और तोंदों को मोटा करने के लिए लुटेरों के आगे आत्मसमर्पण कर दिया है और अब धन की कमी का रोना रोकर विदेशी पूंजी को भी शिक्षा में निवेश करने के लिए आमंत्रित करने जा रही है , जिससे विदेशी निजी विश्वविद्यालयों के रास्ते खुल जायेंगे . वहीं 11 लाख करोड़ के बज़ट में से 5 लाख करोड़ रूपये कारपोरेट जगत को तमाम छूटों और रियाएतों की शकल में दिए जा रहे हैं .
ब्रिटेन से देश की यू. पी .ए .सरकार को सीख लेनी चाहिए , जहां विश्वविद्यालयों की ऊंची फ़ीस चुकाने के लिए विद्यार्थी देह व्यापार करने से लेकर पोर्न फिल्मों में काम करने को मजबूर हो रहे हैं. बी.बी.सी की एक ताजा रिपोर्ट के अनुसार ब्रिटेन के किंग्स्टन विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर रान रोबर्ट्स के सर्वेक्षण में एक चौंकानेवाला तथ्य सामने आया है कि ब्रिटेन में उच्च शिक्षा के भारी खर्चों को उठाने के लिए लगभग 25 फीसदी विद्यार्थियों को देह व्यापार में उतरने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है. ब्रिटेन ही नहीं, अमेरिका में भी हालात कुछ खास बेहतर नहीं हैं. अमेरिकी कालेज बोर्ड की एक रिपोर्ट के मुताबिक अमेरिका में स्नातक की डिग्री हासिल करनेवाले दो-तिहाई छात्रों पर औसतन 20 हजार डालर का शिक्षा कर्ज होता है जबकि उनमें से 10 फीसदी 40 हजार डालर से अधिक के कर्ज में डूबे होते हैं. अमेरिका और ब्रिटेन ही नहीं, अधिकांश विकसित पूंजीवादी देशों में लगातार महंगी होती उच्च शिक्षा आम विद्यार्थियों के बूते से बाहर होती जा रही है. यह भारत जैसे विकासशील देशों के लिए एक सबक है जहां सरकार और नीति-निर्माताओं को लगता है कि उच्च शिक्षा के क्षेत्र में उनकी सभी समस्याओं का हल अमेरिकी और पश्चिमी उच्च शिक्षा व्यवस्था की आंख मूंदकर नक़ल करना हैं
शिक्षण संस्थानो को शिक्षाविदों की जगह शराबमाफिया , भूमाफिया , ठेकेदार , राजनेता आदि चला रहे हैं , जिनका शिक्षा से दूर दूर तक कोई वास्ता नहीं . सरकार और प्रशाशन की मिलीभगत के कारण 6-14 वर्ष के बच्चों को निजी स्कूलों में मुफ्त शिक्षा का मोलिक अधिकार कागज़ी बनकर रह गया है , सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के बावजूद केंद्र और राज्ये सरकारें एक दूसरे पर जवाबदेही डालकर भाग रही हैं .
छात्र संघ के चुनावों का जनतांत्रिक अधिकार जो लम्बी लड़ाई द्वारा प्राप्त किये गये थे , लिंगदोह कमेटी की सिफारिशों के बावजूद सरकारें उनको ठेंगा दिखा रही हैं . देश के अधिकांश राज्यों के विश्वविद्यालयों और कालेजों में छात्रसंघ के चुनाव नहीं हो रहे हैं. यहां तक कि केंद्र सरकार द्वारा लिंगदोह समिति की सिफारिशों को लागू करने और सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के बावजूद अधिकांश राज्य सरकारों और विश्वविद्यालय प्रशासनों की छात्रसंघ बहाल करने और उनका चुनाव कराने में कोई दिलचस्पी नहीं दिख रही है. उनका आरोप है कि छात्रसंघ परिसरों में गुंडागर्दी, अराजकता, तोड़फोड़, जातिवाद, क्षेत्रवाद और अशैक्षणिक गतिविधियों के केन्द्र बन जाते हैं जिससे पढाई-लिखाई के माहौल पर असर पड़ता है. उनकी यह भी शिकायत है कि इससे परिसरों में राजनीतिकरण बढ़ता है जिसके कारण छात्रों, शिक्षकों और कर्मचारियों में गुटबंदी, खींच-तान और संघर्ष शुरू हो जाता है जो शैक्षणिक वातावरण को बिगाड़ देता है. ऐसा नहीं है कि इन आरोपों और शिकायतों में दम नहीं है. निश्चय ही, पिछले कुछ दशकों में छात्र राजनीति से समाज और व्यवस्था में बदलाव के सपनों, आदर्शों, विचारों और संघर्षों के कमजोर पड़ने के साथ अपराधीकरण, ठेकेदारीकरण, अवसरवादीकरण और साम्प्रदायिकीकरण का बोलबाला बढ़ा है और उसके कारण छात्रसंघों का भी पतन हुआ है. इससे आम छात्रों की छात्रसंघों और छात्र राजनीति से अरुचि भी बढ़ी है. इस सच्चाई को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता है कि अधिकांश परिसरों में इन्हीं कारणों से आम छात्र, शिक्षक और कर्मचारी भी छात्र राजनीति और छात्रसंघों के खिलाफ हो गए हैं. विश्वविद्यालयों के अधिकारियों ने इसका ही फायदा उठाकर परिसरों में छात्र राजनीति और छात्रसंघों को खत्म कर दिया है. लेकिन सवाल यह है कि छात्र राजनीति और छात्रसंघों के यह पतन क्यों और कैसे हुआ और उसके लिए जिम्मेदार कौन है? क्या इसमें मोरल हाई ग्राउंड लेनेवाले राजनेताओं, अफसरों और विश्वविद्यालयों के अधिकारियों की कोई भूमिका नहीं है?
सच यह है कि छात्र राजनीति को भ्रष्ट, अवसरवादी, विचारहीन और गुंडागर्दी का अखाडा बनाने की सबसे अधिक जिम्मेदारी कांग्रेस, भाजपा और मुख्यधारा के अन्य राजनीतिक दलों के जेबी छात्र संगठनों- एन.एस.यू.आई, ए.बी.वी.पी, छात्र सभा, छात्र जनता आदि की है. असल में, वे इसलिए सफल हुए क्योंकि छात्र राजनीति के एजेंडे से जब बड़े सपने, लक्ष्य, आदर्श, विचार और संघर्ष गायब हो गए तो छात्र संगठनों और छात्र नेताओं को भ्रष्ट बनाना आसान हो गया. लेकिन ऐसा नहीं है कि छात्रसंघों के खत्म हो जाने के बावजूद परिसरों में रामराज्य आ गया है. यहां यह कहना जरूरी है कि परिसरों में छात्र राजनीति और छात्रसंघों का होना न सिर्फ जरूरी है बल्कि इसे संसद से कानून पारित करके अनिवार्य किया जाना चाहिए. आखिर विश्वविद्यालयों और कालेजों के संचालन में छात्रों की भागीदारी क्यों नहीं होनी चाहिए? दूसरे, छात्रों के राजनीतिक प्रशिक्षण में बुराई क्या है? क्या उन्हें देश-समाज के क्रियाकलापों में हिस्सा नहीं लेना चाहिए?
वास्तव में, आज अगर विश्वविद्यालयों डिग्रियां बांटने का केन्द्र बनाने के बजाय देश में बदलाव और शैक्षणिक पुनर्जागरण का केंद्र बनाना है तो उसकी पहली शर्त परिसरों का लोकतंत्रीकरण है. इसका मतलब सिर्फ छात्रसंघ की बहाली नहीं बल्कि विश्वविद्यालय के सभी नीति-निर्णयों में भागीदारी है. इसके लिए जरूरी है कि सिर्फ शिक्षकों और कर्मचारियों ही नहीं, छात्रों को भी विश्वविद्यालय के नीति निर्णय करनेवाले सभी निकायों में पर्याप्त हिस्सेदारी दी जाए. आखिर विश्वविद्यालयों की शैक्षणिक बेहतरी में सबसे ज्यादा स्टेक और हित छात्रों के हैं, इसलिए उनके संचालन में छात्रों की भागीदारी सबसे अधिक होनी चाहिए. इससे परिसरों के संचालन की मौजूदा भ्रष्ट नौकरशाह व्यवस्था की जगह पारदर्शी, उत्तरदायित्वपूर्ण और भागीदारी आधारित व्यवस्था बन सकेगी. जैसाकि भारतीय पुनर्जागरण के कविगुरु टैगोर ने कहा था, “जहां दिमाग बिना भय के हो, जहां सिर ऊँचा हो, जहां ज्ञान मुक्त...उसी स्वतंत्रता के स्वर्ग में, मेरे प्रभु मेरा देश (या विश्वविद्यालय) आँखें खोले.” इस स्वतंत्रता के बिना परिसरों में सिर्फ पैसा झोंकने या उन्हें पुलिस चौकी बनाने या विदेशी विश्वविद्यालयों के सुपुर्द करने से बात नहीं बननेवाली नहीं है. साफ है कि छात्रसंघों और छात्र राजनीति का विरोध वास्तव में, न सिर्फ अलोकतांत्रिक बल्कि तानाशाही की वकालत है.
वहीं इतनी महंगी शिक्षा के बावजूद युवा हाथों में डिग्रियां लेकर खून के आंसू रो रहे हैं , उन्हें प्रबंध द्वारा काम नहीं दिया जा रहा है . बेरोज़गारी सुरसा के मुहं की तरह बढ़ रही है . देश भर में 26 करोड़ युवा बेरोजगार हैं . शहरों के कुल युवाओं में से 60 फीसदी और गांवों में 45 फीसदी बरोजगारी है . शहरी भारत में हर साल 1 करोड़ नयें बरोजगार जुड़ते हैं , जो काम की तलाश में रहते हैं . यू पी ए सरकार ने रोज़गार देने की बजाए 1 करोड़ लोगों को काम से बाहर का रास्ता दिखा दिया है , जिससे युवा ही नहीं पूरा मेहनतकश वर्ग ही निराशा के दौर से गुज़र कर तनाव , नशा और आत्महत्या की अंधी खाई की और अग्रसर नज़र आ रहा है . उसे अपनी समस्याओं का कोई समाधान नज़र नहीं आ रहा , ऐसे परिस्थियों में जब एआईएसऍफ़ अपना 75 वां स्थापना दिवस मना रहा है तो शिक्षा , रोज़गार , स्वास्थ्य सुविधाएँ ना देने वाली व्यवस्था के विरुद्ध छात्र आन्दोलन का बिगुल फूंक देने का समय आ गया है . इस दौर में शासक वर्गों की ओर से युवाओं को बदलाव की चेतना और आन्दोलनों से दूर रखने और इन आन्दोलनों को कमजोर करने की योजनाबद्ध कोशिश हुई है और कहना पड़ेगा कि उन्हें काफी हद तक कामयाबी भी मिली है. भारतीय शासक वर्ग को मालूम है कि दुनिया के जिस देश में भी उसकी ५० फीसदी से अधिक आबादी २५ साल से कम की हुई है, वहां सामाजिक-राजनीतिक उथल-पुथल और परिवर्तनों की लहर को रोकना असंभव हो गया है.
सो ये वक़्त छात्रों - युवाओं के जागने का वक्त है . समाज में व्याप्त गैरबराबरी , नाइंसाफी को चुपचाप देखते रहने की बजाए भगत सिंह के रास्ते फिर से शिक्षा और रोज़गार के मसले पर जुझारू संघर्ष करने का इतिहास इंतज़ार कर रहा है ...........
- रोशन सुचान
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें