दिसंबर 27, 2010

हमको मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन, दिल के बहलाने को ग़ालिब ये ख़याल अच्छा है : उर्दू - फ़ारसी जुबान के शाएर ग़ालिब को याद करते हुए :

   तृप्ति का नहीं, तृष्णा के रस का कवि है : ग़ालिब
दिले-नादाँ, तुझे हुआ क्या है,
आख़िर इस दर्द की दावा क्या है
29 दिसंबर, 1797 ई. को आगरा में जन्म हुआ. अब्दुल्लाबेग ग़ालिब के पिता थे. मिर्ज़ा ग़ालिब के पिताजी से तीन संताने थीं. जिनमें उनकी सबसे बड़ी बहन ख़ानम, खुद मिर्ज़ा असदउल्लाबेगखाँ (ग़ालिब) और उनके भाई मिर्ज़ा युसुफ़ थे. ग़ालिब के पिता फौजी नौकरी में थे जब ग़ालिब पाँच साल के थे तभी उनके पिता का देहावसान हो गया.  उन लोगों के पास काफी जायदाद थी. ग़ालिब के चचा जान की मृत्यु हो जाने पर उनके उत्तराधिकारी के रूप में जो पाँच हज़ार रुपये सालाना पेंशन मिलती थी उसमें 750-750 रुपए ग़ालिब और ग़ालिब के भाई मिर्ज़ा युसूफ का हिस्सा आता था. ग़ालिब का पालन-पोषण ननिहाल में ही हुआ ग़ालिब को नानी के यहाँ भी कोई बड़ा बूढा देखने वाला ना था । बचपन मौज मस्ती में बीता था ।   ननिहाल वैभवपूर्ण था । वहाँ किसी चीज़ की कोई कमी नहीं थी । बड़े आराम और आसाइश की जिंदगी थी ।ग़ालिब की ननिहाल में मज़े से गुजरती थी. आराम ही आराम था. एक ओर खुशहाल परन्तु पतनशील उच्च मध्यमवर्ग वाले जीवन में  उन्हें पतंग, शतरंज और जुए की आदत लगी. तस्वीर का दूसरा रूख़ यह भी था कि दुलारे थे, रुपये पैसे की कमी ना थी, किशोरावस्था, तबियत में उमंगें, यार-दोस्तों के मजमे, खाने-पीने, शतरंज, पतंगबाज़ी, यौवनोंमाद-सबका जमघट. इनकी आदतें बिगड़ गयीं. हुस्न के अफ़सानों में मन उलझा, चन्द्रमुखियों ने दिल को खींचा. 24-25 बरस तक खूब रंगरेलियां कीं पर बाद में उच्च प्रेरणाओं ने इन्हें ऊपर उठने को बाध्य किया. वह कच्चेपन में ही ताक-झाँक, चूमाचाटी, ग़प-शप , सैर-सपाटे के आदी थे । ग़ालिब के जीवन की यह बात बहुत ध्यान रखने की है । अनियंत्रित, अभाव का नाम न जानने वाले, उत्तम संस्कारों से हीन, यारबाशी भरे बचपन में उस चिर-पिपासा की नींव पड़ी जिसने भोगवादी भावनाओं को ग़ालिब में सदा के लिये प्रबल रखा ।बचपन से ही इन्हें शेरो-शायरी की लत थी. इश्क़ ने उसे उभारा कि पच्चीस साल की उम्र में दो हज़ार शेरों का दीवान तैयार हो गया था जब ग़ालिब युवा थे तब उनके उस्ताद ने उनसे कहा था उन्होंने एक ही जगह बैठकर पीना, एक में केन्द्रित रहना या एक ही जगह बने रहना कभी स्वीकार नहीं किया । इसी कारण सरदार जाफ़री ने लिखा है "वह मंजिल का नहीं, पथ का; तृप्ति का नहीं, तृष्णा के रस का कवि है ।ग़ालिब ने फ़ारसी की प्रारंभिक शिक्षा आगरा के उस समय के प्रतिष्ठित विद्वान मौलवी मोहम्मद मोवज्ज़म से प्राप्त की. 1810-1811 ई. में मुल्ला अब्दुस्समद जो ईरान के प्रतिष्ठित एवं वैभवसंपन्न व्यक्ति थे, ईरान से घूमते हुए आगरा आये और इन्हें के यहाँ दो साल रहे. इन्हीं से दो साल तक मिर्ज़ा ग़ालिब ने फारसी तथा अन्य काव्य की बारीकियों का ज्ञान प्राप्त किया जिस मोहल्ले में वह रहते थे, वह(गुलाबखाना) उस ज़माने में फारसी भाषा के शिक्षण का एक उच्च केंद्र था. उनके इर्द गिर्द एक से बढ़कर एक फारसी के विद्वान रहते थे. ग़ालिब के जीवन-काल (1797-1869 ई.) में मुग़ल-साम्राज्य का अंत हो गया । उनके समय में अन्तिम तीन मुग़ल सम्राट हुए : 1. शाह आलम द्वितीय (1759-1806), 2. अकबर द्वितीय (1806-1837) तथा 3. बहादुरशाह (ज़फर) द्वितीय (1837-1857) । मतलब यह कि ग़ालिब का बचपन शाह आलम द्वितीय के अन्तिम काल में पनपा, उनकी जवानी अकबर द्वितीय के काल में गुज़री और प्रौढ़ावस्था तथा वार्द्धक्य बहादुर शाह के ज़माने में और उसके बाद भी चलता रहा । तीनों अच्छे थे, पर शासन-क्षमता की दृष्टि से अशक्त और साधनहीन थे । इनके काल में मुग़ल-साम्राज्य कहानी बनकर रह गया था और अंत में वह कहानी भी ख़त्म हो गयी । ग़ालिब का यूँ तो असल वतन आगरा था लेकिन किशोरावस्था में ही वे दिल्ली आ गये थे । कुछ दिन वे ससुराल में रहे फिर अलग रहने लगे । चाहे ससुराल में या अलग, उनकी जिंदगी का ज्यादातर हिस्सा दिल्ली की 'गली क़ासिमजान' में बीता । सच पूंछें तो इस गली के चप्पे-चप्पे से उनका अधिकांश जीवन जुड़ा हुआ था । वे पचास-पचपन वर्ष दिल्ली में रहें, जिसका अधिकांश भाग इसी गली में बीता ।
यह गली चाँदनी चौक से मुड़कर बल्लीमारान के अन्दर जाने पर शम्शी दवाख़ाना और हकीम शरीफ़खाँ की मस्जिद के बीच पड़ती है । इसी गली में ग़ालिब के चाचा का ब्याह क़ासिमजान(जिनके नाम पर यह गली है ।) के भाई आरिफ़जान की बेटी से हुआ था और बाद में ग़ालिब ख़ुद दूल्हा बने आरिफ़जान की पोती और लोहारू के नवाब की भतीजी, उमराव बेगम को ब्याहने इसी गली में आये । साठ साल बाद जब बूढ़े शायर का जनाज़ा निकला तो इसी गली से गुज़रा ।
जनाब हमीद अहमदखाँ ने ठीक ही लिखा है :
"गली के परले सिरे से चलकर इस सिरे तक आइए तो गोया आपने ग़ालिब के शबाब से लेकर वफ़ात तक की तमाम मंजिलें तय कर लीं ।"

जब यह सिर्फ तेरह वर्ष के थे निकाह लोहारू के नवाब अहमदबख्शखाँ के छोटे भाई मिर्ज़ा इलाहीबख्शखाँ 'मारुफ़' की लड़की उमराव बेगम के साथ 9 अगस्त, 1810 ई को संपन्न हुआ उस वक़्त उमराव बेगम ग्यारह साल की थीं.उस ज़माने में बेटियाँ कम उम्र में ब्याह दी जाती थीं । 1799 में दिल्ली के एक प्रतिष्ठित घराने में उमराव का जन्म हुआ था उमराव के पिता नवाब इलाहीबख्श का जीवन वैभव एवं सुख शान्ति से परिपूर्ण था । वह 'शहज़ादए-गुलफ़ाम' के नाम से प्रसिद्द थे । इससे कल्पना की जा सकती है कि उमराव का बचपन कैसा बीता होगा विवाह के कुछ वर्ष बाद आर्थिक कठिनाइयाँ बढ़ गयी और बाद के साल उन्होंने थोड़ी कठिनाई से बिताये. आर्थिक तंगी चलती ही रहती थी. आय के श्रोत कम थे और उनके खर्चे ज्यादा. मिर्ज़ा ग़ालिब अपने विवाह के कुछ दिनों बाद से ही अपनी ससुराल दिल्ली चले आये और दिल्ली के ही हो गये.।  हालांकि ग़ालिब को वह सुख प्राप्त ना हुआ था जो उमराव को नसीब था । एक तरफ हम देखते हैं कि उमराव तो अपने माँ-बाप की देखभाल में पली बढ़ी थी और उन्हें उठने-बैठने और घर गृहस्थी का तरीका था । उधर असद मियाँ के ऊपर कोई रोक टोक करने वाला ना था । बाप तो दूर ही रहे और उनके चचा भी जल्दी ही संसार से प्रयाण कर गये ।
  जब लड़की वालों ने ग़ालिब को पसंद किया तो सोचा कि अच्छे खानदान का लड़का है, देखने में सुन्दर, गोरा-चिट्टा, मृदभाषी; आगे चलकर अपने पिता की तरह फौज में जाकर नौकरी कर नाम कमाएगा, खाने पीने की कोई तकलीफ नहीं होगी । एक शरीफ घराना, खूबसूरत शौहर और हर तरह की सहूलियत लड़की को मिल रही है, और क्या चाहिए ! उधर ग़ालिब की चाची लड़की उमराव की सगी फूफी थी तो यह भी सोचा गया कि लड़की जाने पहचाने घराने में जा रही है । पर सब कुछ होकर भी वह आशा पूरी ना हुई ।ग़ालिब ने जीविकोपार्जन की ओर या कोई अच्छा पद प्राप्त करके एक औसत गृहस्थ का जीवन बिताने की ओर कभी ध्यान नहीं दिया । बचपन की स्वच्छंदता ज़िन्दगी भर बनी रही । विवाहित जीवन के चन्द साल किसी क़दर बेफ़िक्री से बीते पर ज्यों ज्यों समय बीतता गया, गृहस्थ जीवन से निश्चिंतता समाप्त होती गयी । बेकारी और शेरख़Iनी ज़िन्दगी पर छाती रही । ज्यों ज्यों उम्र बढती गयी, आर्थिक एवं दैनिक जीवन की मुसीबतें बढती ही गयीं । यहाँ तक कि चौबीस साल के बाद तो उमराव के जीवन से सुख के सपने सदा के लिये विदा हो गये ।  ग़ालिब के सात बच्चे हुए पर कोई भी पंद्रह महीने से ज्यादा जीवित न रहा. पत्नी से भी वह हार्दिक सौख्य न मिला जो जीवन में मिलने वाली तमाम परेशानियों में एक बल प्रदान करे. इनकी पत्नी उमराव बेगम नवाब इलाहीबख्शखाँ 'मारुफ़; की छोटी बेटी थीं. ग़ालिब की पत्नी की बड़ी बहन को दो बच्चे हुए जिनमें से एक ज़ैनुल आब्दीनखाँ को ग़ालिब ने गोद ले लिया था बहरहाल यह सत्य है कि ग़ालिब का दाम्पत्य जीवन दु:खपूर्ण था । अनायास सवाल उठता है कि क्यों ऐसा हुआ ? उर्दू का एक बहुत बड़ा शायर, भारत में फ़ारसीयत का नेता, भावनाओं के वेग में दृढ रहने वाला, और अपने युग की चिन्तनशीलता एवं बौद्धिकता का प्रतिनिधि ग़ालिब एक औरत की ज़िन्दगी को क्यों ऐसी न बना सका कि उनके शायराना एहसास उसके दिल को भी छूते ।

जब इंसान को घर में प्रेम प्राप्त न हो, दिल की छाया प्राप्त न हो, जब खुद की पत्नी जीवन के आशीर्वाद की जगह जीवन का बोझ बन जाए, उसके मुख से प्रेम और मृदुलता के बोल के स्थान पर कटु वाणी के वाण झरने लगें तब पुरुष घर से बाहर भागता है ।
ग़ालिब पर तो बचपन से ही स्वच्छंदता के संस्कार प्रधान थे, अब जब दोनों के दिलों के बीच दूरियाँ आ गयीं तो वह बाज़ारू औरतों की ओर झुके । इसी सिलसिले में एक गायिका पर आसक्त हो गये । वह भी इनको प्यार करने लगी । इन सब से उमराव (ग़ालिब की पत्नी) के दिल पर क्या बीती होगी इसकी तो बस कल्पना ही की जा सकती है । कई बरसों तक ग़ालिब और उनकी इस प्रियतमा का प्रेम-व्यापार चलता रहा । फिर उसकी मृत्यु हो गयी । उस वक़्त ग़ालिब बीस-बाईस के पट्ठे रहे होंगे । उसकी मृत्यु पर जो शोकपूर्ण रचना की है उससे इनके गहरे लगाव का पता चलता है :-

तेरे दिल में गर न था आशोबे-ग़म का हौसला,
तूने फिर क्यों की थी मेरी ग़मगुसारी हाय हाय ।
उम्र भर का तूने पैमाने-वफ़ा बाँधा तो क्या ?
उम्र का भी तो नहीं है पायदारी हाय हाय ।
किस तरह काटे कोई शब्हाय तारे बर्शगाल,
है नज़र खूककर्दए अख़्तरशुमारी हाय हाय ।
इश्क ने पकड़ा न था ग़ालिब अभी वहशत का रंग,
रह गया था दिल में जो कुछ ज़ौकख़्वारी हाय हाय ।

ग़ालिब कि जिन्दगी से जुड़े कुछ किस्से :
एक बार की बात है कि जिस मकान में ग़ालिब रहते थे , उसमें कई सारी समस्याएं थीं इसीलिए तकलीफ़ थी । वे इसीलिए मकान बदलना चाहते थे । एक दिन वे खुद एक मकान देखकर आये । उसका बैठकखाना तो पसंद आ गया पर जल्दी में अन्तःपुरवाला हिस्सा न देख सके । फिर उन्होंने यह भी सोचा होगा कि मेरा उस हिस्से को देखने का क्या फ़ायदा ? जिसे वहाँ रहना है वह ख़ुद देखे और पसंद करे । इसी लिये जब बाहरी हिस्सा देखने के बाद जब लौटे तो बीवी से ज़िक्र किया और अन्दर का हिस्सा देखने के लिये उन्हें भेजा । वह गयीं और देखकर आयीं तो उनसे पूछा, "पसंद है या नापसंद ?"
बीवी ने कहा, "उसमें तो लोग बला बताते हैं ।"
मिर्ज़ा कब चूकने वाले थे । बोले, "क्या दुनिया में आपसे बढ़कर भी कोई बला है ?" 
 एकबार कि बात है कि 1842 ई. में सरकार ने दिल्ली कॉलेज का नूतन संगठन और प्रबंध किया । उस समय मि. टामसन भारत सरकार के सेक्रेटरी थे । यही बाद में पश्चिमोत्तर प्रदेश के लेफ्टिनेंट गवर्नर हो गये थे और ग़ालिब के हितैषी थे । वह कॉलेज के प्रोफ़ेसरों के चुनाव के लिये दिल्ली आये । वहाँ अरबी शिक्षा के लिये तो मौ. ममकूलअली प्रधान शिक्षक थे किन्तु फ़ारसीके लिये कोई अच्छा बंदोबस्त न था । टामसन ने फ़ारसी के लिये किसी अच्छे विद्वान् की इच्छा जाहिर की । वहाँ उस समय सदरूस्सदूर मुफ़्ती सदरुद्दीनखाँ 'आर्ज़ुदा' मौजूद थे । उन्होंने बताया कि दिल्ली में तीन साहब फ़ारसी के उस्ताद माने जाते हैं - 1. मिर्ज़ा असद उल्ला खाँ 'ग़ालिब', 2. हकीम मोमिनखाँ 'मोमिन' और शेख़ इमामबख्श 'सहबाई' । टामसन साहब ने सबसे पहले 'ग़ालिब' को बुलवाया । ग़ालिब पालकी में सवार हो उनके डेरे पर पहुँचे और दरवाज़े पर इस प्रतीक्षा में रुक गये कि अभी कोई साहब स्वागत एवं अभ्यर्थना के लिये आते हैं । जब बहुत देर हो गयी तो साहब ने जमादार से देर का कारण पूँछा । जमादार ने मिर्ज़ा को दरियाफ़्त किया । मिर्ज़ा ने कहला दिया कि साहब मेरा स्वागत करने बहार नहीं आये इसीलिए में अन्दर नहीं आया । इस पर टामसन स्वंय बहार आ गये और कहा कि "जब आप दरबार में रईस या कवि के तशरीफ़ लावेंगे तब आपका स्वागत-सत्कार किया जाएगा लेकिन इस समय आप नौकरी के लिये आये हैं इसीलिए आपका स्वागत करने कोई नहीं आया ।"
मिर्ज़ा ने कहा कि "मैं तो सरकारी नौकरी इस लिये करना चाहता था कि खानदानी प्रतिष्ठा में वृद्धि हो, न कि जो पहले से है उसमें भी कमी आ जाए और बुजुर्गों की प्रतिष्ठा भी खो बैठूं ।" टामसन साहब ने नियमों के कारण विवशता प्रकट की तब ग़ालिब ने कहा "ऐसी मुलाज़िमत को मेरा दूर से सलाम है," और कहारों से कहा "वापस लौट चलो । " बाद में टामसन साहब ने दूसरा प्रबंध किया । 
 एक बार किसी दुकानदार ने उधार ली गयी शराब के दाम वसूल न होने पर मुक़दमा चला दिया. मुक़दमे की सुनवाई मुफ़्ती सदरउद्दीन की अदालत में हुई. आरोप सुनाया गया. इनको उज्रदारी में क्या कहना था, शराब तो उधार मँगवायी ही थी और दाम भी चुकते न कर पाए थे. इसलिए कहते क्या ? उन्होंने आरोप सुनकर सिर्फ यह शेर पढ़ दिया :

क़र्ज़ की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हाँ,
रंग लाएगी हमारी फ़ाक़ामस्ती एक दिन
 

ग़ालिब के कुछ शेर :हमको मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन,
दिल के बहलाने को ग़ालिब य' ख़याल अच्छा है ।


 "इश्क़ से तबियत ने ज़ीस्त का मज़ा पाया,
दर्द की दवा पायी, दर्द बेदवा पाया ।
हाले-दिल नहीं मालूम लेकिन इस क़दर यानी,
हमने बारहा ढूँढा तुमने बारहा पाया ।
शोरे-पन्दे-नासेह ने ज़ख्म पर नामक छिड़का,
 
दिले-नादाँ, तुझे हुआ क्या है,
आख़िर इस दर्द की दावा क्या है ।
हम हैं मुश्ताक़ और वह बेज़ार,
या इलाही, यह माजरा क्या है ।
मैं भी मुँह में ज़बान रखता हूँ,
काश, पूछो, कि मुद्द'आ क्या है ।
 


बूए-गुल, नालए-दिल, दूदे चिराग़े महफ़िल
जो तेरी बज़्म से निकला सो परीशाँ निकला ।
चन्द तसवीरें-बुताँ चन्द हसीनों के ख़ुतूत,
बाद मरने के मेरे घर से यह सामाँ निकला ।  
 

ना जाने माशूक़ के वादे पर कितने शेर लिखे गए हैं लेकिन ग़ालिब ने अपने कहने के ढंग से उसमें एक जद्दत पैदा कर दी. लोग उसके वादे के विश्वास पर जीते हैं लेकिन ग़ालिब इसलिए जीते हैं कि उसके वादे को झूठा समझते हैं. इसी सिलसिले में उनका यह शेर :माशूक़ के वादे पर क्या तीखा व्यंग्य है !
तेरे वादे पर जिये हम, तो यह जान, झूठ जाना,
कि ख़ुशी से मर ना जाते, अगर एतबार होता ।

दिसंबर 26, 2010

राम मुहम्मद सिंह आज़ाद (शहीद उधम सिंह ) को याद करते हूए .........................

उधम सिंह सुनाम    
- रोशन सुचान  
जो बन्दा पैदा होते ही यतीम हो जाए / बचपन कठिनाइओं से से गुजरे / रिश्तेदार , समाज भी गले ना लगायें / वो बन्दा बाल उम्र में जब ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध होने वाला जलसा सुनने जलियांवाला बाग़ (अमृतसर ) जाए तथा वहां जालिम अंग्रेजी पुलिस द्वारा निहतथे लोगों पर गोलियां चलाई जाएँ , हजारों लोग आँखों के सामने मौत के घाट उतार दिए जाएँ / और गोलियां चलाने का हुकम देने वाला काफ़िर गोरा डरके सात समुंदर पार अपने देश भाग जाय / तो देश के आत्मसम्मान पर लगा दाग मिटाने और उस गोरे की मेम को रंडी करने के लिए बंदा ना सिर्फ काफ़िर के देश पहुँच जाय , बल्कि उसे मारने के लिए मोके की तलाश में 21 साल तक होटलों पे बर्तन मांजता रहे / और 21 साल बाद मोका मिलने पर इन्कलाब जिंदाबाद का नारा लगाते हुए सारी गोलियां उसके भेजे में उतारते हूए बोले कि याद करो 21 साल पहले का वो दिन .......याद करो .... /   गोरे कहें की भाग जा बच जायगा / तो बोले मैं कोई चोर नहीं , इंकलाबी हूँ और पूछने पर अपना नाम राम मुहम्मद सिंह आज़ाद बताते हुए बोले कि हिन्दू , मुस्लिम , सिख , इसाई सभी कि तरफ से बदला ले लिया है / वो बंदा फांसी पर झूला किसके लिए ???  हम सभी के लिए , आज़ादी के लिए और आज़ादी के बाद एक ऐसा समाज बनाने के लिए जहां भूख , गरीबी, भ्रस्टाचार , बरोजगारी ना हो / शोषण ना हो / सभी के लिए न्याय हो /  पर सोचो कि क्या उनके सपनो का समाज हम बना पाए हैं ???? नहीं ना /  सोचो ! भारत माँ चोरों कि जकड़ में है ,रो रही है कुरला रही है  / काले अंग्रेज उसकी इज्जत को शरेआम नीलाम कर रहे हैं , बेच रहे हैं , वो एकेली है , उसे बचाने वाले राजगुरु , सुखदेव, भगत , उधम , आज़ाद तो आज नहीं हैं ........ पर हम तो हैं ना ! ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध आज़ादी के लिए 1857 और 1947 कि दो लड़ाइयां हमारे देशभगतों ने लड़ीं / राजगुरु , सुखदेव, भगत सिंह , उधम सिंह और चन्द्रशेखर आज़ाद के सपनो का भारत बनाने के लिए आज़ादी कि तीसरी लड़ाइ हमें लड़नी होगी / असली आज़ादी कि लड़ाइ ! जो भूख , गरीबी , बरोजगारी , भ्रस्टाचार , अन्याए और शोषण का अंत कर देगी / सदा सदा के लिए ..................... इन्कलाब जिंदाबाद ! साम्राज्यवाद मुर्दाबाद !!

दिसंबर 25, 2010

85th Anniversary of CPI - On Revolutionary Traditions of CPI


By P. K. Balan
Indian Communist Movement is now eighty-five years old. Communist Party was formed on December 26, 1925 at Kanpur (UP). Their objective was to fight for national independence and build socialism in this country.
The foundation conference was not a sudden event, there were several attempts made by then to establish a communist party within and outside the country. One notable attempt was made in 1920 at Tashkent, though did not succeed due to lack of support.
Much before the foundation conference in Kanpur, there were many groups and individuals functioning within the country from 1917 onwards, after the great Socialist Revolution of Russia. Important centers of the communist activities and movements were Bombay, Calcutta, Madras, Kanpur, Sholapur, Lahore etc.
Leftist ideas and Arrival of Marxism in India
Much before the formation of the Communist Party in the country, there was the leftist ideological influence already in existence.
In August, 1871, certain radical elements of Calcutta contacted Karl Marx trying to forge links with the International Workingmen’s Association founded by him.
It was in the same period when Bankim Chandra Chatterjee raised his voice against the colonial regime and also against the exploitation of the peasants by the landlords.
Again it was in 1892 that Ravindranath Tagore wrote on what the socialists want, ‘Socialists want that production and distribution should be vested in society in general and not in the hands of some powerful individuals. Freedom is impossible without material prosperity therefore wealth should be distributed among people, otherwise freedom can never spread to every one. Socialism seeks equal distribution of wealth and thereby reunify the society.’
In 1896 Swami Vivekananda declared, ‘I am a socialist, not because I think it is a prefect system, but because half a loaf is better than no bread.’
Tagore and Vivekanada never called for a radical transformation of society through struggles.
Lala Hardayal’s article ‘Karl Max, A Modern Rishi’ appeared in The Modern Review in March 1912. He was one of the Indian revolutionaries in exile. Born in 1884, he belonged to Delhi, got educated in Delhi and Lahore with a brilliant academic carrier. In England he came in contact with Shyamji Krishna Varma, spreading revolutionary propaganda among the Indian students of UK.
Rama Krishna Pillai of Kerala published a short biography of Karl Marx in Malayalam; first book on Marx in an Indian language. He made significant contribution to socialist ideas in Kerala during his short life. He died at the age of 38.
In the Gujarati magazine, “Navajivan” an article on Karl Marx by Ambalal Patel was published just one year before the great Socialist Revolution in Russia. In this article, the author stressed on the call made by Marx ‘Workers of the world, Unite: you have nothing to lose but your chains.’
It was the period when the workers of India were forced to live in inhuman conditions and toil for 17 to 18 hours a day for paltry wages.
It was then that the socialist ideas took roots in India.
Foundation Conference of the Communist Party of India
The first conference, that was also foundation conference, was held in Kanpur on December 26-28, 1925. Satyabhakta took initiative and invited all communist groups to meet in Kanpur (UP), where Bolshevic Conspiracy case was already in progress. Dange, Muzaffar Ahmad, Shaukat Usmani were among the accused.
Satyabhakta first announced his intention to set up a Communist Party in Hindi Daily Aaj of July 12, 1924.
The foundation conference of the CPI met at Kanpur on December 26, at 7 pm. The Indian National Congress was also having its session at Kanpur then. In fact, the first session of the Communist Conference was held in a special pandal built near the venue of the Congress session itself.
About 60 delegates besides 1500 observers took part in it and prominent among them were S.V. Ghate, Muzaffar Ahmad, K.N. Joglekar, K.S. Iyengar and R.S. Nimbkar.
Chairman of the reception committee of the conference was Maulana Hasrat Mohani and Singaravelu Chettiyar was the president. Maulana Hasrat Mohani was the first to move a resolution for complete independence at the Ahmedabad session of the India National Congress.
When the central committee of the CPI was constituted at Kanpur Com. Ghate and Janki Prasad Bagerhatta became general secretaries. Later on Bagerhatta left the party and S.V. Ghate remained as general secretary.
From 1926-27 onwards the CPI took up the task of building a militant trade union movement and initiating the Kisan movement.
Communists also functioned within the Indian National Congress and backed its radical section.
The communist pressure on Indian National Congress that kept growing with time was quite fruitful. It was due to this pressure that Gandhiji agreed to consider the complete independence question. In 1928 in Calcutta, Gandhiji made a solemn promises to do this in 1929.
In 1929, the government launched the famous Meerut conspiracy case against the entire leadership of the young CPI.
Jails and detention camps were very useful for having debates and convincing the national revolutionaries, popularly called terrorists. Marxist ideas and literature were made available and classes were taken. The result was many of them joined the CPI after their release from prison.
Among them were the heroes of the Ghadar movement like Baba Sohan Singh Bhakna, Santosh Singh, Kartar Singh Sarabha and Gurmukh Singh, colleagues of the immortal martyrs Bhagat Singh and Chandrashekhar Azad, Ajoy Ghosh, Shiv Verma. Disciples of Surya Sen of Chittagong Armoury Raid fame Ganesh Ghosh and Kalpana Dutt (later was married to P.C.J.) and hundreds of others convicted or otherwise joined the CPI.
Courageous soldier of the Garhwal Regiment Chandra Singh Garhwali, who refused to obey the order to fire at peaceful Satyagrahis in Peshawar during the Civil Disobedience Movement in 1930 and ordered his unit to ground arms, also found his place in the CPI. Irabot Singh, who led several anti-feudal upsurges and was called the hero of Manipur also joined the CPI. The famous Andaman prisoners also joined the CPI after their release.
An extended Central Executive Committee meeting of the CPI was held in Bombay on May 29-31 in 1927. This conference adopted a brief programme. It stated that the Congress leadership was showing signs of vacillations, so the CPI called upon all its members to enroll themselves as the members of the Indian National Congress and form a strong leftwing in all its organs. The CPI called for cooperation with the radical nationalists.
The meeting made certain changes in the constitution of the party.
Meerut Conspiracy Case (1929-33)
Launching conspiracy cases was a convention of British system which they adopted in India to suppress the revolutionary movements of our freedom struggle. In the famous Meerut conspiracy case, 32 leading communist and working class leaders of India were put its prison. Among them were P.C. Joshi, S.A. Dange, G. Adhikari, Muzaffar Ahmad, K.N. Joglekar, Sohan Singh Josh, Philip Spratt, S. V. Ghate and others. The British did this to suppress the spread of communist ideas in the country, but its result was just opposite. The case instead helped to popularize the ideology all over India.
Calcutta Conference 1933
After most of the prisoners of Meerut conspiracy case were released by the end of 1933, a small conference of the party was held in December, 1933 in Calcutta. Delegates from Bombay, UP, Punjab and Bengal attended and adopted a political resolution as well as new constitution of the party. It elected a new central committee and Dr. G. Adhikari became general secretary of the party.
Surat Meeting
A meeting of the communist leaders was organised in Surat by the end of December 1935. This meeting was attended by P.C. Joshi, Ajoy Ghosh, R.D. Bharadwaj, Michael Scott and others. In this Surat meeting Com. P.C. Joshi was elected as general secretary of the CPI. Within a few months Joshi established the Central Headquarters of the party at Calcutta.
Ajoy Ghosh was incharge for coordination for western zone, Bharadwaj for the northern zone and S.V. Ghate for southern zone of India.
First English Newspaper of CPI
Joshi started to bring out “The Communist” in English in a cyclostyled from. This was first paper from central headquarters of the party. It contained articles on ideological questions and on united front. Dimitrov thesis on united front came out in 1935. Com. Joshi become general secretary of the party after the 7th Congress of the Communist International held in Moscow in 1935.
Dimitrov thesis and Dutt-Bradley thesis on Indian conditions helped Joshi to formulate his policies and overcome the earlier sectarian positions of the CPI. Com. Joshi made an all out effort to make the party an all India one. Even though the party was formed in 1925, it did not become an all India party in the real sense of the term till PCJ took over as a general secretary of the party.
Under his leadership, the CPI built strong ties with the national movement and its leaders including Mahatma Gandhi and Pandit Jawaharlal Nehru as well as few other top leaders. In fact several top Congress leaders were helping the communist leaders in various ways. Motilal Nehru used to give money to the revolutionaries. Sarojini Naidu helped S.V. Ghate to come out jail.
Central Headquarters at Bombay
After the Congress ministries were formed in the seven provinces of India, the CPI found situation favorable to start a legal journal from Bombay. So the party headquarters was shifted to Bombay in 1938.
There in the central headquarters Com. K.R. and Govind played a very important role in bring out the party literature and also the central organ called National Front.
Party did not have money to buy a printing machine, so Com. K.R. sold his radio shop and went to buy an old press, but still money was not enough. To arrange money, he sold all his belongings including utensils. When the printing machine came, he found many parts missing and made them himself. It was then only that the party organ Naional Front could come out weekly.
That was the devotion of comrades at that time. They were all a devoted lot, sacrificing their lives for the party. Many of them did not marry even. Com. K.R. remained single all his life.
First issue of National Front came out on February 13, 1938 and its price was one anna.
Editorial board members were PCJ, BTR, A.K. Ghosh, S.A. Dange and S. Mehamudu Zzaffer. Joshi was the editor. He had a knack of spotting the best talents in every field and make them contribute their best to the party.
Because of this peculiar knack he got the services of R.S. Naidu, the foremost political cartoonist, D.G. Tendulkar, then freelance journalist cum photographer, and in later days edited Mahatma volumes. He also used the services of artist Chitto Prasad and photographer Sunil Jana.
In July, 1942, the illegal press was closed down and an open press was started bringing out the central organ with a different name, the Peoples War (weekly) in English, Hindi, Marathi, Gujarati and Urdu.
As the party and press grew, in 1943 a lino composing machine was bought. By the end of 1943 the combined circulation of the party organ People’s War was 70,000.
In 1945 there was an attack by certain political opponents on the party office and press. Our comrades fought heroically and repulsed the attack. Same way there was another attack in Delhi on the party office at Asaf Ali Road in October 1962 at the time of Indo-China border war.
First CPI Congress
The first party Congress of the CPI was held in 1943 in Bombay. The party was banned in 1934 by the British. Party was very small. By 1942, number of members went up to 5000. After a year, when it was made legal, there was a tremendous increase going up to 16000. Almost all the top leaders of the party attended the congress except Ajoy Ghosh and Bharadwaj. They could not attend due ill-health. P.C. Joshi in his rousing speech called upon the party to struggle for national unity and national independence.
Comrade Joshi was re-elected as general secretary. Several mass organisations were set up in this period.
In 1942, party committed serious mistakes in its policy and tactical line.
But it was also a fact that CPI conducted number of important struggle in the 40s. All these struggles helped the common man and increased the strength of the party. In the decade of 1936-47, under the leadership of Joshi party played an effective and constructive role. Party was gaining influence and was growing becoming a mass force. By December, 1947, the CPI leadership misunderstood the country’s political, historical situation and misunderstood the mood of the masses. It adopted an unrealistic, disastrous, sectarian, adventurist line in the second congress of the party held in March, 1948. Com. Joshi was removed unofficially even before the second congress. His removal was made official during the congress. Party changed its course and went in the opposite direction.
As a result of this line, thousands of comrades lost their life in the Telangana armed struggle. Adventurism destroyed the mass organisations and the mass base of the party.
This adventurist policy ran its full course in 1948 and 1949.
By 1950 the party was thoroughly isolated and its membership fell from 89,000 to less then 10,000. The then general secretary BTR was removed from his post in May 1950.
Com. Rajeswar Rao took over from him as general secretary for a short period. In this period he installed Andhra line, this resulted in much more crisis in the party.
Then a conference of the party was held in October 1951 and Com. Ajoy Ghosh was elected as general secretary.
5th Congress and Extra Ordinary Conference 1958
This Congress of the CPI was an important congress. It made certain very important changes in its constitution. They took a decision to become a mass party. Organisationally, a three-tier set up was introduced in the party.
Formation of the communist led government in Kerala after the second general elections prompted the party to change its political line. In the second general elections, in 10 out of 13 states, the Communist Party increased its strength.
By the time of Amritsar Congress (1958) the party had two lakh members on its rolls. It was at this session that, for the first time, the party accepted the perspective of possibilities of peaceful transition to socialism in India.
In 1961 party congress witnessed a big clash between two groups. An unofficial split in the party started taking place from 1961 onwards.
Com. Ajoy Ghosh died on January 13, 1962, after that there was national council meeting in April 1962. In this meeting, party added new members to the CEC including Sundarayya, Gangadhar Adhikari, Jyoti Basu, Harkishen Singh Surjeet, H.K. Vyas and Avtar Singh Malhotra. A new secretariat was constituted and its members were S.A. Dange, chairman, EMS Namboodiripad, general secretary, Bhupesh Gupta, Z.A. Ahmad, M.N. Govindan Nair, P. Sendarayya, Jyoti Basu, Surjeet, Yongendra Sharma.
There was no chairman’s post inside the CPI before this. This was done to accommodate both groups or both view points. Com Dange continued as a chairmen of the CPI till April 1981 (Till his expulsion).
Split in the Party
As has been written earlier, in the 1961 congress itself, party was almost on the point of a split, but Com. Ajoy Ghosh avoided the split. So the real split came in April 1964. There was national council meeting from April 10-15, 1964. The split came on the second day, on April 11, ’97, national council members were present with one invitee, and 32 members walked out of the meeting after EMS spoke and farmed a new party called CPI(M). Before this, these was one more split in the CPI in its early days, in 1930. At the time BTR left the party and started a new party called Bolshevik party and the split was taken to the trade union also. He had started Red Trade Union Congress against AITUC.

हरियाणा में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के विकास की कहानी ,डा .हरनाम सिंह पूर्व विधायक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी , हरियाणा


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भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ी कुछ यादें , * स्वर्ण सिंह विर्क * , भूतपूर्व सदस्य रास्ट्रीय परिषद , भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी



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ftys esa fctyh ikuh dh vHkwriwoZ fdYyr ij nks eghus yEck vkUnksyu O;kid ,drk dk;e djds ftyk ikVhZ us pyk;k ftl dh ifj.kfr vHkwriwoZ #i ls lQy fljlk can ds #i esa gqbZ A ckn esa fctyh vkiwfrZ esa lq/kkj gqvk A fctyh ikuh o eafM;ksa esa fdlkuks dh ywV ds jgkb”kh IykVksa] lkoZtfud forj.k iz.kkyh dh etcwrh] eagxkbZ] iSa”ku vkfn lokyksa ij [ksr etnwj izR;sd o’kZ vkanksyu pykrs vk jgs gS A
,-vkbZ-okbZ-,Q- o ,-vkbZ-,l-,Q- us ftyk ikVhZ o vU; gennksZ ds lg;ksx ls “kghn vkte Hkxr flag ds tUe “krkCnh o’kZ esa vf[ky Hkkjrh; ukStoku lHkk dk jk’Vªh; vf/kos”ku fljlk esa /kwe/kke ls lEiUu fd;k A ftyk ikVhZ] bldl izxfr”khy ys[kd la?k] vf[ky Hkkjrh; fdlku lHkk] gfj;k.kk [ksr etnwj ;wfu;u o gfj;k.kk efgyk lHkk ds vusd ftyk o jkT; lEesyu Hkh fljlk ikVhZ us lEiUu fd;s A ftys esa vkSVw >hy vkSj jaxksbZ ukys ds fuekZ.k ds ihNs Hkh dE;qfuLV ikVhZ o blds fofHkUu tu laxBuksa dh egrh Hkwfedk gS A gfj;k.kk niZ.k ikVhZ lIrkfgd 200 rd ftyk ikVhZ yxk;k djrh Fkh A ikVhZ Ldwyksa esa ikVhZ iqLrdksa dh izn”kZuh yxkbZ tkrh Fkh A ftys esa okeiaFk ds fy, ekgkSy rS;kj djus esa dk0 cynso cD”kh] ekLVj Jh jke u#yk] yhyk/kj nq%[kh] gjHktu flag jsuw] izks0 gjn;ky flag] Jh iw.kZ eqnfxy] izks0 lq[knso flag vkfn fo[;kr cqf)thfo;ksa dk ;ksxnku jgk gS A ftyk ikVhZ dk bfrgkl cgqr foLr`r gS A ,d laf{kIr ys[k esa eSa blds lkFk U;k; ugh dj ik;k A fnaoxr yksd dfo cyoar fla la/kw ,oa muds Mªkek LdoSM dh Hkwfedk Hkh egRoiw.kZ gS A fnoaxr lkfFk;ksa esa ls dqN ,d ukeksa dks yky lyke ds lkFk vkKk ysrk gw¡ % loZlkFkh ckck cark flag jkfy;k] vej flag jkfu;k] dk0 cychj flag #l] c`tyky ys/kk] xksdy pan eUxkyk] ckck pu.k falag ,oa  ykHkflag nenek] xqjnso flag ukuqvkuk] lqUnj flag Hkkonhu] bZLlj lgkj.kh] Lora=rk lsukuh uanyky [kSjsdka] egxka jke [kSjsdk] ckck vkRek jke vyhdk] xqjn;ky flag nslw eydk.kk] dUgS;kyky eysdka] djikyflag] lgtknk] isMkjke cIik] tksjkflag yDdMukyh] vtqZu flag lSukiky] mtkxjflag xkSfndk] xqjpj.k flag] ckck izhre flag lykjiqj] czg~ek flag nslwtks/kk] lEiw.kZ flga djaxkokyh] eksgu flag cjkM txthr uxj] ehj flag cjkM] lar lq[k flag] thr flag FksgMh] gqdek flag] cXxk flag] <+k.kh lruke] clkok jke] xqjeq[k jke cktsdka] izsejke fViw[ksM+k] vkseizdk”k “kekZ lksjMukyh] nythr flag [kaMqokfy;k] jktflag ve`rljdyka] “ksjflag FksgMh Lora= uxj] HkkbZ eagxk flag oS|okyk] HkkbZ lkSnkxj flag fldUnjiqj okn esa /kuwj] cgknj flag vyhdak] ckck thr flag oS|okyk] ckck c[krkoj ey oS|okyk¼ftUnk gS½] tksfxUnz flag igyoky jkf.k;k] izHkwn;ky egrk dqÙkkc<+] jke Lo#i jaxM+h] cgknqj flag nslw] d`ikjke ek[kk] xqtj flag jkf.k;ka] thrflag jkf.k;ka] d`ikflag jkf.k;ka] Qqe.k flag [kktk [ksM+k vkfn A

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के 85 वर्ष - जन संघर्ष एवं उप्लभदियाँ

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दिसंबर 24, 2010

घोटालों में रोजगार के अवसर अनन्त !

- रोशन सुचान 
एक अच्छी बात देश में यह हुई है कि लोग अब जान और मान गये हैं कि घोटालों के उन्नत अवसर यहाँ हैं , जिससे घोटालों का नया वातावरण बना है / यदि आप घोटाला करने पर आमदा ही हैं , तो कोई आपको रोकेगा नहीं / बल्कि जितना जैसा सहयोग देते बनेगा , देगा / कुछ नहीं तो आपके पकड़े जाने पर वह आपके पक्ष में ब्यान ही दे देगा कि इरादा बुरा नहीं था / पार्टी के लिए किया था , बच्चों के लिए अस्पताल बनाना था ,बच्चे कि शादी करनी थी , वर्कर्स को बांटना था , झंडे प्रिंट करने थे / यानि कि मामला अर्जेंट का था और घोटाले किए बगैर कोई चारा नहीं था , सो किया / इन बातों से यह हुआ है कि घोटालों के पक्ष में एक हवा सी बनी है / आप अगर घोटाला करना करना चाहते हैं , आइए बैठिए ! आपका स्वागत है / तो कौन सा घोटाला पसंद है आपको ? बैंकों वाला और शेयरों वाला तो आउट आफ डेट हो गया / हवाला भी अब पुराने फैशन में चला गया समझो / जनाब ! घोटालों का अपना तेजी से बदलता फैशन संसार है / आप कुछ नया लाइए / फिर देखिएगा चहुँ ओर लाल कालीनें ही कालीनें बिछी हैं , घोटालातुर चरणों के प्रतीक्षा मेंहमारी मोतिओं वाली कांग्रेस सरकार से ही सीखो / जो बोफोर्स , कॉमोडिटी एक्सचेंज स्कैम और यूरिया खाद के पुराने फैशन के बाद अब कॉमनवेल्थ गेमस , आदर्श सोसाइटी , 1 लाख 75 हजार करोड़ रूपए के 2 -जी स्पैक्ट्रम जैसे नए - नए फैशन के घोटाले लाँच कर रही है / पर सुसरे बी.जे.पी. वालों से यह फील- गुड देखा नहीं जा रहा / ओपोजिशन में हैं ना , बेचारे ! सोच रहे हैं कि ये कांग्रेस वाले तो हमसे भी एक कदम आगे निकल गये हैं / हमने तो महज कुछ हजार करोड़ के ताबूत ही खाए थे , पट्रोल पम्प आवंटन में थोडा सा भेदभाव किया था , कुछ पैसे लेकर बस सवाल ही पूछे थे , टाटा को विदेश संचार निगम कोडियों के भाव बेचा था / एयर इंडिया के संतूर होटल को 90 फीसदी कम कीमत पर बेचकर नयाँ कीर्तिमान बनाया था / पर ये तो 70 - 70 हजार करोड़ रूपए , 1 लाख 75 हजार करोड़ रूपए डकार गये और ........................................ आखिर हमारी बनाई नीतियां कारगर सिद्ध हो रही हैं न ! परन्तु इतने घोटालों के चलते कुछ बेवकूफ तथा निराशावादी किस्म के लोग यह मानने लग गये हैं कि देश में पर्याप्त किस्मों के घोटाले हो चुके हैं तथा अब और घोटाले संभव नहीं / मैंने अपने एक नेता - मित्र से बात की, कि बंधू आजकल किस नए घोटाले के गुताड़े में हो , तो वह दुखी होकर रोने लगा कि यार , अब कोई नयाँ घोटाला तो बचा ही नहीं है , क्या करें ? सब तो कर चुके / देश बेच दिया , सारे बैंक ख़ाली कर दिए, राष्ट्र की खाट खड़ी करके उसके पाए निकालकर बेच डाले , भारत की जमीन कि रजिस्ट्री बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के नाम कर दी , हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच खाई को इतना खोदा कि अब स्वयं ही उस खाई में हमारी कब्र बन गई है / अब घोटाला करने को और बचा ही क्या है , जो करें ? मैं उसके दुःख से दुखी हुआ / मेरा क्या है कि किसी का दुःख देखा नहीं जाता मुझसे / मैंने अपना कर्तव्य निभाते हुए अपने नेता मित्र को समझाया कि घोटालों के अवसर अभी भी अनन्त हैं / दूरदृष्टी  और पक्के इरादे के अपने पुराने तिलिस्मी नारे को याद कीजिए और लग लीजिए / हिम्मत करो तो घोटाले ही घोटाले / काहे को टालें / बस ,रखें रहें तिकडमों कि बरछियां , जुगाड़ों के तीर और राजनीति के भाले / मैंने उसे सलाह देते कहा कि देश को किराए पर चढ़ा दो , ऊँची पगड़ी लेकर / पगड़ी कि रकम स्विस बैंक में / या ये घपला ट्राई कीजिए , लाल किले कि ईंटें बेच दीजिए , ताजमहल की नीवं की बोली लगवा दीजिए और संसद की पुताई का ठेका अमेरिका को दे दीजिए / बिल्लियों को चूहा पकड़ने की ट्रेनिंग देने के लिए विदेश भिजवाईए / संसद अपने सत्रों के इलावा और दिनों में ख़ाली पड़ी रहती है , ख़ाली संसद को किराए पर चढ़ा दें / देखिए तो / घपले अनेक हैं / अभी किया ही क्या है ? घपले करो / बनाइए जनता को उल्लू / पकड़े जाएँ तो कहिए दोष व्यवस्था का है , जो हमसे घोटाले करवाती है / वरना हम तो भोले हैं / हम तो गऊ हैं / घास खाने निकलते हैं और जहां हरी - हरी दिखी तो मुहँ मार लेते हैं और गोबर भी नहीं करते / बस वैसा ही कुछ ब्यान दीजिए / लोग मान लेंगे / ' बेचारा ' - ऐसा कहेंगे वे / हो सकता है कि सहानुभूति कि लहर चल पड़े आपके पक्ष में कि लेते सभी हैं , पर बेचारा यही फंस गया / क्या करे बेचारा , उपर तक तो पहुंचना पड़ता है / गलत जगह सहानुभूति रखने कि उज्जवल परम्परा है भारतीय जन कि / आप डरिए मत / आपका कुछ नहीं बिगड़ेगा / पहले वालों का कोनसा बिगड़ा है ? आइए , घोटाला करें / खैर कर तो आप बरसों से रहे हैं / मेरा तात्पर्य है कि रुकें नहीं / करते रहें /

दिसंबर 21, 2010

Fidel Castro message to the opening ceremony of the 17th WFYS


     December 14th, 2010
Comrades: It is a great pleasure and honour for me to agree to the request that you made for me to send a message to the 17th World Festival of Youth and Students that is taking place in the Homeland of Nelson Mandela, the living symbol of the struggle against the odious apartheid system.
Cuba hosted two world festivals: the 11th in 1978 and the 14th in 1997.
For the first time, the Festival ceased to be held in Europe and took place in a country in this hemisphere.
The decision was made by the 9th Assembly of the World Federation of Democratic Youth which was held in Varna, Bulgaria at the end of 1974.
Those were different times: the world was facing serious problems, but ones that were less dramatic. The more progressive youth was fighting for the right of all human beings to a decent life; the old dream of the greatest thinkers of our species when it was clear that science, technology, the productivity of labour and the development of consciousness was making it possible.
In a brief lapse of time, globalization accelerated, communications reached unsuspected levels, the means to promote education, health and culture multiplied. Our dreams were not without foundation. In that spirit, the 11th World Festival of Youth and Students took place and our people also took part in it.
At the General Council of the World Federation of Democratic Youth, held precisely in heroic South Africa at the beginning of October in 1995, it was approved to hold the 14th Festival in Havana; 12,000 delegates from 132 countries would be taking part. Our country at that time had been struggling for almost 37 years in the political and ideological battle against the empire and its brutal economic blockade.
Until the decade of the 1980s, not only were the Peoples’ Republic of China, the Democratic Peoples’ Republic of Korea, Vietnam, Laos and Kampuchea in existence who had been withstanding genocidal wars and the crimes of the Yankees, but also the socialist bloc in Europe and the Union of Socialist Soviet Republics, an enormous multinational State with 22,402,200 square kilometres, enormous resources of agricultural lands, forests, oil, gas, minerals and more. Face to face with the imperialist superpower, with its more than 800 military bases deployed throughout the planet, the socialist superpower was surging.
The dissolution of the USSR, whatever the errors may have been at one or another moment in history, constituted a rough blow to the world’s progressive movement.
The Yankees moved quickly and spread their military bases and the use of facilities constructed by the USSR in order to encircle more tightly, with their war machinery the Russian Federation which continued to be a great power.
The military bravado of the United States and its NATO allies increased in Europe and Asia. They unleashed the Kosovo War and disintegrated Serbia.
Within the area of our hemisphere, even before the collapse of the USSR, they invaded the Dominican Republic in 1965; they bombed and intervened in Nicaragua with mercenaries; their regular troops invaded Grenada, Panama and Haiti; they promoted bloody military coups in Chile, Argentina and Uruguay and supported Stroessner’s brutal repression in Paraguay.
They created the School of the Americas where they were not only training thousands of Latin American officers in conspiracies and coups d’état, but they were also familiarizing many with doctrines of hate and sophisticated torture practices while they were presenting themselves to the world as champions of “human rights and democracy”.
In the first decade of this century, the imperialist superpower appears to be overflowing its own riverbanks.
The bloody events of September 11, 2001, when the Twin Towers of New York City were destroyed -a dramatic episode where around 3,000 persons lost their lives- and the subsequent attack on the Pentagon, fit like a glove on the hand of that unscrupulous adventurer George W. Bush for him to orchestrate the so-called war on terrorism that constitutes, simply, a dangerous escalation of the brutal policy that the US has been applying on our planet.
There has been more than sufficient proof of the embarrassing complicity of the NATO countries in such a reproachable war. That warmongering organization has just proclaimed its aim to intervene in any country in the world, wherever it feels that its interests, that is, US interests, are being threatened.
The monopoly on the mass media, in the hands of the huge capitalist transnationals, has been used by imperialism to sow lies, create conditioned reflexes and to develop egoistical instincts.
While the youth and students were travelling to South Africa to fight for a world in peace, with dignity and justice, in Great Britain university students and their professors were waging a pitched battle against the considerable and well-equipped repressive police who, on their spirited horses, were attacking them. There have been few times, and perhaps never, that we have seen such a show of capitalist “democracy”. The neoliberal governing parties, exercising their role of the police force of the oligarchy, betraying their electoral promises, passed measures in Parliament that raised the yearly fees for university students to $14,000. The worst of it all was the nerve with which the neoliberal parliamentarians stated that the “market was resolving that problem”. Only the rich had the right to a university degree.
A few days ago, the present US Defense Secretary Robert Gates, commenting on the secrets divulged by WikiLeaks stated: “The fact is, governments deal with the United States because it’s in their interest, not because they like us, not because they trust us, and not because they believe we can keep secrets. [...] some governments deal with us because they fear us, some because they respect us, most because they need us. We are still essentially, as has been said before, the indispensable nation”.
Not a few intelligent and well-informed people harbour the conviction that the Yankee Empire, like all those coming before it, has entered its final phase and that the signs are irrefutable.
An article published on the TomDispatch website, translated from English by the Rebelión website presents four hypotheses about the probable course of events in the United States, and in all of them, world war appears as one of the possibilities even though it does not exclude that there may be another option. It adds that definitely that country will lose its dominant role in world exports of goods and in less than 15 years it will lose its dominant role in innovative technology and the privileged function of the dollar as the reserve currency. It quotes that already this year China has reached 12% in comparison to the US 11% in world exports of goods and it mentioned the presentation in October of this year by the Chinese Minister of Defence of the Tianhe-1ª super-computer, something so powerful that, in the words of an American expert, “it wipes out the No. 1 machine” existing in the United States.
Our dear compatriots, upon arriving in South Africa, among their first activities, paid fully-deserved tribute to the internationalist combatants who gave their lives fighting for Africa.
Fort the last 12 years, in neighbouring Haiti, our medical mission provides its services to the Haitian people; today, with the cooperation of the internationalist doctors graduated from ELAM (the Latin American School of Medicine). They also fight there for Africa by doing battle against the cholera epidemic, the disease of poverty, to prevent its spreading to that continent where, just like in Latin America, there is a lot of poverty. With their acquired experience, our doctors have extraordinarily lowered the death rate. Very near to South Africa, in Zimbabwe, in August of 2008, that epidemic broke out “explosively”, according to the Harare “Herald”. Robert Mugabe accused the governments of the United States and Great Britain of introducing the disease.
As proof of the total lack of Yankee scruples, it is necessary to remember that the government of the United States delivered nuclear weapons to the apartheid regime; the racists were at the point of using them against Cuban and Angolan troops which, after the victory at Cuito Cuanavale, were advancing southward, where the Cuban command, having suspicions about that danger, adopted the pertinent measures and tactics to give them total control of the air space. If they should try to use such weapons, they wouldn’t have obtained victory.
But it is legitimate to wonder: what would have happened if the South African racists had used nuclear weapons against the Cuban and Angolan troops? What would the international reaction have been? How would such a barbaric act have been justified? How would the USSR have reacted? These are questions we must ask ourselves.
When the racists handed over the government to Nelson Mandela, they didn’t say a single word to him, nor did they say what they did with those weapons. Investigation and the denunciation of such events would be of great service to the world, at this time. Dear compatriots, I urge you to present this topic at the World Festival of Youth and Students.

दिसंबर 12, 2010

इंग्लैंड का छात्र आन्दोलन : भूमंडलीकरण के विरुद्ध बगावत ............................



उदारीकरण के विरुद्ध दुनियाभर में छात्र -आन्दोलन आग की तरह फैलता जा रहा है /फ़्रांस के विद्यार्थीयो द्वारा लीड लेने के बाद इटली और अब इंग्लैंड में फीस वृद्धि और शिक्षा के बाजारीकरण के विरोध में छात्र आन्दोलन उग्र रूप धारण कर चुका है,दरअसल वर्ल्ड-बैंक ,आई .ऍम .एफ़ के दबाव में  सरकारें शिक्षा को जन्कल्यानकारी-एजंडे से मुक्त कर बाजार की ताकतों के हवाले कर रहीं है , जिसकी मार गरीब और मध्यम वर्ग पर पड़ रही है/शिक्षा पर बजट लगातार घटाने से फीसें बढ़ रही हैं ,जिससे युवाओं में पैदा हूई बैचैनी एक नए वैश्विक युवा आन्दोलन की पृष्ठभूमि को जन्म दे  रही है / इंग्लैंड की सरकार ने संसद में बिल लाकर कालेजों की टयूशन-फीस को तीन गुना बढ़ाकर ३००० पाउंड वार्षिक से ९००० पाउंड कर दिया है/शिक्षा पर हुए इस हमले के विरोध में उग्र विद्यार्थीयो ने प्रिंस-चार्ल्स तक की गाड़ी पर पत्थरों से हमला कर दिया / संसद पर प्रर्दर्शन के दोरान आगजनी, तोड़फोड़ की घटनाओं में ५० प्रर्दर्शन कारी घायल हुए हैं/पूरे इंग्लैंड  में छात्र आन्दोलन उग्र होकर फ़ैल चुका है /सरकार और पुलिस की ज्यादतिओं की विरोध में वामपंथी छात्र संगठन यू.सी.यू ., एन.यू.एस. सहित आठ छात्र संगठनों ने 13 दिसम्बर को शिक्षण - संस्थानों में नेशनल बंद का आह्वान किया है /दरअसल उदारीकरण में जनता को जीवन की बुनियादी सुविधाएं प्राथमिक चिकित्सा, भोजन ,शिक्षा,आवास, पेयजलआदि तक नहीं है , जिसके कारण सामजिक बेचैनी बढ़ रही है/इधर भारत में भी एक जमाना था अब शिक्षण -संस्थानों को शिक्षक , डॉक्टर , वकील, बुद्धिजीवी आदि चलाते थे पर अब इनपर राजनेताओं , भूमाफियाओं और धन्नासेठों का कब्ज़ा है  /  केंद्र और राज्य सरकारें वर्ल्ड बैंक के दबाव में अपनी शिक्षा नीतियां बना रही हैं जिससे निजी शिक्षण संस्थान कुकरमतों की तरह गली गली में खुल रहे हैं और अब निजी और विदेशी विश्वविद्यालयों की भी बाड़ आने वाली है. घोटालों में लिप्त यू.पी.ए. -2  ने शिक्षा में अघोषित आपातकाल लागू  कर दिया है और उसे 25 करोड़ बेरोजगारों की कोई चिंता नहीं है , बढ़ती बेरोजगारी से युवाओं में भारी निराशा और बेचैनी है/यद्धपि भारत में जनसाधारण और युवाओं के आक्रोश ने संगठित आन्दोलन का रूप नहीं लिया है और उसकी स्पष्ट दिशा भी तय नहीं हुई है/लेकिन केंद्र सरकार को  बढ़ती बेरोजगारी और शिक्षा के बाजारीकरण के विरुद्ध अपनी नीतियों को बदलना होगा , वर्ना वो दिन दूर नहीं जब भारत में भी विशाल युवा आन्दोलन पनप उठेगा /इंग्लैंड ,फ्रांस और इटली की घटनाएँ  आकस्मिक घटनाएँ नहीं हैं , बल्कि यह  भूमंडलीकरण के विरुद्ध युवाओं की बगावत है जो इंग्लैंड तक रुकने वाली नहीं हैं/ शायद वैश्विक युवा आन्दोलन उदारीकरण के विरुद्ध संघर्ष में नया इतिहास रचेगा ! !!    !!!   ............