जुलाई 30, 2011

आओ संगठित होकर लड़ें , इन्कलाब के लिए





 
राम मुहम्मद सिंह आज़ाद को याद करते हूए ............
जो बन्दा पैदा होते ही यतीम हो जाए . बचपन कठिनाइओं से गुजरे . रिश्तेदार , समाज भी गले ना लगायें . वो बन्दा बाल उम्र में जब ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध होने वाला जलसा सुनने जलियांवाला बाग़ जाए , वहां जालिम अंग्रेजी पुलिस द्वारा निहतथे लोगों पर गोलियां चलाई जाएँ , हजारों लोग आँखों के सामने मौत के घाट उतार दिए जाएँ . और गोलियां चलाने का हुकम देने वाला काफ़िर गोरा डरके सात समुंदर पार अपने देश भाग जाय . तो देश के आत्मसम्मान पर लगा दाग मिटाने बंदा ना सिर्फ काफ़िर के देश पहुँच जाय , बल्कि उसे मारने के लिए मोके की तलाश में 21 साल तक होटलों पे बर्तन मांजता रहे .और 21 साल बाद मोका मिलने पर इन्कलाब जिंदाबाद का नारा लगाते हुए सारी गोलियां उसके भेजे में उतारते हूए बोले कि याद करो 21 साल पहले का वो दिन .......याद करो ....   गोरे कहें की भाग जा बच जायगा . तो बोले मैं कोई चोर नहीं , इंकलाबी हूँ और पूछने पर अपना नाम राम मुहम्मद सिंह आज़ाद बताते हुए बोले कि हिन्दू , मुस्लिम , सिख , इसाई सभी कि तरफ से बदला ले लिया है . वो बंदा फांसी पर झूल गया . किसके लिए ???  हम सभी के लिए , आज़ादी के लिए और आज़ादी के बाद एक ऐसा समाज बनाने के लिए जहां भूख , गरीबी, भ्रस्टाचार , बरोजगारी ना हो . शोषण ना हो . सभी के लिए न्याय हो .  सोचो कि क्या उनके सपनो का समाज हम बना पाए हैं ???? नहीं .  काले अंग्रेजों से देश को बचाने वाले राजगुरु , सुखदेव, भगत , उधम , आज़ाद तो आज नहीं हैं ........ पर हम तो हैं ना ! आज का पूंजीवादी प्रबंध मानवविरोधी होने के कारण अपने मुनाफे के ढेर को बड़ा कर रहा है. पूंजी कुछ ही हाथों में , यहाँ तक की एक ही हाथ में चले जाने का काम कर रहा है . एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया की आबादी के महज़ 2 प्रतिशत लोगों के पास कुल दौलत का 50 फीसदी है , उससे नीचे वाले 8 प्रतिशत लोगों के पास 35 प्रतिशत दौलत है , नीचे वाले 20 प्रतिशत के पास 4 प्रतिशत , उससे नीचे वाले 20 प्रतिशत के पास 3 प्रतिशत , नीचे वाले 20 प्रतिशत लोगों के पास 2 प्रतिशत दौलत है , सबसे नीचे वाले 20 प्रतिशत लोगों के पास कुल दौलत का महज़ 1 प्रतिशत है . यानी की 20 प्रतिशत आबादी के पास 89 प्रतिशत और 80 प्रतिशत के पास भीख के रूप में महज़ 11 प्रतिशत दौलत है .  भारत में सिर्फ 533 अमीर लोगों के पास 1232135 करोड़ रुपयों की संपत्ति है . दूसरी तरफ गरीब दरिद्रता में जी रहा है ,  उसके पास न अपने बच्चों को पढाने के लिए पैसा है , न इलाज के लिए .  नोजवानो के लिए इस प्रबंध के पास कोई रोज़गार नहीं है . उच्च शिक्षा में सुधार के नाम पर जिस तरह से खुले बाजारीकरण को बढ़ावा दिया गया है, उसके कारण आम विद्यार्थियों के लिए उच्च शिक्षा का बढ़ता खर्च उठाना दिन पर दिन मुश्किल होता जा रहा है . सो  ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध आज़ादी के लिए 1857 और 1947 कि दो लड़ाइयां हमारे देशभगतों ने लड़ीं .राजगुरु , सुखदेव, भगत सिंह , उधम सिंह और चन्द्रशेखर आज़ाद के सपनो का भारत बनाने के लिए आज़ादी कि तीसरी लड़ाइ हमें लड़नी होगी .  जो भूख , गरीबी , बरोजगारी , भ्रस्टाचार , अन्याए और शोषण का अंत कर देगी . सदा सदा के लिए . देश का भविष्‍य अब हम नौजवानों के सहारे है .  , आओ  संगठित होकर लड़ें  , इन्कलाब के लिए .................... 

 
इन्कलाब जिंदाबाद ! साम्राज्यवाद मुर्दाबाद !!
- रोशन सुचान





जुलाई 26, 2011

देशी विश्वविद्यालयों की कब्र पर विदेशी विश्वविद्यालयों की ईमारत


विदेशी नहीं, देशी विश्वविद्यालयों से ज्ञान महाशक्ति बनने का ख्वाब होगा पूरा

पता नही, मनमोहन सिंह सरकार के कैबिनेट मंत्रियों ने विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में अपने परिसर खोलने की इजाजत देनेवाले विधेयक को मंजूरी देते समय बी.बी.सी की वह खबर पढ़ी थी या नहीं जिसके मुताबिक ब्रिटेन में विश्वविद्यालयों की ऊंची फ़ीस चुकाने के लिए विद्यार्थी देह व्यापार करने से लेकर पोर्न फिल्मों में काम करने को मजबूर हो रहे हैं. बी.बी.सी की एक ताजा रिपोर्ट के अनुसार ब्रिटेन के किंग्स्टन विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर रान रोबर्ट्स के सर्वेक्षण में एक चौंकानेवाला तथ्य सामने आया है कि ब्रिटेन में उच्च शिक्षा के भारी खर्चों को उठाने के लिए लगभग 25 फीसदी विद्यार्थियों को देह व्यापार में उतरने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है. दस वर्षों पहले तक ऐसे विद्यार्थियों की संख्या सिर्फ तीन प्रतिशत थी. साफ है कि पिछले डेढ़-दो दशकों में ब्रिटेन में उच्च शिक्षा में सुधार के नाम पर जिस तरह से खुले बाजारीकरण को बढ़ावा दिया गया है, उसके कारण आम विद्यार्थियों के लिए उच्च शिक्षा का बढ़ता खर्च उठाना दिन पर दिन मुश्किल होता जा रहा है.


ब्रिटेन ही नहीं, अमेरिका में भी हालात कुछ खास बेहतर नहीं हैं. अमेरिकी कालेज बोर्ड की एक रिपोर्ट के मुताबिक अमेरिका में स्नातक की डिग्री हासिल करनेवाले दो-तिहाई छात्रों पर औसतन 20 हजार डालर का शिक्षा कर्ज होता है जबकि उनमें से 10 फीसदी 40 हजार डालर से अधिक के कर्ज में डूबे होते हैं. याद रहे यह सिर्फ कालेज/विश्वविद्यालयों की ऊंची फीसों को चुकाने के लिए लिया गया कर्ज है. इसमें अन्य खर्चे शामिल नहीं हैं. दोहराने की जरूरत नहीं है कि अमेरिका और ब्रिटेन ही नहीं, अधिकांश विकसित पूंजीवादी देशों में लगातार महंगी होती उच्च शिक्षा आम विद्यार्थियों के बूते से बाहर होती जा रही है. यह भारत जैसे विकासशील देशों के लिए एक सबक है जहां सरकार और नीति-निर्माताओं को लगता है कि उच्च शिक्षा के क्षेत्र में उनकी सभी समस्याओं का हल अमेरिकी और पश्चिमी उच्च शिक्षा व्यवस्था की आंख मूंदकर नक़ल करना है.


जाहिर है कि यू.पी.ए सरकार भी इसकी अपवाद नहीं है जिसे लग रहा है कि विदेशी विश्वविद्यालयों के आने से देश में उच्च शिक्षा में क्रांति हो जाएगी. विदेशी शिक्षा प्रदाता विधेयक लाने के लिए दिन-रात एक करनेवाले मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल को विश्वास है कि,"विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए देश में आने का दरवाजा खोलना टेलीकाम क्रांति से भी बड़ी क्रांति साबित होगी." विदेशी विश्वविद्यालयों के पक्ष में सिब्बल का सबसे बड़ा तर्क यह है कि इससे उच्च शिक्षा के क्षेत्र में प्रतियोगिता को बढ़ावा मिलेगा और नतीजे में देशी विश्वविद्यालयों की गुणवत्ता में भी सुधार होगा. इससे उच्चस्तरीय शोध और शिक्षण का माहौल बनेगा. सिब्बल का यह भी तर्क है कि विदेशी विश्वविद्यालयों के आने से उन विद्यार्थियों को फायदा होगा जो धन की कमी के कारण बेहतर और गुणवत्तापूर्ण उच्च शिक्षा हासिल करने के लिए विदेश नहीं जा पाते हैं. उन्हें विदेशी विश्वविद्यालयों की डिग्री विदेशों की तुलना में आधी या एक चौथाई फ़ीस में देश में ही मिल जाएगी.


लेकिन लगता है कि सिब्बल मुंगेरीलाल के हसीन सपनो में जी रहे हैं. पहली बात तो यह है कि विदेशी विश्वविद्यालयों को अनुमति देने के बावजूद इस बात की संभावना बहुत कम है कि दुनिया के बेहतरीन ५० विश्वविद्यालयों में से कोई विश्वविद्यालय भारत में अपना परिसर खोलने आएगा. इन विश्वविद्यालयों में से अधिकांश ने अपने देश में ही अपने दूसरे परिसर नहीं खोले हैं. असल में, विश्वविद्यालय खोलने और फैक्टरी खोलने में फर्क है. विश्वविद्यालय फैक्टरी नहीं हैं कि उन्हें कहीं से उठाया और कहीं शुरू कर दिया. भूलिए मत कि अधिकांश विश्वविद्यालय एक दिन में नहीं बल्कि अपनी खास ऐतिहासिक परिस्थितियों में बने और फले-फूले हैं. अच्छा होता अगर सिब्बल साहब ने इस बारे में यशपाल समिति की रिपोर्ट को ध्यान से पढ़ा होता. रिपोर्ट में कहा गया है कि ‘यह बात याद रखी जानी चाहिए कि विश्वविद्यालय अपने सामाजिक, सांस्कृतिक और भौगोलिक परिस्थितियों के साथ जीवंत संबंधों के बीच विकसित होते हैं और उनमें से सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालय को भी किसी और जगह प्रत्यारोपित करके उतना ही बेहतर प्रदर्शन करने की अपेक्षा नहीं की जा सकती है. किसी विश्वविद्यालय की खास पहचान उसके पाठ्यक्रमों से ही नहीं बल्कि उसकी भौतिक उपस्थिति से भी होती है.’


साफ है कि बेहतरीन से बेहतरीन विश्वविद्यालय के भी भारत में परिसर खोलने का अर्थ यह नहीं होगा कि रातोंरात देश में एक नया ऑक्सफोर्ड या कैम्ब्रिज या हार्वर्ड बन जायेगा. कहने की जरूरत नहीं है कि इस सच्चाई को बड़े और बेहतर विदेशी विश्वविद्यालय भी जानते हैं. वे हरगिज नहीं चाहेंगे कि दशकों में बना उनका ब्रांड दूसरे या तीसरे दर्जे के विदेशी परिसर के कारण खतरे में पड़ जाये. इसीलिए इनमें से अधिकांश भारत में परिसर खोलने को लेकर बहुत उत्साहित नहीं हैं. ऐसी स्थिति में खतरा यह है कि विदेशी विश्वविद्यालयों के नाम पर दूसरे और तीसरे दर्जे के संस्थान और विश्वविद्यालय शिक्षा का व्यापार करने के इरादे से देश में न आने लगें. हालांकि सरकार यह दावा कर रही है कि वह विदेशी विश्वविद्यालयों को मुनाफा कमाकर वापस अपने देश नहीं ले जाने देगी लेकिन दूसरी ओर, वह मुनाफा बाहर ले जाने का चोर दरवाजा भी खोल रही है. इन विश्वविद्यालयों को कंसल्टेंसी आदि के जरिये कमाई गई रकम वापस ले जाने की अनुमति होगी. भारत में विनियामक और नियंत्रक संस्थाओं/एजेंसियों की मौजूदा स्थिति को देखते हुए सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि इस चोर दरवाजे कमाई निकल ले जाना कितना आसान होगा.


इसीलिए इस आशंका को बल मिल रहा है कि विदेशी विश्वविद्यालयों के नाम पर भारतीयों के एक हिस्से में विदेशी डिग्री के प्रति विशेष मोह को भुनाने के लिए दूसरे और तीसरे दर्जे के विदेशी संस्थान या विश्वविद्यालय शिक्षा की दुकानें खोलने और मुनाफा कमाने उतर पड़ेंगे. खासकर रोजगार दिलाने का वायदा करनेवाले कथित व्यावसायिक पाठ्यक्रमों की बाढ़ सी आ जायेगी जिनमें मनमानी फ़ीस वसूलने के बावजूद गुणवत्ता की कोई गारंटी नहीं होगी. इस मामले में, भारत और दुनिया के अन्य देशों के अभी तक के अनुभवों से भी स्पष्ट है कि विदेशी विश्वविद्यालयों के नाम पर अधिकतर तीसरे दर्जे के विश्वविद्यालय ही मुनाफा कमाने के इरादे से परिसर खोलने आते हैं. यही नहीं, यू.पी.ए सरकार ने विदेशी विश्वविद्यालय विधेयक में इन विश्वविद्यालयों को उन राष्ट्रीय कानूनों और सामाजिक दायित्व की जिम्मेदारियों से भी बाहर रखा है जो देशी विश्वविद्यालयों पर लागू होते हैं. उन्हें अपनी फ़ीस तय करने से लेकर पाठ्यक्रम/शिक्षक/छात्र आदि चुनने और उनकी सेवा शर्तों को निश्चित करने का अधिकार होगा.

आखिर क्यों? क्या विदेशी विश्वविद्यालयों को आमंत्रित करना इतना जरूरी हो गया है कि उनके लिए देशी कानूनों को भी परे रख दिया जाए? क्या विदेशी विश्वविद्यालयों के बिना उच्च शिक्षा की समस्याएं हल नहीं होंगी? सच यह है कि सरकार की उच्च शिक्षा की समस्याएं हल करने में कोई दिलचस्पी नहीं है. वह न सिर्फ अपनी जिम्मेदारी से भाग रही है बल्कि उच्च शिक्षा को देशी-विदेशी निजी संस्थानों के हवाले करने की पेशकश कर रही है. अगर सरकार की उच्च शिक्षा को बेहतर बनाने में सचमुच दिलचस्पी होती तो वह विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए उनकी शर्तों पर देश के दरवाजे खोलने के बजाय देशी विश्वविद्यालयों को अंतर्राष्ट्रीय स्तर का बनाने के लिए ईमानदारी से प्रयास करती. देश के सैकड़ों विश्वविद्यालय सरकारी उपेक्षा और लापरवाही के कारण बर्बाद हो रहे हैं. क्या सरकार देशी विश्वविद्यालयों की कब्र पर विदेशी विश्वविद्यालयों की इमारतें खड़ी करने की तयारी कर रही है?


यहाँ चीन का उल्लेख करना प्रासंगिक होगा जिसका आजकल हर बात में उदाहरण दिया जाता है. चीन ने विदेशी विश्वविद्यालयों को बुलाने के बजाय अपने देशी विश्वविद्यालयों को वैश्विक स्तर का बनाने के लिए पिछले कुछ वर्षों में योजनाबद्ध प्रयास किया है. उसने अपने विश्वविद्यालयों को अरबों डालर के संसाधन मुहैया कराए हैं और उसी का नतीजा है कि चीन में आज एक दर्जन से भी अधिक ऐसे विश्वविद्यालय हैं जो दुनिया के सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों की सूची में शामिल हैं और अनेकों विश्वविद्यालय उस दिशा में बढ़ रहे हैं. याद रखिये, उधार के ज्ञान की सीमा होती है. उधार के ज्ञान पर दुनिया का कोई देश विश्व की महाशक्ति नहीं बना है. अगर देश सचमुच ज्ञान महाशक्ति बनना चाहता है तो उसे बाहर नहीं, देश के अंदर पटना, इलाहबाद, लखनऊ और गोरखपुर जैसे देशी विश्वविद्यालयों की सुध लेनी पड़ेगी
- आनंद प्रधान
साभार : तीसरा रास्ता .

क्या राहुल गाँधी सचमुच चाहते हैं छात्रसंघ?




छात्रसंघों को गाली देने के बजाय उन्हें अनिवार्य बनाने के लिए संसद कानून पारित करे


कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी चाहते हैं कि अलीगढ, इलाहाबाद और बनारस विश्वविद्यालयों में छात्रसंघ बहाल किए जाएं. अच्छा है, देर से ही सही उन्हें छात्रसंघों की याद आई. अन्यथा जब से वे राजनीति में आए हैं, एक के बाद एक बचे-खुचे छात्रसंघों को भी खत्म करने की ही मुहिम चल रही है.

हालांकि छात्रसंघों को खत्म करने की यह मुहिम पिछले दो दशकों से भी ज्यादा समय से चल रही है और इसके लिए व्यक्तिगत तौर पर वे दोषी नहीं हैं लेकिन सच यह भी है कि कांग्रेस के राज में ही छात्रसंघों को प्रतिबंधित और छात्र राजनीति को खत्म करने का अभियान शुरू हुआ और परवान चढ़ा.

तथ्य यह भी है कि जिन दिनों में राहुल गांधी युवा नेता के रूप में तेजी से राजनीति की सीढियाँ चढ रहे थे, उन्हीं दिनों में छात्र राजनीति के सुंदरीकरण के नाम पर सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर यू.पी.ए सरकार द्वारा गठित लिंगदोह समिति ने छात्रसंघों के बधियाकरण की सिफारिश की जिसे उनकी सरकार ने खुशी-खुशी लागू कर दिया. नतीजा- उसके बाद से ही देश के सबसे बेहतरीन विश्वविद्यालयों में से एक जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय के अत्यंत लोकतान्त्रिक और साफ-सुथरे छात्रसंघ चुनाव भी बंद हो गए हैं.

हालांकि उत्तर प्रदेश के केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में छात्रसंघ चुनावों की मांग करते हुए युवराज को जे.एन.यू ही नहीं, दिल्ली के जामिया मिल्लिया का ध्यान नहीं आया जहां पिछले कई सालों से छात्रसंघ चुनाव नहीं हुए हैं.

लेकिन बात सिर्फ बी.एच.यू, जे.एन.यू, ए.एम.यू, इलाहाबाद या जामिया की ही नहीं है बल्कि स्थिति यह है कि देश के अधिकांश राज्यों के विश्वविद्यालयों और कालेजों में छात्रसंघ के चुनाव नहीं हो रहे हैं. यहां तक कि केंद्र सरकार द्वारा लिंगदोह समिति की सिफारिशों को लागू करने और सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के बावजूद अधिकांश राज्य सरकारों और विश्वविद्यालय प्रशासनों की छात्रसंघ बहाल करने और उनका चुनाव कराने में कोई दिलचस्पी नहीं दिख रही है.

छात्रसंघों और छात्र राजनीति के प्रति विश्वविद्यालयों के कुलपतियों के रवैये का अंदाज़ा इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि राहुल गांधी के ज्ञापन पर मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल की तत्काल चुनाव कराने के निर्देश को ए.एम.यू से लेकर बी.एच.यू तक के सभी कुलपतियों ने अंगूठा दिखा दिया है.

असल में, कोई भी कुलपति और विश्वविद्यालय प्रशासन से जुड़ा आला अधिकारी छात्रसंघ नहीं चाहता है. सच तो यह है कि वे कोई यूनियन नहीं चाहते हैं, चाहे वह शिक्षक संघ हो या कर्मचारी संघ या फिर छात्र संघ. लेकिन विश्वविद्यालय अधिकारी इनमें से भी सबसे अधिक छात्रसंघ से ही चिढते हैं. वे इस चिढ को छुपाते भी नहीं हैं.

उनका आरोप है कि छात्रसंघ परिसरों में गुंडागर्दी, अराजकता, तोड़फोड़, जातिवाद, क्षेत्रवाद और अशैक्षणिक गतिविधियों के केन्द्र बन जाते हैं जिससे पढाई-लिखाई के माहौल पर असर पड़ता है. उनकी यह भी शिकायत है कि इससे परिसरों में राजनीतिकरण बढ़ता है जिसके कारण छात्रों, शिक्षकों और कर्मचारियों में गुटबंदी, खींच-तान और संघर्ष शुरू हो जाता है जो शैक्षणिक वातावरण को बिगाड़ देता है.

ऐसा नहीं है कि इन आरोपों और शिकायतों में दम नहीं है. निश्चय ही, पिछले कुछ दशकों में छात्र राजनीति से समाज और व्यवस्था में बदलाव के सपनों, आदर्शों, विचारों और संघर्षों के कमजोर पड़ने के साथ अपराधीकरण, ठेकेदारीकरण, अवसरवादीकरण और साम्प्रदायिकीकरण का बोलबाला बढ़ा है और उसके कारण छात्रसंघों का भी पतन हुआ है. इससे आम छात्रों की छात्रसंघों और छात्र राजनीति से अरुचि भी बढ़ी है. इस सच्चाई को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता है कि अधिकांश परिसरों में इन्हीं कारणों से आम छात्र, शिक्षक और कर्मचारी भी छात्र राजनीति और छात्रसंघों के खिलाफ हो गए हैं.

विश्वविद्यालयों के अधिकारियों ने इसका ही फायदा उठाकर परिसरों में छात्र राजनीति और छात्रसंघों को खत्म कर दिया है. लेकिन सवाल यह है कि छात्र राजनीति और छात्रसंघों के यह पतन क्यों और कैसे हुआ और उसके लिए जिम्मेदार कौन है? क्या इसमें मोरल हाई ग्राउंड लेनेवाले राजनेताओं, अफसरों और विश्वविद्यालयों के अधिकारियों की कोई भूमिका नहीं है?

सच यह है कि छात्र राजनीति को भ्रष्ट, अवसरवादी, विचारहीन और गुंडागर्दी का अखाडा बनाने की सबसे अधिक जिम्मेदारी कांग्रेस, भाजपा और मुख्यधारा के अन्य राजनीतिक दलों के जेबी छात्र संगठनों- एन.एस.यू.आई, ए.बी.वी.पी, छात्र सभा, छात्र जनता आदि की है.

यही नहीं, इन छात्र संगठनों और उनके नेताओं को विश्वविद्यालयों के अधिकारियों और कुलपतियों ने भी भ्रष्ट बनाया ताकि उनके भ्रष्टाचार और अनियमितताओं पर छात्रसंघ उंगली न उठाएं. उत्तर प्रदेश के कई विश्वविद्यालयों के अनुभव के आधार पर दावे के साथ कह सकता हूँ कि छात्र राजनीति और छात्रसंघों को भ्रष्ट और पतित बनाने में विश्वविद्यालयों के भ्रष्ट अफसरों की बहुत बड़ी भूमिका रही है जिन्होंने छात्रसंघ पदाधिकारियों को “खिलाओ-पिलाओ, भ्रष्ट बनाओ, बदनाम करो और निकाल फेंको” की रणनीति का शिकार बनाया.

इस रणनीति के तहत छात्रसंघ पदाधिकारियों को अफसरों ने ही पैसे खिलाए, उनकी गुंडागर्दी को अनदेखा किया, उन्हें मनमानी करने की छूट दी, फिर इन सबके लिए उन्हें छात्रों के बीच बदनाम करना शुरू किया और जब यह लगा कि ये नेता विद्यार्थियों में खलनायक बन गए हैं तो उन्हें दूध से मक्खी की तरह निकाल फेंका.

असल में, वे इसलिए सफल हुए क्योंकि छात्र राजनीति के एजेंडे से जब बड़े सपने, लक्ष्य, आदर्श, विचार और संघर्ष गायब हो गए तो छात्र संगठनों और छात्र नेताओं को भ्रष्ट बनाना आसान हो गया. लेकिन ऐसा नहीं है कि छात्रसंघों के खत्म हो जाने के बावजूद परिसरों में रामराज्य आ गया है. उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश को ही लीजिए जहां बी.एच.यू में १९९७ और अन्य विश्वविद्यालयों में पिछले तीन-चार सालों से छात्रसंघों के चुनाव नहीं हो रहे हैं. सच्चाई यह है कि छात्रसंघों के खत्म होने के बाद से इन विश्वविद्यालयों ने न तो शैक्षणिक श्रेष्ठता का कोई रिकार्ड बनाया है और न ही वहां भ्रष्टाचार और अनियमितताएं खत्म हो गई हैं.

हकीकत यह है कि अधिकांश विश्वविद्यालयों में शैक्षणिक जड़ता इस कदर हावी है कि वहां पढाई-लिखाई के अलावा बाकी सब कुछ हो रहा है. दरअसल, छात्रसंघों और छात्र राजनीति को शैक्षणिक पतन का कारण बताने का यह तर्क सच्चाई और तथ्यों को सिर के बल खड़ा करने की तरह है. बिहार के किसी भी विश्वविद्यालय में पिछले २५ वर्षों से छात्रसंघ नहीं है लेकिन इससे क्या वहां के विश्वविद्यालय शैक्षणिक नव जागरण के केन्द्र बन गए हैं?

तथ्य यह है कि जे.एन.यू, दिल्ली आदि देश के कई बेहतरीन विश्वविद्यालयों में छात्रसंघ हैं और वे वहां के शैक्षणिक वातावरण के अनिवार्य हिस्से हैं. उनके होने से इन परिसरों में बौद्धिक बहस और विचार-विमर्श का ऐसा माहौल बना रहता है जिससे राजनीतिक और बौद्धिक रूप से सचेत नागरिकों की नई पीढ़ी तैयार करने में मदद मिलती है.

यहां यह कहना जरूरी है कि परिसरों में छात्र राजनीति और छात्रसंघों का होना न सिर्फ जरूरी है बल्कि इसे संसद से कानून पारित करके अनिवार्य किया जाना चाहिए. आखिर विश्वविद्यालयों और कालेजों के संचालन में छात्रों की भागीदारी क्यों नहीं होनी चाहिए? दूसरे, छात्रों के राजनीतिक प्रशिक्षण में बुराई क्या है? क्या उन्हें देश-समाज के क्रियाकलापों में हिस्सा नहीं लेना चाहिए?

 कल्पना कीजिये, अराजनीतिक छात्र-युवाओं की जो कल देश के नागरिक होंगे, वे कैसा लोकतंत्र बनाएंगे? इन अराजनीतिक छात्र-युवाओं की आज छात्र राजनीति से चिढ कल अगर आम राजनीति से चिढ़ में बदल जाए तो क्या होगा? साफ है कि छात्रसंघों और छात्र राजनीति का विरोध वास्तव में, न सिर्फ अलोकतांत्रिक बल्कि तानाशाही की वकालत है.

वास्तव में, आज अगर विश्वविद्यालयों डिग्रियां बांटने का केन्द्र बनाने के बजाय देश में बदलाव और शैक्षणिक पुनर्जागरण का केंद्र बनाना है तो उसकी पहली शर्त परिसरों का लोकतंत्रीकरण है. इसका मतलब सिर्फ छात्रसंघ की बहाली नहीं बल्कि विश्वविद्यालय के सभी नीति-निर्णयों में भागीदारी है. इसके लिए जरूरी है कि सिर्फ शिक्षकों और कर्मचारियों ही नहीं, छात्रों को भी विश्वविद्यालय के नीति निर्णय करनेवाले सभी निकायों में पर्याप्त हिस्सेदारी दी जाए. आखिर विश्वविद्यालयों की शैक्षणिक बेहतरी में सबसे ज्यादा स्टेक और हित छात्रों के हैं, इसलिए उनके संचालन में छात्रों की भागीदारी सबसे अधिक होनी चाहिए. इससे परिसरों के संचालन की मौजूदा भ्रष्ट नौकरशाह व्यवस्था की जगह पारदर्शी, उत्तरदायित्वपूर्ण और भागीदारी आधारित व्यवस्था बन सकेगी.

 जैसाकि भारतीय पुनर्जागरण के कविगुरु टैगोर ने कहा था, “जहां दिमाग बिना भय के हो, जहां सिर ऊँचा हो, जहां ज्ञान मुक्त...उसी स्वतंत्रता के स्वर्ग में, मेरे प्रभु मेरा देश (या विश्वविद्यालय) आँखें खोले.” इस स्वतंत्रता के बिना परिसरों में सिर्फ पैसा झोंकने या उन्हें पुलिस चौकी बनाने या विदेशी विश्वविद्यालयों के सुपुर्द करने से बात नहीं बननेवाली नहीं है. क्या राहुल गांधी इसके लिए तैयार हैं? क्या वे छात्रसंघों को कानूनी रूप से अनिवार्य बनाने के लिए संसद में कानून पारित करवाने की पहल करेंगे?
- आनंद प्रधान
साभार : तीसरा रास्ता  http://teesraraasta.blogspot.com/2010/11/blog-post_20.html




जुलाई 25, 2011

अर्नेस्टो चे ग्वेरा : अप्रतिम क्रांतियोद्धा

                                                                        
राउल के साथ में 
विश्व के जिन गिने-चुने देशों में साम्यवाद आज भी अपनी मजबूत पकड़ बनाए हुए है, उनमें चीन, लाओस, वियतनाम, उत्तरी कोरिया के अलावा क्यूबा का नाम आता है. 26 जुलाई 1953 से दिसंबर 1956 तक चली क्यूबा जनक्रांति ने तानाशाह सम्राट फल्जेंसियो बतिस्ता को पदच्युत कर, फिदेल कास्त्रो के नेतृत्व में जनवादी सरकार स्थापित करने में सफलता प्राप्त की थी. उसके बाद ही 1961 में वह एक साम्यवादी देश बन सका. क्यूबा क्रांति में फिदेल ने एक वीर और दूरदर्शी सेनापति की भूमिका निभाई थी, जो अपने राष्ट्र की जनभावनाओं को समझते हुए शत्रु को परास्त करने की कुशल रणनीति बनाता तथा अंततः लोकोन्मुखी शासन-व्यवस्था द्वारा समाजार्थिक परिवर्तनों को गति प्रदान करता है. लेकिन क्यूबा समेत पूरे लातीनी अमेरिकी देशों में जनक्रांति का वातावरण तैयार करने, सेनापति कास्त्रो के कंधे से कंधा मिलाकर अग्रणी भूमिका निभाने, बाद में लोगों की अपेक्षा के अनुरूप परिवर्तनों को गति देने का जो अनूठा कार्य अर्नेस्तो चे ग्वेरा ने किया, उसका उदाहरण दुर्लभ है. चे की लोकप्रियता का इससे बड़ा प्रमाण भला और क्या हो सकता है कि जिस अमेरिकी साम्राज्यवाद से वह आजन्म जूझता रहा, उसी की कंपनियां चे की बेशुमार लोकप्रियता को भुनाने के लिए बनियान, अंडरवीयर, चश्मे आदि उपभोक्ता साम्रगी की बड़ी रेंज उसके नाम से बाजार में उतारती रहती हैं. चे ग्वेरा ग्राम्शी जैसा प्रतिभाशाली तो न था, किंतु उसको प्रसिद्धि फिदेल कास्त्रो से कहीं अधिक मिली. यही कारण है कि प्रसिद्ध ‘टाइम’ पत्रिका द्वारा चे को बीसवीं शताब्दी की दुनिया-भर की पचीस सबसे लोकप्रिय प्रतिभाओं में सम्मिलित किया गया है. बाकी प्रतिभाओं में अब्राहम लिंकन, महात्मा गांधी, नेलसन मंडेला आदि अनेक नेता सम्मिलित हैं.
उसका पूरा नाम था अर्नेस्तो चे ग्वेरा. लेकिन उसके चाहने वाले उसको केवल ‘चे’ नाम से पुकारते थे. अपनापन जताने के लिए बोले जाने वाले इस नन्हे से शब्द का अर्थ है—‘हमारा’, हमारा अपना. अत्यंत घनिष्टता और आत्मीयता से भरा है यह संबोधन. अपने साथियों में चे इसी नाम से ख्यात था. उसका जन्म 14 जून, 1928 को अर्जेंटीना के रोसारियो नामक स्थान पर हुआ था. पिता थे अर्नेस्टो ग्वेरा लिंच. मां का नाम था—सीलिया दे ला सेरना ये लोसा. कुछ विद्वानों के अनुसार अर्नेस्टो की वास्तविक जन्मतिथि 14 मई, 1928 थी. इस तथ्य को छिपाने के लिए कि विवाह के समय अर्नेस्टो की मां गर्भवती थी, उसके जन्म की तिथि को बाद में एक महीना आगे खिसका दिया गया था. चे अपने माता-पिता की पांच संतान में सबसे बड़ा था. माता-पिता दोनों का ही संबंध अर्जेंटीना के प्रतिष्ठित घरानों से था. पिता आइरिश मूल के थे, जबकि मां का संबंध स्पेन के नामी परिवार से था. उनका परिवार कभी अर्जेंटाइना के धनाढ्य परिवारों में गिना जाता था, लेकिन अर्नेस्टो के जन्म के समय उनकी आर्थिक स्थिति कमजोर पड़ चुकी थी. तो भी उनके आदर्श तथा प्रतिबद्धताएं पूर्ववत थीं. अर्नेस्टो के पिता स्पेन की जनक्रांति के प्रबल समर्थक थे. क्रांतिकारी विचारधारा से ओतप्रोत परिवार में अर्नेस्टो को बचपन से ही गरीबों के प्रति हमदर्दी का संस्कार मिला. तीन चीजें मानो उसे उपहार में प्राप्त हुईं. पहली उसका उग्र, जिद्दी और चंचल स्वभाव, दूसरा दमे का रोग और तीसरी उत्कट जिजीविषा. अर्नेस्टो के पिता बेटे के उग्र स्वभाव पर गर्व जताते हुए कभी-कभी कह देते थे—‘लोग यह बात अच्छी तरह जान लें कि मेरे बेटे की शिराओं में आइरिश विद्रोही का लहू दौड़ता है.’ मां सीलिया स्त्री-स्वातंत्र्य और समाजवादी विचारधारा की समर्थक थी. अर्नेस्टो ने पिता से विद्रोही स्वर लिया और मां से समाजवादी, स्त्री-स्वातंत्र्यवादी प्रेरणाएं. लेकिन बचपन में जो कुछ सहा वह एकदम आसान नहीं था. मौत से संघर्ष की प्रेरणा उसको अपनी ही जिंदगी से मिली थी. शिशु अर्नेस्टो मात्र 40 दिन का था, जब उसको निमोनिया ने आ घेरा, जिससे वह मरते-मरते बचा. वह केवल दो वर्ष का था जब मई, 2 1930 को उसे दमा के पहले हमले का सामना करना पड़ा. अगले तीन वर्ष तो दमा मानो उसकी छाती पर सवार रहा. लगभग हर रोज दौरा, हर रोज मौत की ललकार सुनना, अपने जीवट के दम पर मौत को पछाड़ना. छापामार युद्ध का प्रारंभिक प्रशिक्षण उसको मानो मौत से मिला. माता-पिता अबोध अर्नेस्टो की हालत पर दुखी होते. पर बेबसी में कुछ कर न पाते थे. डा॓क्टरों की सलाह पर वे यहां से वहां यात्राएं करते. बार-बार स्थान बदलते. शायद कहीं पर बालक अर्नेस्टो को आराम मिले. लगातार उपचार कराते. एक के बाद एक स्थान बदलते हुए अंततः कुछ सफलता मिली. कोरडोबा नगर के पास एक छोटा कस्बा था, अल्टा ग्रेशिया. वहां की शुष्क जलवायु के बीच अर्नेस्टो को कुछ राहत मिली. माता-पिता की देखभाल और स्नेह-समर्पण भी काम आया. दमा पूरा शांत तो नहीं हुआ, पर उसका प्रकोप अवश्य घट गया. यही वह समय था जब उसको अपनी मां को निकटता से समझने का अवसर मिला. कमजोर होने के कारण उसके लिए पाठशाला जाना तो संभव नहीं था. मां ही उसको घर पर पढ़ाती थी. मां के अलावा और जो अर्नेस्टो की साथी बनीं, वे थीं पुस्तकें. घर में समाजवादी विचारधारा की पुस्तकें आती थीं. मां स्वयं विदुषी थी. पिता तो व्यापार के सिलसिले में अक्सर बाहर रहते थे. बेटे की छाती को सहलाते-सहलाते हुए मां सीलिया रात को उसके बिस्तर पर ही सो जाती थी. अर्नेस्टो ने अपने एकांत को पुस्तकों से समृद्ध करना आरंभ कर दिया. अल्टा ग्रेशिया की जलवायु अर्नेस्टो के स्वास्थ्य के लिए इतनी अनुकूल सिद्ध हुई कि उसके माता-पिता को उसको छोड़कर जाना संभव ही नहीं हो पाया. उसके बचपन का बड़ा हिस्सा उसी कस्बे में बीता. यहीं रहकर पिता ने अपने व्यापार को संभाला. मां ने स्वयं को अपने बच्चों की देखभाल के प्रति समर्पित कर अच्छी मां सिद्ध किया. अर्नेस्टो ने अपने भाई-बहनों के साथ यहां रहते हुए जो शांतिमय और स्नेह से भरपूर जीवन बिताया, वह उसके आगे सक्रिय जीवनकाल में कभी संभव न हो सका. अपने लक्ष्य को समर्पित चे ने निजी सुख के बारे में कभी सोचा भी नहीं.
बीसवीं शताब्दी के आरंभिक वर्ष अर्जेंटीना की अर्थव्यवस्था के लिए बेहद स्वास्थ्यकारी सिद्ध हुए. 1913 के आसपास प्रतिव्यक्ति आय के मामले में ऊपर से वह तेरहवें स्थान पर था. यहां तक कि फ्रांस भी उससे पीछे था. लेकिन असल चुनौती अभी बाकी थी. बीसवीं शताब्दी के दूसरे वर्ष में अर्जेंटाइना की अर्थव्यवस्था में अचानक भारी बदलाव आया. वहां की अर्थव्यवस्था का प्रमुख आधार मांस और गेहूं का निर्यात था. वैश्विक मंदी ने अचानक इन उत्पादों के मूल्य को जमीन पर ला दिया. 1926 से 1932 के बीच इन उत्पादों के दाम गिरकर लगभग आधे रह गए. इसका परिणाम यह हुआ कि कृषि क्षेत्र में बेरोजगारी से घिर गया. इसका प्रभाव दूसरे उद्योगों पर भी पड़ा. उद्योग-धंधे तबाह होने लगे. बेरोजगारी के मारे लोग गांव छोड़कर शहरों की ओर पलायन करने लगे. तब उन्हें एहसास हुआ कि शहरों में रहने वाले उनसे कितनी नफरत करते थे. अपने ही देश के लोग. जिनसे वे उम्मीद लगाए थे कि मंदी के दिनों में मदद करेंगे, संकट के समय काम आएंगे, सब अपने स्वार्थ में सिमटे हुए थे. अपनी चमक-दमक पर गर्व करने वाले अपने शहरी बंधु-बांधवों से गांव से आए लोगों को नफरत ही मिली. लेकिन नफरत भूख से तो बड़ी नहीं थी. मजबूरियों से भी बड़ी नहीं थी. रोजगार के लिए गांव छोड़कर शहर पहंुचे ये लोग आसपास के इलाकों में बसने लगे. कुछ ही वर्षों में उनकी बस्तियां बड़ी हो गईं. संख्याबल के आधार पर वे अच्छी ताकत बटोरने लगे. अर्नेस्टो उस समय मात्र पांच वर्ष का था. उसकी सेहत सुधरने लगी थी. अब वह आसपास के इलाकों में घूमने लगा था. कुछ दोस्त भी बना लिए थे. चोर-सिपाही का खेल, रेत के किले बनाकर तोड़ना, बचपन के उसके पसंदीदा खेलों में सम्मिलित थे. इसी बीच उसको एक नया शौक लगा, मोटरसाइकिल की सवारी का. पूरा इलाका पठारी था. अर्नेस्टो ऊंची-नीची चट्टानों पर मोटरसाइकिल को दौड़ाता हुआ निकल जाता. मानो शरीर की व्याधियों को चुनौती देना चाहता हो. परंतु मां ठहरी मां, वह मानने को तैयारी न थी कि अर्नेस्टो स्वस्थ हो चुका है; या उसमें शरीर की व्याधियों से जूझने, उनको चुनौती देने का अद्वितीय साहस है. वह बेटे को स्कूल भेजने से भी घबराती थी. मां के घने लाड़-प्यार के कारण अर्नेस्टो की प्रारंभिक पढ़ाई घर पर हुई. खुद मां ने उसको वर्णमाला सिखाई. अर्नेस्टो के बचपन को याद करते हुए 1967 में एक साक्षात्कार के दौरान मां सीलिया ने कहा था—
‘दमा के कारण अर्नेस्टो के लिए नियमित पाठशाला जाना संभव न था. अतः मैंने उसको घर पर ही वर्णमाला की शिक्षा दी. उसने केवल दूसरे और तीसरे ग्रेड की शिक्षा नियमित विद्यार्थी के रूप में प्राप्त की. पांचवे और छठे ग्रेड में भी वह यथासंभव स्कूल गया. उसके भाई-बहन स्कूल से मिले काम को उसकी का॓पी में उतार देते थे, जिसका वह घर पर अध्ययन करता था.’
मां की ओर से अर्नेस्टो को प्रारंभिक शिक्षा मिली तो उसके पिता ने उसको खेल, व्यायाम, स्पर्धा में टिके रहने के गुर समझाए. पिता ने ही उसको सिखाया कि किस प्रकार दृढ़ इच्छाशक्ति के बल पर शारीरिक दुर्बलताओं पर विजय पाना संभव है! इरादे मजबूत हों तो कैसे बड़े संकल्प आसानी से साधे जा सकते हैं! इसी से वह उन शारीरिक अक्षमताओं से उबर सकता है, जो उसकी जन्मजात बीमारी से उपजी हैं. यह पिता का ही संबल था कि दमे का शिकार चे बचपन में ही पिंग-पोंग, गोल्फ, तैराकी, पर्वतारोहण जैसे खेलों में पारंगत हो चुका था. दूसरों का नेतृत्व करने का गुण उसमें बचपन से ही था, जो लगातार निखर रहा था. माता-पिता से एक और संस्कार अर्नेस्टो को मिला, वह था, अच्छी पुस्तकें पढ़ने का. घर में क्रांति से जुड़ी पुस्तकें आती थीं. घर पर रहते हुए अर्नेस्टो उन्हें पढ़ता. उनमें व्यक्त विचारों पर सोचता. इसके फलस्वरूप 14 वर्ष की अवस्था तक वह सिंगमंड फ्रायड, अलेक्जेंड्र डूमा, राबर्ट फास्ट, जूलियस बर्ने की पुस्तकें पढ़ चुका था. रोमांचक साहित्य पढ़ने में उसको विशेष आनंद आता था. जेक लंडन की पुस्तकें उसको सर्वाधिक पसंद थीं. फ्रांसिसी कवि चाल्र्स बुडेलायर का प्रभाव भी उस पर पड़ा. उसने रूसो, कार्ल माक्र्स, पाब्लो नेरूदा, फ्रेड्रिको गारशिया लोर्का, अनातोले फ्रांस आदि क्रांतिकारी लेखकों की रचनाएं पढ़ी, जिन्होंने उसके भीतर बौद्धिकता का संचार किया. एल्टा ग्रेशिया में रहते हुए अर्नेस्टो को बहुत कुछ सीखने को मिला. एक तो यह विश्वास कि आत्मबल से किसी भी कमजोरी को दूर किया जा सकता है. दूसरे वहां रहते हुए वह समाज के विभिन्न वर्गों के संपर्क में आया था, जिससे उसको समाज को समझने का अवसर मिला था.
किशोरावस्था में अर्नेस्टो की मित्रमंडली असाधारणरूप से अलग थी. उसमें समाज के भिन्न वर्गों के किशोर सम्मिलित थे. जिनमें उसके पिता की भवन निर्माण कंपनी में काम करने वाले श्रमिकों के बच्चे, गरीब नौकरों के बच्चे, कारखानों में काम करने वाले श्रमिकों के बच्चे भी सम्मिलित थे. अर्नेस्टो को सभी के साथ समान व्यवहार करने की प्रेरणा मिली थी, मां से—जो अमीर-गरीब सभी के साथ समान व्यवहार करना सिखाती थी. अर्नेस्टो का बचपन हंसी-खुशी बीत ही रहा था कि सहसा अल्टा ग्रेशिया के शिक्षा विभाग के कुछ अधिकारियों ने अर्नेस्टो के माता-पिता से संपर्क कर, उसको स्कूल भेजने का निर्देश दिया. इसके फलस्वरूप अर्नेस्टो के विधिवत अध्ययन का मार्ग प्रशस्त हुआ. मार्च 1937 में अर्नेस्टो स्कूल स्तर पर भर्ती हुआ. उस समय उसकी वयस् अपनी कक्षा के अन्य विद्यार्थियों की औसत वय से लगभग एक वर्ष अधिक थी. लेकिन मां के सान्निध्य में रहकर वह विश्व-साहित्य का गहन अध्ययन कर चुका था. इसलिए कक्षा में वह अपने सहपाठियों पर प्रभावशाली सिद्ध हुआ. मां के प्रभाव से ही उसका साहित्यिक पुस्तकों के प्रति अनुराग बढ़ा जो आजीवन बना रहा. स्कूल के दौरान अर्नेस्टो को अपने गुरुजनों से प्रशंसा मिलती थी, मगर था वह सामान्य विद्यार्थी ही. अर्नेस्टो के तीसरे ग्रेड के अध्यापक ने उसको याद करते हुए लिखा था—‘वह दुर्भाग्य का मारा, प्रतिभाशाली लड़का था जो अपनी कक्षा में सबसे अलग नजर आता, किंतु उसकी नेतृत्व क्षमता खेल के मैदान में नजर आती थी.’
कक्षा में उसका सदैव यही प्रयत्न होता कि उसके सहपाठी और अध्यापक उस पर ध्यान दें, किसी भी तरह वह उन सबकी नजरों में चढ़ा रहे. नायकत्व की उत्कट चाहत ही कालांतर में एक क्रांतिकारी योद्धा के रूप में विकसित हुई. यह संभवतः उस हीनताग्रंथि से उबरने की कोशिश का परिणाम था, जो निरंतर बीमार रहने के कारण उपजी थी. जो हो, विद्यार्थी जीवन से ही उसके मन में दूसरों से आगे निकलने, स्पर्धा में बने रहने की भावना का जन्म हो चुका था. इसके लिए कई बार वह अजीबोगरीब हरकतें कर जाता, जैसे बोतल से इंक को पी जाना, चाक चबाना, खान में विस्फोट करना, सांड से जूझना. इन सब कारनामों से वह अपने साथियों तथा अध्यापकों के बीच निरंतर लोकप्रिय बनता जा रहा था. अर्नेस्टो की एक अध्यापिका एल्बा रोसी ओवीडो जेलिया ने उसको याद करते हुए लिखा है—
‘मुझे याद आता है कि बच्चे झुंड बनाकर स्कूल की चारदीवारी में उसके पीछे-पीछे घूमते थे. वह किसी ऊंचे पेड़ पर चढ़ जाता और उसके साथी पेड़ के इर्द-गिर्द घेरा बनाकर खड़े हो जाते. वह दौड़ता तो बाकी उसका पीछा करने लगते. वह स्वयं को उनका नेता सिद्ध कर चुका था. शायद उनका एक परिवार था, लेकिन सामान्य परिवारों से पूरी तरह भिन्न. उसके साथी जानते थे कि बातचीत में दूसरों को प्रभावित कैसे किया जाता है और वे इसमें पारंगत भी थे. वे कभी, कुछ भी अधूरा नहीं छोड़ते थे. वे दूसरों से एकदम भिन्न और इतने दंभी थे कि अपने बारे में कभी कुछ नहीं बताते थे, हालांकि उनमें सभी एक जैसे नहीं थे.’
अर्नेस्टो के परिवार के बारे में बाकी कुछ भी कहा जाए, दंभ वहां हरगिज नहीं था. उनका घर अतिथियों के लिए खुला था. कोई अपरिचित भी भोजन के समय वहां आता तो उसको ठहरने और भोजन के लिए आमंत्रित किया जाता. उनके परिवार को दूसरों के बीच ‘बोमियन’ कहा जाता था. मां सेलिया घर की छवि को बनाए रखने का पूरा ध्यान रखती. अल्टा गे्रशिया की वह पहली स्त्री थी जो अपनी कार स्वयं चलाती, खुले में धूम्रपान का हौसला रखती और ब्लाउज पहन कर बाहर निकल आती थी. वह अमीर-गरीब सबके साथ स्नेह-भाव से पेश आती, बौद्धिक बहसों में खुलकर हिस्सा ले सकती थी. अर्नेस्टो पर मां के इसी दबंग व्यक्तित्व का प्रभाव पड़ा था.
राजनीति में पदार्पण
नेतृत्व का गुण अर्नेस्टो के बचपन में ही निखार ले चुका था. किशोरावस्था बीतते-बीतते वह स्वयं को प्रखर मेधावी, दूरद्रष्टा, सघन इच्छाशक्ति, नेतृत्वकुशल युवक के रूप में ढाल चुका था, जिसकी चिंताएं तथा सामाजिक सरोकार अपने समवयस्क युवकों की अपेक्षा कहीं बड़े थे. यही वे दिन थे जब उसका राजनीति की ओर रुझान बढ़ा. राजनीतिक घटनाक्रम उसमें सहायक सिद्ध हुआ. 1936 में स्पेन में सेना ने अचानक विद्रोह कर दिया. जनरल फ्रांसिस्को फ्रेंको के नेतृत्व में स्पेन की सेना का एक समूह निर्वाचित सरकार को उखाड़ फेंकने पर तुला था. इस विद्रोही समूह को जर्मनी के निरंकुश सम्राट एडोल्फ हिटलर तथा इटली के बेनिटो मुसोलिनी का समर्थन प्राप्त था. विद्रोह में निर्वाचित सरकार के मुखिया मेनुइल अजन को सत्ता गंवानी पड़ी. 1939 में सैन्य-शक्ति के बल पर जनरल फ्रांसिस्को फ्रेंको सत्ता पर काबिज हो गया. युद्ध के दौरान अर्नेस्टो ग्वेरा उन युवकों में था, जो मान रहे थे कि उसमें निर्वाचित सरकार की विजय होगी. दीवार पर स्पेन का नक्शा टांगकर वह रिपब्लिकन सरकार तथा विद्रोही फासिस्ट सेनापति की युद्धरत सेनाओं की स्थिति तथा उनकी रणनीति के बारे में अनुमान लगाता रहता था. मेनुइल अजन और उसके सहयोगी उसकी निगाह में ‘अच्छे बच्चे’ थे. अर्नेस्टो को उनकी विजय का पूरा भरोसा था. यही वे दिन थे, जब अर्नेस्टो को लगा कि अपने विचारों को मूत्र्तरूप देने के लिए राजनीति सबसे उपयुक्त माध्यम है. लेकिन युद्ध का परिणाम उसके सोच की विपरीत दिशा में जा रहा था. रिपब्लिकन सेनाएं कमजोर पड़ने लगी थीं. फासिस्ट सेनापति फ्रेंको को बाहर से मदद मिल रही थी.


रिपब्लिकन की हार की संभावना बढ़ते ही एल्टा ग्रेशिया और आसपास के क्षेत्रों में शरणार्थी बढ़ने लगे थे. अर्नेस्टो उन्हीं के मुंह से फासिस्ट सेनाओं के उत्पीड़न की सच्ची कहानियां सुनता. अर्नेस्टो का परिवार भी रिपब्लिकन सेनाओं का समर्थक था. इससे उसका रिपब्लिकन विचारधारा से अनुराग बढ़ने लगा. विजय प्राप्ति के साथ ही फासिस्ट समर्थक उद्योगपति और व्यापारी उद्योग-धंधों को अपने अधिपत्य में लेते जा रहे थे. उनके बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए अर्नेस्टो के पिता ने एक फासिस्ट विरोधी संस्था की नींव रखी. संस्था का काम था, नाजियों का विरोध करने वाले नागरिकों से चंदा जुटाकर उसके माध्यम से जर्मनी द्वारा अर्जेंटीना में घुसपैठ के विरुद्ध युद्ध का संचालन करना. साथ ही अर्जेंटीना के विरुद्ध किसी भी प्रकार की जासूसी पर नजर रखना. अर्नेस्टो उस समय मात्र 11 वर्ष का था, मगर वह हमेशा अपने पिता के साथ रहता. पिता के साथ मिलकर वह संस्था की गतिविधियों के संचालन में भी हिस्सा लेता. इसके बावजूद फासिस्टों का प्रभाव बढ़ता ही जा रहा था. स्पेन के अलावा जर्मनी, इटली आदि कई देश उसकी जद में आ चुके थे. मध्य यूरोप में अपना प्रभाव जमा लेने के बाद फासिस्टों की महत्त्वाकांक्षाएं आसमान छूने लगी थीं. अब वे पूरी दुनिया पर शासन करने का इरादा रखते थे. अर्जेंटीना उनका सबसे निकटवर्ती पड़ाव बन सकता था. अर्जेंटीना प्रकटरूप में दूसरे विश्वयुद्ध से अलग था, किंतु भीतर ही भीतर वह जर्मनी का समर्थन कर रहा था. उसको उम्मीद थी कि जर्मनी की विजय से उसको नए बाजार मिलेंगे. मगर युद्ध खिंचने के साथ अर्जेंटीना की समस्याएं भी बढ़ती जा रही थीं.

मार्च 1942 में अर्नेस्टो ने हाईस्कूल के लिए ‘का॓लेजियो नेशनल डीन फेन्स’ में प्रवेश प्राप्त कर लिया. उस समय उसकी वयस् मात्र 14 वर्ष थी. अल्टा ग्रेशिया में कोई स्कूल न होने के कारण उसको कोरडोवा तक बस से जाना पड़ता था, जो उसके निवासस्थान से लगभग 32 किलोमीटर दूर था. अर्नेस्टो की मां दमा-ग्रस्त बेटे को इतने लंबे सफर की अनुमति देने को तैयार नहीं थी. इसलिए 1943 के ग्रीष्म में अर्नेस्टो का पूरा परिवार कोरडोवा के लिए प्रस्थान कर गया. इस घटना के बाद अर्नेस्टो के परिवार में बिखराव का सिलसिला आरंभ हो गया. उसके माता-पिता के रिश्ते उतने सामान्य न थे. दोनों में अकसर तनाव बना रहता था. 1943 में दोनों ने संबंध-विच्छेद कर लिया. इसका एक कारण अर्नेस्टो के पिता की स्त्रियों के प्रति तीव्र आसक्ति भी था. वह अपने ‘व्यापार’ के सिलसिले में प्रायः बाहर रहते. इस दौरान उनके युवा महिलाओं से संबंध बनते ही रहते थे. धीरे-धीरे उनके परिवार का धन समाप्त होने लगा, जो आगे चलकर उनके लिए बहुत हानिकर सिद्ध हुआ. अर्नेस्टो के पिता का भवन-निर्माण का कारोबार अब भी सामान्य था. उन्होंने पहाड़ी पर एक बंगला खरीद लिया. उसमें भी उनका काफी धन खर्च हो गया. तो भी उसका परिवार अपने लंबे सामाजिक संबंध अब भी पहले की तरह निभाए जा रहा था. बाहर से जो मेहमान मिलने आते वे उनके घर की हालत देखकर दंग रह जाते थे. उनके घर कुर्सियां, स्टूल आदि पुस्तकों से दबे होते. परिवार का वातावरण खुला था. बच्चे बाहर से साइकिल पर चढ़कर आते और उसी तरह आवासकक्ष को पार कर धड़धड़ाते हुए भीतर घुस जाते थे. अर्नेस्टो अपने खाली समय का उपयोग पढ़ने, खेलने तथा मित्रों के साथ गपशप करने में बिताता. दमे का उसका रोग अब भी उसी प्रकार था. रग्वी उसके प्रिय खेलों में से था. कोरडोवो में रहते हुए अर्नेस्टो का संपर्क था॓मस ग्रेनांडो से हुआ. कुछ ही दिनों के बाद दोनों पारिवारिक दोस्त बन गए. मित्रों के अलावा युवा अर्नेस्टो की साथी थीं, साहित्यिक पुस्तकें. पाब्लो नेरुदा, जा॓न कीट्स, फेडरिको गार्शिया लोर्का की कविताएं, एमिल जोला, आंद्रे जीद, विलियम फाॅकनर के उपन्यास उसको सर्वाधिक प्रिय थे. इसी अवधि में उसने सिंगमड फ्रायड, अनातोले फ्रांस को पढ़ा और उनसे प्रभावित हुआ. उसका अध्ययन विशाल था, इसके बावजूद कक्षा में वह औसत नंबर ही ला पाता था. शायद इसके पीछे उसके अनेक गतिविधियों में उसकी हिस्सेदारी तथा वह छोटी-सी नौकरी भी थी जो उसके पिता के अनुसार उसने अपना समय बिताने के लिए की थी. इस बीच निडरता उसके स्वभाव का हिस्सा बन चुकी थी.

मित्रों के बीच अर्नेस्टो के कई उपनाम थे. कुछ साथी उसको ‘एल लोको’ कहते, जिसका अर्थ है—‘बाबरा’. कुछ अन्य दोस्त उसको चांचो(सुअर) भी कहते थे. अर्नेस्टो के इस विचित्र स्वभाव के बारे में उसके मित्र ग्रेनांडो ने लिखा है कि उसको थोड़ा खतरनाक दिखना भी पसंद था. नदी किनारे पहुंचकर अक्सर वह शेखी बघारता था कि वह कितनी देर तक गहरे जल में छिपकर रह सकता है. उसको अकसर यह कहते सुना जाता—‘इस रग्बी की कमीज को धोए हुए मुझे पचीस दिन बीच चुके हैं.’ उम्र के साथ जहां उसके दोस्तों की संख्या में वृद्धि हो रही थी, वहीं उसका राजनीति के प्रति रुझान भी विकसित हो रहा था. पर जो नहीं बदला, वह था उसका दमा का रोग, जिसके कारण वह अकसर परेशान रहता था. इसके बावजूद वह था दूसरों से एकदम अलग. किशोरावस्था में उसके विद्रोही लक्षण उसके स्वभाव से झलकने लगे थे. एक किवदंति के अनुसार अर्नेस्टो का मित्र एक बार सैन्य कार्रवाही का विरोध करते समय गिरफ्तार कर लिया गया. अर्नेस्टो उससे मिलने पुलिस स्टेशन पहुंचा तो ग्रेनांडो ने उसको विरोध-प्रदर्शन का नेतृत्व करने की सलाह दी. इसपर अर्नेस्टो ने गुस्से में कहा था—
‘कैसा प्रदर्शन, क्या सिर्फ पुलिस की गालियां और मार खाने के लिए….हरगिज नहीं! इस तरह का कोई भी कदम मैं उस समय तक नहीं उठाऊंगा, जब तक मेरे पास एक अदद बंदूक न हो.’
आंद्रे की यात्रा में अर्नेस्टो का फिर भीषण गरीबी से साक्षात्कार हुआ. वहां उसने अधनंगे किसानों को जमींदारों के खेतों में काम करते हुए देखा. यात्रा का एक पड़ाव उसने कुष्ठ रोगियों की बस्तियों में भी किया. यह एक नया अनुभव था. कुष्ठ रोगियों के बीच आपसी भाईचारे और सहयोग की भावना ने उसको बहुत प्रभावित किया. पहली यात्रा में उसने कुल 4500 किलोमीटर की यात्रा की थी. दूसरी यात्रा में वह अर्जेंटीना, चिली, पेरू, एक्वाडोर, कोलंबिया, वेनेजुएला, पनामा तथा मियामी तक पहुंचा था, जिसमें उसने कुल नौ महीने के भीतर 8000 किलोमीटर से अधिक यात्रा की थी. दोनों यात्राओं से वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि दक्षिणी अमेरिका अलग-अलग देशों का समुच्चय न होकर, एक राष्ट्र है जिसको स्वाधीनता की भावना क्षेत्रवार विभाजित करती है. राज्यों की सीमा से परे सभी क्षेत्रों में लगभग एक जैसी परिस्थितियां हैं. हर जगह बेहद गरीबी है. आर्थिक विषमता और तज्जनित उत्पीड़न, घोर अभावग्रस्तता है. पूरा क्षेत्र साम्राज्यवादी अमेरिका के आर्थिक-राजनीतिक शोषण का शिकार है. इससे उसके मन में सीमारहित स्पेनिश अमेरिका की अवधारणा का विकास हुआ, जिसको लेटिन की सुदीर्घ साहित्य-परंपरा आपस में जोड़ती है. जिसकी संस्कृति में राज्यवार भले ही थोड़ा-बहुत अंतर हो, समस्याएं एक समान हैं. यही संयुक्त स्पेनिश अमेरिका का विचार कालांतर में उसकी क्रांतिकारी गतिविधियों का उत्पे्ररक और मार्गदर्शक सिद्ध हुआ. बाद के वर्षों में अपनी लेटिन अमेरिका की यात्रा के दौरान उसने ‘भूख, गरीबी, बेरोजगारी और बीमारी से सीधा साक्षात किया.’ यात्रा में अर्नेस्टो ने गरीबी का ऐसा रौद्ररूप देखा कि उसको अपना डा॓क्टर होना निरर्थक लगने लगा. उसको लगने लगा कि ऐसे लोगों की सहायता के लिए डा॓क्टरी का पेशा व्यर्थ है. कुछ ही अर्से बाद उसने चिकित्सा के पेशे को छोड़कर राजनीति से जुड़ने का निर्णय कर लिया. यह बात अलग है कि कालांतर में क्यूबा की सरकार में मंत्री होने के बावजूद उसको लगने लगा था कि केवल राजनीति द्वारा सीधे-सीधे लक्ष्य प्राप्त कर पाना असंभव है. इसलिए मंत्रीपद और सारी सुख-सुविधाओं को त्यागकर वह एक बार फिर सैनिक की वेषभूषा में आया तथा मरणोपरांत छापामार सैनिक बना रहा.
यह उदाहरण दर्शाता है कि अर्नेस्टो के भीतर जुझारूपन की भावना बचपन में जन्म ले चुकी थी. संभव है यह उसकी जन्मजात बीमारी की प्रतिक्रियास्वरूप हुआ हो. दवाओं के सहारे जूझती हुई जिंदगी ने प्रत्येक संघर्ष में कृत्रिम साधनों की आवश्यकता को सहज अपना लिया हो. 1946 में अर्नेस्टो ने हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की. वह आगे इंजीनियरिंग की पढ़ाई करना चाहता था. लेकिन घटनाक्रम अकस्मात इतनी तेजी-से बदला कि जिंदगी अनचाहे-अनचीन्हे रास्तों की ओर बढ़ चली. 1947 में अर्नेस्टो को कोर्डोबा में छोड़, उसका बाकी परिवार बुनोस एअर्स के लिए प्रस्थान कर गया. उस समय परिवार अर्थिक तंगी से गुजर रहा था. ऊपर से उसके माता-पिता के बीच मनमुटाव इतना अधिक बढ़ चुका था कि दोनों साथ रहने को तैयार न थे. उन्हीं दिनों अर्नेस्टो की दादी का, जिससे उसको गहरी आत्मीयता थी, निधन हो गया. इस घटना की दुःखद परिणति यह हुई कि अर्नेस्टो ने कोर्डोबा में टिके रहने का इरादा छोड़ दिया. इससे उसका इंजीनियर बनने का सपना धरा का धरा रह गया. बुनोस पहुंचकर अर्नेस्टो ने डा॓क्टरी की पढ़ाई के लिए दाखिला ले लिया. वह विज्ञान का विद्यार्थी रह चुका था. इससे पहले डाॅक्टरी के व्यवसाय में उसकी कोई रुचि न थी. तब चिकित्सा व्यवसाय में आने का अचानक निर्णय क्यों? इसके पीछे भी उसका अपनी दादी के प्रति अतिशय लगाव था. उसको लगता था कि दादी की मृत्यु केंसर से, समय पर उपचार न होने के कारण हुई है. इसका दूसरा कारण अपनी जन्मजात बीमारी के कारण को समझना भी हो सकता है. बहरहाल वह मन लगाकर डा॓क्टरी की पढ़ाई करने लगा. विद्यालय के खर्च निकालने के लिए उसने नौकरी भी कर ली. घर में अशांति का वातावरण था. उससे बचने के लिए अर्नेस्टो स्वयं को सदैव व्यस्त रखने का प्रयास करता. अपना अधिकांश समय वह घर से बाहर रहकर मित्रों के बीच बिताता, जिनके लिए वह अब भी एक ‘हीरो’ था. बुनोस में उसके पुराने मित्र हालांकि छूट चुके थे. परंतु नए मित्रों के बीच भी उसकी धाक वैसी ही थी. अपने संगठन सामथ्र्य और नए लोगों के बीच बहुत जल्दी घुलमिल जाने के उसके स्वभाव ने उसको मित्रों के बीच जल्दी ही लोकप्रिय बना दिया था. इस बीच घुमक्कड़ी का नया शौक उसको पैदा हुआ जो आजीवन बना रहा. साहित्य के प्रति पहले ही उसका गहनानुराग था. घुमक्कड़ी से उसके मन में इतिहास, राजनीतिक विज्ञान, समाजशास्त्र तथा दर्शन को जानने की ललक पैदा हुई. साथ ही उसने लिखना भी आरंभ कर दिया. स्थानीय समाचारपत्रों में उसके लेख प्रकाशित होने लगे थे. इसके बावजूद उसका मन अशांत था. यद्यपि डाॅक्टरी की पढ़ाई में वह मनोयोग से जुटा था, तो भी वह उसका पसंदीदा विषय न था. उसको बराबर यह लगता था कि उसके जीवन का मकसद कुछ और है. लेकिन लक्ष्य तय न कर पाने से जन्मी छटपटाहट उसको बेचैन किए रहती थी.
अर्नेस्टो का मन हमेशा कुछ नया करने को छटपटाता रहता. 1 जनवरी 1950 को उसका मन अचानक उचटा और वह साइकिल निकालकर लंबी यात्रा पर निकल गया. साइकिल को चलाने के लिए उसने एक छोटा इंजन लगाया हुआ था. पहला पड़ाव उसने कोर्डोबा में किया. वहां वह ग्रेनांडो से मिला, जो स्वयं चिकित्सा के क्षेत्र में आ चुका था और कोर्डोबा के कुष्ठ रोगालय में काम करता था. कुछ दिन कुष्ठ रोगियों के बीच कोर्डोबा में बिताने के बाद वह पुनः यात्रा पर बढ़ गया. अर्नेस्टो के लिए वह यात्रा बहुत परिवर्तनकारी सिद्ध हुई. उससे पहले तक वह शहरी जीवन में पला-बढ़ा था. गांव और गरीबी उसने देखी नहीं थी. मोटरसाइकिल की यात्रा से उसको ग्रामीण जीवन को निकटता से देखने का अवसर मिला. पहली बार उसने गांव में जमींदारों का उत्पीड़न देखा. देखा कि किस प्रकार ग्रामीण मजदूरों के श्रम से बड़े भूमिपति उत्तरोत्तर धनवान एवं शक्तिशाली बनते जा रहे हैं. पहली बार उसे अनुभव हुआ कि राजनीतिक सीमाओं से परे पूरा लातीनी अमेरिका दो भागों में बंटा हुआ है. एक छोर पर संपत्ति और संसाधनों पर कब्जा जमाए यूरोपीय मूल के जमींदार, उद्योगपति, सरमायेदार और व्यापारी हैं. दूसरी ओर मूल लातीनी मजदूरों के वंशज हैं, जो मात्र पेट-भर रोटी के लिए जी-तोड़ मजदूरी करते हैं. लेकिन रात-दिन परिश्रम करने पर भी अकसर उन्हें भरपेट भोजन प्राप्त नहीं हो पाता. पहली बार उसने समाज का उत्पीड़क और उत्पीड़ित में साफ-साफ विभाजन देखा. माक्र्स की कही बातें उसको अक्षर-अक्षर जमने लगीं. इस बीच उसने रूसी क्रांति का अध्ययन किया. वह लेनिन और स्टालिन के आंदोलन से प्रभावित हुए बिना रह न सका. खासकर स्टालिन ने उसको बहुत प्रभावित किया.
सामाजिक अनुभवों से अर्नेस्टो की राजनीतिक समझ साफ होती जा रही थी. उस समय वह वयस् के बाइसवंे पड़ाव पर था. युवावस्था अपनी छाप छोड़ रही थी. नया सोच और सपने भी उछाह मारने लगे थे. उन्हीं दिनों वह 16 वर्षीय मारिया डेल कर्मन चिचीना फेरेरा के संपर्क में आया. वह कार्डोबा के सबसे अमीर व्यापारी की बेटी थी. दोनों की प्रथम भेंट को प्यार में बदलते देर न लगी. चिचीना के परिवारवाले उस संबंध को तैयार न थे. इसके बावजूद उनका प्रेम गहराता गया. दोनों विवाह के लिए तत्पर थे. चिचीना की मां ने चालाकी से काम लिया. उसने अपनी बेटी को धमकी दी कि यदि उन दोनों का प्यार आगे बढ़ता है तो वह परिवार छोड़ देगी और गिरजाघर में जाकर नन बन जाएगी. चिचीना डर गई. उसको अपने पांव पीछे खींचने पड़े. प्रेम में निराश होने के बाद अर्नेस्टो ने स्वयं को पुनः पढ़ाई में लगा दिया. उसके मित्र अल्ब्रेट ग्रेनांडो की बहुत पुरानी इच्छा थी, एक बार समूचे दक्षिणी अमेरिका का भ्रमण करना. अकेले यात्रा पर निकलने की उसकी हिम्मत नहीं थी. उसने अर्नेस्टो के समक्ष प्रस्ताव रखा तो वह सहर्ष तैयार हो गया. 4 जनवरी 1952 को दोनों दोस्त मोटरसाइकिल पर सवार होकर यात्रा के लिए निकल पड़े. उनका पहला पड़ाव अर्जेंटीना के समुद्रीय क्षेत्र में बसा मिरामर नाम का शहर था. चिचीना वहीं अपने माता-पिता के साथ प्रवास पर थी. युवा अरमान लिए अर्नेस्टो ने उससे मुलाकात की. दोनों का प्रेम एक बार फिर परवान चढ़ने लगा. लेकिन अर्नेस्टो यात्रा को अधूरी छोड़ने को तैयार न था. कुछ दिन पश्चात दोनों मित्र आगे बढ़ गए. उनके पास बहुत कम पैसा था. भोजन के लिए भी वे स्थानीय निवासियों की अनुकंपा पर निर्भर थे. उस यात्रा में अर्नेस्टो को जीवन को गहराई से समझने का अवसर मिला. उसने लोगों के अभावग्रस्त जीवन को निकटता से देखा. उसके कारण भी उसकी समझ में आने लगे थे. अमेरिकी साम्राज्यवाद किस प्रकार अपने उपनिवेशों का शोषण करता है, यह उसने उस यात्रा के दौरान निकटता से देखा-समझा. एक डायरी वह सदा अपने पास रखता था. लोगों से मिलने के बाद अंतर्मन में जन्मी हलचल को व्यक्त करते हुए डायरी में उसने लिखा कि इस यात्रा से उसके भीतर बहुत कुछ बदला है. अब वह वैसा नहीं है, जैसा पहले था—
‘मुझे लगता था कि मेरे भीतर ही भीतर बहुत-कुछ पक चुका था, जो इस शहर के आपाधापी तथा धक्का-मुक्की से भरे जीवन में लंबे समय से मेरे मन में घुमड़ता आ रहा था. वह इस सभ्यता, घृणास्पद सभ्यता के नाम पर कलंक है, जिसके भीषण शोरगुल-युक्त वातावरण में असभ्य लोग पागलों की भांति दौड़ लगाए जा रहे हैं. सच कहूं तो यह शांति का शानदार विलोम है.’
यात्रा के बीच अर्नेस्टो को दिल दहला देने वाला संदेश मिला. संदेश चिचीना का था. उसने कहलवाया था कि वह और अधिक प्रतीक्षा नहीं कर सकती. चिचीना की ओर से पूरी तरह निराश हो जाने के बाद वह यात्रा पर आगे बढ़ गया. वहां से वह चिली पहुंचा, जहां दोनों को नए अनुभव हुए. समाचारपत्रों में उन युवकों की यात्रा को लेकर खबरें छपने लगी थीं. एक अखबार ने लिखा था—‘लेप्रोसी के दो अर्जेंटीनाई डा॓क्टर मोटरसाइकिल से दक्षिणी अमेरिका की यात्रा पर.’ उन दोनों का काफिला जहां भी पहुंचता उन्हें देखने लोग उत्साह से जुट जाते. यात्रा को जनसमर्थन मिलने से दोनों का हौसला बढ़ा. उन्हें लगने लगा था कि अब वे अकेले नहीं हैं. बल्कि अपनापन लिए अनजाने लोग भी उनके साथ हैं. मोटरसाइकिल को अक्सर अर्नेस्टो चलाता था, जबकि ग्रेनांडो उसपर पीछे सवार रहता. यात्रा के बीच एक और घटना ने अर्नेस्टों के मन पर गहरा असर डाला. उस समय वह समुद्रतटीय नगर वालपरायसो से गुजर रहा था. रात्रि पड़ाव के समय जब अपने मित्र के साथ अर्नेस्टो ने एक निर्धन गृहस्थ के घर शरण ली तो यह जानकर कि वह अच्छा डाॅक्टर है, गृहस्थ ने उससे अपनी पत्नी का उपचार करने का अनुरोध किया. स्त्री को दमा और हृदयरोग था. अर्नेस्टो ने यथासंभव उसको ठीक करने की कोशिश की. लेकिन वह मरणासन्न स्त्री को बचा न सका. उस रात स्त्री को तिल-तिल कर मौत के मुंह में जाते हुए देख उसने अपनी डायरी में नोट किया—‘यह ऐसा समय है जब डा॓क्टर की संपूर्ण बुद्धिमत्ता, उसका अनुभव और कार्यकुशल होना किसी काम नहीं आता. इसके लिए समाज को बहुत कुछ बदलना होगा. हमें अपने चारों ओर व्याप्त अन्याय और अनाचार को रोकने के प्रयास करने होंगे. यह स्त्री मात्र एक महीना पहले अपना पेट भरने के लिए वेट्रेस का काम करती थी. गुजारा भले ही जैसे-तैसे होता था, परंतु वह एक सम्मान-भरा जीवन जीती थी.’ उसको लगा कि उस स्त्री की मौत स्वाभिक मौत नहीं है. पूरी व्यवस्था इसके लिए जिम्मेदार है. 17 जुलाई, 1951 को वे वेनेजुएला पहुंचे. वहां के कुष्ठ रोगालय की ओर से ग्रनांडो को नौकरी का निमंत्रण प्राप्त हुआ, जिसको उसने सहर्ष स्वीकार कर लिया. मित्र के नौकरी संभाल लेने के पश्चात अर्नेस्टो अकेला पड़ गया. वह यात्रा को आगे बढ़ाना चाहता था, किंतु मोटरसाइकिल के इंजन में अचानक आई बड़ी गड़बड़ी ने उसकी यात्रा में व्यवधान खड़ा कर दिया. परिणामस्वरूप अर्नेस्टो को यात्रा अधूरी छोड़कर वापस लौटना पड़ा. घर पहुंचते ही उसने स्वयं को एक बार पुनः अध्ययन को समर्पित कर दिया. जिनका अनुकूल परिणाम भी निकला. अप्रैल 1953 में डाॅक्टरी की अंतिम परीक्षा में पास होने के बाद उसने हर्षातिरेक में पहला फोन अपने पिता को किया, जिसमें उसने डाक्टर बन जाने की सूचना दी थी—‘मैं डा॓क्टर अर्नेस्टो ग्वेरा दे ला सेरना बोल रहा हूं.’ उसके पिता ने बाद में प्रतिक्रिया देते हुए बताया था कि ‘मैं उस समय अत्यधिक प्रसन्न था.’ लेकिन पिता की यह प्रसन्नता बहुत कम समय तक कायम रह सकी. उन्हें लगता था कि डा॓क्टर बन जाने के पश्चात अर्नेस्टो नौकरी की ओर ध्यान देगा. घर की जिम्मेदारी में हाथ बंटाएगा. मगर वह डा॓क्टरी क्या किसी भी बंधी-बंधाई नौकरी के लिए जन्मा ही नहीं था.
डा॓क्टर की डिग्री लेने के पश्चात अर्नेस्टो अपने लिए एक सुविधासंपन्न जीवन सुनिश्चित कर चुका था. उसके पिछले नियोक्ता डा॓. पिसानी ने उसे अपनी लैब में काम करने के बदले वेतन के रूप में आकर्षक धनराशि उपलब्ध कराने का आश्वासन भी दिया था. लेकिन उसके भीतर तो दुनिया को देखने-जानने की ललक थी. पहली यात्रा के अनुभव उसके साथ थे. लेकिन अपर्याप्त. वह दुनिया को जानने के लिए उसको बहुत-बहुत देखना चाहता था. कहीं न कहीं उस यात्रा के पीछे स्वयं को जानने-समझने की भी चाहत थी. इसलिए अवसर मिलते ही उसने तीसरी बार यात्रा पर निकलने की तैयारी शुरू कर दी. अपने अभियान के लिए उसने नए साथी को चुना. उसका नाम था—कार्लोस केलिसा फेरर. अक्टूबर, 1951 में अर्नेस्टो ने यात्रा का अगला चरण आरंभ किया. उसकी योजना आंदेस से चिली, वहां से बोलविया, पेरू, एक्वाडोर, कोलंबिया से गुजरते हुए पूरा दक्षिणी अमेरिका घूम लेने की थी. नौ महीने तक चली वह यात्रा अद्भुत रोमांच और नवीनतम अनुभवों से भरी थी. उसके द्वारा वह लातिनी अमेरिका की जमीनी सचाई के संपर्क में आया. उस यात्रा ने उसको वैचारिक रूप से समृद्ध और संकल्पवान भी बनाया. सफर में दोनों मित्र लोगों के साथ तरह-तरह से पेश आते. साधारण सैलानियों की भांति वे युवा लड़कियांे को ताड़ते, उनके साथ हंसी-ठिठोली करते. कभी-कभी मस्ती में उनका पीछा भी करने लगते. मन होता तो मदिरालय पहुंचकर नशा करते. यात्रा का पहला पड़ाव बोलेविया था, जहां वे 11 जुलाई 1953 को पहुंचे थे.
बोलेविया लातीनी अमेरिका का सर्वाधिक गरीब, विपन्न देश था, जो उन दिनों परिवर्तनकारी चक्र से गुजर था. 1952 से सत्ता संभालने के बाद ही बोलेविया के राष्ट्रपति विक्टर पा॓ज ऐस्टेंसरो ने देश को समाजवादी आदर्श के अनुकूल ढालना आरंभ कर दिया था. जिसमें सेना में कटौती, खानों का राष्ट्रीयकरण जैसे प्रमुख कदम थे. बदलते बोलेविया ने अर्नेस्टो को प्रभावित किया था: ‘साम्राज्यवादी अमेरिका को बोलेविया से सबक लेना चाहिए.’—उसकी प्रतिक्रिया थी. यात्रा के दौरान वे समुद्र तट से 5182 मीटर ऊपर स्थित टंगस्टन की खान को देखने पहुंचे. वहां कार्यरत इंजीनियर ने उन्हें वह स्थान दिखाया जहां क्रांति के दौरान खान मालिक के गार्ड ने मजदूरों तथा उनके बीबी-बच्चों पर मशीनगन से गोलियां बरसाई थीं. ‘अब यह खान पूरे देश यानी जनता की है.’—इंजीनियर ने गर्व से बताया था. यात्रा के दौरान बदलते बोलेविया ने अर्नेस्टो को प्रभावित किया था, लेकिन उसकी संतुष्टि बहुत सीमित समय के लिए थी. बहुत शीघ्र उसकी समझ में आने लगा कि वहां सबकुछ जनता की अपेक्षा के अनुसार नहीं था. अमेरिका के दबाव में नई सरकार ने भूमि-सुधारों की गति को आवश्यकता से बहुत धीमा कर दिया था. परिणामस्वरूप वहां जनाक्रोश भड़क उठा. 11 मार्च 1952 की शाम अर्नेस्टो तथा अल्बर्ट रात बिताने के लिए एक निर्धन मजदूर दंपति के घर टिके, जो प्रसिद्ध अटाकामा रेगिस्तान के अनाकोंडा की शुक्युईकामत खान में काम करते थे. खान मजदूर और उसकी पत्नी दोनों साम्यवादी विचारों के थे. अपनी आर्थिक दुर्दशा के बारे खान मजदूर ने उसको बताया कि मात्र कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य होने के कारण उसको तीन महीने जेल में बिताने पड़े हैं. इसी कारण स्थानीय तांबे की खानों में कोई उसको काम देने को तैयार नहीं होता. अर्नेस्टो माक्र्सवाद के बारे में बहुत कुछ पढ़ चुका था. लेकिन उन गरीब श्रमिकों से उसको बहुत कुछ सीखने को मिला था. वह खान मजदूर उसको ‘दुनिया में सर्वहारावर्ग का जीता-जागता उदाहरण’ प्रतीत हुआ. उस दंपति के साथ बिताई गई सर्द रात का उल्लेख करते हुए अर्नेस्टो ने अपनी डायरी में लिखा—
‘उनके पास रात बिताने के लिए एक मामूली कंबल तक नहीं था. अतः हमने उन्हें अपना कंबल दिया. उसके बाद मैंने तथा अल्बर्ट ने अपनी रात एक कंबल में लिपटकर जैसे-तैसे बिताई. वह मेरी अब तक बिताई गई सर्वाधिक ठंडी रातों में से एक थी, जिसने हमें उस अजनबी मजदूर, जो निस्संदेह मानव-प्रजाति का ही सदस्य था, के थोड़ा करीब ला दिया था.’
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यात्रा के दौरान अर्नेस्टो ने देखा कि मजदूर माता-पिता अपनी बीमार संतान को मरते-तड़फते देखने को सिर्फ इस कारण विवश हैं, क्योंकि उनके पास डाॅक्टर की फीस चुकाने लायक पैसे नहीं हैं. अभावग्रस्तता को उन्होंने अपनी नियति, जिंदगी का स्वाभाविक हिस्सा मान लिया है. क्या डा॓क्टर के रूप में वह उनकी कुछ मदद कर सकता है? श्रमिक परिवारों की दुर्दशा देख अर्नेस्टो अपने आप से प्रश्न करता. अंतर्मन से तत्काल उत्तर आता कि—‘नहीं, इनकी समस्या केवल रोगों का उपचार कर देने से दूर होने वाली नहीं है. वास्तविक समस्या उस उत्पीड़न में छिपी है जो उन्हें आर्थिक असमानता के कारण कदम-कदम पर झेलना पड़ता है.’ रोग का वास्तविक कारण इनकी गरीबी और वह भयावह आर्थिक असमानता है, जो अमेरिकी साम्राज्यवाद के कारण जन्मी है. वह यह जानकर क्षुब्ध था कि अपनी जमीन, अपना देश होने के बावजूद वहां अमेरिकी कंपनियां शासन और प्रशासन पर हावी हैं. कमरतोड़ मेहनत करने के बावजूद उन्हें पेट-भर भोजन उपलब्ध नहीं है. सरकार भी उत्पीड़न में विदेशी कंपनियों का साथ देती है. वह यात्रा डाॅ. अर्नेस्टो के ‘क्रांतिकारी चे ग्वेरा’ में बदलने की यात्रा थी—

‘धीरे-धीरे वह समझने लगा था कि संयुक्त राज्य अमेरिका की शोषणकारी प्रवृत्ति ही दक्षिणी अमेरिका की गरीबी और अन्याय का मूल है.’
दूसरी यात्रा में अर्नेस्टो ने मियामी को अपना अंतिम पड़ाव बनाया था. वहां एक महीने के प्रवास के दौरान घटी एक घटना ने उसके मन में अमेरिका-विरोध को और गहरा कर दिया जो आखिर तक बना रहा. जिन दिनों वह मियामी की यात्रा पर था. òोत बताते हैं कि सीआईए के इशारे पर उसको गिरफ्तार कर लिया गया. जबकि सीआईए के दस्तावेज में उसके अपराध का कोई उल्लेख नहीं है, जिसके लिए उसको गिरफ्तार किया गया था. कुछ विश्वसनीस स्रोतों के अनुसार अर्नेस्टो तथा उसके मित्र प्युर्टो रिकन ने मियामी के एक मदिरालय में हुड़दंग मचाते हुए अमेरिका के विरुद्ध कुछ सख्त टिप्पणियां की थीं, जिससे वहां की गुप्तचर संस्था को सक्रिय होना पड़ा था. बहरहाल, दूसरी यात्रा के बाद अर्नेस्टो ने डाॅक्टरी के पेशे को पूरी तरह त्यागकर राजनीति से जुड़ने का निर्णय ले लिया.उसकी राजनीति पर माक्र्स का प्रभाव था. रूस की क्रांति उसको आकर्षित करती थी, लेकिन वह बजाय लेनिन के जोसेफ स्टालिन को अपना प्रमुख प्रेरणास्रोत मानता था. किंतु स्टालिन जहां राजनीतिक रूप से अत्यंत महत्त्वाकांक्षी था, वहीं अर्नेस्टो की प्रतिबद्धता पूरे दक्षिणी अमेरिकी समाज के साथ थी. स्टालिन के लिए राजनीति सत्ता एवं शक्ति समेट लेने का माध्यम थी, वहीं अर्नेस्टो उससे समाज के उत्पीड़ित वर्ग का शोषण से मुक्ति का मार्ग खोजना चाहता था.

ग्वाटेमाला की यात्रा

अगस्त-1953 के मध्य में अर्नेस्टो तथा उसके सहयात्री ने बोलेविया से विदा ली और पेरू के रास्ते वेनेजुएला जाने का विचार किया. किंतु शीघ्र ही उन्होंने अपना रास्ता बदल लिया और ग्वाटेमाला को अपना लक्ष्य बनाया. नववर्ष की संध्या को दोनों मित्र ग्वाटेमाला पहुंचे. ग्वाटेमाला के लिए रवाना होने से पहले 10 दिसंबर, 1953 को अर्नेस्टो ने अपनी चाची बीट्रिज को सेन जोस, कोस्टा रीसा से एक संदेश भेजा था. पत्र में उसने लिखा था कि वे संयुक्त राष्ट्र की फल-उत्पादक कंपनियों के उपनिवेशों से गुजर रहे हैं. उन कंपनियों की ‘जोंक’ से तुलना करते हुए अर्नेस्टो ने उनके आतंक की चर्चा की थी. फल-उत्पादक कंपनियों की लूट और मनमानी ने उसे उत्तेजित किया था. इसके कुछ ही दिन पश्चात अर्नेस्टो ने स्टालिन की तस्वीर के आगे, जिसका कुछ ही दिन पहले निधन हुआ था, उस समय तक चैन से न बैठने की शपथ ली थी, जब तक कि वह उन जोंकों को मिटा नहीं देता. ग्वाटेमाला की आबादी मात्र तीस लाख थी. उसमें अधिकांश संख्या वहां के पुराने निवासियों की थी, जो भीषण गरीबी में जीवन बिताते थे. अर्थव्यवस्था कृषि आधारित थी. केला, काॅफी, गन्ना और कपास वहां की प्रमुख फसलें थीं. मगर देश की सत्तर प्रतिशत कृषि भूमि पर केवल दो प्रतिशत अमेरिकी और यूरोपीय मूल के लोगों का अधिकार था. अधिकांश भू-संपदा ‘यूनाइटेड फ्रुट कंपनी’ के अधिकार में थी. राष्ट्रपति अर्बेंज गुजमान के नेतृत्व में आर्थिक असमानता की खाई को पाटने का प्रयास आरंभ हो चुका था. साम्यवादी दलों के समर्थन पर राष्ट्रपति बने अर्बेंज ने कृषि-भूमि का भूमिहीनों में बंटवारा किया. इससे सबसे अधिक नुकसान ‘यूनाइटेड फ्रुट कंपनी’ को उठाना पड़ा, उसके कब्जे से 2,25,000 एकड़ भूमि राष्ट्रपति अर्बांज ने अधिग्रहीत की थी. यही आगे चलकर अमेरिका की नाराजगी और अर्बांज सरकार के पतन का कारण बनी. अर्नेस्टो ग्वाटेमाला के कृषि सुधारों से बेहद प्रभावित हुआ. वहां उसने पूरे नौ महीने प्रवास किया. लेकिन ग्वाटेमाला में सुधार का यह दौर अधिक दिनों तक कायम न रह सका. अमेरिकी सरकार और सीआईए के दबाव में अर्बांज सरकार को सत्ता में बने रहना दिनोंदिन कठिन होता चला गया. देश में गृहयुद्ध जैसे हालात बन चुके थे. सीआईए विद्रोह को हवा दे रहा था. साम्यवादी अर्बांज सरकार की मदद के लिए चेकोस्लोवाकिया ने हथियारों से भरा एक जहाज 15 मई, 1954 को भेजा था. किंतु अर्बांज तक पहुंचने से पहले ही सीआईए को उसकी भनक लग गई. तुरंत अमेरिका के इशारे पर सेना ग्वाटेमाला में घुस आई. उसका नेतृत्व कार्लोस कास्टिलो आम्र्स के हाथों में था. अर्नेस्टो के दिमाग पर तो अमेरिका को सबक सिखाने का जुनून सवार था. उसकी शुरुआत किस देश से, किन लोगों को साथ लेकर हो, यह उसके लिए सर्वथा अर्थहीन था. अर्बांज सरकार की सहायता के लिए वह उसकी सेना में सम्मिलित हो गया. सेना का गठन साम्यवाद-समर्थक युवाओं की ओर से किया गया था. अर्नेस्टो युद्ध में हिस्सा लेने को तत्पर था. लेकिन जून 1954 में अर्बांज ने देश छोड़ने का निर्णय कर मैक्सिको के दूतावास में शरणागत हो गया. उसने अपने विदेशी समर्थकों से भी तत्काल ग्वाटेमाला से निकल जाने का अनुरोध किया. अब अर्नेस्टो के लिए वहां रुके रहना मुश्किल ही था. उसने तत्काल मैक्सिको जाने का निर्णय कर लिया. अर्बांज सरकार के पतन के साथ ही ग्वाटेमाला में सुधारों का एक युग समाप्त हो गया. अर्नेस्टो के लिए ग्वाटेमाला के अनुभव हमेशा यादगार बने रहे. उन दिनों को याद करते हुए उसने आगे चलकर लिखा—


‘मैं अर्जेंटीना में जन्मा, क्यूबा में लड़ा, लेकिन मैं क्रांतिकारी बनूं, इसकी शुरुआत ग्वाटेमाला से हुई.’
मैक्सिको यात्रा के आरंभिक दिन बहुत कष्ट-भरे थे. अर्नेस्टो की जेब एकदम खाली थी. जितना धन वह घर से लेकर निकला था, वह समाप्त हो चुका था. नए देश में उसका न तो कोई परिचित था, न उसके पास कोई काम-धंधा, जिससे वह अपनी अनिवार्य आवश्यकताओं को पूरा कर सके. मैक्सिको में उसको अपने पिता के एक दोस्त का सहारा था. उसने अर्नेस्टो को एक कैमरा भेंट किया था. कोई और उपाय न देख अर्नेस्टो ने उसी से अमेरिका से आए सैलानियों की तस्वीरें खींचना आरंभ कर दिया, जिससे उसको कुछ सहारा मिला. मैक्सिको में ही उसकी भेंट पेरू मूल की अर्थशास्त्री हिल्डा जेडा अकोस्टा से हुई, जो कालांतर में प्रेमसंबंध में परिणित हो गई. प्रखर मेधावी हिल्डा के साम्यवादी नेताओं तथा क्रांतिकारी विचारकों से गहरे संबंध थे. अर्नेस्टो उससे सुरक्षित दूरी बनाए रखना चाहता था. तो भी दोनों की नजदीकियां धीरे-धीरे बढ़ती गईं. हिल्डा के माध्यम से ही उसकी भेंट मैक्सिको के साम्यवादी नेताओं और विचारकों से हुई. वहीं पर वह निर्वासित जीवन जी रहे क्यूबा के क्रांतिकारी नेता फिदेल कास्त्रो से मिला. वह मुलाकात दोनों के लिए परिवर्तनकारी सिद्ध हुई. दोनों पूरी रात बात करते रहे. दिन निकलने पर भी उनकी बातों का सिलसिला बना रहा. वह एक युगांतरकारी घटना थी, जिससे नए क्यूबा की तस्वीर गढ़ी जानी थी. फिदेल से अपनी पहली भेंट के पश्चात अर्नेस्टो ने अपनी डायरी में लिखा—
‘मैं जब उससे मिला वह मैक्सिकों की भीषण सर्दं रातों में से एक थी; और मुझे याद है कि हमारी पहली बातचीत विश्व-राजनीति को लेकर हुई थी. कुछ घंटे बाद सोने से पहले मैं अपने भविष्य की दिशा तय कर चुका था. वस्तुतः लातीनी अमेरिका की यात्रा, जिसका समापन ग्वाटेमाला में हुआ, के दौरान हुए अनुभवों के बाद, निरंकुश शासकों के विरुद्ध क्रांतिकारी गतिविधियों की ओर मुझे आकर्षित करना कठिन नहीं रहा था. फिदेल ने मुझे असाधारण नेता की भांति प्रभावित किया था. मैं जानता था, उसने कई मुश्किलों का सामना किया है, उनके समाधान भी निकाले हैं….मैं उसके प्रखर आशावाद से प्रभावित में था. युद्ध और युद्ध की योजना को लेकर बहुत कुछ किया जाना बाकी था. सच तो यह है कि बातचीत के लिए चीखना-चिल्लाना भूलकर हम युद्ध के लिए तैयार हो रहे थे….’
मैक्सिको की यात्रा के दौरान अर्नेस्टो को उसका उपनाम मिला—‘चे’, स्पानी मूल के इस शब्द का आशय है—मित्र, भाई, सखा आदि. लातीनी अमेरिकी देशों में व्यक्ति विशेष के प्रति सघन आत्मीयता दर्शाने के लिए भी किया जाता है. अर्जेंटीना स्वयं लातीनी अमेरिकी देश है, किंतु बाकी देश अर्जेंटीना से आए लोगों को भी ‘चे’ का संबोधन करते है. चे ग्वेरा के साथ यह संबोधन इसलिए भी जुड़ा था कि वह अपने संपर्क में आने वाले लोगों को अनौपचारिक भाषा में अक्सर ‘चे’ कहकर बुलाता रहता था. बहरहाल यह संबोधन चे ग्वेरा के साथ सदैव के लिए जुड़ गया. कालांतर में वह इसी से पूरी दुनिया में पहचाना गया. मैक्सिको में उसकी आर्थिक स्थिति लगातार गड़बड़ाती जा रही थी. दूसरी ओर क्रांति के प्रति उसका विश्वास दिनोंदिन बढ़ता जा रहा था. उसको लग रहा था कि राजदूत एवं राजनेता अमेरिकी साम्राज्यवाद को मतपत्र द्वारा नहीं जीत पाएंगे. उसको केवल बंदूक द्वारा पराजित किया जा सकता है. क्रांति को केवल क्रांति द्वारा ही पराजित किया जा सकता है. इस बीच उसकी मुलाकात निर्वासन की सजा झेल रहे क्यूबा के प्रमुख क्रांतिकारियों से हुई, जिनमें नीको ला॓पेज जैसा क्रांतिधर्मी भी था. ला॓पेज ने अर्नेस्टो को क्यूबा आंदोलन के बारे में काफी जानकारी दी. अर्नेस्टो ग्वाटेमाला की क्रांति को असफल होते देख चुका था, किंतु वह आशा से भरा हुआ था और ग्वाटेमाला के संघर्ष की कमजोरियों से बचना चाहता था. उस समय उसका एक ही उद्देश्य था, अमेरिका के समर्थन पर टिकी निरंकुश सत्ता को उखाड़ फेंकना. लेकिन यह सब उसका दिमागी फितूर ही बना रहता यदि उससे फिदेल कास्त्रो का साथ उसको न मिला होता. इस बीच 18 अगस्त 1955 को उसने हिल्डा जीडिया से विवाह कर लिया.
क्यूबा के लिए संघर्ष
क्यूबा से निर्वासित क्रांतिकारी नेताओं की बड़ी संख्या मैक्सिको में सजा भुगत रही थी. फिदेल ने उन्हीं को संगठित कर क्यूबा के दक्षिणी समुद्र तट की ओर से बतिस्ता सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए व्यूह रचना की. उसकी योजना छापामार युद्ध द्वारा निरंकुश सरकार को उखाड़ फेंकने की थी. अर्नेस्टो अमेरिका समर्थित किसी भी निरंकुश सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए स्वयं को प्रतिबद्ध कर चुका था. इसलिए वह फिदेल के छापामार दल में शामिल हो गया. सैन्य प्रशिक्षण मैक्सिको में आरंभ हुआ. अपनी निष्ठा, चुस्ती-फुर्ती और संकल्प के बल पर अर्नेस्टो प्रशिक्षण के अंत में ‘सर्वश्रेष्ठ गुरिल्ला’ सिद्ध हुआ. उसके सैन्य प्रशिक्षक कर्नल अल्ब्रेटो बाय ने उन दिनों को याद करते हुए कहा था—
‘‘चे ग्वेरा को कक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त हुआ था. उसके सर्वाधिक अंक थे. हर विषय में दस में दस. फिदेल ने जब उसकी अंकतालिका देखी तो मुझसे पूछा—‘ग्वेरा हर बार प्रथम स्थान पर क्यों है?’ ‘उसे होना ही चाहिए, इसलिए कि वह सर्वश्रेष्ठ है. वह ठीक वैसा है, जैसा कि मैं सोचता हूं’—मैंने बताया था. ‘मेरा भी उसके बारे में यही विचार है’—कास्त्रो का उत्तर था.’’
प्रशिक्षण के दिनों ही हिल्डा ने अर्नेस्टो की बेटी को जन्म दिया. 14 जून, 1956 को एक घटना और घटी. फिदेल कास्त्रो तथा उसके दो सहयोगियों को सम्राट बतिस्ता की हत्या के षड्यंत्र में गिरफ्तार कर लिया गया. उसके दस दिन बाद ही अर्नेस्टो भी क्यूबाई सेना के शिकंजे में फंस गया. परंतु आरोप सिद्ध न हो पाने के कारण एक महीने बाद ही फिदेल को रिहा कर दिया गया. अर्नेस्टो को मुक्त करने का खेल चलता रहा. अंततः अगस्त के मध्य में 57 दिन के कारावास के पश्चात उसको भी मुक्ति दे दी गई. इस घटना के बाद अर्नेस्टो का अमेरिका विरोध और भी मुखर हो गया. इरादे कुछ और मजबूत हुए थे. रिहा होने के तुरंत बाद वह कास्त्रो से मिला. दोनों मिलकर क्रांति को नए सिरे से अंजाम देने में जुट गए.
25 नवंबर, 1956 को अर्नेस्टो ने छापामार दस्ते के साथ मैक्सिको के रास्ते क्यूबा पर आक्रमण किया. उसके साथ केवल 82 छापामार योद्धा थे. भीषण युद्ध में अर्नेस्टो के 60 सिपाही मारे गए. यह एक बड़ी पराजय थी, किंतु अर्नेस्टो का हौसला बना रहा. बचे हुए 22 सैनिकों के साथ वह नए सिरे से संगठित होने के प्रयास में जुट गया. सीएरा मिस्ट्रा की पहाड़ियों में वह छापामार लड़ाई की तैयारी करता रहा. मलेरिया, मच्छर, भूख-प्यास से भरे उन दिनों को उसने ‘युद्ध के सबसे दर्दनाक दिन’ के रूप में याद किया है. उन दिनों वह एक छापामार सैनिक अथवा सैन्यदल का नेता मात्र नहीं था. हथियारों की कमी को पूरा करने के लिए उसने ग्रेनेड बनाने के कारखाने लगाए. अपने संघर्ष से जनसाधारण को परचाने के लिए उसने लोगों को पढ़ाना आरंभ किया. सैनिक अपवाह का शिकार न हों, इसके लिए वह नियमित रूप से समाचारपत्र पढ़ता और पढ़वाता. स्थानीय किसानों को साम्राज्यवादी अमेरिका के मंसूबों तथा उसकी शोषणकारी नीतियों के बारे में समझाता. कास्त्रो का दिमाग आमने-सामने की लड़ाई में दुश्मन को मात देने के लिए बना था. उसका संगठन-सामथ्र्य चामत्कारिक था. लेकिन जमीनी स्तर पर युद्ध की तैयारी करना, अपने विचारों और संघर्ष के लिए जनता की सहानुभूति बटोरने का काम अर्नेस्टो का था. असल में वह कलम और बंदूक दोनों का सिपाही था. यही कारण था जिससे उसके अभियान को स्थानीय जनता का सहयोग मिलता था. ‘टाइम पत्रिका’ ने उसको ‘कास्त्रो का दिमाग’ कहा है. वह अति की सीमा तक अनुशासनप्रिय था. अपनी सैन्य टुकड़ी को एकजुट और सुरक्षित रखने के लिए वह कुछ भी कर सकता था. युद्ध के दौरान पीठ दिखाना उसको नापसंद था. उसकी सेना में—
‘भगोड़ों को विश्वासघाती माना जाता था. बिना पूर्वसूचना के अवकाश पर जाने, युद्धक्षेत्र में पीठ दिखाने वाले सैनिकों को मृत्युदंड देने के लिए चे उनके पीछे सैनिक छोड़ देता था.’
अर्नेस्टो का मानना था कि भगोड़े सैनिक दुश्मन के हाथों में पड़कर संगठन के बारे में आवश्यक जानकारियां उन्हें दे सकते हैं. इससे क्रांति का लक्ष्य पीछे खिसक सकता है. ऐसे सैनिकों को वह स्वयं भी दंडित कर सकता था. यूटीमियो ग्वेरा इसका सटीक उदाहरण था, जिसने कास्त्रो से बदला लेने की मंशा से निकले एक सुरक्षाकर्मी का नेतृत्व किया था. यूटीमियो को क्यूबा की राष्ट्रवादी सेना ने गिरफ्तार कर लिया था. बाद में उसको इस शर्त पर छोड़ दिया गया था कि वह कास्त्रो के ठिकानों के बारे में सूचना देगा. यूटीमियो ने जो सूचना क्यूबा सरकार को भेजी उसके आधार पर क्यूबा सैनिकों ने विद्रोहियों के ठिकाने पर हमला बोल दिया. उसमें चे के अनेक क्रांतिकारी सैनिक मारे गए. जब यूटोमियो के विश्वासघात की सूचना चे तक पहुंची तो वह चुप हो गया. उसका क्या किया जाए इसका समाधान सिर्फ चे के दिमाग में था. यूटोमियो को मृत्युदंड दिया गया. बहुत दिन तक रहस्य बना रहा कि उसको गोली किसने मारी थी. चे की निजी डायरी में उसका उल्लेख मिलता है. यूटोमियो के साथ जो हुआ उससे चे की अनुशासनप्रियता तथा सख्त गुरिल्ला योद्धा की छवि का पता चलता है. चे ने लिखा है कि—
‘यूटीमियो के साथ-साथ बाकी सब लोग परेशान थे. इसलिए मैंने समस्या को ही खत्म कर करना उचित समझा. मैंने अपनी 0.32 बोर की केलीबर पिस्तौल निकाली तथा उसके मस्तिष्क के दाहिनी ओर से गोली दाग दी. क्षण-भर में गोली खोपड़ी के पार निकल गई. वह कुछ पल तड़फा और मर गया….’
फरवरी 1957 अर्नेस्टो के लिए बहुत कष्टकारी सिद्ध हुआ. उस दिन उसका दमा उखड़ा हुआ था. सांस लेने में भी भारी तकलीफ हो रही थी. वह अपने साथियों के साथ घात लगाए बैठा था. तभी जबरदस्त धमाका सुनाई पड़ा. सनसनाती हुई गोलियां हवा को चीरने लगीं. मौत मैदान में नाचने लगी. अर्नेस्टो समझ गया, क्यूबा के सैनिक उसकी खोज में भटक रहे थे. विद्रोही सैनिकों के लिए वहां टिके रहना कठिन हो गया तो वे चाॅकलेट और दूध के पाउडर को उठाकर वहां से आगे बढ़ गए. लेकिन अर्नेस्टो की हालत आगे बढ़ने की न थी. उसको लगातार उल्टियां हो रही थीं. ऊपर से उसकी दवाइयां भी समाप्त हो चुकी थीं. अंततः एक स्थानीय किसान को दवा का इंतजाम करने के लिए भेजा गया. क्यूबा के सैनिक चप्पे-चप्पे पर छाए हुए थे. दवा लेने गया किसान दो दिन बाद लौटा, केवल एक खुराक दवा के साथ. इस अवधि में अर्नेस्टो केवल अपनी इच्छाशक्ति के बल पर बीमारी से जूझता हुआ, स्वयं को क्यूबाई सैनिकों से बचाता रहा. उधर क्यूबा का तानाशाह सम्राट कास्त्रो के मारे जाने और विद्रोह के कुचले जाने का ऐलान कर रहा था. ऐसे में ‘टाइम मैग्जीन’ ने फिदेल कास्त्रो के जीवित होने तथा उसको स्थानीय लोगों के समर्थन की खबर दी. फलस्वरूप दुनिया-भर के पत्रकार कास्त्रो का साक्षात्कार लेने, उसका समाचार प्रकाशित करने के लिए उमड़ पड़े. कास्त्रो और अर्नेस्टो रातो-रात ‘हीरो’ बन गए. सम्राट बतिस्ता के उत्पीड़न और भ्रष्टाचार से दुखी लोग परिवर्तन की आस करने लगे. यह विद्रोहियों की नैतिक विजय थी, जिसने क्रांति को हवा देने का काम किया. युद्ध का अगला मोर्चा उवेरो में बना. उसमें चे ने कमांडर के रूप में विद्रोहियों का नेतृत्व किया था. उस मोर्चे पर 80 विपल्वी 53 क्यूबाई सैनिकों के सामने थे. उस युद्ध में विद्रोही दुश्मन सेना पर भारी पड़े. लड़ाई में क्यूबा सेना के 14 सैनिक मारे गए, 19 हताहत हुए तथा 14 को कैद कर लिया गया. विद्रोही सैनिकों में से मात्र 6 हताहत हुए थे. उस युद्ध में चे की भूमिका की प्रशंसा करते हुए हैरी नाम के एक ग्रामीण ने कहा था—
‘वह एकमात्र सैनिक था जो लड़ाई में हमेशा आगे रहता था. वह दूसरों के लिए एक मिसाल था. उसने यह कभी नहीं कहा कि जाओ और जाकर लड़ो. बल्कि हमेशा यही कहता था, लड़ाई में मेरा पीछा करो.’
युद्ध समाप्त होने के साथ ही चे का सैनिक शांत होकर उसके भीतर सिमट जाता था. उसके तुरंत बाद उसका डाॅक्टर सक्रिय हो जाता. वह तन-मन से घायलों की सेवा-सुश्रुषा में जुट जाता. उवेरो में मिली विजय से क्यूबा का एक भू-भाग विद्रोही सैनिकों के कब्जे में आ चुका था. उस सफलता पर प्रसन्न होकर कास्त्रो ने चे को कमांडेट का पद सौंपा था. छापामार सेना का एकमात्र कमांडर स्वयं कास्त्रो था. अपनी सफलता पर खुश होने, जीत का जश्न मनाने के बजाय चे ने युद्ध के अन्य मोर्चों पर काम करना आरंभ कर दिया. बिना जनसमर्थन के क्रांति संभव नहीं, यह सोचकर चे ने समाचारपत्र निकालने की योजना बनाई. पत्र के माध्यम से उसका दूसरा लक्ष्य बतिस्ता सरकार की कारगुजारियों को दुनिया के सामने लाना था. अंततः क्यूबा से ही ‘अल क्यूबानो लिब्रे’ नामक समाचारपत्र का प्रकाशन आरंभ किया गया. उसी वर्ष विद्रोही सेना की ओर से एक रेडियो स्टेशन की स्थापना भी की गई. उसमें भी चे की प्रमुख भूमिका थी. क्यूबा में क्रांति की सफलता में रेडियो स्टेशन की बड़ी भूमिका रही.
लास मर्सिडिस की लड़ाई क्यूबा क्रांति का निर्णायक मोड़ बनी. 29 जुलाई से 8 अगस्त, 1958 तक चली इस लड़ाई में बतिस्ता सरकार की योजना विद्रोहियों को एक ही झटके में समाप्त कर देने की थी. कास्त्रो के छापामार सैनिकों को जाल में फंसाने के लिए क्यूबाई सेनापति ने एक चाल चली थी. जिस स्थान पर छापामार सैनिक जमा थे, उसको 1500 सैनिकों ने चारों ओर घेर लिया, लेकिन चे को उसकी भनक लग गई. वह क्यूबाई सेनापति को मुंहतोड़ जवाब देने की तैयारी करने लगा. इस बीच सेनापति केंटिलो की ओर से उसको समर्पण का संदेश मिला. चे ने विचार करने के लिए समय मांगा और युद्धविराम का प्रस्ताव रखा. इसको विद्रोही सैनिकों की हताशा मानते हुए केंटिलो ने उसको स्वीकार कर लिया. उधर युद्धविराम की अवधि का फायदा उठाते हुए विद्रोही सैनिक पहाड़ियों में समा गए. एक प्रकार से वह केंटिलो की सेना की विजय ही थी, जो उसने बिना सैनिकों का खून बहाए प्राप्त की थी. लेकिन सम्राट बतिस्ता ने इसका दूसरा ही अर्थ लिया. उसको अपने सेनापतियों की निष्ठा पर ही संदेह होने लगा. इसका प्रतिकूल प्रभाव सैनिकों के मनोबल पर पड़ा. कास्त्रो को ऐसे ही अवसर की प्रतिक्षा थी. उसने छापामार सैनिकों के साथ आक्रमण कर दिया. चे को सांता क्लारा को कब्जाने की जिम्मेदारी सौंपी गई. वह क्यूबा का चैथा सबसे बड़ा शहर था. लेकिन वहां बतिस्ता सरकार ने अपनी पूरी सैनिक ताकत झोंकी हुई थी. छह सप्ताह तक चारों ओर से दुश्मन सेनाओं से घिरा चे युद्ध करता रहा. कई बार लगा हार सुनिश्चित है. उसे बचाने के लिए चे ने बड़े ही कौशल से अपने छापामार सैनिकों का नेतृत्व किया. आखिर जीत उसके पक्ष में रही. 28 दिसंबर 1958 को चे ने अपने सैनिकों के साथ कैबीरियन तट से कमाजौनी तक विजय मार्च किया. स्थानीय जनता, विशेषकर किसान उसके सैनिकों का हर्षातिरेक के साथ स्वागत कर रहे थे. चे कितना कुशल सेनापति था, इसका संकेत उसकी डायरी में लिखे एक घटनाक्रम से मिलता है—
‘‘मैंने एक सैनिक को पूरे युद्ध के दौरान सोते रहने पर फटकारा. उसने उत्तर में बताया कि लड़ाई में आदेश के बगैर फायरिंग शुरू करने के अपराध में उसके हथियार छीन लिए गए हैं. सुनकर मैंने हमेशा की तरह सूखे स्वर में कहा—‘अगर ऐसा है तो अपने लिए रायफल खुद जीतो. यदि तुम सचमुच बहादुर हो तो मोर्चे तक बिना किसी हथियार के जाना.’….सांता क्लारा में मैं घायलों का ढाढस बंधा रहा था. उसी समय एक मरणासन्न सैनिक ने मेरा हाथ पकड़ लिया. मैं कुछ कहूं, उससे पहले वह बोला, ‘कमांडर, क्या आप जानते हैं? आपने मुझे मोर्चे से हथियार लाने भेजा था. और मैंने वह कर दिखाया.’ यह वही सैनिक था जिसने बिना किसी आदेश के फायरिंग शुरू कर दी थी. कुछ मिनट के बाद वह शहीद हो गया. पर उस समय उसके चेहरे पर संतोष के भाव थे…कुछ ऐसे थे हमारे विद्रोही सैनिक.’’
सांता क्लारा के लिए चल रहे घमासान के बीच में ही बतिस्ता सरकार ने रेडियो से चे के मारे जाने तथा अपनी जीत का समाचार प्रसारित करा दिया था. लेकिन असलियत कुछ ही दिनों में सामने आ गई. मात्र 300 सैनिको की छापामार टुकड़ी के साथ चे कर्नल केसीलस लंपी को न केवल पराजित करने में कामयाब हुआ. चे की मौत का झूठ समाचारपत्रों के माध्यम से दुनिया के सामने आया. इससे बतिस्ता सरकार की खूब किरकिरी हुई. मुट्ठी-भर छापामार सैनिकों के साथ चे न केवल युद्ध में विजयी हुआ था, बल्कि वह सरकार द्वारा भेजी मोर्चे पर भेजी गई हथियारों से लदी रेलगाड़ी को भी अधिकार में ले चुका था. यह घटना राष्ट्रवादी बतिस्ता की सेनाओं का मनोबल तोड़ने वाली सिद्ध हुई. क्यूबाई सेना के सैनिक विद्रोहियों के साथ मिलने लगे. 1959 के नववर्ष संदेह में विद्रोहियों के रेडियो स्टेशन से सांता क्लारा पर कब्जे का संदेश दुनिया-भर में सुनाई पड़ा. जैसे ही राष्ट्रपति बतिस्ता को संदेश मिला कि उसके सेना के अधिकारी विद्रोहियों से मिलकर शांति-प्रस्ताव को आगे बढ़ाने की योजना बना रहे हैं, उसने घबराकर क्यूबा छोड़ दिया. उसके ठीक एक सप्ताह बाद, 8 जनवरी 1959 को फिदेल कास्त्रो और चे ग्वेरा ने विजयोल्लास के साथ हवाना में प्रवेश किया तो उनका स्वागत उत्साहित भीड़ द्वारा किया गया. क्यूबा की राष्ट्रवादी सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए छेड़ा गया सैन्य अभियान लगभग पूरा हो चुका था. अब बारी राजनीतिक-आर्थिक परिवर्तन की थी, जिसमें क्रांति का वास्तविक लक्ष्य निहित था.
क्यूबा के सत्ता-परिवर्तन में फिदेल कास्त्रो के अलावा और भी कई छोटे-मोटे दल सम्मिलित थे, जो राष्ट्रवादी सरकार से असंतुष्ट चल रहे थे. तो भी इस विजय का सेहरा फिदेल कास्त्रो और चे ग्वेरा के सिर बंधा. इस क्रांति का बौद्धिक सूत्रधार केवल और केवल चे ग्वेरा था. चे के माता-पिता समेत उसका पूरा परिवार क्यूबा पहुंच चुका था. उनके मन में एक ही प्रश्न था. इस सफलता के बाद क्या चे क्यूबा में रुका रहेगा, या अर्जेंटीना वापस लौटकर अपने चिकित्सा के पेशे को संभालेगा. चे इस मुद्दे पर एकदम स्पष्ट था. उसका मानना था कि सिर्फ राजनीतिक सत्ता प्राप्त कर लेने से क्रांति का उद्देश्य पूरा नहीं हो जाता. अपने पिता से उसने कहा था—
‘जहां तक मेरे डा॓क्टरी के पेशे का सवाल है, यह स्पष्ट है कि मैं उसको बहुत पहले छोड़ चुका हूं. फिलहाल मैं एक योद्धा हूं, जो सरकार के साथ एकजुट होकर काम कर रहा है. मेरा अंत कैसा होगा? यह मैं भी नहीं जानता कि ये हड्डियां धरती के कौन-से हिस्से पर मेरा साथ छोड़ेंगी.’
बाएं से एक है फिदेल कास्त्रो , जबकि केंद्र में है चे ग्वेरा .
जनवरी के अंतिम सप्ताह में चे की पत्नी और बेटी हिल्डा जेडिया भी उससे मिलने क्यूबा पहुंची. तब तक उनकी मुलाकात के मायने बदल चुके थे. छापामार युद्ध के दौरान चे अलीडा मार्क के संपर्क में आया था. उसके बाद से दोनों साथ-साथ रहते आ रहे थे. चे ने हिल्डा से तलाक देने की मांग की. परिणामस्वरूप 22 मई को दोनों एक-दूसरे से हमेशा के लिए अलग हो गए. उसके दस दिन बाद चे ने अलीडा से विवाह कर लिया. चे का अगला लक्ष्य क्यूबा का पुनःनिर्माण करना था. कास्त्रो ने सत्ता संभालते ही एक निर्णय लेते हुए उन सभी विदेशियों को जिन्होंने बतिस्ता सरकार को उखाड़ फेंकने के संघर्ष में न्यूनतम दो वर्ष लगाए थे, क्यूबा की नागरिकता प्रदान कर दी. चे अब क्यूबाई नागरिक था. क्रांति की सफलता का भरपूर श्रेय भी उसको मिला था. उसका अगला लक्ष्य था बतिस्ता सरकार के अवशेषों पर प्रहार करना. उस मानसिकता को ध्वस्त करना, जो निरंकुशता को वरेण्य बनाती है. बतिस्ता के निरंकुश शासनकाल में विद्रोहियों ने अपनी अधीन प्रांतों में एक कानून लागू किया था, जिसके अनुसार गंभीर अपराध के लिए मृत्युदंड का प्रावधान था. इस कानून को ‘ले दे ला सीएरा’(सीएरा का कानून) कहा गया था. कास्त्रो ने सत्ता संभालते ही इस कानून को पूरे देश पर लागू कर दिया. जनसामान्य द्वारा इसका जोरदार स्वागत किया गया. उत्साह और जश्न के माहौल में क्रांति के अगले अतिवादी चरण की कल्पना शायद ही कोई कर पाया था. क्यूबा के प्रसिद्ध ‘ला कबेना फोर्टेस’ कारागार में सैकड़ों युद्धबंदी गिरफ्तार थे. उनको दंडित करने का काम चे ग्वेरा को सौंपा गया. क्रांति के लक्ष्य को लेकर गंभीर चे का मानना था कि हर उस व्यक्ति से मुक्ति पाना अनिवार्य है, जो उसके मार्ग में अवरोधक है. अपने एक मित्र बुनोस ऐरस को 5 फरवरी 1959 को लिखे गए पत्र में उसने लिखा था—
‘मृत्युदंड न केवल आवश्यक है, बल्कि यह क्यूबा की जनता द्वारा निर्धारित किया गया है.’
इसे हम क्रांति का स्याह पक्ष अथवा दमनात्मक कार्रवाही कह सकते हैं, निरंकुश सत्ता सदैव विपक्ष की उपस्थिति से आतंकित रहती है. जनता की मृत्युदंड के प्रति सहमति जताने का नाटक स्वयं फिदेल कास्त्रो द्वारा एक जनसभा के दौरान किया गया था. अमेरिका की समाचार एजेंसी ‘यूनीवर्सल न्यूजरील’ ने 22 जनवरी 1959 को एक समाचार प्रसारित किया था. उसके अनुसार उपस्थित जनसमुदाय से कास्त्रो ने अपील की थी कि क्या आप उन अपराधियों को मृत्युदंड देना चाहते हैं, जो भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे हुए हैं. जिन्होंने आपका वर्षों-वर्ष शोषण किया है. इसपर पूरे मैदान से आवाज आई थी—‘हां.’ कहा जाता है कि जनता का आक्रोश बतिस्ता सरकार द्वारा बीस हजार से अधिक क्यूबावासियों को मृत्युदंड दिए जाने से उपजा था. बहरहाल, चे के नेतृत्व में बिना किसी विधि-सम्मत प्रक्रिया के विद्रोहियों को मृत्युदंड दे दिया गया. कुल कितने विरोधियों को दंडित किया गया, इस बारे में अलग-अलग धारणाएं हैं. चे के अधीन काम करने वाले वकील जोन विलासुओ द्वारा लिखित एक दस्तावेज के अनुसार मृत्युदंड दिए जाने की कार्रवाही सोमवार से शनिवार तक चली थी. उसमें प्रतिदिन एक से सात; और कभी-कभी उससे अधिक कैदियों को मृत्युदंड की सजा दी गई—
‘मृत्युदंड की कार्रवाही सोमवार से शनिवार तक चलती रही, प्रत्येक दिन एक से सात कैदी, कभी अधिक भी दंडित किए गए. मृत्युदंड की सजा को फिदेल कास्त्रो, राॅल तथा चे का पूर्ण समर्थन प्राप्त था. उसका निर्णय ट्रिब्युनल अथवा कम्युनिस्ट पार्टी की ओर से लिया गया था. सजायाफ्ता कैदियों पर गोली दागने के बदले फायरिंग स्क्वाड के प्रत्येक सदस्य को 15 पीसो तथा अधिकारियों को 25 पीसो दिए प्रति कैदी दिए गए थे. कुल मिलाकर ला कबना में जून 1959 तक दोनों ओर से करीब चार हजार व्यक्तियों को मृत्युदंड दिया जा चुका था.’
कुठ विद्वानों का मत है कि वास्तविक संख्या बहुत कम थी. चे ने उदारता दर्शाते हुए अनेक कैदियों को जहां तक उसके लिए संभव था, माफ भी किया था. बहरहाल, चे अपने संघर्षशील स्वभाव, दृढ़ इच्छाशक्ति, कभी हार न मानने वाली मनोवृत्ति के कारण क्यूबा को साम्राज्यवादी अमेरिका के चंगुल से लाने में सफल हो ही चुका था. इसको हम क्रांति की विडंबना कहें अथवा साम्यवादी राजनीति का लक्ष्य से अकसर भटक जाने वाला स्वभाव—प्रतिहिंसा साम्यवादी क्रांति की अवश्यंभावी घटना रही है. इस संभावना से माक्र्स तो माक्र्स, बल्कि प्लेटो भी परिचित था. इसलिए माक्र्स ने जहां वर्गहीन समाज की अभिकल्पना प्रस्तुत की थी, वहीं उससे लगभग इकीस सौ वर्ष पहले प्लेटो ने भी कुछ ऐसा ही डर दिखाते हुए दार्शनिक मंडल को सत्ता सौंपे जाने का सुझाव दिया था. माक्र्स का कहना था कि सत्ता प्रतिष्ठानों, उद्योगों पर अधिकार प्राप्त कर लेने के उपरांत सर्वहारा वर्ग को वर्ग-व्यवस्था के उन्मूलन की कार्रवाही आरंभ कर देनी चाहिए. उसने इसको साम्यवादी क्रांति का अनिवार्य और महत्त्वपूर्ण चरण माना है. वर्ग-उन्मूलन के लिए किसी भी प्रकार की हिंसक कार्रवाही का समर्थन मार्क्स नहीं करता. प्लेटो का मानना था स्वभाव से उदार और विद्वत दार्शनिक मंडल को, राज्य के भीतर, अपने कार्यों के लिए हिंसा की आवश्यकता ही नहीं है.
समाजार्थिक सुधार
‘क्रांतिकारी न्याय’ के दायित्व से मुक्त होने के बाद चे ने क्यूबा में समाजार्थिक सुधारों की शुरुआत की, जो क्रांति का वास्तविक लक्ष्य था. क्यूबा पर कब्जा करने के कुछ दिन बाद ही उसने जनता के नाम जोरदार संदेश जारी किया था, जिसमें उसने कहा था कि क्यूबा की नई सरकार का प्रथम उद्देश्य सामाजिक न्याय कायम करना है. पहले चरण में भू-वितरण को प्राथमिकता दी जाएगी. उसके कुछ महीने पश्चात 17 मई 1959 को चे ने कृषि सुधार नियम’ लागू किया, जिसमें समस्त कृषि भूमि को बड़े कृषि फार्मों में बांटने का आदेश जारी किया गया था. प्रत्येक कृषिफार्म का क्षेत्रफल 1000 एकड़, लगभग 4 वर्ग किलोमीटर था. जिसके पास भी इससे अधिक कृषिभूमि थी, उसका अधिग्रहण कर उसको लगभग 67 एकड़ के कृषि भूखंडों में बांट दिया गया था. एक और कानून यह भी बनाया कि चीनी के लिए की जाने वाली खेती से विदेशियों को दूर रखा जाएगा. आर्थिक विषमता के उन्मूलन के लिए चे द्वारा उठाए गए कदमों का आम जनता ने खुलकर स्वागत किया. लेकिन चे का समाजवादी राज्य का सपना केवल क्यूबा तक सीमित नहीं था. वह पूरे लातीनी अमेरिका के साथ बाकी विश्व को भी साम्राज्यवादी अमेरिका से दूर रखना चाहता था. 12 जून, 1959 को वह तीन महीने की विदेश यात्रा के लिए रवाना हुआ. इस बार उसका पड़ाव मोरेक्को, सुडान, सीरिया, यूनान, पाकिस्तान, थाइलेंड, यूगोस्लाविया, ग्रीक, जापान आदि देश बने. यात्रा से पहले उसको विदा करने फिदेल कास्त्रो स्वयं हवाई अड्डे तक पहुंचे थे.
चे की जापान यात्रा का प्रमुख उद्देश्य दोनों देशों के बीच व्यावसायिक रिश्ते कायम करना था. वहां भी उसकी पुरानी ठसक जो अटूट सिद्धांतनिष्ठा से जन्मी थी, बरकार रही. जापान में उसने एक अनाम सैनिक की समाधि पर जाने तथा वहां श्रद्धासुमन अर्पित करने से यह कहकर इंकार कर दिया कि जापान ने दूसरे विश्वयुद्ध में लाखों निर्दोष सैनिकों का कत्लेआम किया था. इसके बजाय उसने हीरोशिमा जाने का यह कहते हुए विशेष आग्रह किया कि अमेरिकी सेना ने वहां जापान की राजशाही की निंदा किए बिना ही 14 वर्ष पहले बम फोड़ दिया था, जिससे लाखों जानें गईं, और अनगिनत लोग हताहत हुए. उस भीषण त्रासदी के लिए चे ने अमेरिकी राष्ट्रपति हेनरी ट्रूमेन को ‘पैशाचिक जोकर’ कहकर उसकी निंदा की थी. चे की यात्रा ने बुद्धिजीवियों में हलचल पैदा कर दी थी. ऐसे में जापान सरकार से अधिक मदद की अपेक्षा रखना अनुचित था. यात्रा के बीच उसने एक पोस्टकार्ड कास्त्रो सरकार को भेजा था, पत्र में उसमें लिखा था—
‘शांति के लिए संपूर्ण श्रद्धा से प्रयत्न से अच्छा है कि हममें से कोई एक हीरोशिमा के बारे में सोचे.’
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सितंबर, 1959 में चे को क्यूबा वापस लौटना पड़ा. फिदेल के नेतृत्व में क्यूबा की सरकार भूमि सुधारों को तेजी से लागू करने का प्रयास कर रही थी. चे को सूचना मिली कि नई भू-अधिग्रहण नीति के अंतर्गत सरकार ने भू-स्वामियों को अर्जित भूमि के बदले कम ब्याजयुक्त ‘बांड’ देने के बजाय मुआवजा बांटने का निर्णय लिया था. इससे नाराज होकर जमींदारों ने भू-वितरण की प्रक्रिया का विरोध कर रहे हैं. विरोधी नेताओं ने इसको ‘साम्यवादी निरंकुशता’ कहकर सरकार के विरुद्ध मोर्चा खोल दिया है. विद्रोहियों को पड़ोस के गैर साम्यवादी देशों सहित अमेरिका का भी समर्थन प्राप्त था. परिणामस्वरूप देश में सरकार विरोधी माहौल बनने लगा. कास्त्रो ने विरोधियों को कुचलने तथा भूमि-सुधारों को सख्ती से लागू करने का दायित्व चे को सौंप दिया. कानून के कार्यान्वन के लिए ‘राष्ट्रीय भूमि सुधार संस्था’ का गठन किया गया. चे उसका प्रमुख कर्ता-धर्ता मनोनीत हुआ. उसको उद्योगमंत्री का पद दिया गया. विद्रोही जमींदारों के दमन तथा भूमि सुधार कार्यक्रम को गति देने के लिए चे ने एक नए सैन्य दल का गठन किया. परिवर्तन के लिए उत्साही युवा तेजी से उस दल में भर्ती होने लगे. बहुत जल्दी उसके सैनिकों की संख्या एक लाख तक पहुंच गई. ‘राष्ट्रीय भूमि सुधार दल’ के सैनिकों से पहले तो उपद्रवी नेताओं, जमींदारों को सख्ती से कुचलने का काम लिया गया. फिर उन्हें जरूरतमंदों के बीच भूमि के बंटवारे का काम भी सौंप दिया गया. क्यूबा में हजारों हेक्टेयर कृषि-भूमि पर अमेरिका की पूंजीवादी कंपनियों का अधिकार था. उनके कब्जे से 4,80,000 एकड़ भूमि मुक्त कराई गई. इससे नाराज होकर अमेरिका ने क्यूबा से चीनी आयात पर प्रतिबंध लगा दिया. चीनी उद्योग क्यूबाई अर्थव्यवस्था की रीढ़ था. अमेरिका को विश्वास था कि इस कदम से क्यूबा सरकार का हौसला पस्त हो जाएगा. लेकिन चे जैसे जनक्रांति से उभरे नेता के लिए अमेरिकी तानाशाही का लोकतांत्रिक विरोध करना असंभव न था. अमेरिका की दादागिरी के विरोध में चे ने 10 जुलाई 1960 को ‘प्रेसीडंेशियल पैलेस’ के समक्ष विशाल प्रदर्शन किया, जिसमें एक लाख से अधिक श्रमिकों ने हिस्सा लिया. अपने भाषण में चे ने अमेरिकी राष्ट्रपति के कदम को उसके ‘आर्थिक आतंकवाद’ की संज्ञा दी दी.
क्यूबा के पुनर्निर्माण के लिए चे एक ओर तो भूमि-सुधार के क्षेत्र में मजबूत पहल कर रहा था, दूसरा मोर्चा उसने शिक्षा के क्षेत्र को बनाया हुआ था. 1959 से पहले क्यूबा में शिक्षानुपात मात्र 60-76 प्रतिशत था. ग्रामीण क्षेत्रों में यह प्रतिशत और भी कम था. शिक्षकों की कमी और सरकारी उदासीनता के चलते किसानों और मजदूरों का बड़ा वर्ग अशिक्षित था. जिसके अभाव में अमेरिकी कंपनियां उनका आर्थिक शोषण करती थीं. शिक्षा की महत्ता को समझते हुए चे ने उसके प्रसार के लिए 1961 को शिक्षा-वर्ष घोषित किया. अपने कार्यक्रम को विस्तार देते हुए उसने एक लाख स्वयंसेवकों के साथ ‘साक्षरता दल’ का गठन किया. इस दल के सदस्यों को नए स्कूल भवनों के निर्माण तथा प्रशिक्षित शिक्षक तैयार करने का दायित्व सौंपा गया. इसके अलावा ‘साक्षरता दल’ के सदस्य आदिवासी किसानों को पढ़ाने-लिखाने की जिम्मेदारी भी उठाते थे. आर्थिक सुधार कार्यक्रमों की तरह ही चे ग्वेरा के ‘क्यूबाई साक्षरता अभियान’ को भी अप्रत्याशित सफलता मिली. इस अभियान के अंतर्गत 7,07,212 प्रौढ़ों को साक्षर बनाने के साथ ही साक्षरता अनुपात को 96 प्रतिशत पहुंचा दिया गया. उच्च शिक्षा के क्षेत्र में क्रांति लाने का काम भी चे ने किया. शिक्षा को जनोन्मुखी बनाने के लिए उसने सभी विश्वविद्यालयों से सकारात्मक सोच अपनाने का आवाह्न किया. ‘यूनीवर्सिटी आॅफ लास विलाज’ में जमा हुए क्यूबा के सभी प्रमुख विश्वविद्यालयों के शिक्षाशास्त्रियों, कुलपतियों को संबोधित करते हुए उसने कहा कि अभी कुछ दिन पहले तक शिक्षा पर सफेदपोश अभिजन का वर्चस्व था. समय आ चुका है, अब हमें अपनी शिक्षानीति बदलनी होगी—
‘हमारी अगली चुनौती धूल-धूसरित किसानों, मजदूरों, कामगारों को शिक्षित करना है. यदि हम इस काम में चूक करते हैं तो कुपित जनता आपके दरवाजे तोड़कर भीतर चली आएगी और आपके विश्वविद्यालयों को ऐसे रंग से रंग देगी, जैसा वह पसंद करती है.’
विश्वविद्यालयों की शिक्षानीति पर टिप्पणी करते हुए 17 अक्टूबर, 1959 को दिए गए अपने महत्त्वपूर्ण भाषण में चे ने कहा था कि हमारे विश्वविद्यालयों ने प्राचीन सामाजिक परिपाटी को कायम रखते हुए अभी तक केवल डा॓क्टर, वकील और न्यायाधीश ही पैदा किए हैं. वे कृषि विज्ञानी, खेती को बढ़ावा देने वाले उत्साही कार्यकर्ता, अध्यापक, रसायनविद् और भौतिकविज्ञानी पैदा करने में अक्षम सिद्ध हुए हैं. उनकी अदूरदर्शिता के चलते हमारे यहां कोई अच्छा गणितज्ञ भी नहीं है. इसलिए शिक्षा-क्षेत्र में आमूल परिवर्तन की गुंजाइश है. उसका मानना था कि शिक्षा के स्तर में सुधार के लिए राज्य को विश्वविद्यालयों के नीति-निर्धारण में हस्तक्षेप करना चाहिए. शिक्षा को जन-जन तक पहुंचाने के लिए समुचित कदम उठाए जाने चाहिए. अपने भाषण में उसने जोर देकर कहा था कि विश्वविद्यालय कोई हाथीदांत से बना आलीशान स्तंभ नहीं है, जिसको समाज से दूर अथवा क्रांति की परिधि से बाहर रखा जाए. यदि ऐसा किया गया तो हमारे विश्वविद्यालय आगे भी वकील ही पैदा करेंगे, जो हमारे लिए पूर्णतः अनावश्यक हैं. उसने शिक्षा सदनों में नए सोच के साथ सकारात्मक कदम उठाने का आवाह्न किया था.
पूंजीवाद पर लगातार हमले से अमेरिका की क्यूबा से नाराजगी बढ़ती ही जा रही थी. इसका कारण वे कंपनियां भी थीं, जिन्हें फिदल कास्त्रो तथा चे ग्वेरा द्वारा राष्ट्रीय पुनर्निर्माण तथा भूमि-सुधार के क्षेत्रों में उठाए गए कदमों के कारण भारी आर्थिक हानि का सामना करना पड़ा था. उनके दबाव में अमेरिका सरकार ने फिदेल कास्त्रो को अपदस्थ करने के लिए सीआईए को सक्रिय कर दिया. उसने आपरेशन ‘बे आ॓फ पिग्स’(सुअरों की खाड़ी) के नाम से क्यूबा के दक्षिणवर्ती तट से अपने सैनिक घुसाने आरंभ कर दिए. यह पूरी तरह अप्रत्याशित कदम था. तो भी फिदेल की छापामार रणनीति के आगे अमेरिका का यह प्रयास नाकाम सिद्ध हुआ. उधर आर्थिक सुधारों को गति प्रदान करने के लिए कास्त्रो ने चे को क्यूबा के केंद्रीय बैंक के अध्यक्ष बनाने के साथ ही वित्त मंत्रालय का दायित्व भी सौंप दिया गया. उद्योग मंत्रालय का दायित्व उसपर पहले से ही था. कास्त्रो के इस कदम से क्यूबा में चे की राजनीतिक हैसियत फिदेल कास्त्रो के बाद दूसरे नंबर हो गई. केंद्रीय बैंक का अध्यक्ष होने के नाते चे करेंसी नोट पर हस्ताक्षर करने का दायित्व चे ग्वेरा का था. नियमानुसार उसको अपने पूरे हस्ताक्षर करने थे, जबकि वह केवल ‘चे’ लिखता था. बहुत से लोगों को यह क्यूबा की करेंसी का अपमान लगा. चे अपने निर्णय पर अडिग रहा. कालांतर में चे के पुराने मित्र रिकार्डो रोजो ने इसपर टिप्पणी करते हुए कहा था कि, चे ने जिस दिन करेंसी और बिलों पर मात्र ‘चे’ हस्ताक्षर किए, उसी दिन उसने इस पूंजीवादी आस्था को चुनौती दे दी थी, जो धन को पवित्र मानती थी.’ अपने एक भाषण ‘आ॓न रिवोल्युशन मेडीशियन’ में चे ने कहा था कि—
मानवमात्र के जीवन का मूल्य धरती के सर्वाधिक धनी व्यक्ति की कुल संपत्ति से भी करोड़ों गुना अधिक है.’
क्यूबा को आत्मनिर्भर बनाने के लिए चे उसको आर्थिक मोर्चे पर सफल बनाना चाहता था. हालांकि उसको यह देखकर बहुत क्षोभ होता था कि देश-भर में लोग नैतिकता को ताक पर रखकर भी धनार्जन को उत्सुक हैं. हर कोई पूंजी की शरण में जाना चाहता है. चे ने पूंजीवाद को ‘भेड़ियों की लड़ाई’ के संज्ञा दी थी, जिसमें एक की जीत दूसरों के पराभव पर निर्भर करती है. अपने निबंध ‘मेन एंड सोशियलिज्म इन क्यूबा’ में उसने कहा था—
‘मानव केवल उसी अवस्था में मनुष्यता के उच्चतम शिखर को प्राप्त कर सकता है, जब वह किसी उत्पादन कार्य के निमित्त स्वयं को उपभोक्ता वस्तु के रूप में बेचे जाने के लिए बाध्य न हो.’
पूंजीवाद को टक्कर देने के लिए समाजवाद जरूरी है. लेकिन वह लोगों की वर्तमान धनलोलुपता के चलते संभव नहीं है. इसलिए मार्च 1965 के अपने लेख ‘सोश्यिलिज्म एंड मेन इन क्यूबा’ में चे ने नए नागरिक भी गढ़ने पर जोर दिया था. उसने जोर देकर कहा था कि समाजवादी अर्थव्यवस्था यदि व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षाओं, लालच, स्पर्धा आदि को छोड़कर सामूहिक कल्याण की ओर उद्यत नहीं होती है तो वह अपने आंतरिक संघर्षों, युद्धों के कारण स्वतः मिट जाएगी. इसलिए वह समाज में ऐसी आमसहमति तथा जीवनमूल्यों की स्थापना चाहता था, जो बेहतर श्रमशक्ति तथा नागरिकों को बढ़ावा देते हों. जहां सहअस्तित्व की भावना नागरिकों के सहज संस्कार का हिस्सा हो. वह मानता था कि व्यक्तिगत लालसाएं इस लक्ष्य को दुर्गम बना सकती हैं. चूंकि घृणा, द्वैष, स्वार्थपरता मानव-व्यक्तित्व का हिस्सा हैं, इसलिए समानता, सद्भाव और सहअस्तित्व के लिए निजी लालसाओं एवं अहंता पर नियंत्रण भी आवश्यक है. इसके लिए नागरिकों को आत्मानुशासन में ढलना होगा. विकास को लेकर उसकी धारणा पूरी तरह जनवादी थी. एकदम स्पष्ट सोच, जिसको पूंजीवाद के खात्मे के लिए लागू करना जरूरी था. क्यूबा में साम्यवादी शासन की स्थापना के बाद उसने आर्थिक संचरना पर जोर दिया, उसके पीछे उसका वही क्रांतिधर्मी जनवादी सोच था. नए नागरिक समाज के साथ नई विकास नीति हो तो विकास के बारे में भी नई दृष्टि आवश्यक थी. चे के लिए विकास का अभिप्राय था कि मानवमात्र यह समझ ले कि वह निरा उपभोक्ता नहीं है, उससे बढ़कर भी बहुत कुछ है. समाज के सर्वांगीण विकास के लिए विकास के नए रास्ते भी चुनने होंगे. वे क्या हों इस बारे में चे का सोच एकदम स्पष्ट था—
‘मुक्त अर्थव्यवस्था प्रेरित विकास तथा क्रांतिधर्मी विकास में बड़ा अंतर है. पहले में समाज का धन कुछ भाग्यवान व्यक्तियों के हाथों में तक सिमटकर रह जाता है, जो सरकार के निकट तथा लेन-देन की कला में निपुण हैं. दूसरे में राज्य की कुल धन-संपदा जनता की विरासत होती है.’
क्यूबा की राजनीति में चे की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी. अमेरिका की संस्था सीआईए द्वारा पोषित घुसपैठ नाकाम हो चुकी थी. क्यूबा की राजनीति पटरी पर आने लगी थी. इसके बावजूद चे को विराम नहीं था. उसको लग रहा था कि क्रांति का लक्ष्य अब भी अधूरा है. समाजवाद की मुख्य स्थापना कि प्रत्येक से उसके सामथ्र्य के अनुरूप तथा प्रत्येक को उसकी आवश्यकता के अनुसार, में व्यक्ति और समाज का संबंध निर्धारित है. इसमें दोनों परस्पर पूरक हैं. पर व्यक्ति और समाज के हितों में समन्वय कैसे बनाया जाए. कैसे अकेले व्यक्ति और बाकी समाज के हितों में तालमेल संभव हो जाए, विद्वानों के समक्ष यह चुनौती हमेशा से ही रही है. चे का विश्वास था कि समिष्ट और व्यक्तिष्ठ में तालमेल बनाए रखने के लिए स्वयंसेवी भावना और इच्छाशक्ति का होना जरूरी है. इसके लिए वह अपनी ओर से उदाहरण प्रस्तुत करना चाहता था. इसलिए वह अविराम कार्यरत रहता. मंत्रालय के काम के पश्चात वह वह निर्माण कार्य, यहां तक कि सांझ ढले गन्ने की कटाई के लिए भी हाजिर हो जाता था. वह बिना पलक झपकाए घंटों तक निरंतर कार्य कर सकता था. आवश्यक मीटिंगें अक्सर आधी रात को बुलाता तथा भोजन करने का काम चलते-चलते निपटाता था. इसका अनुकूल प्रभाव दूसरे श्रमिकों-कामगारों पर भी पड़ता था. क्यूबा के नवनिर्माण में जुटा प्रत्येक श्रमिक अपने हिस्से का काम करने के बाद ही विश्राम के लिए जाता था. राष्ट्र की आवश्यकता को समझते हुए चे ने वेतनवृद्धि को उत्पादकता से जोड़ा हुआ था. जो कामगार अधिक कार्य करता, उसको अधिक आनुपातिक वेतन दिया जाता, इसके विपरीत यदि कोई कामगार निर्धारित से कम उत्पादन करता तो उसकी वेतन कटौती भी की जाती थी. इस नीति को श्रमिकों और कामगारों पर आरोपित करने के चे के तर्क भी अपने थे. उसका कहना था कि—
‘यह तर्क कोई मायने नहीं रखता कि एक बार में कोई व्यक्ति कितने पाउंड मांस खा सकता है, अथवा कोई कितनी बार समुद्र किनारे सैर के लिए निकल सकता है, अथवा अपने वर्तमान वेतन से कोई व्यक्ति विदेश से कितने आभूषण खरीदकर ला सकता है. असली बात तो यह है कि अपनी अधिकाधिक आंतरिक संपूर्णता एवं दायित्व-भावना के साथ कोई व्यक्ति अपने किए के प्रति कितना आश्वस्त है.’
अपने कर्म के प्रति आश्वस्ति, किए से संतोष…आत्मतुष्ठि चे के लिए सदैव अलभ्य रही. वह अपने आप से असंतुष्ठ रहने वाला प्राणी था. देश और समाज के लिए लगातार कार्य करते हुए भी उसको बराबर यह लगता था कि अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है. माक्र्स का मानना था कि किसी एक देश अथवा राज्य में समाजवाद की स्थापना से ही व्यवस्था परिवर्तन का लक्ष्य पूरा नहीं हो जाता. समाजवादी आंदोलन को उस समय तक चलते रहना चाहिए, जब तक दुनिया के किसी भी देश में गैरसमाजवादी तंत्र मौजूद है. लातीनी अमेरिका के बाकी देशों में मौजूद औपनिवेशिक शोषण को देखकर उसको फिर अपने लक्ष्य का एहसास होने लगता था.

समाजवाद के लिए वैश्विक अभियान

जैसे-जैसे क्यूबा में साम्यवाद के प्रति लोगों का आकर्षण बढ़ रहा था, अमेरिका सहित अन्य पश्चिमी देशों की निगाहों में उसके प्रति रोष भी बढ़ता जा रहा था. पूंजीवादी सरकारें आर्थिक नियंत्रण के परंपरागत औजारों जैसे आयात पर पाबंदी, आयात शुल्क में वृद्धि, आयात में कटौती को कई-कई बार आजमा चुकी थीं. इसके बावजूद फिदेल के नेतृत्व और चे के अनुशासन में बंधा वह देश उत्तरोत्तर प्रगति की ओर अग्रसर था. पश्चिमी देशों से हुए आर्थिक नुकसान की भरपाई के लिए चे ने पूर्वी देशों से व्यापारिक संबंध बनाना आरंभ कर दिया था. इसके लिए उसने साम्यवादी देशों की यात्राएं कीं. 1960 में उसने चेकोस्लोवाकिया, उत्तरी कोरिया, पूर्वी जर्मनी, हंगरी आदि देशों की यात्रा कर वहां की सरकारों के साथ व्यापारिक अनुबंध किए. इससे क्यूबा की पश्चिम पर निर्भरता घटी. इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि आर्थिक-सामरिक ध्रुवों में बंटी दुनिया में क्यूबा पूर्वी देशों पर अतिरिक्त रूप से निर्भर होता गया. चे जहां कई मोर्चों पर कामयाब हो रहा था, वहीं कुछ मामले में असफलताएं भी उसके आगे चुनौती बनकर खड़ी थीं. आर्थिक मुद्दों को लेकर उत्पादन-वृद्धि के लिए श्रमिकों से किया गया उसका नैतिकतावादी आवाह्न भी लगभग असफल सिद्ध हुआ था. उनकी सकल उत्पादकता में कमी आई थी. अतिरिक्त उत्पादन से नकद आमदनी न होने के कारण अनुपस्थिति की दर में भी वृद्धि हुई थी. चे के विरुद्ध दूसरा मोर्चा समाजवाद विरोधी देशों ने खोला हुआ था. वहां की सरकारें उसको असफल सिद्ध करने के लिए रात-दिन एक किए थीं. क्रांतिकारी सरकार को ध्वस्त करने के लिए सीआईए के इशारे पर क्यूबा में की गई आतंकी घुसपैठ यद्यपि नाकाम हो चुकी थी, लेकिन यह चे भी समझता था कि पूंजीवाद के चंगुल में फंसा वह साम्राज्यवादी देश इतनी आसानी से बाज आने वाला नहीं है. अमेरिकी षड्यंत्र की प्रतिक्रिया में अगस्त 1961 में चे ने उरुग्वे में आयोजित ‘आर्गेनाइजेश्न आफ अमेरिकन स्टेट्स’ की एक कांफ्रेंस के दौरान व्हाइट हाउस के अधिकारी रिचर्ड एन. गुडविन के माध्यम से एक पर्चा अमेरिकी राष्ट्रपति जाॅन एफ. केनेडी को भेजा था, जिसमें उसने कटाक्ष करते हुए घुसपैठ के लिए धन्यवाद ज्ञापन किया था. उसने लिखा था—‘प्लेया गिरों(बे आफ पिग) के लिए बहुत आभार. घुसपैठ से पहले क्रांति की रफ्तार कुछ धीमी थी, अब वह पहले की अपेक्षा कहीं अधिक प्रबल है.’
उस बैठक में चे ने अमेरिका के गणतांत्रिक दावे की खिंचाई करते हुए कहा कि वहां गणतंत्र के नाम पर पूंजीवाद का नंगा नांच, रंगभेद जैसी अनेक कुरीतियां है. उसने आरोप लगाया था कि अपनी आर्थिक संपन्नता से बौराया अमेरिका वास्तविक सुधार कार्यक्रमों विरोधी है. इसलिए अमेरिकी विशेषज्ञों ने कभी भी भूमि-सुधार जैसे वास्तविक समाजवादी कार्यक्रमों का कभी समर्थन नहीं किया—
‘संयुक्त राष्ट्र के विशेषज्ञों ने कभी भूमि-सुधार कार्यक्रमों पर विचार नहीं किया. वे सदैव सुविधाजनक मामलों को आगे बढ़ाते रहे हैं, जैसे कि पेयजल की आपूर्ति. थोड़े शब्दों में कहा जाए तो वे टायलेट्स में क्रांति लाने की तैयारी करते हुए नजर आते हैं.’
वैश्विक समर्थन की उम्मीद में निकले चे को बड़ी कामयाबी सोवियत संघ के साथ मिली. सोवियत संघ ने, जो उन दिनों साम्यवादी देशों का अगुआ और विश्व की दूसरी महाशक्ति बना हुआ था, क्यूबा को यथासंभव सहायता प्रदान करने का विश्वास दिलाया, जिसमें विशेषरूप से हथियारों की सहायता थी. हालांकि बाद में अंतरराष्ट्रीय दबाव को देखते हुए सोवियत संघ ने क्यूबा को अपेक्षित हथियार सप्लाई को अवरुद्ध भी किया. 1964 में चे को विश्व-स्तर पर क्रांतिकारी नेता मान लिया गया था. उसी वर्ष दिसंबर में क्यूबाई प्रतिमंडल के नेता के रूप में उसने न्यू यार्क की यात्रा की. संयुक्त राष्ट्रसंघ की सभा को संबोधित अपने अविस्मरणीय भाषण में उसने उसकी रंगभेदकारी दृष्टि की कटु आलोचना की थी. संयुक्त राष्ट्र को रंगभेद की नीति के ललकारते हुए उसने कहा कि—
‘ऐसे लोग जो अपने बच्चों को मार डालते या उनके साथ नित-प्रति भेदभाव केवल इसलिए करते हैं कि उनकी चमड़ी का रंग काला है, वे जो काले लोगों के हत्यारों को मुक्त छोड़ देते हैं, उनको संरक्षण प्रदान करते हैं, इसके साथ-साथ वे लोग जो काले लोगों को महज इस कारण दंडित करते हैं क्योंकि वे मुक्त इंसान की भांति अपने मौलिक अधिकारों की मांग कर रहे हैं—ऐसे लोगों को जो निर्दोषों पर बेशुमार अत्याचार करते हैं, उन्हें स्वतंत्रता का संरक्षक कैसे माना जा सकता है.’
उसी भाषण में चे ने समाजवाद के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दर्शाते हुए आगे कहा था कि—
‘हम समाजवाद की स्थापना चाहते हैं, हमने स्वयं को ऐसे लोगों का हिस्सा घोषित किया है, जिन्होंने शांति के लिए अपना सब कुछ बलिदान किया है. यद्यपि हम माक्र्स और लेनिन के समर्थक हैं, इसके बावजूद हमनें स्वयं को गुटनिरपेक्ष देशों का हिस्सा घोषित किया है, अपने समानधर्मा गुटनिरपेक्ष देशों की भांति हम साम्राज्यवाद से जूझते रहे हैं. हम शांति चाहते हैं. हम अपने नागरिकों को बेहतर जीवन देना चाहते हैं. यही कारण है कि जहां तक संभव हो सका, अमेरिका द्वारा की गई लगातार उत्तेजनापूर्ण कार्रवाही के बावजूद हम खामोश बने रहे हैं. लेकिन हम अमेरिकी शासकों की मनःस्थिति को समझते हैं. वे हमसे हमारी शांति की बहुत बड़ी कीमत वसूलना चाहते हैं. हम उन्हें बता देना चाहते हैं कि वह मूल्य, शांति की वह कीमत जो वे हमसे वसूलना चाह रहे हैं, कभी भी हमारे आत्मसम्मान से बड़ा नहीं हो सकता.’
अपने भाषण के अंत में चे ने लातिनी अमेरिका को 20 करोड़ बांधवों का ऐसा परिवार माना था जो एकसमान त्रासदी का शिकार हंै. जहां भूखे आदिवासी हैं. गरीबी और विपन्नता है. किसान हैं, परंतु उनके पास खेती के लिए जमीन नहीं है, कामगार-श्रमिक-शिल्पकार हैं, परंतु वे पूंजीवाद उत्पीड़न की मार झेल रहे हैं. लेकिन इतने शोषण-उत्पीड़न के बावजूद उनके हौसले पस्त नहीं हुए हैं. उन्होंने अपनी जिजीविषा को, आगे बढ़ने के अपने संघर्ष को विपरीत परिस्थितियों में भी बनाए रखा है. अपने भाषण में उसने अमेरिका के पूंजीवादी शोषण की लगातार कटु स्वर में आलोचना की थी. अपनी उद्देश्यपूर्ण यात्रा के दौरान चे ने उरुवेयन साप्ताहिक के संपादक कार्लोस क्यूजनो को एक पत्र भी लिखा, जिसमें उसने अपने ख्यातिप्राप्त निबंध ‘सोश्यिलिज्म एंड मेन इन क्यूबा’ को नए सिरे से उद्धृत करते हुए अपने पूंजीवाद विरोध के कारणों की व्याख्या की थी. पत्र में उसने लिखा था—
‘पूंजीवाद के नियम-कानून अंधे हैं. ये समाज के बहुसंख्यक वर्ग की समझ से बाहर हैं. ये व्यक्ति केंद्रित भले हों, परंतु मनुष्य इनकी चिंता का विषय नहीं है. वह इनके बीच अपने सामने अंतहीन विस्तार पाता है, जो असलियत से पूरी तरह परे, वायवी होता है….सच्चा क्रांतिकारी प्रेम की महान अनुभूति से प्रेरणा लेता है तथा अपने आचरण से प्रत्येक क्रांतिधर्मी बंधु तक यह संदेश पहुंचाता है: हमेशा यह प्रयत्न करो कि मनुष्यता के प्रति तुम्हारा प्यार और समर्पण तुम्हारे देनंदिन आचरण का हिस्सा बनकर दूसरों के समक्ष एक उदाहरण बन जाए. यही तुम्हें कभी समाप्त न होने वाली, अजस्र ऊर्जा ताकत बनाएगा.’
जनता के नाम चे का अंतिम संबोधन 24 फरवरी, 1965 को एशिया-अफ्रीका एकजुटता के पक्ष में अल्जीरिया में दिया गया भाषण था, जिसमें उसने समाजवादी देशों पर आरोप लगाया था कि वे क्षुद्र स्वार्थों में पड़कर विकसित पश्चिमी देशों के शोषण के प्रति मूक सहमतिपूर्ण रवैया अपनाए रहते हैं. वियतनाम का पक्ष लेते हुए उसने विकासशील देशों का आवाह्न किया था कि वहां कि जनता को पूंजीवाद के पतन के लिए ऐसे ही अनगिनत वियतनाम और बनाने चाहिए. स्पष्ट है कि वह पूंजीवाद विरोध को किसी एक देश अथवा राज्य की सीमाओं से बाहर निकालकर उसके लिए वैश्विक माहौल तैयार करने, संघर्ष को अंतरराष्ट्रीय रूप देने का समर्थक था. संगठित विरोध की ताकत को वह न केवल स्वयं समझता था, बल्कि उसके पक्ष में लोगों को सतत जागरूक बनाए रखता था. जिसके कारण बीसवीं शताब्दी के क्रांतिद्रष्टाओं में उसका नाम अमर है. अंतिम संघर्ष
क्यूबा सरकार में चे का पद दूसरे स्तर का था. वह चाहता तो एक वैभवयुक्त जीवन जी सकता था. जैसा कि उसके समकालीन अनेक माक्र्सवादी नेता करते आए थे, जिन्होंने माक्र्सवाद को सत्ता तक पहुंचने के लिए एक सीढ़ी के रूप में उपयोग किया था. चे के लिए वैचारिक प्रतिबद्धता उसके निजी सुख, वैभव-विलास से कहीं बढ़कर थी. वह माक्र्स की इस अवधारणा का समर्थक था कि मजदूर का कोई देश नहीं होता और समाजवाद की सफलता किसी एक राष्ट्र की सीमा में रहकर संभव नहीं है—का समर्थक था. इसलिए क्यूबा में कामयाबी के बाद भी उसने सत्ता से अपनी निलिप्र्तिता को बनाए रखा. वह स्वयं को एक छापामार योद्धा या अधिक से अधिक छापामार दल का सेनापति मानता था. इसलिए जब भी उसको अवसर मिला, औपनिवेशिक शोषण के शिकार रहे देशों में समाजवाद की स्थापना के लिए प्रयास करता रहा. 1965 में वह कांगो की यात्रा पर निकल गया. उसको लगता था कि अफ्रीका की कमजोर राजसत्ता के चलते वहां क्रांति की नई इबारत लिख पाना संभव है. उसका इरादा विरोधियों को छापामार युद्ध का प्रशिक्षण देकर वहां क्रांति का शंखनाद करना था. किंतु अफ्रीका की जलवायु उसके स्वास्थ्य के लिए हानिकर सिद्ध हुई. वहां पहुंचते ही उसका दमा बिगड़ गया. लगभग सात महीने तक वह उससे जूझता रहा. इस बीच उसने विद्रोह को आगे बढ़ाने की यथासंभव चेष्टा की. लेकिन नाकामी ही हाथ लगी. कांगो और अफ्रीका के अपने अनुभवों के बारे में उसने आगे चलकर लिखा कि—

‘मनुष्यता असफल सिद्ध हुई है. वहां संघर्ष की इच्छाशक्ति ही नहीं थी. नेतागण भ्रष्ट थे. दो टूक शब्दों में कहूं तो वहां कुछ करने की गुंजाइश ही नहीं थी.’
क्रांति की संभावनाओं की खोज के लिए चे ने नकली दस्तावेज के आधार पर पूरे यूरोप, उत्तरी अमेरिका आदि देशों की गोपनीय यात्राएं भी कीं. उन यात्राओं के बारे में उसके अभिन्न मित्र और क्यूबा के शासक फिदेल को भी कोई जानकारी नहीं थी. 1966 के आरंभिक महीने चे ने लगभग अज्ञातवास में बिताए. किसी को उसके बारे में कोई जानकारी न थी. हालांकि इस अवधि में वह क्रांति की संभावनाएं तलाश रहे विद्रोहियों से, मिला भी. परंतु वे मुलाकातें उसकी यात्रा की भांति सर्वथा गोपनीय थीं. उसके बारे में तरह-तरह के अनुमान लगाए जाते रहे. 1967 में मई दिवस के अवसर पर समाचारपत्रों में छपा कि चे लातीनी अमेरिका में क्रांति की नई जमीन तैयार करने में जुटा है. चे को मानो रोमांच में आनंद आता था. 1966 में उसने अपनी पहचान छिपाने के लिए अपने हुलिया में ही बदलाव कर लिया था. अपनी सदाबहार ढाढ़ी-मूंछ, जिससे वह दुनिया के युवाओं की धड़कन बन चुका था, उसने एक झटके में मुंडवा लिए थे. 3 नवंबर, 1966 को वह छिपते-छिपाते बोलेविया पहुंच गया. यह यात्रा उसने अडोल्फ मेना गोंजलज के नाम से, स्वयं को एक व्यापारी के रूप में की थी, जिसका अमेरिकी राज्यों के साथ मोटा कारोबार था. बोलेविया में वह मोनटेन के सूखे जंगलों में पहुंचा. उसका इरादा वहां पर एक छापामार दल का गठन करने का था. चे को अपने बीच पाकर बोलेविया के साम्राज्य-विरोधी संगठनों में नई जान आ गई. स्थानीय नेताओं की सहायता से चे को वहां प्रारंभिक सफलता भी मिली. उनके साथ मिलकर चे ने ‘नेशनल लिबरेशन आर्मी आॅफ दि बोलेविया’ का गठन किया, जिसके सदस्यों की संख्या कुछ ही अवधि में पचास तक पहुंच गई. कुछ ही महीनों में उस संगठन ने गुरिल्ला लड़ाई के लिए आवश्यक सभी हथियार जुटा लिए. बोलेविया के सैन्य टुकड़ियों को कई मोर्चों पर छकाकर चे ने वहां अपनी उपस्थिति दर्ज भी करा दी थी. इससे बोलेविया सरकार सतर्क हो गई. उसने छापामार दल पर काबू पाने के लिए अपनी सेना झोंक दी. सितंबर के महीने में सेना और विद्रोही छापामार दलों में जबरदस्त संघर्ष हुआ, जिसमें एक गुरिल्ला नेता की मौत हुई.
चे का बोलेविया अभियान अपेक्षित सफलता प्राप्त न कर सका, इसके कुछ कारण थे. वस्तुतः बोलेविया में अपना क्रांति-अभियान आरंभ करने से पहले उसको उम्मीद थी कि उसका सामना केवल वहां की सेना से होगा. वह इस तथ्य से अनजान था कि अमेरिका ने सीआईए के विशेष छापामार सैनिकों का एक दल बोलेविया भेजा हुआ था. उसके साथ आधुनिक हथियारों की एक खेप भी रवाना की थी. सीआईए के दल ने बोलेविया के जंगलों में घेरा डाला हुआ था. दूसरे चे को यह विश्वास था कि बोलेविया में उसको स्थानीय असंतुष्टों, विशेषकर मेरियो मेंजो की नेतृत्ववाली ‘बोलेविया कम्युनिस्ट पार्टी’ का समर्थन प्राप्त होगा. जबकि ऐसा न हो सका. बोलेविया के संघर्ष में पराजय का कारण छापामार संगठनों के बीच तालमेल तथा संपर्क साधनों की कमी भी थी. क्यूबा सरकार की ओर से उन्हें दो शार्टवेव ट्रांसमीटर दिए गए थे, लेकिन वे खराब निकले. परिणाम यह हुआ कि चे अपने सैनिकों के साथ आवश्यकता पड़ने पर संबंध न बना सका. एक और कारण यह भी था कि छापामार युद्ध छेड़ने से पहले चे और उसके साथी स्थानीय लोगों से अच्छे संबंध बना लेते थे, जिनसे उन्हें संघर्ष के दौरान मदद मिलती थी. बोलेविया में उन्हें इस प्रकार की कोई सहायता स्थानीय नागरिकों की ओर से नहीं मिली थी. स्थानीय नेताओं का चे के छापामार साथियों के साथ वैसा ही संबंध था, जैसा कांगों में उसके साथ हुआ था. चे ने अपनी डायरी में लिखा भी कि बोलेविया के किसानों की ओर से उन्हें कोई मदद न मिली, बजाय इसके वे छापामार योद्धाओं के बारे में बोलेविया के सैनिकों को उनकी खबर पहुंचाते रहे.
बोलेविया में चे को न केवल पराजय का सामना करना पड़ा, बल्कि वह उसके जीवन का अंतिम अभियान भी सिद्ध हुआ. उसकी पराजय के पीछे भी क्यूबा का योगदान था. फेलिक रोड्रिग्ज को घर के भेदी की भांति अमेरिका की गुप्तचर संस्था ने विशेष रूप से भर्ती किया था. रोड्रिग्ज का चाचा बतिस्ता सरकार में मंत्री था. क्यूबा में साम्यवादी क्रांति की सफलता के बाद उसको निर्वासित कर दिया गया था. चे के बोलेविया अभियान के दौरान वह सीआईए का विशेष सलाहकार बना हुआ था. 7 अक्टूबर 1967 को चे के छापामार योद्धाओं का पीछा कर रहे बोलेविया के विशेष सैन्यबल को एक गुप्तचर की ओर से उनके ठिकाने की खबर दी गई. उस समय चे अपने साथियों के साथ यूरो नामक संकरी खाड़ी में छिपा हुआ था. सीआईए के नेतृत्व में बोलेविया की सेना ने पूरी घाटी को घेर लिया. लगभग पचास छापामार योद्धाओं को पकड़ने के लिए बोलेविया सेना के 1800 सैनिक झांेक दिए गए. विद्रोही गुरिल्ला दस्ते के केंद्रीय घटक का नेतृत्व बोलेविया के विद्रोही छापामार नेता सीमोन क्यूबा सरबिया के हाथों में था, जो अपने साथियों के बीच ‘विली’ के नाम से जाना जाता था. विली के नेतृत्व में छापामार सैनिक बोलेविया सेना के घेरे को तोड़ने का प्रयास कर रहे थे. गुरिल्ला योद्धाओं तथा बोलेविया की सेना के बीच चल रही आंख-मिचैनी के बीच विली खाड़ी के सिरे तक लगभग पहुंच ही चुका था. चे उसके पीछे था. तभी मशीनगन से छूटा एक बम चे के पास फटा. उसकी टांग बुरी तरह घायल हो गई. आवाज सुनते ही विली तेजी से पलटा तथा उस चट्टान के पीछे पहुंचा जहां चे घायल पड़ा था. चे को अपने कंधों पर उठाकर विली तेजी से भागा. तब तक सेना की दूसरी टुकड़ी उनके सामने आ चुकी थी. वे दोनों ओर से घिरे थे. घायल होने के बावजूद चे और विली सेना के सामने डट गए. आमने-सामने की लड़ाई में एक गोली चे की खोपड़ी से टकराई और वह बुरी तरह घायल हो गया. दूसरी गोली ने उसकी एम-2 कारबाइन को क्षत-विक्षत कर दिया. मशीनगन के गोले से उनके चारों ओर आग धधक उठी थी. अदम्य साहस और वीरता का प्रदर्शन करते हुए विली ने चे को एक बार फिर उठा लिया और एक चट्टान के पीछे लिटाकर स्वयं मोर्चा संभाल लिया. सेना का दायरा सिकुड़ता जा रहा था. चे और उसके साथी बुरी तरह घिर चुके थे. विली बहादुरी से डटा हुआ था. सहसा एक सैनिक ने पीछे से आकर बंदूक की बट से उसके सिर पर वार किया. उसके गिरते ही कई और सैनिक वहां पहुंच गए. विली को बंदूक की नोंक पर ले लिया गया. तभी एक सैनिक की नजर चे पर पड़ी. उसके साथ और भी कई सैनिक चे की ओर झपटे. तब विली ने उन्हें ललकारा—‘तमीज से पेश आना, वह कमांडेंट ग्वेरा है.’
सैनिक ग्वेरा और विली को निकटवर्ती गांव ला हिग्वेरा में ले गए, वहां उन दोनों को एक स्कूल के छोटे कमरों में अलग-अलग बंद कर दिया गया. अगले दिन चे ने बोलेविया के अधिकारियों से बातचीत करने से मना कर दिया, लेकिन वह पहरा देने वाले सिपाहियों से बतियाता रहा. उस समय उसकी हालत बहुत खराब थी. गोली उसकी दाहिनी टांग में लगी थी. उसके बाल धूल-मिट्टी में सने थे. कपड़ों पर कीचड़ की मोटी पर्त सवार थी. चमड़े की पौशाक फटकर घुटनों तक लटक रही थी. प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार बदहाली के बावजूद चे का सिर स्वाभिमान से तना था. उसने चारों ओर खड़े सिपाहियों पर एक नजर डाली तथा उनमें से एक से धू्रमपान के लिए कुछ भी मांगा. इसपर एक सिपाही ने तंबाकू की पुड़िया उसको थमा दी. चे ने मुस्कराकर उसका धन्यवाद किया. चे के हाथ बंधे थे. पर उसका हौसला पस्त नहीं हुआ था. 8 अक्टूबर की रात्रि को जैसे ही बोलेवियन सेना के अधिकारी एस्पीनोसा ने प्रवेश किया, चे ने उसको जबरदस्त ठोकर मारी. अप्रत्याशित हमले से एस्पीनोसा का सिर दीवार से जा टकराया. गुस्से में उसने चे का पाइप छीन लेने का आदेश दिया.
अगली सुबह चे ने गांव की स्कूल टीचर से मिलने की इच्छा व्यक्त की. इसपर 22 वर्षीय जूलिया कोर्टेज उससे मिलने पहुंची. चे ने उसको स्कूल की दुर्दशा की ओर संकेत करते हुए कहा कि वहां का वातावरण जरा भी शिक्षानुकूल नहीं है. उसने कहा कि एक ओर शिक्षासदन की ऐसी दुर्दशा है, दूसरी ओर बोलेविया के अधिकारी मर्सिडीज गाड़ियों में घूमते हैं. उसने अपनी लड़ाई के उद्देश्य के बारे में बताया—‘यही वह वजह है, जिसके कारण हम लड़ रहे हैं.’ कोर्टेज ने बाद में चे के बारे में कहा था कि बातचीत के दौरान वह उसकी आंखों से आंखें नहीं मिला सकी. वे बेहद चमकीली मगर शांत थीं. उनसे प्यार छलकता था. कोर्टेज यह भी समझती थी कि वे आंखें अधिक दिन चमकने वाली नहीं हैं. अगले ही सुबह बोलेविया के निरंकुश राष्ट्रपति रेने बेरिनटोस ने चे को मृत्युदंड का आदेश सुना दिया. हालांकि अमेरिका सरकार चाहती थी कि उसको पनामा लाकर पूछताछ की जाए. लेकिन बोलेविया सरकार क्रांतिकारी चे को युद्ध में घेरकर मार डालने का श्रेय लूटना चाहती थी. उसको यह भी डर था कि चे के छापामार सैनिक उसको छुड़ाने के लिए बड़ी कार्यवाही कर सकते हैं. इसलिए अदालती कार्रवाही के फेर में पड़े बिना ही पूर्वनिर्धारित दंडात्मक कार्यवाही की गई. अमेरिका की नाराजगी से बचने के लिए चे के सैन्य कार्रवाही में मारे जाने का नाटक गढ़ा गया. चे को मृत्युदंड देने के लिए नियुक्त सार्जेंट मेरियो टेरन को को आदेश दिया गया कि वह कुछ ऐसा बानक बनाए, जिससे लगे कि चे की मौत अपने छापामार सैनिकों के साथ सैनिक कार्रवाही के दौरान हुई है. टेरन शराबी था. उसके तीन हमनाम दोस्त चे के छापामार दस्ते की कार्यवाही के दौरान मारे गए थे. इसलिए चे को मृत्युदंड देने के लिए उसने स्वयं अनुरोध किया था.
मृत्युदंड दिए जाने से कुछ ही क्षण पहले बोलेविया के सैनिक ने उपहास वाले अंदाज में चे से प्रश्न किया था—‘क्या तुम सोचते हो लोग तुम्हें हमेशा याद रखेंगे?’ कठिन से लगने वाले इस प्रश्न का उत्तर देने में चे को एक सेकिंड न लगी. उसने तत्काल कहा—‘नहीं, मैं बस क्रांति की अमरता के बारे में सोचता हूं.’46 कुछ देर बाद सार्जेंट टेरेन वहां पहुंचा. उसको देखते ही चे की आंखों में आक्रोश झलकने लगा. वह जोर से चिल्लाया—‘मैं जानता हूं, तू मुझे मारने आया है. गोली चला, कायर!’ उसने बोलेविया के सैनिकों को सुनाते हुए आगे कहा—‘यह समझ लो कि तुम सिर्फ एक आदमी को मारने जा रहे हो….क्रांति अमर है.’ ये दोनों प्रसंग दर्शाते हैं कि चे को क्रांति की अमरता पर अटूट विश्वास था. चे के उकसाने पर टेरेन नाराज हो गया. उसने अपनी रायफल से तत्काल गोली दाग दी. चे जमीन पर गिर पड़ा. चीख को दबाने के लिए उसने अपने दांत कलाई में गढ़ा दिए. गुस्साया टेरेन उसपर लगातार गोलियां दागता रहा. कुल मिलाकर उसने नौ गोलियां दागीं, जिनमें से पांच उसकी टांगों में, एक कंधे, एक छाती पर लगी. आखिरी गोली जिसने चे का प्राणांत किया, वह उसके गले को चीरती हुई निकली थी. एक विलक्षण छापामार योद्धा, मनुष्यता का परमहितैषी, समाजवादी चे वहीं शहीद हो गया. उसने जो रास्ता चुना था, उसकी अंततः यही परिणति थी. इसका पूर्वानुमान भी उसे था. इसलिए अपने लिए समाधिलेख की परिकल्पना उसने मृत्यु से बहुत पहले कर ली थी. एशियाई, अफ्रीकी एवं लातीनी अमेरिकी देशों की त्रीमहाद्वीपीय बैठक में उसने कहा था—
‘मौत जब भी हमें गले लगाए, उसका स्वागत खुले मन से हो. बशर्ते, हमारा समरघोष उन कानों तक पहुंचे जिन तक हम पहुंचाना चाहते हैं; जबकि हमारा दूसरा हाथ हथियारों को सहला रहा हो.’
चे के साथ पकड़े गए विली को पहले ही गोली से उड़ाया जा चुका था—‘मुझे चे से पहले मरने का गर्व है.’ चे द्वारा सुने गए उसके संभवतः यही अंतिम शब्द थे. चे को मृत्युदंड देने से ही बोलेवियन सैनिकों का कोप शांत नहीं हुआ था. उन्होंने चे के शव को कसकर हेलीकाॅप्टर के पैरों से बांध लिया. वहां से वे उसको निकटवर्ती गांव में ले गए, जहां एक पत्थर की शिला पर लिटाकर उसके चित्र लिए गए. चे को मृत्युदंड दिए जाने की सूचना पलक झपकते ही आसपास के क्षेत्र में पहुंच चुकी थी. सैकड़ों नागरिक उसके दर्शन को उमड़ पड़े. उसको देखने पहुंचे सैकड़ों लोगों में से अनेक की प्रतिक्रिया थी कि मृत्युशिला पर लेटे चे की चेहरा ईसामसीह की तरह नजर आ रहा था. उनमें से कुछ ने उसके बाल भी चुपके से ले लिए थे, मानो वे कोई दिव्य अवशेष हों. कुछ ऐसा ही अद्भुत वर्णन आंग्ल कला समीक्षक जाॅन बर्जर के शब्दों में प्राप्त होता है, जो उसने चे की मृत्यु से लगभग दो सप्ताह बाद उसके पोस्ट मार्टम की रिपोर्ट के चित्र देखने के बाद कहे थे. बर्जर ने कहा था कि मृत्युशिला पर लेटे चे का आंद्र मेंटेग्ना की महान चित्रकृति ‘लेमेंटेशन ओवर दि डेड क्राइस्ट’ से मेल खाता था. वह मसीही मौत मरा है—बर्जर का आशय था. चे को मृत्युदंड दिए जाने की सूचना जैसे ही क्यूबा पहुंची वहां शोक की लहर व्याप गई. राष्ट्रपति फिदेल कास्त्रो ने तीन दिन के शोक की घोषणा कर दी. 18 अक्टूबर को लाखों की भीड़ को संबोधित करते हुए कास्त्रो ने कहा था—
‘यदि कोई हमसे पूछे कि आगामी पीढ़ी के रूप में हम कैसे मनुष्यों की कामना करते हैं, तब हमें निस्संकोच कहना चाहिए: उन्हें चे की भांति होना चाहिए….यदि हमसे कोई पूछे कि हमारे बच्चों की शिक्षा-दीक्षा कैसी हो? इस पर बगैर किसी संकोच के हमें उत्तर देना चाहिए: हम उन्हें खुशी-खुशी चे की भावनाओं से ओत-प्रौत करना चाहेंगे….यदि कोई हमसे प्रश्न करे कि हमारे लिए भविष्य के मनुष्य का मा॓डल क्या हो? तब मैं अपने दिल की गहराइयों से कहना चाहूंगा कि वह एकमात्र आदर्श पुरुष चे है, जिसके न तो चरित्र पर कोई दाग-धब्बा है, न ही कर्म पर….’

चे ने हमेशा एक प्रतिबद्ध जीवन जिया. जानलेवा दमा से वह हमेशा जूझता रहा. दमा का दौरा कई बार तो इतना प्राणघातक होता कि चे की जान गले में आ फंसती. कोई और होता तो उस जानलेवा बीमारी से अवसादग्रस्त होकर बैठ जाता. परंतु चुनौतियों का सामना करने, प्रतिकूल स्थितियों में संघर्ष करने तथा डटे रहने की प्रेरणा उसको अपनी मां से मिली थी. या शायद वह दमा ही था, जिसने लगातार हमले करके चे को मृत्यु की ओर से भयमुक्त कर दिया. फ्रांसिसी बुद्धिजीवी रेग्स डब्रे जो कुछ दिन के लिए उसके छापामार दल में रह चुके थे, ने बाद में एक साक्षात्कार के दौरान कहा था कि चे और उसके छापामार योद्धा, ‘जंगल की विकट परिस्थितियों का शिकार थे’. अंततः वे जंगल द्वारा ही ‘लील लिए गए’. डब्रे के अनुसार बोलेविया के जंगल की परिस्थितियां मनुष्य के लिए स्वर्था प्रतिकूल थीं. चे और उसके साथी कुपोषण और बीमारी का शिकार थे. उनके पास दवाइयां खत्म हो चुकी थीं. मच्छरों के काटने से चे तथा उसके साथियों के हाथों और पैरों पर सूजन आ चुकी थी. खुले आसमान के नीचे, तराई के क्षेत्र में संघर्षरत उन 22 छापामार सैनिकों के पास मात्र 6 रजाइयां थीं. इसके बावजूद उनका हौसला पस्त नहीं हुआ था. डब्रे ने चे की प्रशंसा करते हुए कहा था कि प्रतिकूल परिस्थतियों में भी वह लातीनी अमेरिका के सुंदर भविष्य की ओर से आशान्वित था. यह उम्मीद मृत्युपर्यंत बनी रही थी. उसको विश्वास था कि लातीनी अमेरिका के देश एक दिन साम्राज्यवादी अमेरिका के मंसूबों को पहचानकर, पूंजीवादी संघर्ष के विरुद्ध एकजुट होंगे.
मौत तो एक छोटा-सा पड़ाव है. चे ने अपनी डायरी में लिखा था कि वह, ‘फिर जन्म लेगा’ तथा अपने संघर्ष को आगे बढ़ाने के लिए नए सिरे से प्रयत्नरत होगा. चे को डायरी लिखने का शौक था. बोलेविया अभियान के बारे में उसकी हस्तलिखित डायरी प्राप्त होती है, जिसमें 30000 शब्दों में उसने अपने दैनिक अभियान का उल्लेख किया है. डायरी 7 नवंबर 1966, चे के बोलेविया में प्रवेश से आरंभ होती तथा 7 अक्टूबर, 1967 यानी पकड़े जाने से एक दिन पहले तक की उसमें प्रविष्ठियां हैं. आज वे डायरियां एक दस्तावेज हैं, जिनका एक-एक शब्द उसके लेखक की प्रतिबद्धता को दर्शाता है. डायरी में चे ने अपने अभियान की असफलता को स्वीकारा है. उसने लिखा है कि बोलेविया की सेनाओं की नजर में आ जाने के कारण उन्हें अपना अभियान बिना पर्याप्त तैयारी के लिए आगे बढ़ाना पड़ा. उसने अपने साथियों को दो हिस्सों में बांटा, लेकिन आपस में संपर्क न हो पाने के कारण वे दुश्मन सेनाओं से स्वयं को बचा पाने में नाकाम रहे. उसने बोलेविया के साम्यवादी दलों से भी मदद न मिलने पर अफसोस प्रकट किया है.
उल्लेखनीय है कि वोलेविया के समर में चे को मिली पराजय क्रांति की पराजय नहीं थी, न ही उसे पूंजीवाद की जीत उसको माना जा सकता है. हालांकि उसके बाद पूंजीवाद लगातार मजबूत हुआ है, उसने अपने सर्वभक्षी डैने भी फैलाए हुए हैं. पर इसका आशय यह नहीं है कि लोगों ने पूंजीवाद को ज्यों का त्यों स्वीकार कर लिया है. चे की पराजय राजनीतिक अवसरवादिता की कोख से जन्मी थी. उसको उम्मीद थी कि बोलेविया की कम्युनिस्ट पार्टी उसका साथ देगी. इस भरोसे के साथ कुल पचास छापामार योद्धाओं के दम पर उसने अमेरिका की पिट्ठु बोलेविया सरकार पर धावा बोल दिया था. उसने अपना अभियान गुप्त रखा हुआ था, इसलिए बाहर से सहायता की अपेक्षा भी कम ही थी. बोलेविया में कम्युनिस्ट नेताओं ने समाजवादी चे का साथ देने के बजाय अपने देश की पूंजीवादी शक्तियों का साथ देना उचित समझा, जो अमेरिका की मदद के भरोसे मालामाल होने का सपना देख रहे थे. यहां बोलेविया के साम्यवादी दलों की भूमिका नैतिकता की कसौटी पर परखी जा सकती है. लेकिन एक विचारधारा के दम पर गठित पार्टी के नेताओं का वह व्यवहार उसकी बौद्धिक चपलता और अवसरवादिता की ओर इशारा करता है. यह केवल बोलेविया तक सीमित नहीं था, बल्कि इसका प्रभाव-क्षेत्र समूचा विश्व था. उस समय दुनिया में साम्राज्यवादी गढ़ ढहने लगे थे. उपनिवेश आजाद हो रहे थे. वहां संरचनात्मक ढांचों को खड़ा करने की आवश्यकता थी, जिसकी ओर यूरोप की पूंजीवादी कंपनियां गिद्ध-दृष्टि लगाए थीं. उपनिवेशों को आजाद करने में भी उन्हें अपना मुनाफा दिख रहा था. गोया उन देशों को आजाद करने से पहले ही वे उन्हें अपना आर्थिक उपनिवेश बनाने की योजना बना चुकी थीं. उन कंपनियों ने लाभ कमाने की होड़ समाजवादी देशों के नेताओं और उद्यमियों में भी कम न थी. बल्कि कुछ तो लोकमानस की नब्ज को पहचानकर ही समाजवादी खेमे में आ घुसे थे.
चे की बहादुरी इंसानियत के लिए थी. वह पूरे लातीनी अमेरिका को अभिन्न मानता था. अर्जेंटाइना में वह जन्मा अवश्य, परंतु साम्राज्यवाद के विरुद्ध अपने संघर्ष के लिए उसने अपनी पहली कर्मभूमि क्यूबा को बनाया. उसको सफलता मिली, लेकिन क्यूबा में भी साम्यवादी शासन की स्थापना के बावजूद वह रुका नहीं, जबकि फिदेल ने उसको मंत्री पद के साथ अन्य कई दायित्वों से लाद दिया था. चाहता तो वह उसके बाद आराम की जिंदगी जी सकता था. लेकिन माक्र्स के कथन कि साम्यवाद का संघर्ष किसी एक देश में सर्वहारा की जीत से पूरा नहीं हो जाता, से प्रेरणा लेकर वह आजीवन संघर्ष करता रहा. अंततः एक योद्धा की भांति ही वीरगति को प्राप्त हुआ. इसलिए दुनिया में उसके करोड़ों प्रशंसक है. वह युवा पीढ़ी का ‘हीरो’, करोड़ों का प्रेरक और मार्गदर्शक है. तभी तो नेल्सन मंडेला ने चे ग्वेरा को हर उस मनुष्य का प्रेरणास्रोत बताया है, जो स्वतंत्रता को प्यार करता है. उसके जीना और मरना चाहता है. बीसवीं शताब्दी के महान फ्रांसिसी दार्शनिक ज्यां पाल दा सात्र्र ने चे को अपने समय के विलक्षण प्रतिभाशाली, संपूर्णतम व्यक्ति का सम्मान दिया है. ग्राहम ग्रीन के अनुसार चे ने समाज में वीरता, साहस, संघर्ष एवं रोमांच को सुंदरता से अभिव्यक्त किया है. क्यूबा के स्कूलों में बच्चे आज भी प्रार्थना करते हैं कि वे ‘चे की तरह बनेंगे.’ दुनिया-भर के युवकों में चे के प्रति गजब की दीवानगी देखने को मिलती है, जिसका लाभ उठाने के लिए पूंजीवादी कंपनियां ‘चे’ के नाम से उत्पादों की रेंज बाजार में उतारती रहती हैं. उन्हें सिर्फ बाजार चाहिए, प्रतिबद्धता नहीं. बाजार के लिए वे मनुष्यता की बोली भी लगा सकती हैं, लगाती रहती हैं. चे नई पीढ़ी का ‘आइकन’ है. विद्रोह का प्रतीक है. चे के नाम से बिकने वाले उत्पादों में बिकनी, टेटू, टोप, टी’शर्ट, पोस्टर आदि अनेक उपभोक्ता सामान सम्मिलित हैं. दूसरी ओर उसके आलोचकों की भी कमी नहीं है जो चे को हिंसक, कातिल आदि न जाने क्या-क्या कहते हैं.
समाजवाद: एक अपरिग्रही कामना
चे एक बुद्धिजीवी योद्धा था. जिसका दुनिया को लेकर एक सपना था और उस सपने को सच में बदलने का उसका ढंग भी दूसरों से अलग था. सिर्फ अलग, अनूठा नहीं. क्योंकि समाजवाद की स्थापना के लिए सशस्त्र संघर्ष का सहारा तो चे से पहले लेनिन, स्टालिन, ट्राटस्की, माओ जिदांग लेते आए थे. 1848 में ‘कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो’ द्वारा श्रमिक क्रांति का आवाह्न करते समय स्वयं माक्र्स ने सर्वहारा के अधिपत्य हेतु सशस्त्र संघर्ष को उचित ठहराया था, हालांकि बाद में उसने अपनी मान्यताओं में संशोधन भी किया. समाजवादी क्रांति के लिए चे पहले भी कई विचारक, नेता स्वयं का बलिदान कर चुके थे. रोजा लेक्समबर्ग तथा अंतोनियो ग्राम्शी के उदाहरण तो उससे कुछ ही दशक पुराने हैं. इसलिए प्रश्न उत्पन्न होता है समाजवाद के इन प्रखर वक्ताओं, क्रांति-समर्थकों, बलिदानियों के बीच चे का क्या स्थान है? यदि अलग-अलग देशों में क्रांति के बाद के परिदृश्य को देखें तो संघर्ष में सफल होने के बाद लेनिन, स्टालिन, माओ जिदांग आदि का संघर्ष केवल अपने देश तक सीमित था. अपने देश में साम्यवाद की स्थापना के बाद उन्होंने या तो सशस्त्र संघर्ष से विराम ले लिया था अथवा उनका बाकी संघर्ष केवल अंतरराष्ट्रीय कूटनीति तक सिमटकर रह गया था. लेनिन और स्टालिन बारी-बारी से सोवियत संघ के राष्ट्र-अध्यक्ष बने. माओ जिदांग ने चीन की बागडोर संभाली और आज भी उन्हें चीनी गणराज्य के पितामह का गौरव प्राप्त है. इन सभी में एक समानता है कि अपने देश में समाजवादी क्रांति की सफलता के बाद इन सभी नेताओं ने सशस्त्र संघर्ष से किनारा कर लिया था. किंतु चे एक ऐसा समर्पणशील योद्धा था कि क्यूबा सरकार में मंत्रीपद प्राप्त करने के बावजूद संघर्ष में हिस्सा लेता रहा. वह अर्जेंटीना में जन्मा. क्यूबा के साम्यवादी संघर्ष में कामयाब हुआ और बोलेविया में सामाजिक क्रांति के लिए संघर्ष करता हुआ शहीद हुआ. माक्र्स ने कहा था कि मजदूर का कोई देश नहीं होता. चे ने अपने जीवन से सिद्ध किया कि साम्यवाद के योद्धा का भी कोई देश नहीं होता. अर्जेंटाइना में जन्म लेने के बावजूद पूरा लातीनी अमेरिका उसकी चिंताओं का विषय रहा. क्यूबा के लिए समाजवादी आंदोलन में सफल होने के बाद भी वह रुका नहीं, बल्कि कांगो, बोलेविया आदि लातीनी अमेरिकी देशों में पूंजीवादी वर्चस्व की कमर तोड़ने की लगातार कोशिश करता रहा. साम्यवादी योद्धा के रूप में उसका आदर्श स्टालिन रहा. 1953 में ग्वाटेमाला से गुजरते हुए अपनी चाची बीट्रिज को संबोधित एक पत्र में उसने लातीनी अफ्रीका के फल-उत्पादक देशों में साम्राज्यवादी अमेरिका द्वारा किए जा रहे शोषण का उल्लेख किया था. उल्लेखनीय है कि क्यूबा, बोलेविया, कांगो, ग्वाटेमाला सहित कई देश फल उत्पादन में अग्रणी होने के कारण उत्तरी अमेरिका की ‘फलों की टोकरी’ कहे जाते थे. अमेरिका के लिए फलों का व्यवसाय उसकी एक फर्म ‘यूनाइटेड फ्रूट्स’ द्वारा किया जाता था, जिसको अमेरिकी सरकार का पूरा संरक्षण प्राप्त था. पत्र में चे ने लिखा था कि—


‘अपनी यात्रा के दौरान मुझे ‘यूनाइटेड फ्रूट्स’ के आर्थिक उपनिवेशों से गुजरने का अवसर मिला. जिसने मुझे एक बार फिर यह अनुभव कराया कि ये पूंजीवादी जोंक कितने खतरनाक, घाघ और डरावने हैं. इनके शोषण को देखकर मैंने महान कामरेड स्टालिन की तस्वीर के आगे शपथ ली है कि जब तक इन पूंजीपति मगरमच्छों का पूरी तरह सफाया नहीं कर दूंगा, तब तक चैन से नहीं बैठूंगा.’
क्रांति को लेकर चे के कुछ नियम थे. अपने समकालीन माक्र्सवादी विचारकों से पूरी तरह अलग, आदर्श के बिलकुल करीब और मानवीय. अपनी मां को संबोधित एक पत्र में उसने अपने इसी जीवनदर्शन का उल्लेख किया था. पत्र में उसने अपनी मां को लिखा था कि—‘मैं न तो जीसस क्राइस्ट हूं. न ही कोई लोकोपकारक. ओ मेरी अच्छी मां! सच तो है कि मैं क्राइस्ट का विरोधी हूं….अपने समस्त हथियारों और रणकौशल के साथ, मैं उन मुद्दों के लिए जंग छेड़ता हूं जिनमें मुझे अटूट विश्वास है. मैं अपने दुश्मन का खात्मा कर देने में विश्वास रखता हूं, ताकि किसी दूसरे अवसर और स्थान पर मैं उसका शिकार न बनूं.’ चे का संघर्ष आमजन की स्वतंत्रता के लिए था. उस पूंजीवादी वर्चस्व से था जो लोगों को सिर्फ एक उपभोक्ता सामग्री में बदल देना चाहता है. लाभ की उस अवधारणा से था जो समाज में अंतहीन स्पर्धा को जन्म देती है तथा विकास के साथ अमीर-गरीब की खाई को लगातार चैड़ी करती जाती है. चे को अपने ऊपर न तो दंभ था, न अतिरिक्त मोह. वह स्वयं को दूसरों को आजादी सौंपने वाला मानने से भी इनकार करता था. मैक्सिको में एक भारी जनसमूह को संबोधित करते हुए उसने कहा था कि—‘मैं लोगों को आजादी दिलाने वाला नहीं हूं. दूसरों को आजादी दिलाने वाला कोई होता भी नहीं है. जनता स्वयं को स्वयं ही आजाद करेगी.’ चे का संघर्ष पूंजीवाद के विरुद्ध और समाजवाद की स्थापना के लिए था. अपने समकालीन मार्क्सवादी विचारकों से उसके अनेक मतभेद थे. अधिकांश मार्क्सवादी विचारकों का मानना था कि श्रमिक की आर्थिक आत्मनिर्भरता अंततः उसकी सामाजिक स्वतंत्रता को बढ़ावा देगी. चे समाजवाद को केवल आर्थिक समानता तक सीमित करने के पक्ष में नहीं था. एक अवसर पर उसने कहा था—

‘मैं कोरे आर्थिक समाजवाद में रुचि नहीं रखता. हम आर्थिक विपन्नता के विरुद्ध संघर्षरत हैं. मगर इसके साथ-साथ हम लोगों को सामाजिक रूप से अलग-थलग कर देने के भी घोर विरोधी हैं.’
चे का संकेत लातीनी अमेरिका तथा अफ्रीका के अधिकांश देशों में व्याप्त रंगभेद की समस्या की ओर था. माक्र्सवाद के हवाले से उसने आगे कहा था कि मार्क्सवाद का मूल उद्देश्य व्यक्तिगत हितों के स्थान पर सामाजिक हितों को स्थानापन्न करना है. यदि मार्क्सवाद इसमें कोई चूक करता है तो यह मानना होगा कि वह वैचारिक स्खलन का शिकार है. वैसी स्थिति में उससे किसी सामाजिक-आर्थिक क्रांति की अपेक्षा करना व्यर्थ होगा. अपनी प्रासंगिकता को बनाए रखने, भविष्य को संवारने के लिए उसे अपनी कसौटियां स्वयं ही बनानी होंगी. औपनिवेशिक शोषण की ओर संकेत करते हुए प्रगतिशील साप्ताहिक ‘मार्च’ के संपादक कार्लोस क्यूजिनो को संबोधित अपने पत्र में उसने लिखा था—
‘पूरी दुनिया में भुखमरी फैली है, लेकिन लोगों को पास भोजन का इंतजाम करने के लिए धन का अभाव है. विडंबना देखिए कि विकास की दृष्टि से पिछड़े, भुखमरी के शिकार देशों में, खाद्यान्न उत्पादन के रास्तों पर इसलिए रोक लगाई जा रही है ताकि अनाज को ऊंची कीमत पर बेचा जा सके, और लोगों को भूख की बड़ी कीमत चुकानी पड़े. यह लूटतंत्र की कठोरतम व्यवस्था है, जो जनता के आपसी रिश्तों को बिखेरने का काम करती तथा आपसी अविश्वास को बढ़ाती है.
लोगों के बड़े हिस्से को मूलभूत आवश्यकताओं से वंचित कर देना, सामाजिक अन्याय का प्रतीक है. चे के अनुसार अन्याय का आशय लोगों को न्याय के अवसरों से वंचित कर देना है. 1964 में जिनेवा में संयुक्त राष्ट्र की बैठक को संबोधित करते हुए चे ने कहा था कि न्याय ताकतवर लोगों के हितरक्षण का औजार बन चुका है. कानूनी दावपेंच इस वर्ग की स्थिति को और अधिक सुदृढ़ करने के काम आते हैं. इसी का लाभ उठाकर वह नियमों की अपने वर्गीय हितों के अनुकूल व्याख्या करता है, जिससे पूंजी का पलायन लगातार ऊपर की ओर होता चला जाता है. कला और संस्कृति जैसे लोकसिद्ध माध्यम भी इसमें सहायक बनते हैं. बावजूद इसके कि मनुष्य लंबे समय से कला एवं संस्कृति के माध्यम से होने वाले पूंजी अंतरण को रोकने के लिए प्रयासरत रहा है. ऐसी स्थिति में सबसे महत्त्वपूर्ण और क्रांतिकारी चाहत पूंजी के ऊपरी वर्ग की ओर अंतरण को रोकना है. चे का आशावाद युवाशक्ति में उसकी आस्था से जन्मा था. पर वह समझ चुका था कि पूंजीवाद ने युवाओं को भ्रमित कर ऐसी स्थितियां पैदा की हैं, जो सामान्य जन की समझ से पूरी तरह बाहर हैं. उसका मानना था कि पूंजीवादी समाज में जनसाधारण को अनुशासित-नियंत्रित करने के लिए जो नियम बनाए जाते हैं, वे न केवल निर्मम होते हैं, बल्कि लोगों की समझ से बाहर भी होते हैं. स्वार्थ-प्रेरित व्यवस्था उसकी कोई चिंता भी नहीं करती. व्यक्ति ही क्यों पूंजीवाद के जटिल नियम बहुसंख्यक समाज की समझ से भी बाहर होते हैं. वे बिना यह चिंता किए कि आम आदमी उनके बारे में क्या सोचता है, उसको प्रभावित करते हैं. पूंजीवाद यूं तो सभी के लिए समान अवसर प्रदान करने का दावा करता है, परंतु यथार्थ में विनियोजन के बहाने जनसाधारण को धन से वंचित कर दिया जाता है. यह कार्य विकास के नाम पर संपादित होता है, जिसका वास्तविक लाभ पूंजीपतियों और सत्ताकेंद्र पर बैठे लोगों तक ही पहुंच पाता है. अपने सुप्रसिद्ध निबंध ‘सोश्यिलिज्म एंड मेन इन क्यूबा’ में उसने लिखा था कि अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए—

‘पूंजीवाद बल का उपयोग करता है. इसके साथ अपनी कार्यशैली के बारे में लोगों को शिक्षित कर उन्हें उसके प्रति अभ्यस्त भी बनाता है. पूंजीवाद को बनाए रखने के प्रयत्न उन लोगों द्वारा जोर-शोर से किए जाते हैं, जो वर्ग-विभाजन के समर्थक हैं. कभी किसी दैवीय सिद्धांत के सहारे तो कभी भौतिक नियम का हवाला देकर वे वर्ण-विभाजन के औचित्य का समर्थन करते हैं. जनसामान्य को यह भ्रम बना रहता है कि वे ऐसे दैत्य की मनमानी के शिकार हैं, जिससे संघर्ष में जीत असंभव है. जब भी सुधार की कोई संभावना बनती है, पूंजीवाद उसके विरोध के लिए (धर्म और) जातिवाद को आगे कर देता है, जिससे विकास की समस्त संभावनाएं स्वतः धराशायी हो जाती हैं.’
पूंजीवाद का आंतक भले कितना गहरा हो, यह अधिक लंबा खिंचने वाला नहीं है. आने वाला युग समानता पर आधारित होगा, इसलिए कि अति और अनाचार की उम्र बहुत लंबी नहीं होती. समाजवाद की आहट के बीच हम देख सकते हैं कि नए स्त्री-पुरुष जन्म ले रहे हैं. ऐसे लोग जो पूंजीवाद से आजिज आ चुके हैं और किसी भी तरह इससे मुक्ति पाना चाहता है. यह तस्वीर अभी भले ही अधूरी हो. संभव है निकट भविष्य में यह पूरी ही न हो. तो भी यह एक सुखद संभावना है. इसलिए भी कि यह एक अंतहीन प्रक्रिया है. लंबी चलनेवाली प्रक्रिया. जो उस समय तक अनवरत गतिमान रहेगी जब तक शोषण की प्रतीक चालू आर्थिक संस्थाएं धराशायी होकर नए रूप में आ नहीं जातीं. हम देख रहे हैं कि व्यक्तिमात्र समाज के साथ समन्वय स्थापित करने, उसमें घुलमिल जाने के लिए प्रयासरत है. दूसरी ओर वह यह भी कामना करता है कि समाज उसको पर्याप्त महत्त्व दे. उसे समाज के संचालक और सचेतक के रूप में स्वीकारा जाए. ऐसे में जरूरी क्या है? व्यक्ति या फिर समाज? मनुष्य हालांकि पूंजीवाद से मुक्ति पाने के लिए संकल्परत है, लेकिन वह अपनी अस्मिता और पहचान को भी बचाए रखना चाहता है. दूसरों के साथ समन्वय रखते हुए भी वह इसे खोना नहीं चाहता. इसलिए भविष्य व्यक्ति और समाज दोनों को समान महत्त्व देने से बनेगा. वही व्यवस्था यहां टिकी रह पाएगी जो एकल और बहुल दोनों का सम्मान करती हो. यह कार्य एकदम आसान भी नहीं है. इसलिए कि क्रांति समाज की संपूर्ण-संगठित चेतना से ही सफलता प्राप्त करती है. और लोकचेतना की कमजोरी है कि उसको सतत जागरण की आवश्यकता पड़ती है. यही स्थिति अर्थव्यवस्था की भी है. उसको बदलने के लिए समाज के सोच और उत्पादनतंत्र को बदलना पड़ता है. मानव सभ्यता के गहन अध्ययन के बाद माक्र्स भी इसी निष्कर्ष पर पहुंचा था. लेकिन सामाजिक परिवर्तनों की गति बहुत धीमी और ऊपर-नीचे होती रहती है. उसमें नर्मी-तेजी के दौर भी आते ही रहते हैं—

‘वैचारिक मनोभूमि पर किसी उत्पादक गतिविधि से बचे रहना, मनुष्य की भौतिक एवं आध्यात्मिक आवश्यकताओं में अंतर करने के बजाय काफी आसान है. लंबे समय से इंसान की यही कोशिश रही है कि वह कला और संस्कृति के कारण होने वाले सामाजिक प्रथक्कीकरण से स्वयं को मुक्त कर सके. लेकिन आठ या उससे अधिक घंटों तक जी-तोड़ परिश्रम करते हुए वह हर रोज मरता है. थक-हारकर वह पराभौतिक शक्तियों की अनुकंपा में शांति की खोज करने लगता है. समस्या का यह निदान अपने भीतर उसी बीमारी के गंभीर लक्षण समेटे हुए है. इसलिए व्यक्तिमात्र का यह कर्तव्य है कि वह भ्रमित हुए बिना अपने परिवेश से एकात्मता और एकलय कायम करे.’

एकात्मता यानी निजता का विसर्जन—यही समाजवाद का लक्ष्य है. समाजवाद के आलोचकों को जवाब देते हुए चे ने कहा था कि—

समाजवाद अभी युवा है. स्वाभाविक रूप से वह कुछ गलतियां भी करेगा. ऐसा कई बार हुआ है जब क्रांतिकारियों को कुछ समझ ही नहीं आ रहा था. उस अवस्था में थोड़ी-बहुत उम्मीद बुद्धिजीवियों से की जाती है, जो प्रायः परंपरगत तौर-तरीकों से हटकर काम करते हैं. वही नए युग की चुनौतियों का सामना करने का हौसला देते हैं, लेकिन उनकी सामान्य कमजोरी और सीमा यह है कि वे अकसर उसी समाज से प्रेरित-प्रभावित होते हैं, जिसने उन्हें जन्म दिया है.’
बीसवीं शताब्दी के मध्याह्न में ही चे ने लोगों से इकीसवीं शताब्दी के लिए तैयार होने की अपील की थी. उसने कहा था कि हमें इकीसवीं शताब्दी के मनुष्य की रचना करनी चाहिए. यह कार्य यद्यपि यथार्थ में संभव नहीं है. यह एक लंबा लक्ष्य है, जिसको अपना लक्ष्य मानकर हमें उसके लिए सतत प्रयत्नशील रहना चाहिए. लोग पूंजीवादी-साम्राज्यवादी शोषण के विरुद्ध संगठित हो रहे है. उनके दिलों में शोषण के प्रति तीव्र आक्रोश और संघर्ष की चेतना है. उस आक्रोश को हवा देने, संगठित ताकत में बदलने के लिए नए-नए विचार स्वागत को तैयार हैं. समाज की सक्रियता और वैचारिक चेतना ने उसके विकास को भी नए आयाम दिए हैं. आज का समय भले ही संघर्षयुक्त हो, अंधियारा भी हो. लेकिन नए विचारों की रोशनी में भविष्य हमारा है. इसके लिए हम हाथ पर हाथ रखकर नहीं बैठ सकते. हमारा दायित्व है नई पीढ़ी को अंतद्र्वंद्वों से बचाना. उनकी संगठित ऊर्जा को रचनात्मक बनाए रखना. लेकिन मनुष्यता को हर स्थिति में रचनात्मक बनाए रखना असंभव है. इसलिए हमें अपनी आध्यात्मिक मान्यताओं, विश्वासों में आमूल बदलाव लाकर उन्हें कार्य से जोड़ना होगा. सभी को काम करने की आदत डालनी होगी. श्रम को हेय मानने वाली प्रवृत्ति को समाप्त कर उसके स्थान पर श्रम-संस्कृति को स्थापित करना होगा, किंतु सहòाब्दियों के अंतराल में परिस्थितियों से अनुकूलन कर चुकी लोकचेतना स्वतः बदलने वाली नहीं है. विशेषकर आर्थिकी के क्षेत्र में. इसके लिए प्रयत्न करने होंगे. एकजुट होकर उन शक्तियों से जूझना पड़ेगा जो जनसामान्य की दुर्दशा का कारण बनी हैं. बहुसंख्यक वर्ग के श्रम और संसाधनों के दम पर विलासितापूर्ण जीवन बिताती हैं. परिवर्तन की प्रक्रिया असमांग हो सकती है. उसमें त्वरण एवं अवमंदन की स्थितियां भी उत्पन्न हो सकती हैं. किंतु यह तय है कि सदाशयतापूर्ण प्रयत्नों का अनुकूल परिणाम आएंगे ही. जनसाधारण के प्रति सदाशयता, मानव-कल्याण की राह में निस्वार्थ समर्पण, मानवोचित संकल्प और दृढ़ इच्छाशक्ति मनुष्यता के प्रति अगाध प्रेम के बिना संभव नहीं. इसलिए सच्चे क्रांतिकारी के दिल में मनुष्यमात्र प्रति प्रेम छलकना चाहिए. हास्यास्पद कहे जाने का खतरा उठाते हुए भी चे कहता है—
‘हास्यास्पद दिखने का खतरा उठाते हुए भी मैं यह कहूंगा कि सच्चा क्रांतिकारी प्रेम की पवित्र भावना द्वारा निर्देशित होता है. बिना मानवप्रेम के प्रतिबद्ध क्रांतिकारी बन पाना संभव ही नहीं है.’
चे के अनुसार क्रांति की सफलता के लिए मानवमात्र का दिल जीतना आवश्यक है. तभी लक्ष्य की प्राप्ति संभव है. लेकिन केवल प्रेम ही सबकुछ नहीं है. क्रांति की वांछा के साथ प्रयास करने वाले व्यक्ति में नेतृत्व-कौशल भी अनिवार्य है. सफल नायक वही है जिसके दिल में मनुष्यता के प्रति अगाध प्रेम हो, जो आवश्यकता पड़ने पर बिना विचलित हुए ठंडे दिमाग से दृढ़ निर्णय ले सके. क्रांतिकारी का प्यार आदर्श होता है. कुछ पवित्र कारणों और समर्पण-भावना से प्रेरित. प्रेम के साधारण मानक उसको अस्वीकार्य होते हैं. क्रांतिकारी का अपना परिवार होता है, लेकिन आम आदमी की भांति वह अपने बच्चों को प्यार नहीं कर पाता. उसको अपने प्रणय सुख का भी बलिदान करना पड़ता है, ताकि क्रांति-चक्र को स्वतंत्ररूप से आगे बढ़ा सके. उसके मित्रों से अपेक्षा की जाती है कि वे क्रांतियज्ञ में आहुति देने के लिए स्वयं को तैयार रखें. इसलिए कि क्रांति से बाहर क्रांतिकारी का कोई जीवन नहीं होता. उसको प्रतिपल यह समझना होता कि मनुष्यता के प्रति उसका प्यार वायवी न हो. उसे निरंतर कुछ ऐसा सोचना-करना चाहिए, ताकि उसके दिल में मौजूद मनुष्यता के प्रति निष्ठा ठोस कार्यरूप धारण कर सके. दूसरे लोग उससे प्रेरणा लें. यदि ऐसा नहीं है तो इससे क्रांतिकारी अपने मकसद में कमजोर पड़ सकता है. उसका अभियान अधूरा रह सकता है.
सफल क्रांति के बाद भी आवश्यक नहीं कि सभी समस्याएं तत्काल सुलझ जाएं. प्रगतिगामी शक्तियां एक बार पराजित होकर दुबारा सक्रिय हो सकती हैं. उनपर अंकुश लगाने के लिए क्रांति की सफलता के बाद भी क्रांतिकारी को अपने अभियान में सक्रिय रहना पड़ सकता है. अतः यदि कोई मनुष्य यह सोचता है कि अपनी पूरी जिंदगी क्रांति को न्योछावर कर देने के बाद उसको उसकी समस्त चिंताओं से मुक्ति मिल जाएगी, पारिवारिक अभावों तथा रोजमर्रा की समस्याओं का समाधान हो चुका होगा, तो यह मान लेना चाहिए कि उसने क्रांति के उद्देश्य को सीमित कर दिया है. उस अवस्था में एक न एक दिन वह अपने कर्तव्य से विमुख हो जाएगा. क्रांतिकारी को अपने लक्ष्य के प्रति बलिदान के लिए सदैव तत्पर रहना चाहिए. उसको यह समझना चाहिए कि क्रांति और वीरतापूर्ण कार्यवाहियों की ऊंची कीमत चुकानी पड़ती है. क्रांति लंबी चलने वाली प्रक्रिया है. यह कम से कम उस समय तक जारी रहनी चाहिए जब तक प्रत्येक नागरिक क्रांति के उद्देश्यों को समझकर, विरोधी शक्तियों से टकराने को तत्पर न हो जाए. चे के अनुसार सबसे अंतिम और महत्त्वपूर्ण क्रांतिकारी चाहत है—‘मनुष्यमात्र को उसकी विरक्तियों से मुक्त कर देना.’ दूसरे शब्दों में अपनी आकांक्षाओं के दमन को रोकना तथा राजनीतिक-आर्थिक गतिविधियों में अपनी सार्थक भूमिका के निर्वाह के लिए सदैव तत्पर रहना. यह तभी संभव है जब आर्थिक संसाधनों पर राज्य का नियंत्रण हो. और राज्य लोकतांत्रिक व्यवस्था से अनुशासित होता हो. चे के अनुसार समाजवादी व्यवस्था में मनुष्य, स्पष्ट मानकीकरण के बावजूद, मनुष्यता के सर्वाधिक निकट होता है.
विरक्ति की बेड़ियां कटते ही सामाजिक प्राणी होने के नाते मनुष्य उन कारणों को समझने लगता है, जो उसके शोषण की वजह हैं. श्रमिक अपनी भूख के साथ-साथ मुक्तिचेतना की आवश्यकता को समझने लगता है. इससे नई संस्कृति का जन्म होता है, समानांतर संस्कृति. जहां मनुष्य पूंजी के आधार पर बने संबंधों से मुक्त होता है. जहां आर्थिक उपलब्धियां उसकी सामाजिक हैसियत को प्रभावित नहीं करते. नई संस्कृति के विकास के लिए आवश्यक है कि मनुष्य अपने कार्य और संकल्पों को नया रूप दे. मनुष्य को उपभोक्ता समझे जाने वाली प्रवृत्ति से मुक्ति मिले. ऐसी व्यवस्था का विकास हो जिसमें प्रत्येक नागरिक के कर्तव्य पूर्वनिर्धारित हों. उत्पादनतंत्र पर समाज का अधिकार हो तथा मशीन को उस स्थल से अधिक महत्त्व प्राप्त न हो, जहां काम किया जाता है. यदि ऐसा होगा, तभी पूंजीवाद अपनी उन परिभाषाओं को बदलने पर विचार कर सकता है, जिनके आधार पर वह लोगों का शोषण करता है. मूल्य का नियम पूंजी और उत्पादन के शाश्वत अंतःसंबध को ही नहीं दर्शाता, वह पूंजीवाद की एकाधिकारवादी नीति का भी फलन है. असली मसला व्यक्तिमात्र को खुशी प्रदान करने का है—

‘यह बात कतई मायने नहीं रखती कि व्यक्ति-विशेष के पास खाने के लिए कितने किलोग्राम मीट है, या साल में कोई व्यक्ति कितनी बार समुद्री सैर के लिए जा सकता है, अथवा अपनी एक दिन की मजदूरी से आप अपनी पसंद की कितनी खूबसूरत वस्तुएं खरीदकर घर ला सकते हो. असली मसला व्यक्तिमात्र की सुखानुभूति का, उसके दिल में मौजूद संपन्नताबोध और संपूर्ण दायित्वबोध को विस्तार देने का है.
क्रांतिपथ पर सफलता युवाशक्ति की मदद के बगैर संभव नहीं. फिदेल कास्त्रो को लिखे गए एक पत्र में क्यूबा के उस क्रांतिकारी ने लिखा था—‘सामाजिक परिवर्तन के लिए प्रतिबद्ध युवाशक्ति ही हमारी आशा का एकमात्र केंद्र हैं. यही वह मिट्टी है जिससे हमें अपनी अपेक्षाओं की दुनिया का निर्माण करना है. हमें अपनी उम्मीदें युवाशक्ति के मन में बिठा देनी होंगी तथा उसको अपने साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने के लिए तैयार करना होगा. उसको यह अच्छी तरह से समझा देना होगा कि क्रांतिपथ पर आगे बढ़ने का अभिप्राय है—जिंदगी अथवा मौत—
‘क्रांति यदि सच्ची है तो उसमें एक ही चीज प्राप्त हो सकती है—जीत या फिर मौत!’
चे का लक्ष्य समाजवाद की स्थापना करना था. वह लातीनी अमेरिकी देशों में उत्तरी अमेरिका के पूंजीवादी साम्राज्यवाद द्वारा किए जा रहे शोषण का नंगा रूप देख चुका था. ग्वाटेमाला, कांगो, क्यूबा, बोलेविया आदि देशों में उसने पूंजीवाद के विरुद्ध अपने संघर्ष को आगे बढ़ाने का काम भी किया था. उसको उम्मीद थी कि साम्राज्यवाद से लड़ाई में बाकी देश और संगठन भी उसकी मदद को आगे आएंगे. पूंजी-आधारित साम्राज्यवाद से चे का संघर्ष किसी एक देश या राज्य की सीमा तक बंधा हुआ नहीं था, बल्कि उन सभी देशों तक विस्तृत था, जो औपनिवेशिक शोषण का शिकार थे. चे जानता था कि उसका संघर्ष पूरा नहीं हुआ है. उसको अपनी गलतियों का भी भली-भांति एहसास था. अपनी बेटी हिल्डा को उसके दसवें जन्मदिवस 15 फरवरी 1966, पर संबोधित एक पत्र में उसने लिखा था—
‘याद रखना, तुम्हारी जिंदगी में संघर्ष से भरे कई वर्ष अभी आगे हैं. औरत होने के बावजूद तुम्हें अपने हिस्से के संघर्ष को आगे बढ़ाना होगा. इस बीच तुम स्वयं को तैयार कर सकती हो. तुम अभी से क्रांतिकारी बनो, तुम्हारी उम्र में इसका अभिप्राय है कि तुम्हें अधिक से अधिक पढ़ना है, जितना संभव हो उतना पढ़ना है, और तुम सदैव इस प्रकार की चुनौतियों से जूझने को तैयार रहो….तुम्हें स्कूल में सर्वश्रेष्ठ बनने के लिए संघर्ष करना है. हर मामले में सबसे आगे, इसका मतलब तुम अच्छी तरह से जानती हो: अधिक से अधिक अध्ययन और क्रांतिकारी रवैया. दूसरे शब्दों में अच्छा आचरण, गंभीरता, क्रांति के लिए प्रेम, नेतृत्व-सामथ्र्य. तुम्हारी उम्र में मैं उस रास्ते पर नहीं था, लेकिन मैं एक भिन्न समाज में रहता था, जहां आदमी ही आदमी का दुश्मन था. तुम्हें एक अलग युग में रहने का अवसर प्राप्त हुआ है, तुम्हें इसका लाभ उठाना चाहिए.’
चे ने माक्र्सवाद से प्रेरणा ली. उसको आदर्श मानकर अपना संघर्ष जारी रखा. उससे पहले रूस में लेनिन, स्टालिन तथा चीन में माओ जिदांग ने राष्ट्रवादी सरकारों के विरुद्ध जनसंघर्ष का नेतृत्व किया था. बदले में लेनिन और स्टालिन ने बारी-बारी से रूस की सत्ता का सुख भोगा, माओ जिदांग ने चीन में एक राष्ट्रनायक और राष्ट्राध्यक्ष का सम्मानित जीवन जिया. जबकि चे ने अपना देश छोड़कर क्यूबा के संघर्ष में सिर्फ अपनी सिद्धांतनिष्ठा के कारण हिस्सा लिया था. साम्यवादी सरकार बनने के पश्चात फिदेल ने चे को क्यूबा सरकार में सम्मानित पद भी दिया. वरिष्ठता क्रम में उसकी स्थिति दूसरे नंबर की थी. इसके बावजूद चे को सत्ता की राजनीति कभी पसंद नहीं आई. वह आजन्म एक छापामार योद्धा बना रहा. क्यूबा में रहकर और बाद में ग्वाटेमाला, कांगो, बोलेविया में उसने समाजवाद की स्थापना के लिए सतत संघर्ष किया. वहां वह असफल हुआ. शायद इसलिए कि उन देशों में फिदेल जैसे सहयोगी सेनानायक का अभाव था. शायद इसलिए कि अमेरिका के पूंजीवादी साम्राज्यवाद द्वारा पोषित-संरक्षित सत्ताओं से टकराने के लिए जिस तरह के जनसमर्थन की आवश्यकता पड़ती है, उन देशों में उसका अभाव था. कांगो और वोलेविया में तो जिन साम्यवादी दलों से उसको सहायता की आस थी, वे संघर्ष के दौरान उदासीन बने रहे. वह एक आदर्शवादी क्रांतिकारी विचारक और छापामार नेता था. अपने लक्ष्य के प्रति सदा सतर्क. इसलिए सत्ता सुख और अन्यान्य प्रलोभन उसको बांध नहीं सके थे. मानवमात्र की स्वतंत्रता के समर्थक चे का कहना था कि—‘घुटनों के बल चलकर जीने से मर जाना बेहतर है.’
मनुष्यता के संरक्षण हेतु संघर्ष की अनिवार्यता को समझते हुए उसने कहा था कि हमें ‘यथार्थवादी होना चाहिए, लेकिन हमें असंभव की कामना भी करनी चाहिए.’58 अपने सिद्धांतों के प्रति आजन्म प्रतिबद्ध रहकर उसने एक योद्धा की भांति ही स्वयं बलिदान किया. वह जीवन में हर पल संघर्ष करता रहा. कभी अपने जानलेवा दमा से, कभी मनुष्यता के दुश्मनों, असमानमता के पक्षकारों से. और कभी साम्राज्यवाद से जो पूंजीवाद की शक्ल में दुनिया के गरीब और विकासशील देशों को अपने अधीन करता जा रहा था. संघर्ष की अपरिहार्यता को लेकर चे का मानना था कि—
‘हमें हर दिन संघर्ष करना चाहिए, उस समय तक संघर्ष करना चाहिए जब तक मनुष्यता के प्रति हमारा प्रेम हकीकत में न बदल जाए.’
चे जुलाई 1959 में भारत आया था. यहां उसने दिल्ली, कोलकाता आदि शहरों का दौरा किया था. भारत के बारे में चे के विचार मिले-जुले थे. हवाना वापस लौटने के बाद उसने अपनी भारत-यात्रा को लेकर एक रिपोर्ट लिखी, जो वहां के समाचारपत्र ‘वरदे ओलिवो’ में 12 अक्टूबर 1959 को प्रकाशित हुई थी. रिपोर्ट में चे ने भारत की आजादी की प्राप्ति में महात्मा गांधी के योगदान तथा नेहरू की प्रशंसा करते हुए इस देश के बारे में अपने विचारों को भी व्यक्त किया था—
‘यह बहुबिध और बहुत बड़ा देश अनेक प्रथाओं और रूढ़ियों का देश है. जिन समस्याओं में हम जी रहे हैं, उनसे उपजे विचार उन प्रथाओं और रूढ़ियों से बिलकुल भिन्न हैं. हमारा सामाजिक-आर्थिक ढांचा एक-सा है. गुलामी और औपनिवेशीकरण का वही अतीत, विकास की सीध की दिशा भी वही. इसके बावजूद कि ये तमाम हल काफी मिलते-जुलते हैं और उद्देश्य भी एक ही है, फिर भी इनमें रात-दिन का अंतर है. एक ओर जहां भूमि-सुधार की आंधी ने कांपाग्वेड़(क्यूबा) की जमींदारी को एक ही झटके में हिलाकर रख दिया और पूरे देश में किसानों को मुफ्त में जमीन बांटते हुए वह सफलतापूर्वक आगे बढ़ रही है: वहीं महान भारत अपनी सुविचारित और शांत पूर्वी अदा के साथ बड़े-बड़े जमींदारों को वहां के किसानों के लिए भूदान कर उनके साथ न्याय करना सिखा रहा है. दरअसल जो किसान उनकी खेती-बाड़ी को जोतते-बोते हैं, उन्हीं को एक कीमत अदा करने के लिए राजी कर रहा है. इस प्रकार एक ऐसी कोशिश हो रही है कि इस समूची मानवता में जो समाज जितना अधिक आदर्शमय और संवेदनशील, साथ में सबसे गरीब भी है, उसकी गरीबी की ओर असंवेदनशील दरिद्रता का प्रवाह किसी तरह अवरुद्ध हो सके.’
चे का सपना तो पूरी तरह हकीकत में नहीं बदल पाया, किंतु उसका संघर्ष अवश्य हकीकत बन गया. जिससे आज भी करोड़ों लोग प्रेरणा लेते हैं. वह माक्र्सवाद को समर्पित बीसवीं शताब्दी का शायद सबसे प्रतिबद्ध विचारक-योद्धा था. चे के बाद क्रांतिकारी समाजवाद की डोर लगभग कट-सी गई है. वह कुशल लेखक और विचारक था, जिसको छापामार युद्ध में विशेषज्ञता प्राप्त थी. इस विषय को लेकर उसने एक पुस्तक ‘गुरिल्ला वारफेयर’ भी लिखी थी. विद्रोही नेता चे एक श्रेष्ठ कवि भी था. बोलेविया अभियान की असफलता को लेकर उसने एक कविता भी लिखी थी. पत्नी अलीडा को संबोधित वह कविता उसकी आखिरी वसीयत के समान है. ‘हवा और ज्वार’ शीर्षक से लिखी गई यह कविता उसके आदर्शवादी सोच की ओर इशारा करती है—
हवा तथा ज्वार के विरुद्ध यह कविता मेरा संदेश तुम्हें सुनाएगी
छह सुरीले स्वरों छिपा है यह संदेश
दृश्य जिसमें भरी है कोमलता(घायल पक्षी के समान)
गहरे-गुनगुने पानी जैसी व्याकुलता
अंधेरा कक्ष जिसमें मेरी कविता की रोशनी है.
बेहद घिसा अंगुशताना, तुम्हारी उदास रातों के लिए और
एक चित्र हमारे बच्चों का
पिस्तौल की अतिसुंदर गोली, जो सदैव मेरा साथ निभाती है तथा
बच्चों की गहरी, प्रच्छन्न, कभी न मिटने वाली याद
जो कभी हम दोनों से ही जन्मी थी
जीवन के वे क्षण जो अभी शेष हैं मेरे लिए
ये सब में खुशी-खुशी क्रांति के नाम करता हूं.
हमारी एकता को सलामत रख सके, ऐसा उससे शक्तिशाली कोई नहीं.
कविता में चे ने सब कुछ क्रांति के नाम समर्पित करने को कहा था. वैसा उसने किया भी. औपनिवेशिक शोषण से मुक्ति तथा जनकल्याण हेतु क्रांति की उपयोगिता को उसने न केवल पहचाना, बल्कि उसके लिए आजीवन संघर्ष करता रहा. अंततः उसी के लिए अपने जीवन का बलिदान भी किया. उसकी वैचारिक निष्ठा श्लाघनीय थी. बुद्धि और साहस का उसमें अनूठा मेल था. विचार के साथ-साथ उसने समरक्षेत्रा में भी अनथक, अद्वितीय, वीरतापूर्ण संघर्ष किया. समाजवादी क्रांति का औचित्य सिद्ध करने के लिए वह लगातार वैचारिक लेखन करता रहा. समाजवाद और औपनिवेशिक शोषण पर दिए गए उसके भाषण आज एक वैश्विक बुद्धिसंपदा हैं. निष्पृह नेता तथा निर्भीक विचारक का गुण उसको अपने समकालीन विचारकों एवं नेताओं से अलग सिद्ध करता है. वह आदर्श क्रांतिकारी था. उसका संघर्ष किसी एक देश के लिए न होकर समूची मनुष्यता के हित में था. इसीलिए उसे वयस्कों और युवाओं में समान लोकप्रियता प्राप्त है. उसकी यही विलक्षणता उसे बीसवीं शताब्दी के विश्व के 25 महानतम व्यक्तित्वों में सम्मानित स्थान पर प्रतिष्ठित करती है ..............
- ओमप्रकाश कश्यप